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पउमचरिउ
'भो भो ताय ताय दणु-दारा कह वणवा करहुँ किं पि वरि सम्साराद्दणु । जोमावभासें
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धता
एव भने यिशु चक-भडहालउ मणि- कुण्डल मण्डि - गण्ड | गम्पि बिलउ वप्यन्तरे णाइँ ति गुति देहम्भन्तरें ॥२॥
पट्टड़
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तं पणु तिहि मिताहि अवयज्जित णं भव-गद्दणु असोय - विवज्जिड ॥१॥ मंणिति थेरि सुह मण्डल । णं णिरचूप
निष्फल कुसामि श्रलग्गिड : णं णिसालु अणं हरि घरु पुष्णाय -विवज्जिक । णं णीसुष्णु जहिं वोरादि कामिणि लीलड | समय मण्ड उब्वीरण सील ॥५॥ जहिं पाहण वलन्ति रवि-किरणे हि । णं सज्जण दुज्जण दुब्वयण हिं ॥ ६ ॥ सहि अच्छन्ति जाव वजे विस्थएँ । ताच पहुकिय दिवसें घडत्थर ॥७॥
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हुँ भंडारा ||७|| विसाइणु ॥
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कण्ण- उरस्थ ॥२॥ - वग्ग ॥३॥ उद्धहुँ गजिउ ॥ ४ ॥
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घत्ता
चारण पचर महारिसि आदय भट्ट- सुभह वे वि बेराय । कोसों राणेण चडत्थं भाएँ भट्ट दिवस थिय काभोसाएँ ||5||
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किडि किडिजन्त-मिलिम्मिलिलोयण । लम्बिय-सुख
परिवजिय भोयण ॥ १ ॥
अल-मलोह पलायि विग्गह। जाण पिण्ड परिचत परिग्गह ॥२॥ थिय रिसि पडिमा जोएं जावें हिं । अटुमु दिवसु पटुकि ताहिं ॥२॥ उहि अवसरे तिय- लोलुम-चित्तहों । केण वि गम्पि कहिउ वरसह ॥ ४॥ 'देव देव तद जाउ मणिउ । तिष्णि वि कृष्ण रण पइउ ||५॥ अष्णु ताहिं वहतु गविद्वउ । तुहुँ पुणु मुहियऍ में परितु
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॥६॥