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तिक्षणासमो संधि
हुन ननणोंसे पुरु लमाण भामा नहीं लगता। तबतक, हे रावण, श्रेष्धनायक और विशालबाहु, तुम 'जन-अभिराम रामको जनकसुता सीता सौंप दो । परस्त्रीका रमण करते हुए तुम्हें जीते जी कहीं भी सुख नहीं मिल सकता । तमसे मुक्त होओ। अपने मनमें मूर्ख क्यों बनते हो।" इस तरह विभीषण रावणके हृदयका भेद कर ही रहा था कि इतनेमें धरतीपर धमकता हुआ सुभद इन्द्रजीत उठा ||१-१०॥
[२] वह बोला, "दानव और इन्द्रका दलन करनेवाले विभीपण, तुमने यह क्या कहा ! अक्षयकुमारके मारे जाने और हनुमानके आनेपर अब पलायन करना ठीक नहीं । अब मन्त्रणा करनेसे क्या होगा, पानी निकल जाने पर, अब चौंध बाँधना क्या शोभा देगा। पितृव्य ! यदि विनाशसे आप भयभीत हैं तो मुझे युद्धमें दूसरा उत्तर साक्षी समझना ! एक तोयदवाहन ( मेघवाहन) ही पर्याप्त है । भानुकर्ण और पंचानन यही रहें। भय, मारीच और सहोदर भी रहे, और भी जो जो कायर हैं, यह भी रहें। यह मेरे लिए तो बहुत ही भला अवसर है । मैं आजकल ही में युद्ध करूँगा । जिसने आसाली विद्याका पतन किया, जिसने उद्यान उजाड़कर वनपालोंको भी मार डाला, अनुचरीको
भी आहत कर दिया और जिसने अक्षयकुमारको भी समाप्त कर दिया, उसे भाज सिंहके पैरों में पड़े मृगकी तरह मैं किसी न किसी तरह नष्ट कर दूंगा । दूत समझकर युद्ध-स्थलमें यदि मैंने उसे न मारा तो कमसे कम पकड़कर तुम्हारे सामने लाकर रख दूंगा" ॥१-१०॥
[३]"और मी, शत्रुनाशक, अभिमानस्तम्भ हे तात ! मेरे वचन सुनो, यदि मैं रणमें उछलते हुए शत्रुको न पाहूँ तो