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परम पूज्य श्री १०८ आचार्य शांतिसागर दिगंबर जैन जिनवासी जीर्णोद्वारक संस्था,
श्री आचार्य गुणधर भट्टारक-रचित
5 कषायपाहुड सूत्र फ्र
( हिन्दी अनुवाद सहित )
ध. श्री, श्रीधरजी उकर्डार्शजी वाणी रा. खामगांव यांचे करून वडीलांचे स्मरणार्थ श्री चंद्रप्रभु दि. जैन स्वाध्याय मंदीर खामगांव यांस अर्पण, श्री महावीर जयंती ता. ३१-३-६९
श्री चंद्रप्रभु
नियतं पाठशाला खामगांव जि. बुलडा
सम्पादक- अनुवादक
दिवाकर, विद्वत्न पं० सुमेरुचंद्र दिवाकर शास्त्री, न्यायतीर्थ, श्री. प. एल एल. बी.
सिवनी ( मध्यप्रदेश )
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प्रस्तावना
धर्मग्ण-रंगभूमिः कारिपराजयकजय--लक्ष्मीः । निर्मोह-भटनिषेव्या क्षषकश्रेणी चिरं जयतात् ।।
वह क्षपकसीर्शिकालपळभयालयांत सुविहिरसामर्स की रंगभूमि है, कमरूप शत्रु का पराजयकर अद्वितीय विजय लक्ष्मी तुल्य है. तथा जो मोह रहित-निर्मोही सुभट वीरों के द्वारा सेवनीय है ।
. इस भरतक्षेत्र के आर्यखण्ड में ऋषभनाथ आदि चौबीस सीथ करों के द्वारा दिव्यचति के माध्यम से सङ्कर्म की वैज्ञानिक देशना हुई । उनमें अंतिम धर्म देशना पश्चिम तीर्थकर महाश्रमण महात गहावीर वर्धमान भगवान द्वारा राजगृह के निकटवर्ती विपुलगिरि पर हुई थी । उनकी पावनवारणी को एक अंतमुहूर्त में अवधारणकर गौतम गोत्रधारी इंद्रभूति ने उसी समय चारह धंगरूप ग्रंथों की रचना की और गुणों से अपने समान श्री सुधर्मा स्वामी को उमका व्याख्यान किया। कुछ काल के अनंतर ईद्रभूति भट्टारक केवल ज्ञान को उत्पन्न करके और द्वादश वर्ष पर्यन्त केवली रूप से विहारकर मुक्त हुए । उत्तरपुराण में उनका निर्वाण स्थल विपुलगिरि कहा गया है । उसी दिन सुधर्मा स्थामी को केवल ज्ञान उत्पन्न हुआ। गौतम स्वामी के समान जन्होंने द्वादश वर्ष पर्यन्त धर्मामृत की वर्षा करके निवाण लाभ लिया । उसी दिन जंबूस्वामो भट्टारक ने सर्वत्रता प्राप्त की। उन्होंने अड़तीस वर्ष पर्यन्त केवलीरूप से विहार करने के अनंतर मोक्ष पदवी प्राप्त की । इस उत्सपिणी काल के वे अंतिम अनुबद्ध केवली हुए | महाश्रमण महावीर के समवशरण में सात सौ केलियों का सद्भाव कहा गया है। उन केलियों ने अायु कर्म के क्षय होने पर मोन प्राप्त किया। उनके विषय में यह बात ज्ञातव्य है कि श्रोधर केवली ने सबके अन्त में कुडलगिरि से मोक्ष प्राप्त किया था • । यह कथन तिलोयपएणात्ति की इस गाथा से अवगत
होता है :
कुंडलगिरिम्मि चरिमो केवलणाणीसु सिरिधरी सिद्धो । चारणरिसीसु चग्मिी सुपास-चन्दाभिधाणो य ॥ति, प. ४.१४७९
मध्यप्रदेश के दमोह जिले से २२ माल दूरी पर कंडलपुर नाम का बाबन जिनालयों से अलंकृत सुन्दर तथा मनोरम पुण्य तीर्थ है। वहां पर्वत पर विद्यमान बड़े यात्रा की द्वादश फुट ऊंची पद्मासन भव्य
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स श्रुतज्ञान की परंपरा-भगवान महावीर ने मंगलमय धर्म की देशना की थी तथा सदों का निरूपण किया था। उन्हें अथकर्ता कहा गया है तथा गौतम स्वामी को प्रथको स्वीकार किया जयादा गुणभद्र स्वामी ने उत्तर पुराण में कहा है, कि गौतम गणधर द्वारा द्वादश अंगों की रचना पूर्व रात्रि में की गई थी और पूर्वो की रचना उन्होंने रात्रि के अतिम भाग में की थी। "अगानां ग्रंथसंदर्भ पूर्वराने व्यधाम्यहम् । पूर्वाणां पश्चिम भागे.....(७४-३७१, ३७२)। तिलोयपपत्ति में कहा है:
"इय मूलततकत्ता सिरिवीरो इंदभूदिविष्पवगे । उवतंते कत्तारो अणुतते सेस-आइरिया ॥१८॥
इस प्रकार श्री वीर भगवान मूल तंत्रकर्ता, विशिरोमरिण इंद्रभूति उपतंत्रकर्ता तथा शेष आचार्य अनुतंत्रकर्ता हैं। छानुबद्ध केवली की अपेक्षा महावीर भगवान के निर्माण प्राप्त होने के पश्चात बासठ वर्ष पर्यन्त सर्वज्ञता का सूर्य विश्व को पूर्ण प्रकाश प्रदान करता हुआ अज्ञामतम का क्षय करता रहा।
इसके पश्चात् विष्णु, नंदिमित्र, अपराजित, गोवर्धन, भद्रबाह इन पंच श्रुतकेवलियों में सौ वर्ष का समय पूर्ण हुया । इस पंच श्रुतकेवलियों की गणना भी परिपाटी क्रम अर्थात अनुबद्ध रूप से की गयी, जो इस बात को सूचित करती है, कि यहां अपरिपाटी क्रम से पाये जाने चाले श्रुतके वलियों की विवक्षा नहीं की गई। तिलोयपरशान्ति तथा उत्तर पुराण में प्रथम श्र त केवली "विष्णु" को "नंदि" नाम से संकीर्तित किया गया है, | धवला, जयधवला, श्रुतावतार, हरिवंशपुराण में विष्णु" नाम श्राया है।
पंच श्र तज्ञान पाथोधि-पारगामी महर्षियों के अनंतर एकादश मुनीश्वर ग्यारह अंग और दस पूर्व के पाठी हुए । उनके नाम पर इस प्रकार है--१. विशाखाचाय, २ पोष्ठिल, ३ क्षत्रिय, ४ जय, ५ नागसेन,
प्रतिमा के बहिर्भाग में श्यामवर्णीय लगभग छह इंची चरणयुगल हैं । उनमें लिखा है, "कंडलगिरी श्रीधर स्वामी" । इससे यह स्वीकार करना उचित है, कि कंलगिरि अननुबद्ध केवली श्रीधर भगवान को निर्धारण भूमि है। अनुबद्ध अर्थात् क्रमबद्ध केवलियों में जंबूस्वामी अतिम केवली हुए तथा श्रक्रमबद्ध केलियों में श्रीधर स्वामी हुए, जिन्होंने कुण्डलगिरि से मोन प्राप्त किया । जंबूस्वामी का निर्माण स्थल उत्तरपुराण में राजगिरि का विपुलाचल पर्वत कहा गया है।
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( ३ }
६ सिद्धार्थ, वृतिषे, विजय, ६ बुद्धिल, १० गंगदेव, ११ धर्म सेन | इन मुनीन्द्रों का एक सौ तिरासी वर्ष प्रमाणकाल कहा गया है। तिलायपरसत्ति तथा श्रुतावतार कथा में विशाखाचार्य का नाम क्रमशः विशाख तथा विशाखदत्त आया है। श्रुतावतार कथामें बुद्धिल के स्थान में बुद्धिमान शब्द आया है। तिस्तोयपति में धर्मसेन की जगह सुधर्म नाम दिया गया है। इन सुनिराजों के विषय में गुणभद्राचार्य ने लिखा है कि ये "द्वादशांगार्थ - कुशलादशपूर्वराश्च ते" ( उ. पु. पर्व ७६. श्लोक ५२३ ) द्वादशांग के अर्थ में प्रवीण तथा दस पूर्ववर थे ।
इनके अनंतर एकादश अंग के ज्ञाता दो सौ बीस वर्ष में नक्षत्र, जयपाल, पाण्डु ध्रुवसेन और कंस ये पंच महाज्ञानी हुए । श्रुतावतार कथा में ध्रु सेन की जगह 'द्र ुमसेन' शब्द आया है। जयधवला में जयपाल को 'जसपाल ' तथा हरिबंशपुराण में 'यशपाल' कहा गार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज
इनके पश्चात् श्रुतज्ञान को परंपरा और क्षीण होती गई और आचारांग के ज्ञाता सुभद्र, यशोभद्र यशोबाहु और लोहाचार्य एक सौ अठारह वर्ष में हुए। तावतार कथा में यशोभद्र की जगह अभयभद्र तथा यशोबाहु के स्थान में जयबाहु नाम आया है ।
महावीर भगवान के निर्वाण के पश्चात् अनुबद्ध क्रम से उपरोक्त अट्ठाईस महाज्ञानी मुनीन्द्र छह सौ तिरासी वर्ष ( ६ + १०० + १८३ + २२० + ११८= ६३३ ) में हुए । यह कथन क्रमबद्ध परंपरा की अपेक्षा किया गया है ।
तातार कथा में लोहाचार्य के पश्चात् विनयधर, श्रीदत्त. शिवदत्त, श्रद्दत्त, श्रवलि तथा माघनंदि इन छह महा पुरुषों को अंग तथा पूर्व के एक देश के ज्ञाता कहा है। अन्य ग्रंथों में ये नाम नहीं दिए गए हैं । संभवतः ये श्राचार्य अनुबद्ध परंपरा के कम में नहीं होंगे । इनके युग में और भी अक्रमबद्ध परंपरावाले मुनोश्वर रहे होंगे |
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गुणधर स्थविर - जयधवला टीका में लिखा है, "तदो अंगपुत्रा मेगसो चैत्र इरिय- परम्पराए आगंतू गुणहराइस्यिं संपत्ती" ( जय. ध. भाग १ पृ. ८७ ) लोहाचार्य के पश्चात् अंग और पूर्वी का एक देश ज्ञान आचार्य परंपरा से आकर गुणधर आचार्य को प्राप्त हुआ। गुणधर श्राचार्य के समान धरसेन आचार्य भी धवलादीका में अंग तथा पूर्वी के एक देश के ज्ञाता थे । लिखा है, "तो सम्बेसि - गंग-पुव्वाणमेग देखो आइरिय परम्परा । ए श्रागच्छमाणो धरसेनाइरियं संपत्तो" (१,६७ ) | आचार्य गुणधर
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तथा प्राचार्य धरसेन विनयधर श्रीदत्त, शिवदत्त, बहरत्त, अहंद्र बलि
और माधनंदि मुनीश्वरों के समान अंग-पूर्व के एकदेश के ज्ञाता थे। ये नाम क्रमबद्ध परंपरागत न होने से तिलोयपएसत्ति, हरिवंशपुराण, उत्तर पुराण आदि ग्रंथों में नहीं पाये जाते हैं । प्रतीत होता है कि इनका मुनीश्वरों के समय में कोई विशेष उल्लेखनीय अन्तर न रहने से इनका पृथक रूपसे काल नहीं कहा गया है। उपरोक्त गुरु-परंपर। के कथन के प्रकाश में यह बात ज्ञात होती है. कि सर्वज्ञ भगवान महावीर तीर्थकर की दिव्यध्वनि का अंश गुरमधर आचार्य को अवमत था। अत: गुणधर नाचा रचित कपायपादुड सूत्र का सवेज वारसी से परंपरागत सबन्ध स्वीकार करना होगा । इस दृष्टि से इस मंच की मुमुक्षु जगन के मध्य अत्यन्त पूज्य स्थिति हो जाती है।
मार्गदर्शक :- आचार्य श्री. सुविधिसागर जी महाराज, सीने
गणधर श्राचार्य का समय --बिलोकसार में लिखा है. कि वीरनिर्वाण के दहसी पाँच वर्ष तथा पांच माह व्यतीत होने पर शक
पर शक नामका राजा उत्पन्न हुआ । इसके अनंतर तीन सौ चौरानवे वर्ष सात माह बाद कल्की हुधा । । इस गाथा की टीका में माघवचंद्र विद्यदेव कहते हैं,-"श्रीवीरनाथनिवृत्तेः सकाशात पंचोत्तरषट्शतवर्षाणि (६०५) पंच (५) माम युतानि गत्वा पश्चात विक्रमांकशकराजो जायते "। ग्रहां शक राजा का अर्थ विक्रम राजा किया गया है । इस कथन के प्रकाश में अंग-पूर्व के अंश के पाठो मुनियों का सद्भाव विक्रम संवत् ६३ - ६८५ = ७८ अाता है । विक्रम संवत् के सत्तावन वर्ष बाद ईसवी सन प्रारंभ होता है । अतः ४८ - ५७ - २१ वर्ष ईसा के पश्चात प्राचारांगी लोहाचार्य हुए। उनके समीप ही गुणधर पाचाय का समय अनुमानित होने से जनका काल ईसवी की प्रथम शतानदी का पूर्वाध होना चाहिये ।
__ दिगम्बर आम्नाय पर श्रद्धा करने वालों की दृष्टि में वीरनिवारण काल विकम से ६०५ वर्ष पांच माह पूर्व मानने पर इस विक्रम संवत् २.२५ में ६०५ + २०२५ २६३० होगा । डाक्टर जैकोबी ने लिखा है कि श्व संप्रदाय के अनुसार वीरनिर्वाण विक्रम ये चार सौ सत्तर वर्ष पूर्व हुआ था तथा दिगम्बरों की परंपरा के अनुसार यह छह सौ पांच वर्ष
र परण-हस्सय-बस्स पणमास जुदं गमिय बीर-पिवृइदो। सगराजो तो कक्की चदु-रणव-तिय-महियसग-मास ।। ८५० ॥
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पूर्व हुआ था । अतः दिगम्बर परंपरा के अनुसार गुणवर आचार्य को ईसा की प्रथम शताब्दी में मानना होगा। ईसा से ५२७ वर्ष पूर्व वीर• निर्वाण की प्रचलित मान्यता के प्रकाश में गुणधर स्वामी का समय १४४ ईसवी सन अर्थात् दूसरी शताब्दी कहा जायेगा।
ग्रंथ निर्माण का कारण-गुणधर स्वामी के चित्त में यह विचार उत्पन्न हुआ, कि मेरे पश्चात् इस परमागम रूप कषायपाहुद्ध ग्रंथ का लोप हो जायगा, अतः इसका संरक्षण करना चाहिए। इस श्रुत सरक्षस की समुञ्चल मावना में प्रेरित होकर महाज्ञानी गुणधर भट्टारक ने इस रचना की ओर प्रवृत्ति की। जयधवला टीका में वीरसेन स्वामी ने कहा है, "थंग और पूर्वो का एक देश ही प्राचार्य परंपरा से प्राकर गुणधर आचार्य को प्रामासिकपुनः बाचाबा सारासार पाने महाराज दसवी वस्तु तृतीय कपायप्राभृत रूपी महासमुद्र के पारगामी श्री गुणधर भट्टारक ने-“गंवोच्छेद भएण पवयण्त्रच्छल-परवसीकहियपण एवं पेज्जदोस-पाहुई सोलसपदसहस्स पमाणं होत असीदिसदमेतमाहादि उवधारिद" (पृष्ठ ८७, भाग १)- जिनका हृदय प्रबंधन के वात्सल्य से भरा हुअा था, सोलह सहस्त्र पद प्रमाण इस पेज्जदोस पाहुड शास्त्र का विच्छेद हो जाने के भयसे केवल एक सौ अस्सी गाथाओं के द्वारा उपसंहार क्रिया । यहाँ पद का प्रमाण मध्यम पद जानना चाहिए | आचाया इंदनंदि ने लिखा है:
अधिकाशीत्या युक्तं शतं च मूलसूत्रगाथानाम् । विवरणमाधानां च व्यधिक पंचाशतमकार्षीत् ॥ १५३ ॥
_मूल सूत्रगाथाओं का प्रमाण १८० है तथा विवरम् गाथाओं की संख्या ५३ है । इस प्रकार १८०+५३ मिलकर २३३ गाथाएं हैं। जिस प्रकार धरसेन प्राचार्य के द्वारा उपदिष्ट महाकम्मपयदि पाहुड का जपसंहारकर पखंडागम रचे गए, इसी प्रकार गुरमधर प्राचार्य ने १८० गाथाओं में कषायपाहुड द्वारा आगम का उपसंहार किया था ।
* The traditional date of Mahavira's Nirvana is 470 years before Vikrama according to the Svetambaras and 605 according to the Digambaras. महावीर निर्वाण के विषय में मैसूर के प्रास्थान महाविद्वान स्व.पं. शांतिराज शास्त्री ने तत्वार्थ सूत्र की भास्करनंदी रचित संस्कृत ग्रंथ की भूमिका में विस्तृत विवेचन किया था।
