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एक्वण्णासो संधि
कदम्ब, जम्बीर, जम्बुम्बर, लिम्ब, कोशम्भ, खजूर, कयूर, तारूर, मालूर, अश्वत्थ, न्यग्रोध, तिलक, बकुल, चम्पक, नागचेल्ली, वया, पिप्पली, पुफ्फली, पाटली, केतकी, माधवी, सफनस, लवली, श्रीखण्ड, मन्दागुरु, सिह्निका, पुत्रजीव, सीरीष, इत्थिक, अरिष्ट, कोजय, जूही, नारिकेल, वई, हरड़, हरिताल, कबाल, लावञ्जय, पिक्क, बन्धूक, कोरन्ट, वाणिक्ष, वेणु, तिसञ्झा, मिरी, अल्लका, ढोक, चिवा, मधू, कनेर, कणियारी, सेल्लू, करीर, करञ्ज, अमली, कंगुनी, कंचना इत्यादि तथा और भी बहुतसे वृक्ष थे जिन्हें कौन समझ गिना सकता है। उन सब बड़े-बड़े वृक्षों में सबसे पहले पारिजात वृक्ष था । उसने उसको, धरती के यौवनकी तरह, उखाड़कर आकाशमें घुमा दिया ॥१- १०॥
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[ ३ ] पारिजातको फेंककर उसने उस वृक्षको उखाड़ा, और अपने बाहुओं से उसे वैसे ही झुका दिया जैसे रावणने कैलाश पर्वतको झुका दिया था। थर्राते हुए उस वट वृक्ष को उसने इस प्रकार ( धरती से ) खींचा मानो पातालमें कोई शत्रु प्रवेश कर रहा हो या मानो वह, नंदनवनकी मुखर जिह्वा हो, या मानो धरतीका दूसरा बाहुदंड हो, मानो रावण का अभिमानस्तंभ हो या मानो प्रसूतवती धरती का विशाल गर्भ हो । ( आघातसे) उस महावृत्तकी जड़ोंका समूचा घनीभूत जाल छिन्न-भिन्न हो गया। प्रारोह टूट-फूट गये। विशाल शाखाएँ भग्न हो उठीं । लाल-लाल पत्तियों बिखर गई । ढँदर (राक्षस) और पक्षी कलरव करने लगे । कोयलोंके आलापसे वह गूँज उठा | झुका हुआ वह वट वृक्ष सज्जन की भाँति सुखद प्रतीत हो रहा था। हनुमानकी भुजलताओंसे गृहीत वह वदवृक्ष ऐसा मालूम हो रहा था मानो गंगा और यमुनाके बीचमें यह तीसरा प्रयाग ही हो ॥१८॥