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तियालीसमो संधि गतिने पापपिण्डको छोड़ दिया हो, पार्वतीने शिवको छोड़ दिया हो। मानो पद्मावतीने धरणेन्द्रको छोड़ दिया हो । अपनी विद्यासे अपमानित होने पर सहस्रगतिका असली रूप लोगोंने प्रगट जान लिया। और असली सुग्रीव की जो सेना पहले विघटित हो गई थी वह अब उसीकी सेनामें आकर मिल गई । शत्रु को एकाकी स्थित देखकर बलदेव रामने सरसन्धान किया। अनवरत डोरी पर चढ़े हुए रामके तीखे बाणोंसे कपट-सुग्रीव युद्ध में उसी तरह छिन्न-भिन्न हो गया जैसे विद्वानोंके द्वारा प्रत्याहार (व्याकरण के) छिन्न-भिन्न हो जाते हैं ।। १-६।।
[१६] इसप्रकार शत्रुको बाणोंसे विदीर्ण कर रामने मुग्रीव को नगर में प्रवेश कराया। तब जयमंगल और तूर्योका निर्घोष होने लगा। सुग्रीव तारा के साथ प्रतिष्ठित होकर राजकाज करने लगा । इधर राम भी संतुष्ट मन हो र शीघ्र हो चिन भवन में पहुँचे और वहाँ उन्होंने शुभगति-गामी चन्द्रप्रभ जिनकी स्तुति की-"जय हो, तुम्हीं मेरी गति हो । तुम्हीं मेरी बुद्धि हो । तुम्हीं मेरी शरण हो, तुम्हीं मेरे माता-पिता हो। तुम्हीं बन्धुजन हो, तुम्हीं परमपक्ष हो, तुम्हीं परमति-हरणवार्ता हो | तुम्हीं सबमें परात्पर हो। तुम दर्शन, ज्ञान और चारित्रमें स्थित हो । तुम्हें सुरासुर नमन करते हैं। सिद्धान्त, मन्त्र, व्याकरण, सन्ध्या, ध्यान और तपश्चरण में तुम्ही हो । अरहन्त, बुद्ध तुम्ही हो । हरि, हर और अज्ञानरूपी तिमिर के शत्रु तुम्हीं हो। तुम सुक्मनिरंजन और परमपद हो। तुम सूर्य, ब्रह्मा, स्वयम्भू और शिव हो ।।१-६।।