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एनके सिवाय शेष श्रेपन विचरण गाथाओं के विषय में यह बात ज्ञातव्य है, कि १२ संबंध गाथाएँ, बद्धा परिणाम संबंधी ६ तथा प्रकृति संक्रम वृत्ति विषयक ३५ गाथाएं मिलकर त्रेपन गाथा होती हैं। उनमें १८० का योग होने पर दो सौ तेत्तीस गाथाओं की संख्या निष्पन्न होती है ।
मार्गदर्शक :- आधा तसागरमाकडालवार्य यद्यपि सविधभर्यों से
विमुक्त थे, किन्तु जिनेन्द्र शासन के लोप के भय से प्रेरित हो उन्होंने कषायपाहुड सूत्र की रचना का कार्य संपन्न किया। उनकी आत्मा वीतरागवा के अमृत रस से परिपूर्ण थी, तथा उनका इदय प्रवचन वत्सलता की भावना से समलंकृत था। तत्वार्थराजवार्तिक में प्राचार्य श्री अकलंकदेव ने कहा है: “यथा धेनुर्वत्सेऽकृत्रिमस्नेहमुत्पादति तथा सघर्माणमवलोक्य तद्गत-स्नेहाद्रीकृत-चित्तता प्रवचन वत्सतस्त्रमुच्यते । यः सधरिस स्नेहः स एव प्रवचन-स्नेहः" (पृ० २६५, १०६, सूत्र २५)जिस प्रकार माय अपने बछड़े पर अकृत्रिम स्नेह को घारण करती है, उसी प्रकार साधमियों को देखकर उनके विषय में स्नेह से द्रवीभूत चित्त का होना प्रवचनवत्सलत्व है। जो साधर्मी बंधुओं में स्नेह भाव है, वह प्रवचन घस्सलपना अथवा प्रवचन के प्रति स्नेह है।
महापुराण में लिखा है, कि भगवान ऋषभनाथ के जीव वचनाभि ने अपने पिता वनसेन तीर्थकर के पादमूल में सोलह कारण भावना भायी थीं। उनमें प्रवचन वत्सलसा भी थी। उसका स्वरूप इस प्रकार कहा गया है :
वात्सल्यमधिकं चक्रे स मुनि धर्मवत्सलः । विनेयान स्थापयन् धर्मे जिन--प्रवचनाश्रितान् ॥ ११,७७ ।।
धर्म यत्सल उन वनाभि मुनिराज ने जिनेन्द्र के प्रवचन का आश्रय लेने वाले शिष्यों को धर्म में स्थापित करते हुए महान वात्सल्यमाव धारण किया ।
इस प्रवचन वात्सल्य भावना से प्रवचनभक्ति नाम की भावना भिन्न है। उसका स्वरूप इस प्रकार कहा है :
परी प्रवचने भक्ति प्राप्तोपन ततान सः । न पारयति रागादीन् विजेतुं संततानसः ।। ११-७४ ।।
यह सर्वज्ञ प्ररूपित जिनागम में अपनी उत्कृष्ट भक्ति धारण करता था, क्योंकि जो व्यक्ति शास्त्र की भक्ति से शून्य रहता है, वह
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रागादि शत्रुओं को नहीं जीत सकता है। रागादिशत्रुओं को जीतने में श्रागम का प्रेम तथा अभ्यास महान हितकारी है।
प्राचार्य यतिवृषभ ने तिलोयपण्णप्ति में लिखा है, कि आगम के अभ्यास द्वारा अनेक लाभ होते हैं। "अरणास्स विणासो"-अज्ञान का विनाश होता है, "पाण-दिवायरस्स उप्पत्ती"-ज्ञान सूर्य की उत्पत्ति होती है तथा "पडिसमय-मसंखेज्जगुणसेदि-कम्माणिज्जर -प्रति समय असं ख्यात गुणमि रूप कर्मों की निर्जरा होती है।
प्रवचन यत्सलता में जिनेन्द्र भगवान के आराधकों के प्रति हार्दिक स्नेह का सद्भाव प्रावश्यक है तथा प्रवचन भक्ति में प्रकृष्ट वचन रूप प्रवचन अर्थात् सर्वशवाणी के प्रति विनय तथा प्रादर का सद्भात रहता है । अकलंक स्वामी के ये शब्द विशेष प्रकाश डालते हैं, "मईदाचार्येषु बहुश्रु तेषु प्रवचने यामारविशुद्धियुजिग्नोसोहिासागर महाराज पृ. २७, अ. ६, सू. २५) महन्त भगवान, प्राचार्य परमेष्ठी, बहुश्रुत अर्थात् महान ज्ञानी व्यक्ति तथा जिनागम के प्रति भावविशुद्धि युक्त अनुराग भक्ति है। प्रवचन में भावों की निर्मलता युक्त अनुराग को प्रवचन भक्ति कहा है। भक्ति पूज्य के प्रति की जाती है। वात्सल्य में पारस्परिक प्रेम एवं हार्दिक स्नेह का सद्भाव पाया जाता है।
गुणधर आचार्य ने प्रवचन वात्सल्य भावना से प्रेरित हो जिनेन्द्रमत्तों के कल्यासार्थ इस ग्रंथ की रचना की। वीरसेन स्वामी का कथन है कि कषाय पाहुड संबंधी सुत्र गाथाएँ श्राचार्य परंपरा से
आती हुई प्राचार्य आयमच तथा नागहस्ती प्राचार्य को प्राप्त हुई-"पुरमो ताथो चेव सुत्त-गाहाम्रो पाइरियपरंपराए आगच्छमाणीनो अज्ञमंखु -~णागहथीण पत्ताओ।" ( जयधवला पृ. ८%) उन गाथाओं पर प्रवचन-वत्सल यतिवृषभ भट्टारक ने चूपिसूत्रों की रचना की । “जयिषसहमहारपण पवयरम-वच्छ लेण चुरिगसुत्तं कयं ।" उन चूर्णिसूत्रों का प्रमाण छह हजार श्लोक है। इंद्रनंदि आचार्य ने कहा है: "तेन यत्तिपतिना रचितानि षट्सहस्र-ग्रंथान्यथ चुणिसूत्राणि" ( श्लोक १५६)। उन सूत्रों पर साठ हजार श्लोक प्रमास जयधवला टीका आचार्य वीरसेन तथा जिनसेन ने बनाई | ब्रह्म हेमचंद्र ने श्रुतस्कंध में लिखा है :"मत्तरि सहस्सधवनो जयधवलो सदिसहस्स बोधव्वो। महबंध चालीसं सिद्धतत्तयं अहं वन्दे ।" धवलग्रंथ सत्तर सहस्त्र प्रमाण है। जयधवल साठ हजार प्रमाण है। महावंध चालीस हजार प्रमाण है। जिन सनाचार्य ने जयधयला की प्रस्ति में कहा है, "टीका श्रीजयचिह्नितोमधवला सूत्रार्थसंघोतिनी"-यह जय चिह युक्त महान धवल टीका सूत्रों के अर्थों पर भली प्रकार प्रकाश डालती है।
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ग्रंथकार के जीवन पर प्रकाश-गुणधर आचार्य के जीवन पर प्रकाश डालने वाली विशेष सामग्री का अभाव है। जयधवलाकार कषायपाहु सूत्र को अत्यन्त प्रामाणिक ग्रंथ सिद्ध करते हुए यह हेतु देते हैं, कि इसके रचयिता प्राचार्य का व्यक्तित्व महान था। वे "जियचउ-फसाया" क्रोध, मान, माया तथा लोभ स्वरूप कपायों के विजेता थे। वे "भग्ग-पंचिदिय-पसरा"-पांची इंद्रियों की स्यच्छदता वियुक्त अर्थात् इंद्रिय-विजेता थे। उन्होंने "चूरिय-घउ-सएएसेसा"-माहार, भय, मैथुन तथा परिग्रह रूप चार संज्ञाओं की सेना का क्षय किया था अर्थात् वे इन संज्ञाओं के वशवर्ती नहीं थे। वे ऋद्धि गारव, रस गाग्व तथा साता गारव रहित थे; "इडि-रस-साद-गारचुम्मुक्का " | परिग्रह सम्बन्धी तीन अभिलाषा को गारव दोष कहा है, "गारवाः परिग्रहगताः तीब्राभिलाषा"। ( मूलाराधना टीका गाथा ११२१)। विजयोदया टीका में कहा है, "ऋद्धित्यागासहता ऋद्धिगाखम् , अभिमतरसात्यागोऽनभिमतानावरश्च नितरां रसगारवम् । निकामभोजने निकामशयनादी व आसक्तिः सातगारवम् | " ऋद्धि प्रादि के होने पर उनसे अपने गौरव की भावना को धारण करना ऋद्धिगारय है। रसना को प्रिय लगने वाले रसों का त्याग न करना तथा अप्रिय रसों के प्रति मन में 'अनादर नहीं होना रखाखवा। सनीलीशीनसुविधाससफ्ट ती महाराष्ट्राव पाया जाता है। अधिक भोजन, अधिक निद्रा तथा विश्राम लेने में प्रवृत्ति या आसक्ति सात-गारव दोष है। महर्षि गुणधर भट्टारक में इन दोषों का अभाव था। वे रस परित्यागी, तपानुरक्त तथा बिनम्र प्रकृति युक्त साधुराज थे। वे "सरीर-दिरित्ता-सेस-परिगह-कलकुत्तिएण।"- शरीर को छोड़कर समस्त परिग्रह रूप कलंक से रहित थे। वे महान प्रतिभासंपन्न थे। समस्त शास्त्रों में पारंगत थे, "सयल-गंथस्थाबहारया” | वे मिथ्या प्रतिपादन करने में मिमित्त रूप कारण सामग्री से रहित थे। इस कारण उनका कथन प्रमाण रूप है, "अलीयकारणाभ वेण अमोहयया तेरए कारणेणेदे पमा" | पूर्वोक्त गुणों के कारण प्राचार्य गुणधर के सिवाय आर्यमंतु-नागहस्ति तथा तिवृषभ श्राचार्य की वाणी भी प्रमाणता को प्राप्त होती है। वक्ता को प्रामा रमकता के कारण वचनों में प्रमाणिकता पाती है। वीरसेन प्राचार्य के ये शब्द महत्वपूर्ण हैं,-"प्रमाणीभूत-पुरुष पंक्तिकमायाव-वचनकलापस्य नाप्रामाण्यम अतिप्रसंगास्"-प्रमाणकोट को प्राप्त पुरुष परपरा से उपलब्ध वचन समुदाय को अप्रमाए नहीं कह सकते है, अन्यथा अतिप्रसंग दोष था जायगा। उससे सर्वत्र व्यवस्था का लोप हो जायगा । महान ज्ञानी, श्रेष्ठ चरित्र युक्त तथा पापभीरु महापुरुषों की कृतियों में पूर्णतया दोषों का अभाव रहता है, ऐसी मान्यता पूर्णतया न्याय्य तथा समीचीन है। समंतभद्र स्वामी ने प्राप्तमीमांसा में कहा है :-वक्तर्यनाप्त यद्धेतोः
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मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज
साध्य तद्धेतुसाधितम् । प्राप्त यक्तरितद्वाक्यात साध्यमागम-साधितम।।७।। वक्ता यदि अनाप्त है, तो युक्ति द्वारा सिद्ध यात हेतु-साधित कही जायगी। यदि वक्ता प्राप्त है तो उनके कथन मात्र होने से ही बात सिद्ध होगी। इसे भागम-साधित कहते हैं।
इस 'कसायपाहुम्सुम्स' की रचना अंग-पूर्व के एक • देश हावा गुणधर आचार्य ने स्वयं की । धरसेन धाचार्य भी अंग तथा पूर्वो के एक देश के ज्ञाता थे। वे षखंडागम मूत्र की रचना स्वयं न कर पाए। उन्होंने भूतबलि तथा पुष्पदन्त मुनीन्द्रों को महाकम्मपद्धि - पाहुड का उपदेश देकर उनके द्वारा '
पखंडागम' सूत्रों का प्रणयन कराया । अतावतार कथा में लिखा है-धरसेन आचार्य को अग्रायणी पूर्व के अंतर्गत पंचम वस्तु के चतुर्थभाग महाकर्मप्राभूत का ज्ञान था। अपने निर्मल ज्ञान में उन्हें यह भासमान हुआ, कि मेरी श्रायु थोड़ी शेष रही है। यदि अतरक्षा का कोई प्रयास न किया जायगा. तो अतज्ञान का लोप हो जायगा। ऐसा विचार कर उन्होंने वसावदाकपुर में विराजमान महामहिमा - शाली मुनियों के समीप एक ब्रह्मचारी के द्वारा इम प्रकार पत्र भेजा था, "स्वस्ति श्री वेणात टाकवासी तिवरों को पर्जयन्त तद निकटस्थ चंद्रगुहानिवासी घबसेनण अभिवन्दना करके यह सूचित करता है, कि मेरी आयु अत्यन्त अल्प रह गई है। इससे मेरे हायस्थ शास्त्र की व्युच्छित्ति हो जाने की संभावना है। अतएव उसकी रक्षा के लिए आप शास्त्र के ग्रहण, धारण में समर्थ तीक्ष्ण बुद्धि दो यतोश्रो को भेज दीजिये ।" *
विशेष बात--इस कथन के प्रकाश में यह कहना होगा, कि कसायपाहुडसुत्त अंग-पूर्व के एक्रदेश के ज्ञाता गुणधर श्राचार्य को साक्षात् रचना है । षटबण्डागम की रचना में इससे भिन्न वात है। वह महान ज्ञानी धरसेन प्राचार्य की साक्षात् रचना न होकर उनके दो महान् शिष्यों को कृति है, जिसमें धरसेन स्वामी काही मगत निबद्ध है (जिसे उन्होंने गुरु परंपरा द्वारा प्राप्त किया था)। धरसेन स्वामी ने जो पत्र घणातटाकपुर के संघ नायक को भेजा था, उसय यह स्पष्ट होता है, कि आचार्य गुणधर तथा धरसेन स्वामी सहस महान ज्ञानी मुनीश्वरों का अनेक स्थानों पर सद्भाव था। संघाधिपति श्राचार्य महान् ज्ञानी रहे हों।।
ग्रन्थ की पूज्यता-यह ग्रंथ द्वादशांग वारसी का अंश रूप होने से अत्यन्त पूज्य, प्रामाणिक तथा महत्वपूर्ण है। द्वादशांगवायो
• देखिए-महाबंध की हमारी प्रस्तावना पृष्ठ ११
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को वेद कहा गया है । इस दृष्टि से यह वेदांश या वेदांग रूप है महर्षि जिनसेन का कथन है।
श्रुतं सुविहितं वेदो द्वादशांगमकल्मषम् । हिंसोपदेशि यद्वाक्यं न वेदोऽसौ कृताम्दाकं ।महाराही सुविधासागर जी महाराज
___ यह सुरचित्त द्वादशांग वेद है। यह किसी प्रकार के दोष से दूषित नहीं है । जोजीव वध का निरूपण करने वाली रचना है, यह वेद नहीं है। वह तो कृतान्त की प्राणी है।
यह भी ज्ञातव्य है, कि षटखंडागम सूत्र की महान कृति की रचना होने पर ज्येष्ठ सुदी पंचमी को वैभवपूर्वक श्रुस की पूजा की गई थी तथा उस समय से श्रवपंचमी नाम से सरस्वती की समाराधना का पर्व प्रारंभ हुआ । गुणधर स्वामी कृप इस कषायपाहुड सूत्र में केवल २३३ गाथाए हैं। पटखंडागम महाशास्त्र है । उसके छठवें ख. महाबंध की रचना चालीस हजार श्लोक प्रमाण है । शेष पांच खराक्ष लगभग छह श्रष्ठ हजार श्लोक प्रमाण होंगे । षट्खंडागम की रचना होने पर देवताओं ने इोत्सव मनाया था । कसायपाहुख सूत्र के विषय में ऐसा इतिहास नहीं है | यह कसायपाहुह अहेतुवाद, स्वयं प्रमाण स्वरूप प्रागम होने से प्रामाण्यता को प्राप्त है। यह रचना अत्यन्त कठिन
और दुरूह होते हुए भी स्वाध्याय करने वाली आत्माओं को विशुद्धिप्रद है। इसे जिनेन्द्रवासी का सातान् अंश मानकर विनय सहित पढ़ने तथा सथा सुनने वाले भव्य जीव का कल्याण होगा। आत्म कल्याण के प्रेमी, भद्र परिणामी भव्यों के लिए ऐसी रचनाएँ अमृतोपम है।
मंगलाचरण का अभाव कषायपाहुड सूत्र ग्रंथ का परिशीलन करते समय एक विशेष बात दृष्टिगोचर होती है, कि अन्य ग्रंथों की परंपरा के अनुसार इस शास्त्र में मंगल रचना न करके गुणधर स्वामी ने एक नवीन दृष्टि प्रदान की है। उनका अनुगमन कर यतिवृषभ स्थविर ने चूर्सिसूत्रों के प्रारंभ में मंगल नहीं किया है ।
शंका--- जयघषला में कहा है, गुणधर भट्टारक ने गाया सूत्रों के आदि में तथा यतिवृषभ स्थविर ने घरिणसूत्रों के कादि में मंगल क्यों नहीं किया?
