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एक्कूणपण्णासमोसंधि
१३३ हो। (इस प्रकार) मन्दोदरी और सीतादेवी में कलह बढ़नेपर, भुवन-सौन्दर्य हनुमान उनके बीच में जाकर उसी प्रकार खड़ा हो गया जिस प्रकार उत्तर और दक्षिण भूमियोंके मध्य में विन्ध्याचल खड़ा हो ॥१-१
[१८] हनुमानने (मरजकर) कहा, "मन्दोदरी, तू दृढ़बुद्धि महासती देवीके पाससे दूर हट । मैं शत्रुसेनाके लिए समर्थ राम और लक्ष्मणका भेजा दूत हूँ । मैं उन्हीं रामका दूत हूं और हाथकी अंगूठी लेकर आया हूँ। बन सके तो मुझपर प्रहारकर, पर सीता देवीके पाससे दूर हट।" यह सुनते ही निशाचरी मन्दोदरी एकदम क्रुद्ध हो उठी। वह बोली, "खूब अच्छा विशेष पुरुष तुमने खोजा हनुमान ! कुत्ता लेकर (वास्तवमें) तुमने सिंह छोड़ दिया, गधेको ग्रहणकर उत्तम अश्वका त्याग कर दिया । जिनवरको छोड़कर कुदेवकी पूजा की। बकरा लेकर गजवर छोड़ दिया। मित्र, तुमने बहुत बड़ी भूल की है । तुम्हें हमारा एक भी उपकार याव नहीं रहा जो इस प्रकार रावणको छोड़कर समसे मिल गये (मित्रता कर ली)। (उस रामके साथ) कि जिसका नाम सुनकर भी लोग मजाक उड़ाते हैं, उसका दूतपन कैसा? जो तुम कटक मुकुट और कटिसूत्रोंसे सदैव सम्मानित होते रहे, वहीं तुम्हें इस समय राजपुत्र मिलकर चोरोंकी तरह बाँध लेंगे।"॥१-१०॥ __ [१६] यह सुनकर हनुमान दावानलकी तरह (सहसा) प्रदीप्त हो उठा। उसने कहा, "तुमने जो रामकी निंदा की, सो तुम्हारी जीभके सौ-सौ टुकड़े क्यों नहीं हो गये ! निशाचररूपी वन-तृण और वृक्षोंके लिए अत्यन्त भयंकर जो धक-धक करता हुआ दावानल है, और झरझर करता हुआ लक्ष्मण रूपी पवन