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दुषण्णासमो संधि था । जब हनुमान उसे युद्धमें जीत नहीं पाया तो वह अपने में आश्चर्यचकित रह गया। वह रावणके पुत्र कुमार अक्षयकी स्फूर्ति की यह प्रशंसा करने लगा कि यह मेरी अपेक्षा अधिक बलवान है । देवता भी जिसकी गतिका पार नहीं पा सकते, उसके साथ मैं कैसे युद्ध करूँ ? यशके लोभो इसे मैं किस प्रकार आहत करूँ
और राम तक सीता देवीकी कुशलवार्ता कैसे ले जाऊँ । इस प्रकार हनुमान अपने मनमें संकल्प-विकल्प कर ही रहा था कि कुमार अक्षयने अपने मंत्री अवष्टंभ द्वारा यह कहलवाया, "अरे पवनपुत्र, क्या चिंता कर रहे हो, यदि अपने प्राणोंसे भयभीत नहीं हो, और दूसरे, जबतक इन्द्रजीत आता है, उसके पहले ही मैं तुम्हें नष्ट कर देता हूँ।" यह सुनकर हनुमान कुद्ध हो उठा। उसने शत्रुकी छातीमें तीर मारा। उसके प्रहारसे राक्षस मूर्छित हो गया। बड़ी कठिनाईसे जिस किसी तरह जब उसकी मूर्छा दूर हुई तो उसने अपनी अक्षय विद्याका चिंतन किया । वह उसके पास उसी तरह आ गई जिस प्रकार ऋद्धि, देवत्व प्राप्त होनेपर केवलज्ञानी परम सिद्धके पास आ जाती है. ।।१-१०॥ - [७] सुभटकुमार अक्षयने कहा, "चिंतन करनेपर भी तुम नहीं समझ पा रही हो, लो इसके साथ लड़ो" | तब नर और देवताओंमें पूज्य उस विद्याने हँसमुख होकर कहा, "अरे मंदोदरीके नेत्रप्रिय लंकानरेशके पुत्र कुमार अक्षय, तुमने जो कुछ कहा है उसे करनेकी मेरी इच्छा क्यों नहीं है । मैं अपने सिरपर चत्रको भी झेल सकती हूँ। कुमार अक्षयके कुपित होनेपर मैं आधे ही पलमें समुद्रका शोषण कर लें। इन्द्रके इन्द्रत्वको दल दूँ और मेरु पर्वतको हाथकी अंगुलीसे टाल दूँ । परन्तु इन सबकी अपेक्षा एक बात सबसे बड़ी है, और वह यह कि गुरुका कहा