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ण्णासो संधि
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जलचरोंसे भयंकर भवसागर में अकेले ही भटकोगे । जीवको अकेले हो दुख, अकेले ही सुख भोगना पड़ता है, अकेले ही उसे बन्ध और मोन होता है। अकेले ही उसको पाप धर्मका बन्ध होता है। अकेले उसीका ही मरण और जन्म होता है । उस संकट के समय में कोई भी स्वजन नहीं आते, केवल दो ही पहुँचते हैं, वे हैं जीवके सुकृत और दुष्कृत ॥१-१०।
[ ८ ] है रावण, तुम अपने मनमें उचित और अनुचितका विचार करो, यह शरीर अलग है और जीच अलग | यह एक क्षण में नष्ट हो जायगा। बार-बार उपवनको उजाड़नेवाले हन्मानने हृदयसे रावणको अन्यत्व-अनुप्रेक्षा बताते हुए कहा --- “शरीर अन्य है और जीवका स्वभाव अन्य है, धन-धान्य, यौवन दूसरेके हैं। स्वजन, घर, परिजन भी दूसरेके हैं। स्त्री भी दूसरेकी सममना | तनय भी दूसरेका उत्पन्न होता है। यह सब कुछ हो दिनांका मिलाप है, फिर मरकर सब एकाकी भटकते फिरते हैं । जीब और शरीर भी अन्यके हो रहते हैं, घर भी दूसरेका, गृहिणी भी दूसरे की तुरंग, महागज और रथवर भी अन्यके हो जाते हैं । आज्ञाकारी नरवर भी दूसरेके ही रहते हैं। इस दूसरे जन्मांतर में जीवका अर्थनाश एक क्षण में ही हो जाता है। लोग कार्यके यशसे ( अपने मतलचसे ) मुँह मीठे और प्रिय बोलनेवाले होते हैं, परंतु जिनधर्मको छोड़कर, इस जीवका और कोई भी अपना नहीं है ||१-११ ॥
[ ६ ] सीताको अर्पित कर दो। उसे ग्रहय मत करो, नहीं तो, दुखसे भरपूर, जन्म और मरणसे भयंकर चार गतियोंके समुद्र, और नरक-सागरमें पड़ोगे । हे भुवनभयंकर और दुर्दर्शनीय