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पञ्चालीसमो संधि गया। एक ओर हनुमान और राम आसीन थे, मानो मनमोहन वसन्त और काम ही हों। जाम्बवन्त और सुग्रीव भी ऐसे सोह रहे थे मानो इन्द्र और प्रतीन्द्र दोनों ही बैठे हों, परममित्र लक्ष्मण और विराधित भी, स्थिर और स्थूल चित्त नमि-विनमिकी तरह लगते थे । सुभट अंग और अंगद भी ऐसे सोहते थे मानो चन्द्र और सूर्य ही अवतरित हुए हों। राजा नल नील ऐसे बैठे थे मानो एकासन पर यम और वैश्रवण बैठे हों। रणमें समर्थ गय, गवय और गवाक्ष भी ऐसे लगते थे मानो गिरिवरमें रहनेवाले मिह हों। और भी एक-से-एक विशालशरीर धीर प्रचण्ड वीर पाम बैठे थे। इसी अन्लरमें जयश्रीके कुलगृह रामने हनुमानकी प्रशंसा करते हुए कहा, "आज मेरा मनोरथ सफल है, आज मेरा भाग्य है. आज भेरी सेना प्रचण्ड है, क्योंकि आज ही चिन्तानागरमें पड़े हुए मुझे हनुमान रूपी नाव मिलो ।।१-१०।।
(१४) पवनपुरके मिलनेपर हमें त्रिलोक ही मिल गया। सत्रुकी मेना में इसका भार कोई भी धारण नहीं कर सकता।" यह सुनकर, जयकारपूर्वक, हनुमानने रामसे कहा, "देव देव ! इस
मुन्द्रगमें बहुनसे रत्न हैं। यहाँपर सिंहों में भी सिंह हैं। जहाँ जान्त्रबन्त, नान, अंग और अंगद निरंकुश मत्त और मदगजकी
रह हैं: जहाँ मुग्रीव, कुमार विराधित जैसे अतुल वीर जय. लक्ष्मीका प्रमाधन करने वाले हैं । समुन्नतमान गवय और गवाक्ष है, और भी अनेक एक से एक सुभटप्रधान हैं उनमें मेरी गिनती बनी ही है जैसी मिहों के बीच में कुरंग की। लेकिन तब भी आपके अवसरका निस्तार करूंगा। आदेश दीजिये किसे मारूँ, युद्ध में किसके नान और अहंकारको नष्टकर दुनिया में तुम्हारे यश का