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चडवण्णासो संधि
[ ४ ] हनुमानने तब उत्तरमें कहा, “तुम लंका नगरीका नारीकी तरह सुन्दर भोग करो। किन्तु यह तुम सोता देवी नहीं, किन्तु साक्षात अपने कुलको मारो ( विनाश ) लाये हो ।" यह सुनकर रावणने कहा, "और जो दुर्गतिगामी, कुकलन, कुमंत्री, कुस्वामी और कुपॉरंजन, कुमंत्री, कुसेवक, कुतीर्थ कुधर्म, और कुदेव इन सबको भावना करनेवाला होता है, कहो उसे कौनसी आपत्ति नहीं होती ।" तब क्रुद्ध हनुमानने उसकी निंदा करते हुए कहा, "परस्त्री घृणाजनक और नाना प्रकार के भयों को दिखाने वाली होती है । वह दुखकी पोटली और कुलकी कलंक है । इहलोक और परलोकका नाश करने वाली है। वह दुर्जनों के धिक्कारसे भरी हुई होती है. वह अयशका घर, जीवनका लांछन है । वह संसारका द्वार और मोक्षका किवाड़ है। वह लंकाका विनाश और जन्मान्तरका अकल्याण है ।।१-१
[ ५ ] हे राजन् यौवन, जीवन, धन, घर, सम्पदा और ऋद्धि इन सबको तुम अनित्य समझ कर सीताको वापस भेज दो। कोई मूर्ख जन भी पर धन, परद्वारा और मद्य व्यसनका आदर नहीं करता । नुम तो फिर सकल आगम और कलाओं में निपुण हो । मुनिसुव्रत भगवानके चरणकमलों के भ्रमर हो । जानते हुए भी सीताका अर्पण नहीं कर रहे हो। क्या तुमने अनित्य उत्प्रेक्षा को नहीं सुना । कौन किसका है, यह सब मायाका अंधकार है । जीवन जलकी बूँदको तरह अस्थिर है। सम्पत्ति समुद्रको लहरको तरह है । लक्ष्मी बिजलोकी रेखाकी तरह चंचला है। यौवन पहाड़ी नदींके प्रवाहके समान है। प्रेम भी स्वप्रदर्शनकी तरह है। धन इंद्रधनुपके समान है । वह क्षण में होता है और क्षण में विलीन हो जाता है | शरीर कौन रहा है और आयु गल रही है ।
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