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जयालीसमो संधि
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अप्सरा नहीं कर सकती क्या वह एक मनुष्यनी कर सकती है। यदि तुम्हारा सन्तोष और तृप्ति सीतादेधीसे ही सम्भव है तो हमारी बात मानो। जब तक रावण वर्ष-वर्ष करके तेरह वर्ष निकालता है तब तक देवेन्द्र के भोगोंके सदृश तुम्हारे तेरह वर्ष बीत जाएंगे, उसके बाद कुछ तो भी होगा:" मा सुनका करने उत्तर दिया--"मैं तो शत्रु को अपने हाथ मारूँगा और उसे खरदूषण के पथ पर पहुँचाऊँगा । स्त्री का पराभव सबसे भारी होता है। क्या स्वयं तुमने इसका अनुभव नहीं किया ? भाग्य के फलोदय से जो मेरा यशरूपी बस्त्र अकीति और कलंक के पंकमल से मैला हो गया है उसे मैं रावण के सिर रूपी चट्टान पर (पछाड़कर) साफ करूँगा"॥१-६॥
[१३] यह सुनकरु सुग्रीव बोला, "अरे रावण के साथ कैसी लड़ाई ? एक हिरन है तो दूसरा ऐरावत । एक पाह्न है तो दूसरा कुलपावक । एक सरोवर है तो दूसरा समुद्र है । एक साँप है तो दूसरा गरुड़ है। एक मनुष्य है तो दूसरा विद्याधर । तुममें और उसमें बहुत बड़ा अन्तर है। जिसने दुनियामें अपने यशका डंका बजाया है, अपने हाथ से कैलाश पर्वत को उठा लिया है, जिसने महायुद्ध में इन्द्र, यम, वैश्रवण, अग्नि और वरुण को भी परास्त कर दिया है, क्षात्रत्व में जिसने पवनको भी जीत लिया, मनुष्य के द्वारा उसका ग्रहण कैसे हो सकता है ?" उसके वचनसे लक्ष्मण ऐसे कुपित हो उठा मानो शनिश्चर ही अपने मन में रूठ गया हो। उसने कहा, "अंग, अंगद, नील अपनी भुजाओं को सहेजकर बैठे रहो । जाओ । रावण के जीवन को नष्ट करनेवाला अकेला मैं लक्ष्मण ही पर्याप्त हूँ"॥१-६ ।।