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पउमचरिउ
एकहिँ णिचिह्न हजुवन्त राम मण-मोहण णाएँ वसन्त-काम ॥२॥ जस्व सुग्गीच संहन्ति ते विणं इन्द्र-पविन्द व के वि ॥ ३ ॥ सोमिति - विराहिब परम मिस । शमि विणमि नाई थिर-थोर वित्त ॥४॥ अङ्गय सुइद्ध सहम्ति वे विं । णं चन्द्र सूर- प्रिय अपरेवि ॥ ५५॥ | पाल-नील-नरिन्द णिविट्ट कैम एक्कासणं जम बसवण प्रेम ॥ ६ ॥ गय-वय-गवणख वि रण-समन्य । णं वर पाणण अवर वि एक पचण्ड वीर । थिय पाहि पवर एथन्तरें जय सिरि-कुलहरेण । शृणुवन्तु पसंसिड
गिरिवरत्थ ||७||
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सरीर धार ॥ ८ ॥ इलहरेण ॥२॥
यत्ता
'अजु मणोरह अज्जु दिहि महु साहणु अशु पंचण्ड । चिन्ता-साय पडियमा दु
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पवण- पुर्खे मिलिए मिलियड तलोक्कु वि । रिवहँ से ज्यों एग्रहों घुर धरण एकक वि' ॥१॥
सं निसुर्णे वि जयकार करतं । जाणड़-कन्तु वुसु हम ||२|| 'देव देव बहु-स्यण वसुन्धर । अस्थि एयु केसरिहि मि केसरि ॥३॥ जि अम्बव-जल-लिङ्गङ्गय गं मुक्कुस मन्त महाराय ||४|| विराहिय असुल-मक्ष जय-छन्त्रि-पसाहिब ||५|| सुहदेवकेक पहाणा ||६|| कुरमु जेह ||७||
जहिं सुम्गीवकुमार
गवय-गवख
समुण्णय माणा । अरण वि ह किर केहल | सीहहुँ म
वहिँ उ क
सों वि तुहार
अवसरु सारमि दे आसु
देव को मारमि ||
माणु मरदूद्ध कासु र भक्तड । जर्गे जस- पडछु सुहारउ वज्ज' ||६||