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तियालासमो संधि
इसको मारो, आहत करो, इस पापीका सिरकमल्ल काट लो, नाक के साथ इसके दोनों हाथ भी काट लो, इस दूतको दूतपन दिखाओ, इसे कृतांतका अतिथि बना दो ।" तत्र बड़ी कठिनाई से मंत्रियोंन, स्वामांका निवारण किया। सुग्रीवका दूत भी खारसे भरकर चला गया । यहाँ भी राजा सुमीव बैठा नहीं रहा और रथकी पीठपर चढ़कर पूरी तैयारीके साथ सेनाको लेकर निकल पड़ा, मानो साक्षात् यम ही आ गया हो, प्रतिपक्ष को चुन्ध करनेबाली सात अक्षौहिणी सेना के साथ उसने प्रयास किया। इस प्रकार कपटी सुग्रीव राम लक्ष्मण और सुग्रीवसे जाकर भिड़ गया मानो दुष्काल ही हेमंत ग्रीष्म और पावसपर टूट पड़ा हो ॥१-३॥
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[ १४ ] दोनों ही सैन्यदल आपस में टकरा गये, वैसे ही जैसे प्रसन्नचित्त मिथुन आपस में भिड़ जाते हैं, वे वैसे ही अनुरक्त ( रक्तरंजित और प्रेमपरिपूर्ण) थे जैसे मिथुन, वैसे हो परितृप्त थे जैसे मिथुन परितृप्त होते हैं। वैसे हो कलकल कर रहे थे जैसे मिथुन कलरव करते हैं, वैसे ही सर ( वाणों ) को छोड़ रहे थे जैसे मिथुन सर ( स्वरों ) को करते हैं। वैसे हो अधरीको काट रहे थे, जैसे मिथुन अधरोंको काटते हैं, वैसे ही सर्गे (बाणों ) से जर्जर हो रहे थे जैसे मिथुन स्वरों (सर) से क्षोण हो उठते हैं, युद्धके लिए वे वैसे ही आतुर थे जैसे मिथुन आतुर होते हैं । वे वैसे ही चकपका रहे थे जैसे मिथुन चकपकाते हैं, वैसे ही उनका मान भंग हो रहा था जैसे मिथुनोंका मान गलित हो जाता है। वैसे ही काँप रहे थे जैसे मिथुन काँप उठते हैं। वैसे ही पसीना पसीना हो रहे थे जैसे मिथुन पसीना-पसीना हो जाते हैं। वैसे ही निश्चेष्ट हो रहे थे जैसे मिथुन निश्चेष्ट हो उठते हैं, वैसे ही निष्पंद युद्ध कर रहे थे जैसे मिथुन निष्पंद हाकर लड़ते