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छायालीसमो संधि [१०] वह बोला, "साधु-साधु, तुम पवनञ्जयके सच्चे पुत्र हो, तुम्हें छोड़कर, और किसमें इतनी वीरता हो सकती है, जो सैकड़ों शत्रु-युद्धोंमें यशका निकेवन है, जो दोनों कुलोंका दीपक और तिलक है, जो दोनों कुलोंमें उज्ज्वल और चन्द्रकी तरह अकलंक है, जो सिंहकी तरह पराक्रमी और युद्ध में निडर है, दसों दिशाओंके मण्डल में जिसका नाम विख्यात है, जो मदमाते हाथियोंके कुम्भस्थलोंका भुकानेवाला और जो प्रषर विजयलक्ष्मीके आलिशनका आवास ही है । जो सकल शत्रसमूहका दुर्दर्शनीय संहारक है, जो कीर्तिका रत्नाकर, यशकाजलावर्त, विजयलक्ष्मीका प्रिय वीरनारायण, सज्जनोंका कल्पवृक्ष, सत्यका मेरु, प्रवर प्रहार फनोंके धरणेन्द्र, मानमें विंध्याचल, जो अभिमानमें शिखर, धनुष धारियोंमें वाण-रूपी नखाँके समूहसे सहित सिंह, शत्रुरूपी मृगोंके लिए महागज, और जो शत्रुसेनाके जलका शोषक है, आशंका
और फलंकसे रहित जो तब तक किसीसे भी नहीं जीता जा सका, यह मैं भी आज तुमसे पराजित हो गया ॥१-१०॥
[११] यह वचन सुनकर, दुर्दम दानव-संहारक हनुमानने कहा, "तो इसमें पराभवकी कौन-सी बात, आप यदि तेजपिण्ड दिवाकर हैं और मैं आपका ही थोड़ा-सा किरण-समूह हूँ, भाप भुवनतिलक चन्द्र हैं, मैं भी आपका ही छोटा-सा ज्योत्स्नानिकेतन हूँ, आप श्रेष्ठ महसमुद्र है और मैं भी आपका ही एक जलकण हूँ, आप समस्त पर्वतोंमें मन्दराचल है और मैं भी एक