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एमकूणपणासमी संधि
१२५ तूर्य बजवाइए। मैं तो निश्चय ही यह समझती हूँ कि वह आज आपको स्नेहपूर्वक आलिंगन देंगी।" यह सुनकर रावण हर्षित हो उठा । उसको अंग-अंगमें पुलक हो आया। हर्ष अंग-प्रत्यंगमें कूट-कूटकर इतना भर गया कि त्रिभुवनसन्तापकारी रावणके धारण करने पर भी वह समा नहीं पा रहा था ॥१-१०॥
[११] तब उसने देवी मन्दोदरीका मुख देखकर उससे कहा, 'तुम जाओ । शीलनिष्ठ उसकी अभ्यर्थना करना जिससे वह मुझे आलिंगन दे।" यह सुनकर भविष्य को जाननेवाली मन्दोदरी चली। उसके साथ सडोर और सनूपुर समस्त अन्तःपुर भी था। अन्तःपुरकी उन स्त्रियोंके मुखकमल खिले हुए थे। उनके नेत्र कुवलयदलकी भांति आयत थे। उनकी चाल ऐरावतकी तरह मदमाती और मन्थर, को को सत्तालेवासी भी। सौभाग्यसे भरी हुई वे पीन स्सनोंके भारसे झुकी जा रही थीं। उनका सुन्दर शरीर मध्यमें कृश हो रहा था। उरस्थल और नितम्ब गम्भीर थे। पैर नूपुरोंसे झंकृत थे। वे झिलमिलाते हुए मोतियोंके हार पहने थीं। करधनीके भारसे लदी हुई विभ्रम ध्र भंग और विकारोंसे युक्तं थीं। इस प्रकार रावणका अन्तःपुर चला । (वह ऐसा लगता था) मानो मानसरोवरमें भ्रमरसहित कमलिनी-वन ही खिला हो ॥१-१०॥ । [१२] रावणके नेत्रोंको शुभ लगनेबाली, उन्नत और पीनपयोघरोंवाली उन स्त्रियोंके बीचमें सीतादेवी इस प्रकार दिखाई दी मानो नदियोंके बीच में समुद्रकी शोभा दृष्टिगत,हुई हो। सीता देवी चन्द्रज्योत्स्नाकी तरह अकलंक, अमृतकी तृष्णाकी तरह तृप्ति रहित, जिनप्रतिमाकी तरह निर्विकार, रतिविधिकी तरह विज्ञान-कौशलसे निर्मित, छहों जीवनिकायोंको जीव-दयाकी भांति