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अचालीसमो संधि
१०६ उपमा दी जाय ! हे नाथ, युद्धमें मैं तुमसे पराजित हुई। अच्छा हो यदि आप सुझसे पाणिग्रहण कर ले। अपने मनमें यह विचार कर तीरपर अपना नाम अंकित कर इस प्रकार छोड़ा मानो प्रिय के पास अपना दूत भेजा हो ॥१-६।।
[१४] जब हनुमानने अक्षर पढ़े तो शुभंकर वह हृदयमें निराकुल हो उठा। उसने भी भारी स्नेह जतानेके लिए अपना नाम लिखकर बाण भेजा। बाण देखते ही प्रवर धनुप ग्रहण करनेवाली लंकासुन्दरीने परितोषके साथ प्रवर स्थूलबाहु हनुमानका आलिङ्गन कर लिया। उन दोनोंका वहीं पर विवाह हो गया। सुन्दरके साथ सुन्दरी ऐसे सोह रही थी मानो सुन्दर गज के साथ हथिनी ही हो । मानो दिनकरके साथ संध्या हो, या मानो रत्नाकरके साथ गंगा हो, या मानो सिंहके साथ सिंहनी हो, या मानो लक्ष्मणके साथ जितपद्मा हो । अब क्षण-क्षण कितना और वर्णन किया जाय, बार बार. यही कहना पड़ता है कि उनके समान वे ही थे । इसी बीच में हनुमानने समस्त सेनाको स्तम्भित और मोहित कर अचल बना दिया, इस आशंकासे कि कहीं कोई सुरवर जनोंके मनको सतानेवाले रावणसे जाकर कह न दे॥१-६
[१५] इस तरह शत्रुसेनाको मोहित कर और अपनी सेनाको धीरज देकर और जिनवर मंगलका उच्चारणकर हनुमानने उस लंकासुन्दरीके भषनमें प्रवेश किया। और उसने उसके राजकुल में रातभर रतिसुखका आनन्द उठाया । प्रातःकाल होते ही वह बड़ी कठिनाईसे वहाँ से चला, उस सुन्दरने सुन्दरीसे प्रस्थानके समय उसी तरह पूछा जिस तरह लक्ष्मणने बनमालासे