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उत्तर-यह कोई दोष की बात नहीं है। प्रारंभ किए गये कार्यों में बिन्नकारा कर्मों के विनाशार्थ मंगल किया जाता है। इस उद्देश्य की पूर्ति परमागम के उपयोग द्वारा होती है। यह बात प्रसिद्ध नहीं है, क्योंकि यदि शुभ और शुद्ध भावों के द्वारा कर्मों का क्षय नहीं स्वीकार किया गया, तो अन्य उपाय द्वारा कर्मों का क्षय असंभव होगा।
शंका--शुभ भाव कषायों के उसय में होते हैं। उनसे कर्मबंध ही होगा। उन्हें कर्मक्षय का हेतु क्यों कहा गया है !
उत्तर--शुभ भावों में तीन कपाय का अभाव रहता है। उनमें मैद कषाय रूप परिमति होती है। शुभ कार्यों में प्रवृत्ति होने पर अशुभ योगों का संवर होता है। संवर रूप परिणामों से कर्मों की निर्जरा मानने में कोई बाधा नहीं है। कार्तिकेयानप्रेता में कहा है, "मंद-म.सायं. धम्म” (४७०) मदतीय धर्मचाई है। पिका_स्वमुम्बहारविच बारह अनुप्रैक्षा में कहा है :सुहजोगेसु पवित्नी संघरणे कुणदि असुह-जोगस्स । सुहजोगाम गिरोहो सुद्धव जोगेण समवदि ॥ ६३ ॥
शुभ योगों में प्रवृत्ति से अशुभ योग का निरोध अर्यात् संवर होता है। शुभ योगों का निरोध शुद्ध उपयोग द्वारा सभष है।
शुभ योगों में जितना निवृत्ति अंश है, उतना धर्म रूप सत्य है। जितना अंश सरागसा युक्त है, उतना पुण्य बंध का हेतु कहा गया है। शुभोपयोग परिणत प्रात्मा में भी धर्म रूप परिणत सद्भाव प्रवचनसार में बताया गया है। कुंदकुंद स्वामी ने लिखा है :
धम्मेण परिणदप्पा अप्पा अदि सुद्ध-संपयोगजुदो । पावदि णिवाणासुहं सुहोवजुत्ती व सग्गसुई ॥ प्रवचनसार-११॥
जब आत्मा धर्म परिसत स्वभाव युक्त हो शुद्धोपयोग को धारण करता है, तब मोक्ष का सुख प्राप्त होता है। जब मात्मा धर्म परिणत स्वभाव युक्त हो शुभ उपयोग रूप परिस्त होता है, तब वह शुभोपयोग के द्वारा स्वर्ग सुख को प्राप्त करता है।
मंगल हि कीरदे पारद्धकज्ज-विग्घयरकम्म-विरणासण। तं च परमागमुवजोगादो चेव मस्सदि । रस चेदमसिद्धः सुप्ह-सुद्धपरिमादि कामक्खयाभाव तक्खयाशुषवत्तीदो। उत्तं च
दिइया बंध या उपसम-वय-भिम्पयोय माकनवरा । . भावो दु पारिएमिओ करणाभन्य-जियो होइ ॥.,जयधवला, भाग १॥
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अमनिवारण-गुणधर आचार्य ने मंगल रचना न करके यह विशेष बात स्पष्ट की है, कि परमागम का अभ्यास पौद्धिक व्यायाम सदृश मनोरंजक नहीं है, किन्तु उसके द्वारा भी निर्मल उपयोग होने से कर्म निर्जरा की उपलब्धि होती है। इसका यह अर्थ नहीं है, कि जन साधारण मंगल स्मरण कार्य से विमुख हो जावे। स्वयं चतुर्ज्ञान समलफूस गौतम गोत्रीय गणधर इन्द्रभूति ने चौबीस अनुयोगद्वारों के
आरंभ में मंगल किया है। यतिवृषभ स्थविर तथा गुणधर भट्टारक ने विशुद्ध नव के अभिप्राय से मंगल नहीं किया, किन्तु गौतम स्वामी ने मार्गदर्यवहार मगामी अमेजामिंद्यालायाम्हारजप्रकार अपेक्षा भेद है ।
शंका-भूतार्थ होने से एक निश्चय नय ही उपादेय है : व्यवहार नय अभूतार्थ होने से त्यागने योग्य है। इस व्यवहार नय का श्राश्रय श्रुतफेवली गणधर ने लिया, इसमें क्या रहस्य है ?
समाधान-गौतम गणघर का कथन है, कि व्यवहार नय त्याज्य नहीं है। उसके श्राश्रय से अधिक जीवों का कल्याण होता है। (जो बहुजीवाणुहकारी क्वहारणो सो व समस्सियोति मणावहारिय गोदमथेगेण मंगल तत्व कयं (ज. ध पृ० ८ भा०१) जो व्यवहार नय बहुत जीचों का हितकारी है, उसका त्याग न कर उसका प्राश्रय लेना चाहिये, ऐसा अपने मन में निश्चयकरके गौतम स्थविर ने मंगल किया है उनके ही पथ का अनुसरण कर कुन्दकुन्ट, समतभद्र आदि महर्षियों ने व्यवहार नय का आश्रय लेकर स्वयं को तथा अनेक जीवों को कल्याण मार्ग में लगाने के हेतु शास्त्रों में मंगल रचना की हैं । इस प्रकाश में उन आत्माओं को अपनी विपरीत दृष्टि का संशोधन करना चाहिये, कि व्यवहार नय व्यर्थ है तथा वह निन्दा का ही पात्र है । वीतराग निधिकल्प समाधि रूप परिसत महा मुनि निश्चय नय का आश्रय लेकर स्वहित संपादन करते है ।(सामान्य मुनिजन भी जब निश्चय नय रूपी सुदर्शन चक्र को धारण करने में असमर्थ हैं, तब परिग्रह-पिशाध से अभिभूत इंद्रियों और विषयों का दास गृहस्थ उसके धारस की जो बातें सोचता है, यह उसका अति साहस है। वह जल में प्रतिबिंबित चन्दमा को पकड़ने की बालोचित तथा महर्षियों द्वारा समर्थित चेष्टा करता है। एकान्स पक्ष हानिप्रद है।
मंगल का महत्व-व्यवहार नय की उपयोगिता को स्वीकार करते हुए जयथवला में वीरसेन स्वामी अरहंत स्मरण रूप मंगल का
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महत्व व्यक्त करते हुए कहते हैं, "तेण सोवण-भोयण-पयास-पच्चापस सस्थपारंभादिकिरियासु सियमेण अरहवएमोक्कारो कायवो"(पृमीदक्धि:-) अमावासी विकासपणेदनमाप्रज्ञाशाजप्रत्यावर्तन (वापिस 'आना) तथा शास्त्र के प्रारंभ आदि क्रियाओं में नियम से (खियमेण) श्ररइत नमस्कार अर्थात् स्मो अरिहंता रूप महा मंत्र का स्मरण करना चाहिये ।
मूलाचार में कुंदकुंद स्वामी ने लिखा है :अरहत-गणमोकारं भावेण या जो फरेदि पयदमदी । सो सम्बदुक्खमोक्खं पाया अचिरेण कालेण ॥ ७-५॥ ____ जो निर्मल बुद्धि मानव भावपूर्वक श्ररईत को नमस्कार करता है, वह शीघ्र ही सर्व दुःखों से मुक्त हो जाता है।
वास्तव में यह महामंत्र द्वादशांग वारसी का सार है, जो श्रावक, मुनियो तथा अन्य जीवों का कल्याण करता है। इसके द्वारा पापों का क्षय होने से दुःखों का भी नाश होता है। पापों के विपाकवश ही जीव दुःख प्राप्त करते है। इसके द्वारा पुण्य का वध होता है, उससे मनोवांछित सुखदायक सामग्री प्राप्त होती है। यह पंच परमेष्ट्री का स्मरण रूप मंगल संपूर्ण मंगलों में श्रेष्ठ है । कहा भी है :
एमो पंच णमोयारो सन्धपाव-पणासणी । मंगलाणं च सध्धेसि पटमं होइ मंगलं ॥
यह पंच नमस्कार मंत्र संपूर्ण पापों का क्षय करने वाला है। ग्रह संपूर्ण मगलों में सर्वोपरि है। श्रमणों के जीवन में इस मंत्र का. प्रतिक्रमणादि आवश्यक क्रियाओं के करते समय, अत्यन्त महत्वपूस स्थान है।
महत्त्व की बात-पंच परमेष्टियों में अष्ट कर्मों का क्षय करने वाले सिद्ध भगवान सर्व श्रेष्ठ हैं, फिर भी महामंत्र में पार घानिया फों का दय करने वाले भरहंत को प्रसाम के पश्चात् सिद्धों को प्रसाम किया गया है। इसका कारण यह है, कि व्यवहार नय की अपेक्षा अपनी दिव्यध्वनि के द्वारा अगगित जीवों को कल्याण पथ में प्रवृत्त कराने वाले भरहंत प्रथम पूजनीय माने गए हैं। यहां निश्चय नय की अपेक्षा न करके व्यवहार की उपयोगिता को लक्ष्य में ले बहुजीव-मनुग्रहार्थ
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(
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"समो अरहंता" को मुख्यता का कल्याण या उपकार नहीं पंचपरमेष्ठी रूष नमस्कार मंत्र
रह जाता।
दी गई है। निश्चय दृष्टि में कोई किसी करता है । उसकी अपेन ली जाती, तो केवल सिद्ध परमेष्ठी की अभिवंदना रूप
प्राचीन मंत्र - यह पंच परमेष्ठी स्मरण मंत्र अनादि मूलमंत्र | 'अनादि-मूल-मंत्रोयम्' यह वाक्य जैन परंपरा में प्रसिद्धि को प्राप्त है। श्वेताम्बर संप्रदाय भी इसे अनादि मूलमंत्र मानता है। मूलाराधना टीका में अपराजित सूरि ने कहा है, कि सामायिक आदि लोकविन्दुसार पर्यन्त समस्त परमागम में णमो चरिहंतास इत्यादि शब्दों द्वारा गणधरों ने पंच परमेओिं को नमस्कार किया है। उक्त ग्रंथ के ये शब्द : आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज ध्यान देने योग्य हैं; "यघेवं सकलस्य श्रुतस्य सामायिकादेलों कविन्दुसारान्तस्या मंगलं कुर्वद्भिर्गणधरैः णमो श्रहंताणमित्यादिना कथं पंचानां नमस्कारः कृतः १”
गौतम गणधर रचित प्रतिक्रमण ग्रंथ त्रयी से समोकार मंत्र की प्राचीनता पर प्रकाश पड़ता है। उसमें यह पाठ पढ़ा जाठा है: "जाव अरहंताणं भयवंता समोकारं करोमि, पज्जुवामं करेमि ताव कार्य पावकम्मं दुवरियं वोस्सरामि" - जब तक मैं अरहंत भगवान की नमस्कार करता हूँ, तथा पर्युपासना करता हूं, तब तक मैं पापकर्म दधा दुश्चरित्र के प्रति उदासीनो भवामि " - उदासीनता को धारण करता हूँ । टीकाकार प्रभाचंद्र ने पर्युपासना को इस प्रकार स्पष्ट किया है; "एकाप्रेण हि विशुद्धेन मनसा चतुर्विंशत्युत्तर- शतत्रयादि-उच्छ्वासै-रप्टोत्तर शतादिवारान् पंचनमस्कारोवारणमर्द्दतां पर्युपासनकरणं" ( ० १५५ ) एकाचित्त हो विशुद्ध मनोवृत्तिपूर्वक तीन सौ चौबीस उच्छ्वासों में एक सौ आठ बार पंच नमस्कार मंत्र का उच्चारण करता अर्हन्त की पर्युपासना है ।" इससे स्पष्ट होता है. कि प्रतिक्रमण करते समय १०८ चार णमोकार को जाप रूप पर्युपासना का कार्य परम आवश्यक है ।
