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दुवण्यासमों संधि
१८ ले रहे थे। कुमार अक्षयने मामले पर एक वृक्ष का । हनुमानने उसे अपने तीखे खुरपेसे वैसे ही खण्ड-खण्ड कर दिया जैसे वलिको विभक्तकर दिशाओंमें छिटक देते हैं। तब कुमार अक्षयने गुफाओंसे सहित पहाड़ फेका, यह भी छिन्न-भिन्न होकर उसी प्रकार गिर पड़ा जिस प्रकार जननेत्रीको आनन्द देनेवाले जिनसे छिन्न-भिन्न होकर भीषण भव-संसार गिर पड़ता है।।१-१०॥
[५] इतनेमें कुमार अक्षय एक और पहाड़ उठाकर फेंकने लगा । परन्तु पवनपुत्र हनुमानने अपने भुजबलसे उसे आकाशमें उछालकर रथसहित पूर्व समुद्र में फेंक दिया । सारथी मारा गया। और दोनों अश्वोंने आशाली विद्याका अनुसरण किया। किन्तु कुमार अक्षय आघे ही क्षणमें शिला उठाकर मारने आया । तब विशाल वक्षस्थलवाले हनुमानने उसे घुमाकर लवण समुद्र में फैक दिया । फिर भी वह लौटकर लड़ने लगा । तब हनुमानने उसे पश्चिम समुद्र में फेंक दिया । वह वहाँसे भी पलभरमें लौट
आया । तब हनुमानने उसे उत्तर दिशामें फेंका, वहाँसे भो एक निश्वासमें लौटकर आ गया । हनुमानने उसे आकाशमें फेक दिया, वह भी मेरुपर्वतकी प्रदक्षिणा देकर आधे ही क्षणमैं आकाशमें गर्जन करता हुआ आ गया। उसने कहा, "प्रहार करो, प्रहार करो ।" यह सुनकर देवता मन ही मन डर कर बोले, "अरे, अब तो हनुमानके दौत्यकी गाथा ही समाप्त हुई, अब इसका जीवित रहना और रामके पास सीतादेवीका कुशल-सन्देश ले जाना दुष्कर ही है ।" ॥१-१०॥ .
[६] सौ सौ योजन दूर फेंके जानेपर भी यह वापस आ जाता था, इस प्रकार वह कामिनीके मनको तरह चंचल हो रहा