________________
अचालीसमो संधि
भुवन - विख्यातनाम, रामसे उनकी भेंट कराई, उन्होंने भी उन्हें अपने हाथोंसे कामिनीस्तनों को बढ़ानेवाला आलिंगन दिया ।। १६ ।।
अड़तालीसवीं सन्धि
विधानसहित आा जाये
जैसे ही लंकानगरी में प्रवेश किया वैसे ही आसाली विद्या आकर उनसे ऐसे भिड़ गई, मानो रात ही सूर्यसे भिड़ गई हो ।
[१] इतने में विशाल देह धारणकर आसाली विद्या, हनु मानसे युद्ध करनेके लिए आकर जम गई, उसने ललकारा"मरो-मरो, जरा बलपूर्वक अपनेको दिखाओ, मेरी उपेक्षा करके कौन नगर में प्रवेश करना चाहता है, किसका है इतना हृदय ( साहस ) ? आगको कौन बुझा सकता है, आशीष सापको अपने हाथ में कौन ले सकता है, धरतीका अपनी कोख में कौन चाप सकता है, मंदराचलके भारको कौन उठा सकता है, यमके मुखमें कौन प्रवेश कर सकता है ? अपने बहुबलसे समुद्र कौन तर सकता है, तलवारकी धारपर कौन चल सकता है, धरणेद्रके फनसे मणि कौन तोड़ सकता है। ऐरावत गजके कुंभस्थलको कौन विदीर्ण कर सकता है, आकाशके प्रांगण में सूर्यके गमनको कौन रोक सकता है, इन्द्रको युद्धमें कौन मार सकता है, ( ऐसे ही ) मुझे तृणवत् समझकर कौन, इस नगरी में प्रवेशकर सकता है ।" यह वचन सुनकर पथके लोभी हनुमानने क्रुद्ध होकर आसाली विद्याको ईर्ष्यासे वैसे ही देखा जैसे प्रलय शनैश्चर धरती को देखता है ॥ १-६