धर्मध्यान के दूसरे भेद पदस्थ ध्यान में मंत्रों के जाप और ध्यान का कथन किया गया है। द्रव्यसंग्रह की गाथा ४६ को टीका में बारह हजार श्लोक प्रमाण पंचनमस्कार संबंधी ग्रंथ का उल्लेख किया गया है ।
"द्वादश सहस्रप्रभित-पंचनमस्कार-मंथ कथितक्रमेण लघुसिद्धचक्रं . ज्ञात्वा ध्यातव्यम्" - ( २०४ बृहद् द्रव्यसंग्रह )
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( १५ ) भ्रान्न कल्पना-मंत्रों में श्रेष्ठ णमोकार मंत्र की अनादि मूल मालिकसमुन्जक्यामरा सेंसिलिसातवाहाशवेश उस समय से हुआ, जब से पत्रला टीका का हिन्दी अनुवाद सहित प्रथम भाग प्रकाश में श्राया तथा उसके आधार पर यह प्रचार किया गया, कि पुष्पदंस प्राचार्य ने इसकी रचना की, अत: यह निबद्ध नाम का पारिभाषिक मंगल है, जिसका भाव है प्रथ कर्ता की यह रचना है। जीवदारम खण्ड के श्रारंभ में कहा गया है "इदं जीवदाणं विद्धर्मगलं"। इसका यह अर्थ लगाना, कि जीवदास में पारिभापिक निबद्ध मंगल है, असंगत है। जीवदारम सूत्र का नाम नहीं है। वह एक अंथ का नाम है । घटखंडागम के प्रथम खण्ड को जीवदाए संज्ञा प्रदान की गई है। उस ग्रंथ में मंगल संलग्न रहने से कहा है. कि यह जीवदारण मंगल ग्रंथ सहित है। यदि पारिभाषिक मंगल निबद्ध" शब्द का अभिधेय होता, तो "इदं जीवद्राणं मणिबद्धमंगलं' पाठ होता। ऐसा नहीं है, अतः रायमोकार को पुष्पदन्त आचार्य को रचना कहना 'गगनारविन्द मुरभि:'---बाफाश का कमल सौरभ संपन्न है यह कथन सदृश असत्य और अपरमार्थ याद है।
विचारक बुद्धि ( Common Sense ) के द्वारा चितन करते पर, यह ज्ञाच होगा कि जिस धर्म की चौबीस सर्वत्र तीर्थकरों ने देशना दी उस धर्म की आधार शिला रूप णमोकार मंत्र को किस प्रकार दूसरी सदी में उत्पन्न मानने को विवेक द्वारा समर्थन मिलेगा? ऐसी महान सांस्कृतिक विशुद्ध घारमा के विरुद्ध नई शोष के नाम पर अयथार्थ प्रचार पक्ष का मोह अमंगल कार्य है । श्रमण संस्कृति के मूलाधार श्रमम् जीवन की देवसिक क्रियाओं में जप तप में इस महामंत्र समोकार के स्मरण की आवश्यक्ता बताई गई है। अतः धार्मिक एवं विवेकी व्यक्ति का कर्तव्य है, कि पक्ष व्यामोह घश किए प्रचार के अनुसार अपनी धारमा न बनावें । श्रागम, युक्ति तथा परंपरादि के अनुसार विचारों को विशुद्ध बनाना समीचीन कार्य होगा।
जयपवला टीका की ताम्रपत्रीय प्रति-कषायपाहुड सूत्र की जयधचला टीका की ताइपत्रीय प्रति मूबिद्री के सिद्धान्त मंदिर में विद्यमान है। यह पुरातन कानड़ी लिपि में है। भाषा कहीं संस्कृत है, कहीं प्राकृत है। इस प्रकार 'मरिण-प्रवाल' न्यायानुसार यह भाषा पाई जाती है। यह प्रति सात, आठ सौ वर्ष पुरातन कही जाती है। उसे ही भाज मूल प्रदि माना जाता है। चारित्रचक्रवर्ती १०८ आचार्य श्री शान्तिसागर जी महाराज की इच्छा पूर्ति हेतु उक्त साठ हजार प्रमाण प्रध की ताम्रपत्रों में उत्कीर्ण प्रति आचार्य शांतिसागर जनवाणी जीसोद्धारक संस्था के द्वारा तैयार कराई गई। इसी प्रकार वला टीका भी ताम्रपत्र में
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उत्कीर्स हुई | महायंध भी ताम्रपत्र में उत्कीर्ण हो गया है। ये ग्रंथ फलटए. बंबई में रखे गए हैं। परिपूर्ण महायंध मूलमंथ का संपादन, प्रकाशन का पुण्य कार्य आचार्य महाराज की प्रान्नानसार हमारे द्वारा संपन्न हुआ था। हमने महाबंध प्रथम 'पडिबध' का हिन्दी अनुवाद किया था। उसका दूसरा संस्करण मुद्रित हुआ है। धर्मध्यान का साधक
शास्त्रकारों ने धर्मध्यान तथा शुक्लध्यान को निर्वाण का साधन कहा है। इस दुःषमा नाम के पंचमकाल में शुक्लध्यान की सामन्य नहीं पाई जाती है। धर्मध्यान की पात्रता पाई जाती है। उसके तृतीय भेद विपाक-विचय धर्मध्यान में कमों के विपाक का चितवन किया जाता है। प्राचार्य अकलंक ने कहा है--"कर्मफलानुभवनविवेक प्रति प्रणिधान विपाकविचयः। कर्मणां ज्ञानावरसादीनां द्रव्य-क्षेत्र-काल-भव-भाव-प्रत्यय
फालानुभवनं प्रति प्रणिधान विपाकविचयः (तरा० पृ३५३ ) क्रमों के . फनानुभवन-विपाक के प्रति उपयोर्षिकहोनामिमा नियुधिसागराचा महाराज धर्मध्यान का साधक है।
ज्ञानावरणादिक कर्मों का द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव, भाव के निमित्त से जो फलानुभवन होता है, उस ओर चित्तवृत्ति को लगाना विपाक विषय है। कर्मों के स्वरूप तथा विपाक का चितवन करने पर रागादि की मन्दता होती है तथा कषाय विजय का कार्य सरल हो जाता है। यह शास्त्र धर्मध्यान का साधक है ।
ताविक दृष्टि-समयप्रामृत की देशना के प्रकाश में जीव या सोनता है-- जीवस्स णस्थि वग्गो ण वग्गणा व फड्ढ्या केई । णो अज्झप्पट्ठाणा ऐत्र य अणुभाय-ठाणाणि ॥ ५२ ।। जीवस्म णस्थि केई जोयहाणा ण बंधठाणा था। खेव य उदयट्ठाणा ण मम्गद्वाणया केई ॥ ५३ ॥ को विदिबंधट्ठाशा जीवस्स ण संकिलेसठाणा वा । णेव विसोहिट्ठाणा गो संजम -- लझूिठाणा वा ॥ ५४ ॥ शेब य जीववाणा रण गुणट्ठाणा य अस्थि जीवस्म | जेण दु एदे मवे पुग्गलदव्वस्त परिणामा ।। ५५ ॥
इस जीव के न तो वर्ग है, नमार्गणा है, न स्पर्धक है, न अध्यवसाय स्थान है, न अनुभाग स्थान है। जीव के न योगस्थान है.
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( १७ ) में बंधस्थान है, न उदयस्थान है, न मार्गणा स्थान है, न स्थितिबंध स्थान है, न संक्लेश स्थान है, न विशुद्धिस्थान है, न संयमलब्धि स्थान है। जीव के न जीवस्थान है, न गुणस्थान है, कारण ये सब पुद्गल के परिणाम हैं।
विवेक पथ-यह है परिशुद्ध पारमार्थिक दृष्टि । मुमुक्षु आत्मा पकान्त पक्ष का परित्याग कर व्यवहार दृष्टि को भी दृष्टिगोचर रखता है। यदि व्यवहार का सर्वथा परित्याग कर एकान्तरूप से निश्चय इष्ट्रि को अपनाया जाय, तो वह जीय मोक्ष मार्ग के विषय में अकर्मण्य बनकर म्वच्छन्द आचार द्वारा पाप का प्राश्रय लेगा तथा उसके विपाकवश दुःखपूर्ण पर्यायों में जाकर यह वर्णनातीत व्यथा का अनुभव करेगा।
पंचास्तिकाय की दीका में (गाथा १७२ ) अमृतचन्द्र सुरि लिखते हैं-"जो एकान्त से निश्चयनय का लालबन लेते हुए रागादि विकल्पों से रहित परमसमाधिरूप शुद्धात्मा का लाभ न पाते हुए भी तपस्वी के आचरणयोग्य सामायिकादि छह श्रावश्यक क्रिया के पालन का तथा श्रावक के आचरण के योग्य दान, पूजा आदि का बण्डन करते हैं, ये निश्चय नीदिशाबहार बोकानों से विहीं सांगेले अपहरिराजय तथा व्यवहार याचरण के योग्य अवस्था से भिन्न कोई अवस्था को न जानते हुए पाप को ही बांधते हैं। * प्रमाद का प्राश्रय लेने वाला निश्वयाभार वात्मा का विकास न करता हुश्रा पतन अवस्था को प्राप्त करता है तथा ! व्यवहाराभासी पुण्याचरम द्वारा स्वर्ग जाता है । विवेकी साधक समन्वय । के पथ को स्वीकार करता हुया कहता है :
यवहारेण दु एदे जीवस्म हवंति वरणमादीया । गुण्ठाणता भाषा ण दु कई गिच्छयण यस्स ॥ ५६।।म.प्रा.॥
* "येपि केवलनिश्चयनयावर्लविनः संतोपि रागादि-विकल्परहित परमसमाधिरू शुद्धात्मानमलभमाना अपि तपोधनाघरणयोग्यं घडावश्यकारानुष्ठान श्रावकाचरणयोग्यं दानपूजाघनुष्ठानं च दृषयन्त, तेप्युभयभ्रष्टाः संतो निश्चय-व्यवहारानुष्ठानयोग्यावस्थान्तर-सपजानन्तःपापमेव बन्नति।" (पंचास्तिकाय टीका पृष्ठ ३६ ) यह भी कहा गया है- “ये केचन..." व्यवहारनयमेव मोक्षमागे मन्यन्ते तेन तु सुरलोकक्लेश-परंपरया मसार परिभ्रमंतीवि"-जो एकान्तवादी व्यवहारनय को ही मोक्षमार्ग स्वीकार करते हैं, वे देवलोक के कृत्रिम सुख रूप क्लेश परंपरा का अनुभव करते हुए संसार में भ्रमण करते हैं।
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ये पणादि गुणस्थान पर्यन्त आव व्यवहारनय से जीव में पारे । जाते हैं। निश्चय नय की अपेक्षा वे जीव के भाव नहीं
यायवान आशुविहिासागर जी महाराज हत्त्वज्ञान तरंगिणी में कहा है :
व्यवहारेण विना केविकष्टाः केवलनिश्चयात् । निश्चयन विना केचित् केवलब्यवहारतः ॥
कोई लोग ध्यवहार का लोपकर निश्चय के एकान्त से विनाश को प्राप्त हुए और कोई निश्नय दृष्टि को भूलकर केवल उग्रवहार का प्राश्रय लेकर विनष्ट हुए।
द्वाम्यां डग्म्या विना न स्यात् सभ्यग्द्रष्यावलोकनम् । यथा तथा नयाभ्यां चेत्युक्तं च स्याद्वादिभिः ॥
जैस दोनों नेत्रों के बिना सम्यक रूप से वस्तु का अवलोकन नहीं होता, उसी प्रकार दोनों नयों के चिमा भी यथार्थरूप में वस्तु का | पहण नहीं होता, ऐसा भगवान का कथन है।
कषायपाहुड का प्रमेय- इस पंथ में मोहनीय कर्म के भेद कषाय पर विशेष प्रकाश डाला गया है। प्राचार्य नेमिचंद्र सिद्धान्त चक्रवर्ती ने फषाय के स्वरूप पर इस प्रकार प्रकाश डाला है--
सुहदुक्ख-सुबहुमस्स कम्मरखेनं कमेदि जीवस्म । संसाररमर तेमा फसानोत्ति णं ति ॥ २८२ ॥ गो. जी.
