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एकूणपण्णासमो संधि
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सीतादेवी का मुखकमल नहीं पानेवाली अमरपंक्ति सुख नहीं दे रही है। वह उन पर आक्रमण करती है परन्तु वे उसको नहीं हटातीं। वह करकमलोंसे एकदम लग जाती है। इस प्रकार एक तोमरों द्वारा जारी और दूसरे दुःख से संतप्त परमेश्वरी देवीको वन में बैठे हुए देखा, मानो समस्त नदियोंके बीच गंगानदी हो। इस बीच हनुमान एकदम प्रसन्न हो उठा कि इस विश्व में एकमात्र वह धन्य हैं कि जो इस स्त्रीको मानते हैं (सीता जिनकी स्त्री है) और जिसे न परकर रावण मर रहा है । अलंकारों से रहित होकर भी यह सुन्दर है, यदि इसे अलंकृत कर दिया जाए तो तीनों लोकों को मोह ले। इस प्रकार सीताकी प्रशंसाकर और अपनेको आकाशमें छिपाकर जो अंगूठी राम ने भेजी थी, उसे उसने नीचे गिरा दिया। हर्षको पोटलीकी भाँति वह जानकी की गोद में आ गिरी ॥॥१-१० ॥
[१०] रामको अंगूठी देखकर सीतादेवी हर्षाभिभूत होकर कोमल-कोमल हँसने लगीं। (यह देखकर ) उनकी सहेलियोंका भाग्य बढ़ने लगा । ( बस ) त्रिजटाने तुरन्त जाकर रावणसे कहा, "आज तुम्हारा जीवन सफल है, आज तुम्हारा राज्य निष्कंटक हो गया। आज तुम्हारे दस मुख सार्थक हैं । आज तुमने, हे देव, चौदह रत्न प्राप्त कर लिये। आज आप अपने छत्र और ध्वज-दंड ऊँचा कर दें। आज छहों खण्ड भूमि का भोग कीजिये। आज मत्त गजघटका प्रसाधन किया जाय। आज ऊंचे अश्वोंपर सवारी कीजिये । देव, आज आपकी प्रतिज्ञा पूरी हो गई, क्योंकि भट्टारिका सीतादेवी आज हँस रही हैं। शीघ्र ही अपना सुखद मांगलिक