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दुवण्यासमो संधि
१७५ हवा ) के कारण मानो वे युद्ध और गतमें एकाकार हो उठे हो । पवनसुत हनुमानके प्रहारोंसे आहत चन और बल ऐसे जान पड़ते थे मानो दोनों ही यम के अतिथि जा बने हो । रुधिर जलसे पूर्ण उस युद्धरूपी महासमरमें दिशाओंको नरोंके सिरकमल उपहारमें चढ़ाकर और अपनी भुजाओंका प्रयोगकर गर्वीला हनुमान मत्तगजकी तरह गरज रहा था ॥१-१०॥
बावनवीं संधि सेनाका विनाश और नन्दनवनका पतन होनपर रावणका पुत्र अक्षयकुमार अश्व और थके साथ आकर हनुमानसे भिड़ गया, वैसे ही जैसे सिंहसे सिंह भिड़ जाता है।
[१] उसका चेहरा तम-तमा रहा था, अपने दोनों हाथ मलते हुए वह ऐसा लगता था मानो, मद भरता हुआ महागज हो । रावणकी जय घोलकर अक्षयकुमार निकल पड़ा, मानो गरुड़ के सम्मुख तक्षक ही निकला हो। रथ और गजवाहनोंके साथ, सेनाके प्रस्थान करनेपर दुंदुभि बजवा दी गई। अश्व निकल पड़े। रथ स्वींचे जाने लगे और रावणपुत्र लीलापूर्वक उसपर चढ़ गया । ध्वजदंडपर धूमकेतु स्थापितकर, अक्षयकुमारने कालदृष्टिको अपना सारथि अनाया। कुमारने मायाकवच पहन लिया। पश्चिम-द्वारसे रथ चल पड़ा। ठीक इसी समय, वियोग और मरणसे पूरित दुनिमित्त होने लगे। श्रृंगाल फेछार करता हुआ आया । कौआ सूखे पेड़पर बैठकर कांव-काँव फरने लगा | सौंप रास्ता काटकर निकल गया। हवा उल्दी बहने लगी । कुमारके पीछे गधा बोल रहा था, वैसे ही जैसे सजनके पीछे दुर्जन हो ?