________________
भावातीसमो संधि सलमें देवतालोगोंमें बातें होने लगी-"अरे निर्जल मेघकुलके समान हनुमान फा गरजना व्यर्थ गया । रोमका न तो वह दौत्य ही साध सका, और न उन्हें सीता देवीका मुख दिखा सका। रावणके वनका नाश भी नहीं किया अतः केवलज्ञानियोंका कहा हुआ विफल हो गया। जब सुरममूहमें इस प्रकार पार्ने हो रही थीं कि इतनेमे हनुमान फिरसे तैयार हो गया। हाथमें धनुष लेकर वह उठा और तीरोंसे उसने राजा प्रवादको निरख कर दिया। रौद्र कपिध्वजी हनुमानने सहसा युद्धमें तुब्ध होकर अपने तीरोंकी बौछारसे राजा प्रह्लादको उसी प्रकार अवरुद्ध फर दिया जिस प्रकार गंगाके प्रवाहको समुद्र अवरुद्ध कर देता है ।।१-१०॥
.[] इस प्रकार माताकी शत्रुताके कारण ऋद्ध होकर हनुमानने युद्धप्रांगणमें हो राजा प्रसाद और उसके पुत्र महेन्द्रको पकड़ लिया। इस प्रकार मानमर्दनकर और संहार मचाकर हनुमान राजाके चरणों में गिर पड़ा। वह बोला, "राजन् , मनमै बुरा न मानिए । जो कुछ भी मैने बुरा किया है उसे क्षमा कर दीजिए । अरे शत्रुसंहारक तात, क्या तुम अपनी पुत्रो अंजनाको भूल गये। मैं उसीका पुत्र, तुम्हारा नावी हूँ। मेरा वंश निर्मल
और गोत्र समुज्ज्वल है। फिर मैं उसी पवनञ्जयका पुत्र हूँ जिसने युद्ध में वरुणका अहंकार नष्ट किया था। सुग्रीवने रावणसे अभ्यर्थना करने के लिए मुझे भेजा है। उसने रामकी पन्नीका हरण कर लिया है। मैं दूतकर्मके लिए जा रहा था कि मार्गमें आपका नगर दीख पड़ा । बस, मुझे माताजीके वैरका स्मरण हो आया । इसीसे आपके साथ युद्ध कर बैठा हूँ। यह सुनते ही विद्याधरीके नयनप्रिय राजा महेन्द्र ने. स्नेह-विह्वल होकर हनुमानका जीभर आलिजन किया ॥१-१०||