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तिवण्णासमो संधि थीं। कोई भारसे मस्तक झुकाये हुए थे, काई हींसते हुए घोड़ीपर .और कोई मद भरते हुए उन्मत्त हाथियोंपर, कोई रथ और शिविका यानपर, और कोई प्रवर विमानोंपर आरूढ़ हुए । कोई अपनी पनियोंसे मिल रहे थे, कोई रणमें जानेसे रोक लिया गया। किसाने अपना पको यह कहकर डाँट दिया, "केवल एक स्वामी के कार्यकी इच्छा करो।' आगे इन्द्रजीत था और पीछे निशाचर की सेना । मानो दोजके चन्द्र के पीछे तारागण लगे हीं ॥१-१०॥
E५] मासे पाया, “अरे मामी दद हो गये ? कहो कितने अस्त्र हैं, रणके सब हथियार स्थपर चढ़ा लिये हैं न ? इसपर सारथीने उत्तर दिया "देव ! शीघ्र प्रहार कीजिये, पाँच चक्र और सात उत्तम धनुष हैं। अनिर्दिष्ट गर्ववाली, दस सुन्दर तलवार हैं। बारह झस और पन्द्रह मुद्गर हैं। रणमं दुर्धर सोलह गदा है। बीस गढ़ा और चौबीस त्रिशूल हैं, शत्रु-विरोधी तीस भाले हैं । पैंतीस घन फारुक, बावन तीखे अर्धेन्दु, साठ सेले, ससर खुरुपा और चौदह कणप चढ़े हुए हैं । अस्सी त्रिशक्ति, नब्बे भुसुंढि सौ-सौ बाणोंके परिमाणको जानता हूँ । और किसीका परिमाण मैं नहीं जानता : बारह निगड और सोलह विद्याएँ भी रथमें हैं, ये वे ही विद्याएँ थी जो युद्ध में इन्द्रसे जा भिड़ी थीं ।।१-१०॥
[६] यह सुनकर इन्द्रजीतने उस ओर रथ बढ़वाया जहाँ हनुमान था। (वह रथ ऐसा लग रहा था) मानो धरतीको
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