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पउमचरिड
'लइ जामि कन्त रावणहाँ पासु । सहुँ चलेंण करेवी सन्धि तासु ॥५|| किं भनइ विहीसणु भागकण् । घणवाहणु मउ मारीचि अण्णु ॥६॥ कि इन्दद्द किं अक्खयकुमारू । किं पनामुद रणे दुण्णिवार ॥७॥ पुस्तियाँ मा का बुद्धि कासु 1 को बलहाँ मिच्चु को रावणासु ।
पत्ता पुणु पुशु वि भणेब्बर इचयणु लहु अप्पि परायउ तिय-रयणु । अप्पणउ करेपिणु दासरहि स ई भुहि गोसावण महि' ॥६॥
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[४६. एक्कूणपण्णासमो. सन्धि ] परिणेपिण लडासुन्दरि समरें महाभय-भीसगहों। सो मारुई रामापुसण वरु पाइसरह विहीसंगहों ।
सुरवहु - यणान्दयरु।
(स-स - रामा - ग-म-नि-नि-नि-स-स-नि-धा) समर-सएहि णिज्यूध-भरू।
(म-म-गा-म-गा-म-म-धा-स-नी स-धा-स-नी-स-धा)॥ पबर - सरीरू पलम्ब-भुड।
(स-स-स-स-ग-ग-म-म-नि-नि-स-नि-धा) लापईसाह पक्षण-सुउ।
(म-म-मा-म-गा-म-धा-स-नी धा-स-नी-स-धा) | चम्न्में वि भवणई रावण-मिबहुँ । इन्दा - भाशुकण - मारिबाहु ॥२॥ जण- मण - णयमाणन्द - जणेरठ । बरु पइसरह विहीसण - केरठ ॥३॥ तेण वि अभुत्थाणु करेंप्पिणु । सरहनु गाहालिस वेप्पिणु 141 मारुड पइसारित उपासणे । णं सु-परिहर जिणु जिण-सासणें ||५!! कासि - जन्मेण परिपूविधा । 'मित्तेचब्ड कालु कहिं अपिल ।।६।।