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ससचालीसमो संधि कि "हे दनुसंहारक तास ! क्या हमलोग वनवासके लिए जाँय । वहाँ हम किसी मंत्रकी आराधना करेंगी या योगके अभ्यास द्वारा कोई विद्या साधेगी ।" यह कहकर चंचल भौंहों और मणिमय कुंडलोंसे शोभित कपोलोयाली वे तीनों कन्याएँ विशाल वनमें इस प्रकार प्रविष्ट हुई मानो शरीरमै तीन गुप्तियाँ ही प्रविष्ट हुई हो ॥१-६॥
[४] उन्होंने उस वनको देखा, जो भवसंसारको तरह अशोकवर्जित (वृक्षविशेष, सुखसे रहित है), वृक्षके मुखमंडल की तरह, तिलक (वृक्षविशेष और टीका ) से रहित, कन्याके स्तनमण्डलकी तरह निच्चूय [ आम्र वृक्ष और चूचकसे रहित ], कुस्वामीकी सेवाकी तरह निष्फल, अनतंक समूहके समान निताल [ ताड़ वृक्ष और तालसे रहित ], स्वर्गकी तरह पुनागवर्जित [राक्षस और सुपारोका वृक्ष ], बौद्धोंके गर्जनकी तरह निशून्य था। उस वनमें सूकरी कामिनीकी लीला धारण कर रही थी। जैसे कामिनी बलातु चूर्ण विकीर्ण करती चलती है वैसे ही वह चल रही थी। उस वनमें सूर्यकी किरणोंसे पत्थर जल उठते थे मानो दुर्जनोंके वचनोंसे सज्जन ही जल उठे हों । इस प्रकारके उस विस्तृत यनमें बैठे-बैठे उन कन्याओंको चौथा दिन व्यतीत हो गया। इसी समय दो विरक्त चारण महामुनि यहाँ आये और एक कोसके चौथे भागकी दूरीपर आठ दिनके लिए कायोत्सर्गमें स्थित हो गये ॥१-
[५] किडकिड़ाती हुई भी उनकी आँखें चमक रही थीं। उनके हाथ लम्बे और उठे हुए थे। उन्होंने भोजन बोड़ रखा था । उनका शरीर ज्वाला और मल-निकरसे प्रसाधित था। इस प्रकार भानपिण्ड और परिग्रहसे हीन उन्हें प्रतिमायोगमें लीन हुए आठ