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पञ्चालीसमो संधि उठी । एक पर मानो वज्र ही टूट पड़ा हो तो दूसरी पर पुलक चढ़ आया। एकके मनमें प्रलाप उठा तो दूसरे के मन में बधाईकी बात आई। एकका शरीर निश्पनन हो गया तो दूसरीको समस्त वेदना चली गई । एकाका हृदय पल-पल में टूटने लगा, तो दूसरी पल-पल में आश्वस्त होने लगी। एकका मुखकमल कुम्हला गया, दूसरीका अधरदल हैंस उठा। एककी आँखों में पानी भर आया, दुसरी हर्ष से देख रही थी । एकका स्वर संगीतमय हो रहा था
और एक अन्य करुण विलाप कर रही थी। एकका राजकुल विमन हो उठा, दूसरीका पूर्णचन्द्रकी तरह बड़ने लगा। पवनपुत्र हनुमानके शरीरका आधा भाग आँसुओंसे आई हो रहा था और आधा हर्षसे पुलकित ॥१-११॥
[७] खरकी लड़की, बार-बार मूछित हो उठती । चन्दनका लेप करने पर उसे चेतना आई। वह विलाप करती हुई ऐसी उठी, मानो छिन्नकुसुम चन्दनको लता ही हो । "हे तात, तुम्हें किसने मार दिया। विद्याधर होकर भी तुम्हारा घात हो गया । शूरोंके भी शूर, अकलंक, यशस्वी, विद्याधरोंके कुलरूपी आकाशके चन्द्र, हे भाई, हे सहोदर, मुझसे बात.करो। हे माँ, मुन्न विलाप करती हुई को तुमने भी क्यों छोड़ दिया।" यह सुनकर शब्द-अर्थ और शास्त्र में पारंगत कुशल पंडितोंने कहा, "क्या तुमने जगमें प्रसिद्ध जिनागममें यह नहीं सुना कि जो जीव उत्पन्न होता है, उसका नाश भी अवश्य होता है ? जलबिन्दुकी तरह धुंधल में पड़े हुए जीव को जो पंछ दिखाई देता है, वहीं बहुत साहसकी बात है, उसे कोई सहाग नहीं चाँध पाता, आता और जाता है. वैसे ही जैसे