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चउवणासमो संधि कर्मका नाश कौन कर सकता है ? जनकसुता इस प्रकार फूटफूटकर रोने लगी । उनकी भुजाएँ मालती मालाकी तरह थीं । वह बोली, "हे खल क्षुद्र पिशुन कटारविधि, तुम भाग्यवश अपना मनोरथ पूरा कर लो। दशरथ-कुटुम्बको तुमने तितर-बितर कर दिया है,। बलिकी तरह तुमने उसे दशौ दिशाओंमें बिखर दिया है। मैं कहीं हूँ, गम कहीं हैं। बीच में ( इतना बड़ा समुद्र) है। अपने इष्ट लोगोंके बियोग और शोधसे पूर्ण आपत्तिकालमें जी महायुद्धांमें समर्थ गमके पास मेरा संदेश ले जाता, तुमने युद्ध में उसे भी बँधघा दिया । अथवा क्या तुम भी छल कर सकते हो, नहीं कदापि नहीं, यह मेरे पापकर्माका फल है।
[३] इधर, वे लोग ( इन्द्रजीत आदि ) हनुमानको सुभटश्रेन रावणके पास ले गये । उसने बैठाकर उससे वार्तालाप किया । और कहा, “हे हनुमान, मैं तुमसे कहता हूँ कि जो कुल, बल, जातिसे विहीन है, जो फलभोजी दीन-हीन तापस है, तुमने उसकी सेवा की। हे मुंदर, आखिर तुम्हें यह दुर्बुद्धि क्यों हुई । तुमने अच्छा दूतपन सीखा यह । अथवा अरे तुमने कुल सककी परीक्षा नहीं की । देवभयंकर मुझ रावणको छोड़कर तुमने उस अभागे रामकी शरण ग्रहण की । ( सचमुच ) तुमने सिंह छोड़कर गधेको पकड़ा । जिनवरको छोड़कर तुमने पर-सिद्धान्तकी प्रशंसा की । फिर जो जिसके पात्र होता है, उसमें वही वस्तु रखी जाती है। बताओ, नारियल ( इसकी खोपड़ी )का क्या होता है। जो ( तुम ) सदैव प्रभुताके गुणों चूड़ामणि, कदक, मुकुट और कटिसूत्रोंसे सम्मानित किये जाते थे वही तुम घेरकर लोगोंके द्वारा चोरकी भाँति पकड़ लिये गये । मुझ जैसे उत्तम स्वामीको छोड़कर हे हनुमान, तुमने जो कुछ किया है । तुमने कुस्वामीको सेवाफे उस कलका यहीं प्राप्त कर लिया है ।।१-१२॥