जिस कारण सुख, दुःख रूप बहु प्रकार के तथा संसार कप सुदूर मर्यादा युक्त ज्ञानाघरमान रूप कर्म क्षेत्र (खत) का कषरण । हमा बादि के द्वारा जोसना आदि ) किया जाता है, इस कारण इसे कषाय कहते हैं।
क्रोध, मान, माया तथा लोभ रूप संवक मिथ्यादर्शन आदि संग्लश भाव रूप बीज को प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश धंध नक्षा कर्मरूप खेत में बोता हा कालादि सामग्री को प्राप्त कर सम्त्र दुःख रूप बहुविध धान्यों को प्राप्त करता है। इस कर्म क्षेत्र की धनाटि अनंत पंच परावर्तन संसार रूप सीमा है। यहां कृषसीति कपाया। इस प्रकार निरुक्ति की गई है। इस ग्रंथ का प्रमेय कषाय के विषय में 'पेशदोस पाटुर' के अनुसार प्रतिपादन करना है।
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( १६ )
इस जीव के कर्मबन्ध होने में कषाय मुख्य कारण है । तस्वार्थसूत्र में ऋक्षा है - "सकषायत्वात् जीवः कर्मखो योग्यान पुद्गलान आदसे सबधः " - जीव कपाय सहित होने से कर्मरूप परिणत होने योग्य पुद्गलों को - कार्मास वर्गणाओं को ग्रहण करता है, उसे बंध कहते हैं। पाय की मुख्यता से होने वाले कर्मबंध के द्वारा यह जीव कष्ट भोगा करता है ।
जह भारवsो पूरिसो वह मरं गेहिऊस कावडियं । एमेव च जीवो कम्मभरं कायकावडियं ॥ गो. जी. २०१
जैसे कोई बोझा ढोने वाला पुरुष काँव को महरण कर श्रोम्मा ढोता है, इसी प्रकार यह जीव शरीर रूप कावड़ में कर्मभार को रखकर दया करता है ।
कर्म संबंधी मान्यताएं:- - इस कर्म सिद्धान्त का समादर सर्वत्र पाया जाता है; किन्तु जैन आगम में जिस प्रकार इसका प्रतिपादन किया गया है, वैसा अन्यत्र नहीं है । सामान्यतया 'क्रिया' को 'कर्म' संज्ञा प्रदान की जाती है। गीता में “योगः कर्मसु कौशलम्' - कर्म में कुशलता को योग कहा है। गीता श्रमिक में प्रासार) को राज माना गया है । इसी कारण वहां "कर्म ज्यायो अकर्मणः" अकर्मी बनने की अपेक्षा कर्मशीलता को अच्छा कहा है। ऐसी भी मान्यता है कि अयक्ति सत् अथवा असत् कार्य विशिष्ट संस्कारों को छोड़ जाता है; उम संस्कार से आगामी जीवन की क्रियाएं प्रभावित होती हैं। उसी संस्कार विशेष को कर्म कहा जाता है। इस संस्कार को कर्माशय, धर्म, अधर्म | अदृष्ट या दैव नाम से कह देते हैं । तुलसीदास ने कहा है :
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तुलसी काया खेत हैं मनसा मयो किमान 1 पाप पुण्य दीड बीज हैं, चुवै सो लुनै निदान ॥
शुद्ध धर्म की दृष्टि कर्म के विषय में किस रूप में है. यह क्रुद्ध के इस आख्यान द्वारा अवगत होती है। कहते हैं, एक बार गौतम बुद्ध भिक्षार्थ किसी संपन्न किसान के यहां गये। उस कृषक ने उनसे कहा, "आप मेरे समान किमान बन जाइये । मेरे समान आपको धन-धान्य की प्राप्ति होगी। उससे आपको भिक्षा प्राप्ति हेट प्रयत्न नहीं करना पड़ेगा ।" बुद्धदेव ने कहा, "भाई। मैं भी तो किसान हूं। मेरा खेत मेरा हृदय है । उसमें मैं सत्कर्म रूपी बीज बोता हूं। विवेक रूपी हल चलाना हूं। मैं विकार तथा वासना रूपी घास की निंदाई करता हूँ तथा प्रेम और आनंद की अपार फसल काटता हूं ।
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( २० ) महर्षियों ने पूर्वयद्ध कमी को पलबान कहा है । यह सूक्ति महत्वपूर्ण है--
चैधा वदन्ति कफ-पित्त-मरुद्विकारान् । ज्योति विदो ग्रहगति परिवर्तयन्ति ॥ भृताभि-भूतमिति भूतविदो वदन्ति । प्राचीनकर्म बलवन्मुनयो वदंति ॥
मार्गदकिमानचा मध किया काण्डों को कर्म संशा प्रदान की गई है। वैयाकरण पाणिनि ने कर्ता के लिए अत्यन्त इष्ट को कर्म कहा है। महाभारत में उसे कर्म कहा है, जिससे जीव घंधन को प्राप्त करता है-“कर्मण। यध्यते जन्तुः, विदाया तु प्रमुच्यत" ( २४०-५) पतंजलि के योगसूत्र में "क्लेश का मूल कारण फर्म (कर्माशय) कहा गया है । कर्माशय-फम की वासना इस जन्म में तथा जन्मान्तर में अनुभवगोचर हुश्रा करती है। योगी के अशुक्ल पवं अकृष्ण कर्म होते हैं। संसारीजीवी के शुक्ला, कृष्ण तथा शुक्ल-कृष्ण कर्म कहे गए हैं। -"क्लेशमूलः कर्माशयः पटापजन्य वेदनीयः । कोशुक्लकृष्ण योगिनास्त्रविमितरेषाम्"--- ( यो. द. कैवल्यपाद )।
क्रियात्मक क्षणिक प्रवृत्ति से पत्पन्न घर्म तथा अधर्म पदवाच्य मात्मसंस्कार कर्म के फलोपमोग पर्यन्त पाया जाता है।
अशोक के शिलालेख नं. ८ में लिखा है, "इस प्रकार देवताओं का प्यारा प्रियदर्शी अपने भले कर्मों से उत्पन्न हुए सुख को भोगता है।' 'मिलिन्द प्रश्न' चौद्ध रचना में मिलिन्द नरेश को भितु नागसेन ने कर्म का स्वरूप इस प्रकार समझाया है, जीव कर्मों के अनुसार नाना योनियों में जन्म धारण करते हैं । कर्म से ही जीव ऊँचे-नीचे हुए हैं।-"कम्मपरिसरमा । कम्म मते बिभजात यदिदं हीनप्पणांततायीति"* जैन धाडमय में कर्म का सुव्यवस्थित, शृङ्गलाबद्ध तथा वैज्ञानिक वर्णन है। फर्म विषयक विपुल साहित्य उपलब्ध होता है। क्रम के बंध पर प्रकाश डालने
.MO Maharaja, it is because of differences of action that men are not like, for some live long and some are short-lived; some are bale and some weak; some comely and some ugly; some powerful and some without power; some rich, some poor, some born of noble, come meanly Btack, some wise and some foolish"-The Heart of Buddhism P. 85.
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षाला महाबंध शास्त्र चालीस हजार श्लोक प्रमाण है, जो प्राकृत भाषा में रचा गया है । बंध के मूल कारण क्रोधादि कषायों का वर्णन करने वाली रचना जयधवला साठ हजार श्लोक प्रमाण है । इत्यादि इस प्रकार के विपुल साहित्य के परिशीलन द्वारा यह अवगत हो जाता है. कि सर्वज्ञ होने के कारण जैन तीर्थ करों की कर्म सम्बन्धी देशना मौलिक, सारपूर्ण तथा वैज्ञानिक है। इस कर्म को सुस्पष्ट विवेचना से इस बात का हृदयग्राही समाधान प्राप्त होता है, कि परमात्मा को शुद्ध, बुद्ध, सवज्ञ, अनंत शक्ति सम्पन्न स्वीकार करते हुए भी उसका विश्व निर्माण तथा कर्म फल प्रदान कार्य में हस्तक्षेप न होते हुए किस प्रकार लोक व्यवस्था में बाधा नहीं आती।
- जैन दर्शन में कर्म-कर्म का स्वरूप समझने के पूर्व यदि हम इस विश्व का विश्लेषण करे, तो हमें सचेतन तथा अचेतन ये दो तत्त्व प्राप्त होते है । चैतन्य (Consciousness) अर्थात् ज्ञान-दर्शन गुणयुक्त धात्म नत्व है। आकाश, काल, गमन तथा स्थिति रूप परिवर्तन के माध्यम रूप धमें तथा अधर्म नाम के तत्व और पुद्गल (Matter) ये पाँच घचेतन द्रव्य हैं। इन छह द्रव्यों के समुद्रायरूप यह विश्व है। इनमें
आकाश, काल, धर्म और धर्म तो निष्क्रिय द्रव्य है। इनमें प्रदेशमार्गदर्शवंचल मेमवार्यपी सुनिष्किामाच ही रुलघु नाम के गुण के कारण घड़
गुणीहानि वृद्धि रूप परिणमनमात्र पाया जाता है। ऐसा न मान, तो द्रव्य फूटस्थ हो जायगी ।
जीव तथा पुद्गल में परिस्पंदात्मक किया प्रत्येक के अनुभव गोचर है । पंचाध्यायी में कहा है :
भाववन्तो क्रियावन्ती द्वावेतौ जीवपुद्गलौ । तो च शेषचतुष्कं च षडेते भावसंस्कृताः ॥ तत्र क्रिया प्रदेशानां परिस्पंदश्चलात्मकः । भावस्तत्परिणामास्ति धारावाह्य क-वस्तुनि ॥२।२५, २६॥
जोय तथा पुद्गल में भाववती और क्रियावती शक्ति पायी जाती है। धर्म, अधर्म, काश, काल, जीव और पुद्गल में भाववठी शक्ति उपलब्ध होती है। प्रदेशों के संचजनरूप परिस्पंदन फो क्रिया कहते हैं। धारावाही एक वस्तु में जो परिणमन पाया जाता है, उसे भाव कहा जाता है।
भाववन्तौ क्रियावन्ती च पुद्गलजीवी परिणाममात्रजमो भावः। परिस्पंदननक्षमा क्रिया । (प्रवचनसार टीका गाथा १२६)
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वैभाविक नाम की शक्ति विशेष वश जीव और पुद्गल संयुक्त हो बंधनवद्ध हो जाते हैं। जिस प्रकार चंत्रक लोहे को अपनी ओर आकर्षित करता है, उसी प्रकार वैभाविक शक्ति विशिष्ट जीव रागादि भावों के कारण कार्मास वर्गणा तथा आहार, तैजस, भाषा तथा मनोवर्गणा रूप नोकर्मत्रगणाओं को अपनी ओर आकर्षित करता है। आचार्य नेमिचंद्र सिद्धान्त चक्रवर्ती ने लिखा है, कि जिस प्रकार तप्त लोह पिण्ड सर्वांग में जल को खेंचकर आत्मसात् करता है, उसी प्रकार रागादि से संतप्त जीव भी कार्माण तथा नोकार्माण वर्गणाओं को खेचा करता है। अनंतानंत परमाणुओं के प्रचय को वर्गणा कहते हैं । पद्मनंदि पंचविशतिका में कहा है
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धर्माधर्म नमांसि काल इति मे नैवाहितं कुर्वते । चत्वापि सहायतामुपगता स्तिष्ठन्ति गत्यादिषु ॥ एक: पुद्गल एव सन्निधिगतो नोकर्म-कर्माकृतिः । बैरी बंधकृदेष संप्रति मया भेदासिना खंडितः ॥ २५॥ आलोचना अधिकार
धर्म, अधर्म, आकाश और काल मेरा। तनिक भी अहित नहीं करते हैं। ये गमन, स्थिति आदि कार्यों में मेरी सहायता किया करते हैं । एक मुद्गल द्रव्य ही कर्म और नोकर्म रूप होकर मेरे समीप रहता है । अब मैं बंध के कारण उस कर्म रूप शत्रु का भेद-विचार रूपी तलवार के द्वारा विनाश करता हूँ ।
परिभाषा - परमात्म प्रकाश में कहा है :
विसय कसायहि रंगियहं जे अणुया लभ्यंति । जीव-पएसहं मोहियहं ते जिण कम्म भांति ॥ ६२ ॥ विषय तथा कवयों के कारण आकर्षित होकर जो पुदगल के परमाणु जीव के प्रदेशों में लगकर उसे मोहयुक्त करते हैं, उन्हें कर्म कहते हैं।
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मुद्गल द्रव्य की तेईस प्रकार की वर्गणाओं में कार्मास वर्गा कर्म रूप होती है तथा आहार, तैजस, भाषा और मनोवर्गणा नोकर्म रूपता को प्राप्त होती हैं। शेष अद्वादश प्रकार का पुद्गल कर्म- नोकर्मरूपता
'वयस्कान्तोपलाकृष्ट सूची यत्तद्द्द्वयोः पृथक् ।
अस्ति शक्तिः विभावाख्या मिथो बंधाधिकारिणी ||पंचा. राष्४२ शा "देोदये सहि जीवो आइदि कम्म-शोकम्मं ।
पचिसमयं सच्च तत्तायस डिभीव्व जलं । गो० क० ३ ॥ परमाहिं अताहि वग्गसरा दु होदि एक्का हु ।। गो. जी. २४४॥
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यहाँ कंदकंद स्वामी ने कर्म को धूलि सदृश प्रताया है। तैल लिप्त शरीर पर जिस प्रकार धूलि चिपक जाती है। उसी प्रकार रागादि से मनिन मात्मा के साथ कर्म रूपी रज का बंध होता है। पुद्गल के परमाणु स्निग्धपना तथा रुक्षपना के कारण परस्पर बंध अवस्था को प्राप्त कर इस विश्व में विविध रूपता का प्रदर्शन करते हैं। अमृतचन्द्रसूरि कहते हैं, कि दो अणु आदि अनंतानंत परमाणु युक्त पुद्गलों का कर्ता जीव नहीं है । वे परमाणु ही स्वयं उन अवस्थाओं के उत्पादक हैं। 'अतोऽवर्धायने दूयणुकाधनन्तानंत-पुद्गलानां न पिण्डकी पुरुषोस्वि" इस विश्व में सर्वत्र सूक्ष्म तथा स्थूल पर्याय परिणत अनन्तान्त पुद्गलों का सझाव पाया जाता है । "ततोऽषोयते न पुद्गल पिण्डानामानेदा पुरुषोस्ति'इससे यह निश्चय किया जाता है कि पुद्गल पिएका को लाने वाला पुरुष नहीं है। ये पुदूगल बिना बाधा उत्पन्न किये ही समस्त लोक में पाय जाते हैं।
"जैसे नवीन मंघ के जल का भूमि से संबंध होने पर पुदगलों का स्वयमेव दूर्वा, विविध कीटादि रूप परिसमान होता है, इसी प्रकार जिस समय यह आत्मा राग तथा द्वेषयुक्त हो शुभ तथा अशुभ भावों से परिपत होता है उस समय आत्म प्रदेश परिस्पंदन रूप योग के द्वारा प्रवेश को प्राप्त कम रूप पुद्गल स्वयमेव विचित्रवाओं को प्राप्त झानावरणादि रूप से परिमत होते हैं। इससे अमृतचन्द्र सूरि यह निष्कर्ष निकालते हैं, "स्वभावकृतं कर्म वैचित्र्य न पुनरात्मकृतम्"-कर्मों की विचित्रदा स्वभाव जनित है। बद प्रात्मा के द्वारा उत्पन्न नहीं की गई है। प्रात्मा और पुद्गल के कर्म पर्याय रूप परिणमन करने में निमित्त नैमित्तिकपना पाया जाता है। जीव और पुद्गल द्रव्य पूर्णतया पृथक हैं। उनमें उपादान-उपादेयता का पूर्णतया अभाव है। भाचार्य अकलंकदेव
'मोगाद-गाढ़ णिचिदो पोग्गलकाएहिं सम्वदो लोगो। सुमेदि बादरेहिं यसपारम्गेहिं जोग्गेहिं ॥१६॥ प्रव. सा.
