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एवणवणासमो संधि
वह गरजते हुए मदगजोंको कुछ नहीं समझता और न सुवर्ण समज्ज्वल सुन्दर रथको । अलंकारों और नूपुरोंसे युक्त अपने संबंधियों और अन्तःपुर को भी कुछ नहीं गिनता। उद्यान-जलकीडाको कुछ नहीं गिनता और न यान जम्पाण और विमानोंको ही कुछ समझता है। केवल एक सीतादेवीके मुखकमलको सब कुछ मानता है। यदि मैं कुछ भी कहता हूँ तो उसे वह विपरीत लेता है। यह सब होने पर भी वह अपने आपको इस कमसे विरत नहीं करता तो देखना हनुमान तुम्हारे सम्मुख ही मैं युद्ध प्रारम्भ होते ही रामका सहायक बन जाऊँगा ॥१-१०॥
[७] यह सुनकर पवनपुत्र हर्षसे भर उठा। उसकी बाहुओं में पुलक हो रहा था। वहाँ से लौटकर विशालमुख हनुमान फिर उद्यानकी ओर गया । अवलोकिनी विद्यासे समस्त नगरकी खोज समाप्त कर, सूर्यास्त होते-होते 'उसने विशाल नन्दनवन में प्रवेश किया । वह वन सुन्दर कल्पवृक्षोंसे आच्छन्न और मल्लिका तथा ककेली वृक्षोंसे सुन्दर था । लवलीलता, लवंग, नारंग, चंपा, बकुल तिलक, पुन्नाग, नरल, तमाल, ताल, तालूर, मालती, मातुलिंग, मालूर, भूर्ज, पद्माक्ष, दाख, खजूर, बुन्द, देवदारु, कपूर, वट, करमर, करीर, करवंद, एला, कक्कोल, सुमन्द, चन्दन, वंदन
और साहार ऐसे ही अनेक वृक्षोंसे वह सहित था। उस वनके मध्यमें हनुमानको उन्मन सीतादेवी ऐसी दीख पड़ी मानो आकाश-पथमें दोजकी चन्द्रलेख ही उदित हुई हो ॥१-१०॥
[-] हजारों सखियोंसे घिरी हुई सीता ऐसी लगती थी मानो वनदेवी ही अवतरित हुई हो। (भला) जिसमें तिल बराबर भी खोट न हो फिर उसका वर्णन किस प्रकार किया जाय ।