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मानो विचार
र घरका
छायालीसमो संवि तुम्हारी माँ को, जनशन्य, वनगजों और सिंहोंसे संकुल जंगल में छुड़वा दिया। यह माहेन्द्र नामकी नगरी है जिस कामदेवने कामनगरी की तरह निर्मित किया है।" यह सुनकर, हनुमान बहुत भारी भत्स रसे भर उठा मानो शनीचर ही मीन राशिमें पहुंच गया हो । अमर्पसे क्रुद्ध होकर उसने विचार किया कि गमन स्थगिनकर पहले मैं युद्धम इस राजाका अहंकार चूर-चूरकर हूँ।१-१०॥
[३] उसने तत्काल विद्याके बलसे रथ, विमान, हाथी, घोड़ों और योधाओंसे संकुल सेना गढ़ ली, जो बिजली से चमकते हुए मेघजालकी तरह, परह और मृदंगोंसे अत्यन्त मुखर थी। बजते हुए सैकड़ों शंखोसे संघटित थी। धवल छत्र और उड़से हुए ध्वजपटोंसे सहित, मुख पर दानके चमरोंको डुलाते हुए, और मद झरते हाथियोंकी टासे व्याप्त, हिनहिनाते हुए अश्वमुखोंसे उत्कट, सन्तुष्ट और स्फुट शरीरवाले सुभटोंमे संकुल, और झसर, शविन तथा सव्वलसे व्याप्त उस मेनाको देखकर, शत्रुसेनाका संहार करनेवाले महेन्द्रनगर में क्षोभ फैल गया । दुर्धर कठोर योधा तैयार होने लगे । फरसा, चहा, मुदगर और धनुष लेकर, आकार में भयंकर सैनिक धेरे बनाने लगे। उनकी दृष्टि कठोर थी और वे निष्ठुर दाँतोंसे अधर काट रहे थे। महाभयसे भीषण, राजा महेन्द्रका पुत्र भी सेनाके साथ तयार होकर, हनुमानसे वैसे ही भिड़ गया मानो विध्याचल में आग लग गई हो ।।१-१०।।
[४] पवनजय और महेंद्रराजके पुत्रोंकी सेनाओंमें घमासान लड़ाई होने लगी। वे दोनों ही सुन्दर विजयलक्ष्मीका आलिगन करनेके लिए शीघ्रता कर रहे थे । आक्रमणकी हनहनाकार से युद्ध में