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राजवार्तिक में लिखते हैं-"यथा भाजनविशेष प्रतिप्तानां विविधरसवीज-पुप्प-फलानां मदिराभावेन परिणामः, तथा पुद्गलानामपि प्रात्मनि स्थितानां योगकषायवशात् कर्मभावेन परिणामो वेदितव्यः" । जैसे प्रत्र । विशेष में डाले गए अनेक रसवाले बीज, पुष्प तथा फलों का मदिरा म्प
में परिणाम होता है, उसी प्रकार योग तथा कषाय के कारण यात्मा । में स्थिय पुद्गलों का कर्मरूप से परिणमन होता है। 1 समयसार में मदपि कुंदकुंद कहते हैं :
जीवपरिणामहेहूँ कम्मत्तं पुग्गला परिणमंति । पुग्गल-कम्पणि मित्तं तहेव जीवो वि परिणमइ ॥८॥
बंध में निमित्त नैमित्तिकपना-जीव परिणामों का निमित्त पाकर पुद्गल का फर्मरूप से परिणमन होता है। इसी प्रकार पोद्गलिक ग्रामदेशे निमित्त चायावासा सहारीवामन होता है । किशनसिह जी ने क्रियाकोष में कहा हैं :
। सूरज सन्मुख दरपण घरै, रूई ताके आगे करें । unia रवि-दर्पणको तेज मिलाय, अगनि उपज रूई बलि जाय ॥५१॥
नहि अगनी इकली रूइ मांहि, दरपन मध्य कहूँ हैं नाहि । | दुहुनि को संयोग मिलाय, उपजै अगनि न संशै थाय ॥५५॥ समयसार का यह फथम मार्मिक है :
ण वि कुब्बइ कम्मगुणो जीवो कम्मं तहेव जीवगुणे । श्रणोएण-णिमित्तेण दु परिणाम जाण दोएहपि ॥१॥
' –तात्विक दृष्टि से विचार किया जाय, तो जीव न तो कर्म में गुण करता है और न कर्म ही जीव में कोई गुणा उत्पन्न करता है। जीव तथा पुद्गल का एक दूसरे के निमित्त से विशिष्ट रूप से परिणमन हुधा करता है।
एएण कारणेण दु कत्ता आदा सएण भावेण ।
पुग्मल-कम्म-क्रयाणं दु कत्ता सव्यभावाणं ॥२॥ र इस कारण से आत्मा अपने भाव का कर्ता है। यह पुद्गल कर्मकृत समस्त भावों का कर्चा नहीं है।
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अमृतचन्द्रसूरि का कथन है
जीवकृतं परिणामं निमित्तमात्रं प्रपद्य पुनरन्ये । स्वयमेव परिणमंते पुद्गलाः कर्मभावेन ॥ पु. सि. १२ ॥
--
जीव के रागादि भावों का निमित्त पाकर पुद्गज्ञ स्वयमेव कर्मरूप में परिणमन करते है ।
जैसे सूर्य की किरणों का मेघ के अवलंबन से इंद्रधनुपादि रूप से परिणमन हो जाता है; इसी प्रकार स्वयं अपने चैतन्यमय भाव से परिण्मन शील जीव के रागादिरूप परिणमन में पौद्गलिक कर्म निमित्त पड़ा करता है। यदि जीव और पुद्गल में निमित्त भाव के स्थान में उपादान उपादेयत्व हो जावे. तो जीव द्रव्य का अभाव होगा अथवा पुद्गल द्रव्य का अभाव हो जायगा । भिन्न क्रयों में उपादान- उपादेयता नहीं पाई जाती।
प्रवचनसार की टीका में अमृतचंद धाचार्य ने कहा है, पुद्गलस्कन्ध कर्मत्व परिणमन शक्ति के योग से स्वयमेव कर्मभाव से परिव होते हैं। इसमें जीव के रागादिभाव बहिरंग साधन रूप से अवलम्बन होते हैं ।
देह - देही - भेद - - कुंदकुंद स्वामी कहते हैं, शरीर जीव से पूर्णतया भिन्न है—
ओरालियो य देहो देहो वेउच्चियो य तेजयिश्रो । आहारय कम्मयो पोलदन्यप्पा मध्ये प्र. सा. १७१॥
॥
औदारिक शरीर, वैक्रियिक शरीर, तैजस शरीर, आहारक तथा कार्माण शरीर ये सभी पुद्गलद्रव्य रूप हैं। "ततो भवधार्यते न शरीरं पुरुषोस्ति" इससे यह निश्चय किया जाता है, कि शरीर पुरुष रूप नहीं है । ऐसी स्थिति में यह जिज्ञासा उत्पन्न होती है, क्रि जोवका असाधारण लक्षण क्या है ?
अरम- मरूत्र -मगंधं श्रव्त्रसं चेदणागुण-ममद | जाण अलिंगग्गहणं जीवमणिद्दिदुठाणं ॥ १७२
जीव रस, रूप, गंध रहित है; अव्यक्त है। चैतन्य गुण युक्त है; शब्द रहित है; बाह्य लिंग (चिह्न) द्वारा भमाझ है तथा श्रनिर्दिष्ट संस्थान वाला है।
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चूडामणि में कहा है :
एवं मिश्रस्वभावोयं देही स्वत्वेन देहकम् |
सुरुपते पुनरज्ञानादतो देहेन बध्यते ।। ७ । १६॥
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इस देह में स्थित आत्मा उस शरीर से भिन्न स्वभाव वाला है । वह देही अज्ञानवश देव को अपना मानता है. इस कारण वह शरीर से बंधन को प्राप्त होता है ।
शंका- पुद्गल स्कन्धों को फर्म कहा जाता है; जीव के भावो को कर्म कहने का क्या हेतु है ?
उतर - आदा कम्ममलिमको परिणामं लहड़ कम्मसंजुत्त । तत्तो सिलिसदि कामं सदा धम्मं तु परिणामो ॥
कर्म के कारण मलिन अवस्था को प्राप्त आत्मा कर्ममयुत परिणमन को प्राप्त करता है। इससे कर्मों का संबंध होता है । अतः रागादि परिणाम को कर्म कहते हैं ।
कर्मबंध की प्रक्रिया - रागादि भावों से होने वाली कर्मबंध को प्रक्रिया को वादीभसिंह सूरि इस प्रकार स्पष्ट करते हैं :--
संसृतो कर्म रागार्थी स्वतः कायान्तरं ततः । इंद्रियाणीन्द्रियद्वारा रागाद्याश्रन क पुनः
11च.चू. ११४० ॥
गादिभावों से संसार में कर्म बंधते हैं। उस कर्म द्वारा भवीन शरीर का निर्माण होता है। उसमे इंद्रियों की उत्पत्ति होती है। इंद्रियों विषयों का उपभोग होने पर द्वेषादि परिणाम होते हैं। इस प्रकार बंध का चक्र चला करता है।
पंचास्तिकाय का यह कथन महत्वपूर्ण है :--
जो खलु संसारत्थो जीव ततो दु होदि परिणागो । परिणामादो कम्मा हम्मादो होदि गदिसु गदी ॥ १२८ ॥ मदिमधिगदस्त देहो देहादो इंदियाणि जायंत । तेंहि तु विसयग्गहणं ततो रागों व दोसो वा ॥ १२६ ॥
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.. ( २७ ।
नाला
खामा . बुलडाणा जायदि जीवरसेवं भावो संसार-चक्कबालम्मि ।
इदि जिणवरेहि मणिदो प्रणादि-णिधणो सणिणो वा ॥१३॥ " संसारी जीव के अनादि कालीन बंधन की उपाधि के पश से "स्निग्घः परिणामों भवति"--स्निग्ध रूप परिणाम होता है। उन स्निग्ध परिणामों से पुद्गल परिणाम रूप कर्म आता है। उससे नरकादि गसियों में गमन होता है। नरकादिगतियों में जाने पर शरीर प्राप्त होता है। शरीर में इंद्रियां होती हैं। इंद्रियों से विपयों का ग्रहण होता है। विषय महग्स द्वारा राग तथा द्वेषभाव पैदा होते हैं। रामप से पुनः स्निग्ध परिणाम होता है--"रागद्वेषाभ्यां पुनः स्निग्धारसामः" उनसे कर्म यघता है। इस प्रकार परस्पर में कार्य कारण स्वरूप जोयों तथा पुद्गली के परिणाम रूप कर्म जाल संमार चक में जीव के अनादि अनंत अथवा अनादि सान्त रूप से चक्र के समान परिवनेन को प्राप्त होते हैं। इस प्रकार जिनेन्द्र भगवान का कथन है।
अमूतं श्रारमा के बंध का कारण-प्रवचनसार टीका में यह प्रश्नावराया गया जमावास्याहमजा हिरावरूतत्वाभावात् संधी भवति"-आत्मा स्वभाव से अमूर्त है। उसमें स्निग्धपना, रूतपना नहीं पाया जादा है। इसके वैध कैसे होता है ?
/ शंका-इस शंका को प्रवचनसार में इस प्रकार रखा गया हैपत्तो स्वादिगुणो बज्झदि फासेहि भएणमएणेहि । तविवरीदो अप्पा चंधदि किध पोग्गलं कम्म ।।१७३॥
रूपादि गुण युक्त होने से मूर्तिमान पुद्गल का अन्य पुद्गल के साथ बंध होना उपयुक्त है, किन्तु पात्मा तो रूपादिगुण रहित है, यह किस प्रकार पौद्गलिक कर्मों का बंध करता है?
समाधान-इस प्रश्न के समाधानार्थ कुन्दकुन्द स्वामी कहते हैंरूवादिएहि रहिदो पेच्छादि जाणादि रूत्रमादीणि । दवाणि गुणे य अधा तध बंघो तेण जाणिहि ॥१७॥प्र.सा.॥
मात्मा स्वयं रूप, रस, गंध तथा वर्ण रहित है, फिर भी वह रूप रस आदि युक्त द्रश्य तथा गुणों को देखता है तथा जानता है। इस प्रकार रूपावि रहित भारमा रूपी कर्मपुद्गलों से यंध को प्राप्त होता है।
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( २८ ) जनका यह स्पष्टीकरण भी ध्यान देने योग्य है :
उपभोगमयो जीवो मुज्झदि रज्जाद या पदुस्सेदि । पप्पा बियिधे विसये जो हि पुणो तहि संबंधी ॥१७॥
" मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी म्हारा यह जीव उपयोग अर्थात् ज्ञान दर्शन स्वरूप है । यह विविध परिच्छेद्य अर्थात् ज्ञेय रूप पदार्थों के संपर्क को प्राप्त करके मोह, राग तथा द्वेष रूप भायों को उत्पन्न करता है, इस कारण उसके कर्मों का बंध होता है।
जीव के भावों के अनुसार द्रव्य पंध होता है सथा द्रव्य बंध द्वारा भाव यंध होता है। प्रवचनसार टीका में अमृवचन्द्रसूरि ने इस प्रकार स्पष्टीकरण किया है कि यह आत्मा लोकाकाश प्रमाण असंख्यात प्रदेशी है। शरीर, पाणी तथा मनो-वर्गणाओं के अवलवन से उस आत्मा के प्रदेशों में परिस्पन्दन अर्थात् सर्वागीण रूप से कंपन होता है। उस समय कर्म रुप पुद्गल काय में स्वयमेव परिस्पंदन उत्पन्न होता है और वे फर्म पुद्गल आत्मा के प्रदेशों में प्रवेश को प्राप्त होते हैं। जीव के राग, द्वेष स्था मोह होने पर बंध को भी प्रा हुमा करते हैं । "ततो अबधार्यते द्रव्यबधस्य मावबंधो हेतु:"-अतः यह निश्चय किया जाता है, कि रागादि भावयंध से द्रव्यबंध होता है।
द्रव्य कर्मबंध-भाव कर्मबंध-गोग्मटसार धर्मकार में "पोग्गलपिहो व्य'-पुद्गल के पिंड को द्रव्यकर्म कहा है । "तस्सची भावकम तु-उसमें रागादि उत्पन्न करने की शक्ति भाव फर्म है। अध्यात्म दृष्टि से जीय के प्रदेशों के सकंप होना भावधर्म है। जीव के प्रदेशों के कंपन द्वार। पुद्गल फों का जीव प्रदेशों में आगमन होता है। पश्चात राग, द्वेष, मोहवश मंध होता है।
____ आचार्य नेमिचन्द्र ने द्रथ्य यथा भावबंध के विषय में इस प्रकार
यन्झदि सम्म जेण दुचंदणभावण भावबंधी सो । कम्मादपदेसाणं अगणोरण पवेसणं दरो iद्र०सं० ३२॥
चैतन्य की जिस रागादि रूप परिणति के द्वार। कर्मों का अध होता है, उसे भावबंध कहते हैं । कर्मों और आत्मा का परस्पर में प्रवेश हो जाना द्रव्य बंध है।
प्रवचनसार गाथा १७० को टीका।
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मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुमिहासागर औ महाराज
शुद्ध जीय में रागादि विकारों का असद्भाव है। शुद्ध पुद्गल में भी क्रोधादि का प्रभाव अनुभयगोचर है। उन पुद्गलों के साथ जोव का संबंध होने पर बंध रूप एक नवीन अवस्था अनुभवगोचर होती है। | उदाहरणार्थ हल्दी और धुना के सम्मिश्रण द्वारा जो विशेष लालिमा की उत्पत्ति होती है, वह दोनों की संयुक्त कृति है, जिसमें हल्दी ने पीलेपन का परित्याग किया है तथा चूना ने भी अपनी धवलता त्यागी है। दोनों के स्वगुणों की विकृति के परिणाम स्वरूप लालिमा नयनगोचर होती है। कहा भी है:
हरदी ने जरदी तजी चूना तज्यो सफेद ।
दोऊ मिल एकहि भए, रधो न काह भेद ।। पंचाध्यायो में कहा है :
घंघः परगुणाकारा क्रिया स्यात् पारिणामिकी । तस्यां सत्यापशुद्धत्व तद्वयोः स्वगुणच्युतिः ॥२॥१३०॥
अन्य के गुणों के प्राकार रूप परिणमन होना बंध है । इस परिसमन के होने पर अशुद्धता पाती है। उस काल में यंधन को प्राप्त होन वालों के स्वयं के गुणों की च्युति रूप विपरिमन होता है। न बंध एक का नहीं होता है । 'बंधोऽयं द्वन्दुजः स्मृतः यह बंध दो से उत्पन्न होता है । उस बंध की दशा में बंध को प्राप्त द्रव्य अपनी स्वतंत्रता स विरहित हो परस्पर अधीनसा को प्राप्त होते हैं।
माशाधरजी का यह कथन विशेष ध्यान देने योग्य है। सन्धो अध्यन्ते परिणविविशेषेण विवशीक्रिया कर्माणि प्रकृतिविदुषो येन यदि था। स सत्कर्माम्नाती नयति पुरुषं यत् स्ववशताम् । प्रदेशानां यो वा स भवति मिथः श्लेप उभयोः।
अनगारधर्मामृत २२३८॥ जिस परिणति विशेष से कर्म अर्थात् कर्मस्व पर्याय प्राप्त पुद्गलद्रव्य कषिपाक-अनुभव करने वाले जीष के द्वारा परवंत्र बनाये जाते हैं योगद्वार से प्रविष्ट झकर पुण्प-पापरूप परिए मन करके भोग्य रूप से सम्बद्ध किये जाते हैं, वह ध है अथवा लो कर्म जीव को अपने परा में
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करता है, वह बंध है अश्वा जीव और पुद्गल के प्रदेशों का पास्गर मिल जाना बंध है।
सामान्य दृष्टि से लोक कहा करते हैं, कमों के द्वारा जीव अपनो स्वतंत्रता को खोकर परतंत्रायस्था को प्राप्त होता हुआ संसार में परिभ्रम किया करता है । इस विषय में आशाधरजी ने एक विशेष दृष्टि से चिंतन करके कहा है, कि न केवल जीव विवशता को प्राप्त होता है, बल्कि पुद्गल भी अपनो स्वाधीनता को स्वोकर स्थिति विशेष पर्यन्त जी के साथ बंधन बद्धता का अनुभव करता है। यदि किसी जीव ने दर्शन मोहनीय का बंध किया है, तो सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर पर्यन्त बह मुद्गल-स्कन्ध जीय के साईन कर रहेपातयघियविधिझिगस्थली पर्वामींन को मथवा परमाणु रूप सूक्ष्म परिणमन को नहीं प्राप्त होगा। सूक्ष्म प्रात्मा के साथ एक क्षेत्रावगाही बनने काला कर्म धुञ्ज भी अनंतानंत परमाणु प्रचय स्वरूप होत भी पक्षु इंद्रियादि के अगोचर रहता है। कर्म रज के पुद्गल स्कन्ध इतने सूक्ष्म रहते हैं, कि उनको छेटन, भेदन, वनादि द्वारा तनिक भी प्रति नहीं पहुँचदी है । कार्माम वर्गणार सूक्ष्म होने के साथ जी के प्रदेशों पर
