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पत्रवण्णासमो संधि
किया था। घरपर वसुहार बरसे और आपने जटायुका आल्यान सुना था । और एक पहचान यह भी है कि देव, आप भाईके पीछे गये थे" ||१-६।।
[१०] यह सुनकर, राम हर्षित शरीर हो उठे, उन्होंने पूछा, "अरे हनुमान, बताओ तुम वहाँ कैसे पहुँचे। इस अवसरपर अपने आसनपर बैठे हुए, नेत्रानन्ददायक महेन्द्रने हसकर कहा, "अरे इसका नादास पछुत भारी है. आदरणीय आप सुनें. इसने जो-जो साहस किया है। राजा महादका पुत्र, रणमें अजेय पयनञ्जय है, उसे मैंने अपनी लड़की अंजनीसुन्दरी दी थी, वह वरुणके ऊपर चढ़ाई करने के लिए गया था, वह बारह बरसमें एक बार, स्कन्धावारसे वास देकर उससे मिला । परन्तु पवनका माताने ईर्ष्या के कारण कलंक लगाकर अंजनाको घरसे निकाल दिया, मैंने भी उसे प्रवेश नहीं दिया, वह वनमें चली गई । वहीं यह उत्पन्न हुआ । उसी वैरका स्मरणकर, आपके दूत कार्यके लिए आकाशमार्गसे जाते हुए इसने हमारे नगरको ध्वस्त कर दिया
और मुझे भी इसने स्त्री और पुनके साथ पकड़ लिया। सैकड़ों सुभट भग्न हो गये और हाथियों का झुण्ड दिशाओंमें भाग गया। इसका इतना रणचरित्र, हे देव मैंने देखा" ||१-१०॥
[११] यह सुनकर, तीन कन्याओंके साथ, दधिमुख राजाने उसकी प्रशंसा करते हुए कहा-"स्वयं यदि पुरन्दर भी आये, परन्तु इसके चरित्रको कौन पा सकता है। दो महामुनि प्रतिमा योगसे अपने ध्यानमें आठ दिनसे स्थित थे । अत्यन्त निकट, एक और स्थानपर ये मेरी तीनों लड़कियां बैठी हुई थी। इतने में वनमें आग लग गई, और वह चारों ओरसे आगकी लपटीमें आ गया । धक-धक करती और धुआती हुई, धीरे-धीरे वह आग गुरुओं के