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तियालीसमो संधि और स्थूल बाहु हैं। दोनोंका ही वक्षःस्थल विशाल और उन्नत है। दोनोंका ही मुखकमल खिला हुआ है। हे सुप्रीव, नुम्हारा सब कुछ उसे भी सोहता है। जो तुम कहते हो, वह मैं मानता हूँ । जैसे कुलवधू दूसरे पुरुपको नहीं पहचानती, वैसे ही मेरी दृष्टि माया सुग्रीवको पहचानने में असफल है" !१-F||
[१७] तब रामने सुपावके मनको धीरज बँधाकर अपने धनुषकी ओर देखा । जो सुकलत्रकी तरह प्रमाणित, और उसीकी तरह समर्थ था । सुकलत्रको तरह जो दृढ़ गुण ( अच्छे गुण और डोरी) से घनीभूत था । सुकलत्रकी ही तरह आश्चर्यजनक था, सुकलत्रकी तरह भार उठानेमें समर्थ था, सुकलनकी तरह दूसरेके निकट अप्रसरणशील था, सुकलत्रकी तरह स्वयंवरसे गृहीत था, जनककी सुता सीताके साथ ही जिसे उन्होंने ग्रहण किया था। उस वावर्तको अपने हाथमें लेकर जैसे ही चढ़ाया वह दसों दिशाओं में गूंज उठा, मानो प्रलयकालमें काल ही अट्टहास कर. उठा हो, मानो युगका क्षय होनेपर सागर ही ध्वनित हो उठा हो, मानो पहाड़पर बिजली गिरी हो। उसे सुनकर माया सुमीवके सैनिक कॉप उठे । उस भीषण चाप-शब्दको सुनकर विद्या उसी तरह थरथर काँप उठी जैसे हवासे केलेका पत्ता. और वह सहस्रगतिके शरीरसे उसी प्रकार निकलकर चली गई जैसे असती स्त्री पर-पुरुषका रमण करके चली जाती है, ॥१-६||
[८] विशाल वैतालिकी विद्याने माया-मुग्रीवको छोड़ दिया, मानी बिलासिनीने निर्धन व्यक्तिको छोड़ दिया हो, मानो रोहिणीने चन्द्रमाको छोड़ दिया हो, मानो इन्द्राणीने देवेन्द्रको छोड़ दिया हो, मानो सीता महासतीने गम को छोड़ दिया हो, मानो रतिने मदनराजको छोड़ दिया हो, माना शाश्वत