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तिवण्णासमो संधि
१६३ देखना ? मैं तुम्हारे चरण छूता हूँ। हे लंकेश्वर परमेश्वर ! क्या तुम वह बात भूल गये जब सुरसुन्दर इन्द्रपर आपने आक्रमण किया था। उस युद्धमें छत्र और धवल-वजांकी नो कोई गिनती ही नहीं थी। हाथी सिंदर और गीतासे मंकृत हो रहे थे, रथ जुते हुए थे । घोड़ें हींस रहे थे। सैन्यघटा प्रवल हो रही थी । धनुषकी डोरका दंकार हो रही थी । कलकल शब्द हो रहा था। सैनिक कुपित थे। परिकर छोड़कर, और उनम तीर लेकर सैनिक तमतमा रहे थे । विजयश्रीके लालची और अमपसे भरे हुए उनका मन युद्ध के लिए हो रहा था। सब्बल, हूलि, हलि, शक्ति और त्रिशूलसे सेना आक्रमग कर रही थी, वह अश्व, गज और वाहनोंसे भरपूर थी, ऐसे उस भयंकर युद्ध में स्थपर आरूढ़ लड़ते हुए मैने इन्द्रको उसी तरह पकड़ लिया था जैसे सिंहवर गजको पकड़ लेता है । और तबे, सुरवरों, विद्याधर, यक्ष, गंधर्व, राक्षस और किन्नरोंने मेरा नाम इन्द्रजीत घोषित किया था ? तो एक हनुमान और अन्य मनुष्योंको ग्रहण करनमें कौन-सी बात है।" यह कहकर, वह मनमें जिनकी जय बोलना हुआ तुरंत रथपर चढ़ गया। रथकी धुरामें घोड़े जोतकर, विजयश्वज लेकर लोगोंके देखते-देखते इन्द्रजात ऐसे निकल पड़ा माना हनुमानको पकड़नेवाला ही हो ॥१-१०||
[४] उसके पीछे, अस्त्र लेकर मेघवाहन भी तुरंत निकल पड़ा मानो युगका क्षय होनेपर मत्सरसे भरा कम्पिताधर शनैश्चर ही हो। वह भी रथपर चढ़कर दौड़ा मानी सिंहशावक ही निकल पड़ा हो । मेघवाहनके चलते ही सेनामें तूर्य बना दिय गये । कितने ही निशाचर संनद्ध होने लगे, उनके हाथमें बदिया तूणीर, बाण और धनुष थे । उनके हाथों में खुली हुई पैनी तलवार