भनेतानंत संख्या में पाई जाती है। ---- । प्रश्न- ब्रहद द्रव्यसंग्रह दौका में यह प्रश्न किया है कि
गग द्वेष अादि परिणाम "f कर्मजनिता; कि जोयजनिताः इति" क्या कर्मों से उत्पन्न हुए हैं या जीव से उत्पन्न हुए हैं ? --- समाधान--स्त्री और पुरुष के संयोग से उत्पन्न हुए पुत्र के समान, चूना तथा हल्दी के संयोग से उत्पन्न हुए वर्ण विशेष के समान राग
और द्वेष जोर और कर्म के संयोग जन्य हैं। नय की विवक्षा के अनुसार विवक्षित एकदेश शुद्ध निश्चग्रनय से राग द्वेष कर्मनित कहलाते हैं। प्रशुद्ध निश्चय नय से वे जोवजनिस कहलाते हैं। यह अशुद्ध निश्चयनय शुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा से व्यवहारनय ही है।
प्रश्न -शुद्ध निश्चयनय से ये राग-द्वेष किसके हैं ।
समाधान-स्त्री और पुरुष के संयोग विना पुत्र की उत्पत्ति नहीं होती है । चूना और हल्दी के संयोग बिना रंग विशेष की उत्पत्ति नहीं होती है । इसी प्रकार शुद्ध निरषय नय की अपेक्षा जीव और पुद्गल दोनी द्रव्य शुद्ध हैं। इनके संयोग का अभाव है । शुद्ध नय की अपेक्षा जीव का संसारी और मुक्त भेद नहीं पाया जाता है। उस नय की अपेक्षा जीव के कर्मों का अभाव है। वह नय सिद्धों सथा निगोदिया जीवों में भेद की
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*। दूप्रभु
" है। उस दृष्टि सांगाणा
मार्गदर्शक:
कल्पना नहीं करता है। उस दृष्टि से भव्य और अभव्य भी भिन्न नहीं ज्ञात होंगे । शुद्ध नय की अपेक्षा पुद्गल की स्कन्ध पर्याय का असद्भाव है। वह मय परमाणु को ही ग्रहण करता है । शुद्ध पुद्गल का परमाणु परमाणु-प्रचय रूप कम नहीं कहा जा सकता है। "जय काकतालगारी सुविधासागर जी महाराज
गिार वस्तु का पूर्ण रूप से स्वरूप समझने के लिए विविध दृष्टियों को पताने वाले भिन्न २ नयों का प्राश्रय लेना सम्यग्ज्ञान का साधक है। एक ही हट को सत्य स्वीकार करने वाला वत्वज्ञान रूप अमृत की उपलब्धि नहीं कर पाता। वह अज्ञान और अविद्या के गहरे गर्व में गिर कर दुःखी होता है । अनुभव के स्तर पर यदि कर्मबंध के सम्बन्ध में विचार किया जाय, तो यह स्वीकार करना होगा, कि जोत्र पर्वमान पर्याय में अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंत सुख तथा अनंतवीर्यादि प्रात्मगुणों से समलंकृत नहीं है, यद्यपि शक्ति की अपेक्षा ये गुण प्रात्मा में सर्वकारहते हैं। जिस प्रकार अग्नि के संपर्क से शीवक्ष स्वभाव वाला जल उरूपता को प्राप्त होता है, उसी प्रकार पौद्गलिक कर्मों के कारण जीव की अनंतरूप अवस्थाएं दृश्रा करती हैं। गुणों में धैभाविक परिणमन हो जाने से वह आत्मा मझानी, अशक्त और दुःखी देखा जाता है। उसे वर्तमान पर्याय में सकलज्ञ तथा अनंत सुखी मानना प्रशान्त चिंतन, तर्क और अनुभय के अनुरूप नहीं है। यदि जीत्र के सर्दशा बंधामाव जैनागम को मान्य होता, तो महाबंध, कसायपाहुड
आदि प्रन्यों की रचनाएं क्यों की जाती? द्वादशांग पाणी में जिस प्रकार प्रात्मप्रसाद पूर्व है, उसी प्रकार फर्म प्रवाद पूर्व की अवस्थिति फही गई है। यदि यह जीव कादय के कारण परतंत्र न होता, तो मूत्र, पुरीष, रक्त, अस्थि आदि णित वस्तुओं के अद्भुत अजायबघर सहश मानव शरीर में क्यों कर निवास करता है ? इस अपवित्र शरीर में भीष का प्रावास उसकी भयंकर असमर्थता और मजबूरी को सूचित करते हैं । शरीर यथार्थ में जीव का कारागार ( Prison-house of the toul) तुल्य है । मुनि दीक्षा लेने के पूर्व जीबंधर स्वामी अपने शरीर के स्वरूप पर गंभीरता पूर्ण दृष्टि डालते हुए सोचते हैं
अस्पष्ट दृष्टमग हि सामर्थ्यात्कर्मशिल्पिनः । ' सभ्यमूहे किमन्यत्स्यान्मल-मांसास्थि-मज्जतः ॥ ११-५१-१.चू.
यथार्थ में फर्मरूपी शिरूपी की कुशलता के कारण शरीर अपने खसी रूप में नहीं दिखाई देता है। इसलिए यह रमणीय दिखाई पड़ता है, फिन्तु यदि विवेकी पुरुष विचार करे कोमल, मांस, अस्थि और मजाके
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( ३२ ) सिवाय इस शरीर में क्या है ? जीवन्धर स्वामी का यह शरीर स्वरूप का चिन्सन कितना मार्मिक और सत्य है, इसे सहृदय व्यक्ति अनुभवकर सकता है । वे अपनी मात्मा से मंजशकरते आमने सुविहिासागर जी महाराज
दैवादन्तः स्वरूपं चेद्वहिर्देहस्य किं परैः । प्रास्तामनुमवेन्छेय-मात्मन् को नाम पश्यति ।। ११-५२।।
हे आत्मन् ! यदि दैववश देह का भीतरी भाग शरीर से बाहर प्रा जावे, वो इसके अनुभव की इच्छा वो दूर ही रहे, कोई इसे देखेगा भी नहीं।
घया आत्मा सर्वथा अमूर्तीक है ?-आत्मा और कर्मों के संबंध के विषय में अनेकान्त दृष्टि को स्पष्ट रूप से समझाते हुए पूज्यपाद स्वामी सर्वार्थसिद्धि मंथ में यह बागम की गाथा उद्धृत करते हैं।
यंध पडि एयसं लक्खणदो यदि तस्स णाणस । तम्दा अमुत्तिमायो णेगतो होदि जी वस्स ॥
बंध की अपेक्षा जीव और कर्म को पता है । स्वरूप की दृष्टि से दोनों में भिन्नता है। इससे जीव के अमूर्तपने के बारे में एकान्स नहीं है। इस प्रसंग में प्राचार्य अकलंकदेव का कथन विशेष उद्बोधक है-"अनादि. कर्मबंधसंतान-परतंत्रस्यात्मनः ममूर्ति प्रत्यनेकान्तो । बंधपर्यायं प्रत्येकत्वात स्यान्मूर्तम् । तथापि ज्ञानादि-स्वलक्षणा परित्यागात् स्यादतिः ।"मदमोह विभ्रमकरी सुरां पीत्वा नष्ट-स्मृति जनः काष्ठवदपरिस्पन्द उपलभ्यते, तथा कर्मेन्द्रियाभिभवादात्मा नाविभूत-स्वलक्षणे मूर्त इति निश्चीयते ( त. रा. प्र.८१) अनादिकालीन कर्मबंध की परंपरा के अधीन भात्मा के अमूर्तपने के विषय में एकान्तपना नहीं है। यंध पर्याय के प्रति एकत्व होने से मात्मा कथंचित् अभूनीक है, किन्तु अपने नानादि लक्षण का परित्याग न करने के कारण कथांचत् अमूर्तीक भी है। मद, मोई तथा श्रमको उत्पन्न करने वाली मदिवा को पीकर मनुष्य स्मृति शून्य हो काष्ठ सहश निश्चल 'हो जाता है तथा कर्मेन्द्रियों के अभिमव होने से अपने ज्ञानादि स्वलनरम का अप्रकाशन होने से आत्मा मूर्तीक निश्चय किया जाता है। - कर्म मूर्तीक क्यों यदि आत्मा को अमूर्तीक मानने के प्रमान उसे बांधने वाले कर्मों को भो अमूर्ती मान लें, वो क्या बापा है। कौ को मूर्तियुक्त स्वीकार करने में क्या कोई हेतु है ? -- समाधान-कर्म मूर्तीक हैं, क्योंकि कर्म का फल मूर्तीक द्रव्य
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( ३३ ) के संबंध से दृष्टिगोचर होसाङ्गिजिस प्रेमालाकिसमिसगढत्या महाराज विष । मूषक के विष द्वारा जो शरीर में शोथ आदि विकार उत्पन्न होता है. यह इद्रियगोचर होने से मूर्तिमान है । अत: उसका मूल कारण विष भी मूर्तिमान होना चाहिए । इसी प्रकार यह जीव भी मणि, पुष्प, अनितादि के निमित्त से सुख तथा सर्प, सिंहादि के निमित्त से दुःख रूप कर्म के विपाक का अनुभव करता है। अतः इस सुरव और दुःख का कारण जो कर्म है, वह भी मूर्तिमान मानना उचित है।
जयधवला टीका में लिखा है ( १ । ५७ )-" पि मुत्तं चेव । नं कथं णबदे ? मुसो सह-संबंधेण परिणामांतरगमण--हिगुवत्रसीदो। स च परिणामान्तर-गमणमसिद्धं तस्य तेण विणा जर-कुटबखयादीण विखासा-गुवयत्तीए परिणामंतरगमरस-सिद्धीयो ।"-कर्म मूत है, यह कैसे जाना ? इसका कारगा यह है कि यदि कर्म को मूते न माना जाय, तो मूर्त औषधि के संबंध से परिणामान्तर की उत्पत्ति नहीं हो मकती। अर्थात् रुग्णावस्था में औषधि प्रहस करने से रोग के कारण कर्मों की नपशांति देखी जाती है, वह नहीं बन सकती है। औषधि के द्वारा परिणामान्तर की प्राप्ति श्रसिद्ध नहीं है, क्योंकि परिणामास्तर के प्रभाव में ज्वर, क्रुष्ठ तथा क्षय श्रादि रोगों का विनाश नहीं बन सकता, अतः कर्म में परिणामान्तर की प्राप्ति होती है, यह बात सिद्ध होती है।
14- कर्म मूर्तिमान तथा पौद्गलिक हैं। जीव अमूर्तीक तथा अपौद्ल क है, अतः जीव से कर्मों को सर्वथा भिन्न मान लिया जाय तो क्या दोष है ? इस विषय में वीरसेन प्राचार्य जयधवला में इस प्रकार - प्रकाश डालते हैं;-"जीव से यदि कमों को भिन्न माना जाय, तो कमों से भिन्न होने के कारण श्रमूर्त जीत्र का मूर्त शरीर तथा औषधि के माथ संबंध नहीं हो सकता; इससे जीव तथा कर्मों का संबंध स्वीकार करना चाहिए। शरीर आदि के साथ जीत्र का संबंध नहीं है, ऐसा नहीं कह सकते हैं; कारण शरीर के छेदे जाने पर दुःख की उपलब्धि देखी जाती है। शरीर के छेदे जाने पर प्रात्मा में दुःख की उत्पत्ति होने में जीव तथा कमों का संबंध सूचित होता है। एक के छेदे जाने पर मर्यथा भिन्न दूसरी वस्तु में दुःख की उत्पत्ति नहीं पाई जाती । ऐसा मानन पर अव्यवस्था होगी।
जीव से कमों को भित्र मानने पर जीव के गमन करने पर शरीर का गमन नहीं होना चाहिए, काबरम दोनों में एकत्य का अभाव है । औषधि मेवन भी जीव को नीरोगता का संपादक नहीं होगा, कारण औषधि शरीर के द्वारा पीई गई है। अन्य के द्वारा पोई औषधि अन्य की नीरोगता को उत्पन्न नहीं करेगी। इस प्रकार की उपलब्धि नहीं होती।
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जीव के रुष्ट होने पर शरीर में कंप, दाह, गले का सूखना, नेत्रों की लालिमा, मोहों का चढ़ाना, गोमांच का होना, पसीना आना आदि वाते शरीर में नहीं होनी चाहिये, कारण उसमें मित्रता है। जीवन को इस्छ। से शरीर की गति, प्रागति, हाथ, पैर, सिर तथा अंगुलियों का इलनचलन भी नहीं होना चाहिये, कारण वे पृथक है। सपूर्ण जीवों के केवलज्ञान, केवलदर्शन. अनंतवीर्यविरति. सम्यक्त्वादि हो जाना चाहिये. कारगर सिद्धों के समान, जीव से कर्मों का भित्रपना है। अथवा सिद्धों में अनंत गुणों का अभाव मानना होगा, किन्तु ऐसी बात नहीं है । अतः काविषीक सामनपसबिपिताम् जीनपहोवाचनको अभिन्न श्रद्धान करना चाहिये।
इस प्रकार की वस्तु-स्थिति को ध्यान में रखने वाले विश्व पुरुष को बसका कत्र्तव्य बदति हुए ब्रह्मदेव बृहद् द्रव्यसंग्रह में लिखते हैं:"यस्यैवामृतस्यास्मसः प्राप्त्यभावाद तससांग धमतोय जीवः स एवामूर्ती मूर्त-पंचेन्द्रिय-विषयत्यागेन निरन्तरं ध्यातव्यः" । गा. ७, पृ. २०)
इस जीवने जिस अमूर्त आत्मा की प्राप्ति के अभाव से घनादि संसार में भ्रमण किया है, उसी अमूर्त स्वभाष पात्मा का, मूर्त पंचेन्द्रिय के विषयों का परित्याग कर, निरन्तर ध्यान करना चाहिए ।
अकारवश स्वयं को सर्वोच्च तथा महान सोचने वाला व्यक्ति यदि अपने जीवन को उच्च गवं पवित्रता की भूमि पर नहीं ले जाता है, तो वह नरभव के जीयन-दीप बुझने के पश्चात् निकृष्ट पर्यायों को प्राप्त कर अनसकाल पर्यन्त विकास शून्य परिस्थिति में पड़कर अपने दुको का फल भोगा करता है।
कर्म बंधन मानने का कारण-पंचाध्यायी में कहा है:अहंप्रत्यय-वेद्यत्वाज्जीवस्या-स्तित्व-मन्वयात् ।। एको दरिद्रः एको हि श्रीमानिति च कर्मणः ॥ २ ॥५०॥
"मैं हूँ" इस प्रकार बई प्रत्यय से जीवका अस्तित्व अवगत होता है। एक दरिद्र है, एक धनवान है, यह भेद कर्म के कारण उत्पन्न हा है।
यदि कर्म रूप बाधक सामग्री न होती, दो यह जीव अपने मन : घिस् तथा पानंद स्वरूप में निमग्न रहा प्राता। गसी स्थिति का अभाव प्रत्यक्ष में अनुभव गोचर हो रहा है अतः इसका कारण प्रतिपक्षी साममी के रूप में कमो का अस्तित्व मानना तर्कसंगत है।
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( ३५ }
कोई कोई दार्शनिक यह सोचते हैं, कि जीव तो सदा शुद्ध है। यह कर्मबंधन से पूर्णतया प्रथक है । कर्म प्रकृति का खेल हो जगत में दृष्टिगोचर होता है । सांख्य दर्शन को मान्यता है :
तम्मान वध्यतेऽमौन मुच्यते नापि संसरति कश्चित ।
'सुविधिसागर जी
मार्गदर्शक :मंमुवि अपने वियते च नानाश्रया प्रकृतिः ॥ सां.त.काँ.६२ ।। इससे कोई भी पुरुष बंधता है, न मुक्त होता है, न परिभ्रमण करता है | अनेक यात्रयों को ग्रहण करने वाली प्रकृति का ही संसार होता है, बंध होता है तथा मोक्ष होता है ।
कर्तृत्व पर स्याद्वाद दृष्टि
इस विषय में स्थाद्वाद शासन की दृष्टि को स्पष्ट करते हुए जयसेनाचार्य लिखते हैं, "तसः स्थितमेत्तत्, एकान्तेन सांख्यदर्त्ता न भवति । किं तर्हि ? रागादिविकल्प-हित-समाधिलक्षण-भेदज्ञानकाले कमेषः कर्ता न भवति । शेष काले भवति " ( समयसार गाथा ३४४ - टीका ) -
I
अतः यह बात निर्णीत है कि आत्मा एकान्तरूप से सांख्य मत के समान अकर्ता नहीं है फिर आत्मा कैसी है ! रागादि-विकल्प रहित समाधि रूप भेद विज्ञान के समय वह कर्मों का कर्ता नहीं है। शेष काल में जीव कर्मों का कर्ता होता है। अर्थात् जब वह प्रभेद समाधिरूप नहीं होता है, तब उसके रागादि के कारण बंध हुआ करता है।
1.
