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पत्रवणासमो संधि भूत था, इधर यदि प्राण नरकमें पड़ेंगे तो उधर काम के बाणोसे अंग छिन्न हो जायेंगे, इधर कषायोंसे वह अवरुद्ध हो जायगा तो उधर सुरतसुख उसे कहाँ मिलेगा, इधर टुष्काका टुम्न ना है, तो उधर हँसता हुआ जानकीका मुख है। इधर घिनौना आइत शरीर है. उधर सीताका सुन्दर यौवन है, इधर दुर्लभ जिन गुण और वचन हैं, उधर सीताके मुन्ध नयन हैं. इधर सुन्दर जिनवर शासन है और उधर, मनोहर सीताका मुख है। यहाँ अत्यन्त अशुभ कर्म मनको अच्छा लग रहा है और उधर सीताके अधरोंको कौन पा सकता है, इधर उत्तम जातिको निन्दा है, उधर सीताका उत्तम केशभार है, इधर दुस्तर रौद्र नरक है,
और उधर सीताका सुन्दर कण्ठ है, इधर नारकियोंकी 'मारो मारो" वाणी है और इधर सीताके सुन्दर स्तन हैं । इधर यमकी "ला लो पकड़ा-पकड़ो" वाणी है और उधर सुन्दरिया में सुन्दरी सीता है । इधर अनन्त दुस्तर दुख है और उधर सीताका सविस्तार रमण है | यहाँ जन्मान्तरमें भी सुख विरल है और वहाँ सुन्दर ऊरु युगल हैं । इधर विरल मानव-जन्म है, और उधर सरल सुन्दर जंघा युगल है। इधर यह कर्म मिलकुल ही पवित्र नहीं है उधर सीता का उत्तम चरण-युगल' है, यहाँ अनुपम पापका बन्ध होगा उधर त्रिपोंमें मन अवरुद्ध हो जायगा । इधर सुभीषण कृतान्त कुपित हो जायगा और उधर मदनका दुस्तर शासन है । किसे स्वीकार करूँ और किसे छोड़ दूँ। अच्छा, इस समय नरकमें पड़ना ही ठीक है। मैं जानता हूँ कि परस्त्री और परगव्य लेममें किसी भी तरह सुख नहीं है, फिर भी उस रामको सीता नहीं दूंगा, फिर चाहे जो रुचं वह हो ।।१-२१॥