भेः विज्ञान वाला अविरत सम्यक्त्वो है और उसके बंध नहीं होता है, इस भ्रम के कारण वस्तु व्यवस्था मे बहुत गड़बड़ी आ जाती हैं । भेदविज्ञान निर्विकल्प समाधिका घोतक है, जो मुनिपद धारण करने के उपरान्त ही प्राप्त होती है। प्राकुलता तथा विकल्पजाल पूर्णा गृहस्वावस्था में उस परम प्रशान्त एवं अत्यन्त उज्ज्वल आत्म-परिरपति को कल्पना भी असंभव है । गृहस्थों के प्रशस्त रागलक्षणम्य शुभोपयोगस्य " प्रशस्त - राग लक्षण शुभपयोग का मुख्यता से सद्भाव होता है । चिनसार टीका ( गाथा २५४ ) में अमृतचंद्र स्वामी लिखते हैं " गृहिणा समस्त विरतेरभावेन शुद्धात्म प्रकाशनस्याभावात् ' " गृहस्थों के पूर्ण त्याग रूप महाव्रत नहीं होने से शुद्ध श्रात्मा का प्रकाशन नहीं होता है । दिगम्बर जैन श्रागम की यह देशना है " उपधसद्भावे सूर्या जायते " बाह्य परिह होने पर मूत्र परिणाम रूप अन्तरंग परिभद पाया जाता है। चांवल में सर्वप्रथम वाह्य छिलका दूर किया जाता है । तत्पश्चात् उसका अंदरंग मल दूर होने की स्थिति प्राप्त होवो है, जिसके दूर होने पर शुद्ध कुल की उपलब्धि होती है। बाहरी छिलका
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समान बाहरी वस्त्र आदि परिग्रह का त्याग आवश्यक है। इसके बिना विचार मात्र से अन्तरंग दिगम्बरत्व स्थाशिवलतानार्थी सविधिसागर जी महाराज
ही नहीं प्राप्त होगी। विचार मात्र से इष्ट मिद्धि नहीं होती।"क्षेत्रचूडामणि में' केही"
ध्यानो गासबोधेन न हिसि विषं श्रम:"--- कोई बगुला को समक्ष रखकर उसे गाड़ मानकर गरह का ध्यान करे, तो उसका विष दूर नहीं होगा । इमसे स्पष्ट होता है. कि केवल कल्पना द्वारा साध्य की सिद्धि असंभव है।
___आत्मा के कर्तृत्व की गुत्थी को सुलझाते हुए अमृतचंद्रसूगि समयसार फलश में कहते हैं :
कारममी स्पृशन्तु पृरुप मांख्या इवाप्याईताः। फरिं कलयन्तु तं किल मदा मेदावोधादधः ॥ कई तूदत्त-बोध-घाम-नियतं प्रत्यक्षमेव स्त्रयम् । पश्यन्तु च्युत-कर्मभाव मचल जाताम्मैक परम् ॥ २० ॥
अहन्त भगवान के भक्तों को यह उचित है कि वे सांख्यों के समान जीव को सर्वथा अफर्ता न मानें, किन्तु उनको भेदविज्ञान होने के पूर्व प्रात्मा को सदा कर्ता स्वीकार करना चाहिये । जब भेदविज्ञान की चपलब्धि हो जाये, व प्रात्मा का कर्मभाव रहिव अविनाशी, प्रयुद्धज्ञान का पुंज, प्रत्यक्ष रूप एक ज्ञाता के स्वरूप में दर्शन करो। यह भेद विज्ञान गागादि विकल्प रहित निर्विकल्प समाधि की अवस्था में उत्पन्न होता है। यह सर्व प्रकार के परिग्रह का परित्याग करने वाले .महान बमस के पाया जाता है। ऐसी स्थिति में विक्की गृहस्थ का कर्तव्य है, कि वह उस मच स्थिति का ध्येय बनाकर उसकी उपलब्धि के लिए इंद्रिय विजय तथा संयम के साधना पथ में प्रवृत्त हो मचाई के साथ पुरुषार्थ करे। आत्मवंचनायुक्त प्रमार पूर्ण प्रवृत्ति से परम पद की प्राप्ति असंभव है।
जैन आगम के अनुसार संसारी जीव के सुख दुःस्वादि का कारण उसका पूर्व सचित कर्म है। वह यह नहीं मानता है, कि
भज्ञो जन्तुग्नीशोऽयमात्मनः सुखदुःखयोः । ईश्वरप्रेरितो गच्छेद स्वर्ग या श्वभ्रमेव वा ॥
महाभारत वनपर्व ३०१२८॥
___ यह अज्ञ जीव अपने सुख तया दुःख का स्वामी नहीं है। वह इस विषय में स्वतम्र नहीं है। वह ईश्वर के द्वारा प्रेरित हो कभी स्वर्ग में जावा है और कभी नरक में पहुँचा रखा है।
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भाव संसार-इस संबंध में समंतभद्र स्वामी आममीमांसा में जैन दृष्टि को इस प्रकार व्यक्त करते हैं :
कामादिप्रभवश्चित्रः कर्मबंधानुरूपतः ।
तरच कम स्वहेतुभ्यः जीवास्तचध्य-मुद्धिनाहही महाराज . काम, क्रोध, मोहादि की उत्पत्ति रूप जो भाव संसार है, वह | अपने-अपने कर्मों के अनुसार होता है । वह कर्म अपने कारण रागादि से उत्पन्न होता है। वे जीव शुद्धसा सथा अशुद्धता मे समन्वित होते हैं। आचार्य विद्यानंदी अष्टसहस्री में लिखते हैं-यह भावात्मक संसार अज्ञान मोह, तथा अहंकार रूप है। संसार एक स्वभाष वाले ईश्वर की कृति नहीं है. कारम् उसके कार्य सुख-दुःखादि में विचित्रता दृष्टिगोचर होती है । जिस वस्तु के कार्य में विचित्रता पाई जाती है, वह एक स्वभाव बाल कारण से उत्पन्न नहीं होती है; जैसे अनेक धान्य कुरादि रूप विचित्र कार्य अनेक शालिचीजादिक से उत्पन्न होते हैं। इसी प्रकार सुखदुःम्ब विशिष्ट विचित्र कार्य रूप जगत् एक स्वभाव वाले ईश्वरकृत नहीं हो सकता। अनादि संबंध का अंत क्यों ?-आत्मा और कम का संबंध अनादि से है, तब इसका अंत नहीं होना चाहिए !
ममाधान-अनादि की अनंतता के साथ व्याप्ति नहीं है। पीज वृक्ष की संतति को परपरा की अपेक्षा अनादि कहते हैं। यदि बीज को | दग्ध कर दिया जावे, तो वृक्ष की परंपरा का क्षय हो जायेगा। कर्मवीज | के नए हो जाने पर भयाकुर की उत्पत्ति नहीं हो सकती है। तत्त्वार्थसार में कहा है :
दग्धे बीजे यथाऽत्यन्न प्रादुर्भयति नौकुरः । कर्मबीजे तथा दग्धे न प्रमेहति भनांकुरः ॥ ८॥ ७ ॥
अकलक स्वामी का कथन है, कि मारमा में पाया जाने वाला कर्ममल आत्मा के प्रतिपक्षरूप है। यह आस्मा के गुणों के विकास होने . .. . ....--.--...-- . 'संसारोयं नैकस्वमावेश्वरकृतः, तत्कार्यसुख-दुःखादि-वैचित्र्यात् । नहि कारणस्यैकरूपत्वे कार्थनानात्वं युक्तम् , शालिनीजवन् ॥ अष्टशप्ती
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( ३८ ) पर क्षयशील है। जैसे प्रकाश के आते ही सदा अंधकार वाले प्रदेश से अंधकार दूर हो जाता है, अथवा शोत भूमि में उष्णता के प्रकर्ष होने पर शीत का अपक होता है; उसी प्रकार सम्यग्दर्शन आदि के प्रकर्ष से मिथ्यात्यादि विकारों का अपकर्ष होता है। रागाद विकारों में हीनाधिकप्ता को देखकर तार्किक समंतभद्र कहते हैं, कि कोई ऐसी भी
आत्मा होती है, जिससे रागादि पूर्णतया दूर हो चुके हैं. उसे ही परमात्मा कहते हैं।
सादिबंध क्यों नहीं ? पंचाध्याची में लिखा है, जिस प्रकार जीव अनादि है, उसी प्रकार पुद्गल भी अनादि है। उनका संबंध भी वर्ण पाषाण के किट-कालिमादि के संबंध सदश अनादि है। ऐसा न मानने पर अन्योन्याश्रय दोष आयेगा। अभिप्राय यह है, कि पूर्व में
अशुद्धना स्वीकार किए बिना बंध नहीं होगा। यदि शुद्ध जांच में बंध रूप ! अशुद्धता उत्पन्न हो गई, तो स्थायीरूप में निर्वाण का लाभ असंभव
होगा। जब मोक्ष प्राप्त शुद्ध जीव कर्मों के कुचक्र में फंसेगा, तो संसार का J चक्र सदा चलेगा और मोक्ष का अभाव हो जायेगा। + प्रतिको पसघालतानमगासद्ध है। यह पराधीनता
यदि सादि मानी जाय, तो मोक्ष का अभाव हो जायेगा। सर्वज्ञ, अनंतसक्तमान, अनंत सुखी श्रात्मा मुक्त अवस्था में रहते हुए दुःख के यारण गगादि को उत्पन्न करेगा, यह कल्पना तके तथा गंभीर चिंतन के प्रतिकूल है। ऐसी स्थिति में अर्थापत्ति प्रमाण के प्रकाश में जीव और कमों का अनादि संबंध स्वीकार करना होगा।
कम श्रागमन का द्वार--मात्मा में कमी के प्रवेश द्वार को श्रास्रव कहा गया है। मनोरणा, वचनवर्गए. तथा कायवर्गणा में से किसी एक के अवलंबन से धात्म प्रदेशों में सपता उत्पन्न होती है। उससे कर्मों का आगमन हुश्रा करता है। धवला दीका में योगों का स्वरूप इस प्रकार कहा गया है, "भा मनसः समुत्पत्यर्थः प्रयत्लो मनोयोगः तथा वचम: | ममुत्पत्यर्थः प्रयत्नो वाग्योगः। काय क्रिया-समुत्पत्यर्थः प्रयत्न चाय। योगः-भात्रमन की उत्पत्ति के लिए जो प्रयत्न होचा है. बद मनोयोग है। वचन की उत्पत्ति के लिए जो प्रयत्न होता है, वह वचनयोग है। काय को क्रिया की उत्पत्ति के लिए जो प्रयत्न होता है, वह काययोग है। यह योग विशेष परिभाषिक संज्ञा रूप है। यह ध्यान के पर्यायवाची योग से भिन्न है। यह पुद्गल कर्मी का आत्मा के साथ संबंध कराने में निमित्त कारण है।
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बाद प्रभु
.:नाटयाला
ख... बुडाणा शंका-सर्वार्थ सिद्धि में यह शंका की गई है, कि जिस योग के द्वारा पुण्य का पालव होता है, उसी के द्वारा क्या पाप कर्म का आस्रव होता है ?
समाधान-शुभ योग के द्वारा पुण्य का पास्रव होता है। मशुभ योग के द्वारा पाप का प्रामय होता है । शुभ परिणामों से रचित योग शुभ है और अशुभ परिणाम से रचित योग अशुभ है। " शुभ परिणामनितो योगः शुभः अशुभपरिणाम-निवृत्तश्चाशुभः " । प्रवचनसार टोका, में मोह तथा द्वेषमय परिणामों को अनुम :- . कहा है । रामकियदि अशक्तशती सुथुक्तिसाही वाशशुभ है और यदि वह विशुद्धता सहित है, तो वह शुभ है । शुभ परिणाम को पुण्य रूप पुद्गल के बंध का कारण होने से पुण्य कहा है। पाप रूप पुद्गल के बंध का कारण होंने ये अशुभ परिणाम को पाप कहा है।- "सत्र पुण्य-पुद्गल बंध कारणत्वात् शुभ-परिणामः पुण्यः पाप-पुद्गल-बंधकारणत्वावशुभ-परिणामः पापं"-- प्रव. सा. टीका गाथा १८१, पृ. १२२) दोनों उपयोग पर द्रव्य के संयोग में कारण रूप होने से | अशुद्ध हैं। यदि उपयोग मंक्लेश भाव कप उपराग युक्त है, तो यह अशुभ । है तथा यदि वह विशुद्ध भाव रूप पराग युक्त है तो उसे शुभ कहते हैं। । अमृतचंद्रसूरि ने अशुद्ध की व्याख्या इन शब्दों में की है;" उपयोगो हि । जीवस्य परद्रव्यसंयोगकारणमशुद: । स तु विशुद्धि-संक्लेशरूपोपरागव. शान शुभाशुभत्वेनोपात्त-दुविध्यः" । (प्रय, सार. गाथा १५६ टोका) "यदा तु द्विविधस्याप्यस्याशदस्याभावः क्रियते तदा खलूपयोग: शद्ध एवावतिष्ठते, स पुनरकारसमेत्र परद्रव्यसंयोगस्य " जब शुभ तथ। अशुभम्प अशुद्ध भाय का प्रभाव होता है, तब शुद्ध उपयोग होता है । वह शुद्ध उपयोग परदन्य के संयोग का कारण नहीं होता है।
__ यह शुद्धोपयोग मुनिराज के ही पाया जाता है। प्रवचनसार में कहा है :
सुविदिद-पदस्थसुलो मंजम-सव-मंजुदो विगदरायो । ममणो ममसुहृदुक्खो मणिदो सुद्धोवोगो सि ॥ १५ ॥
सूत्रार्थज्ञान के द्वारा वस्तु का स्वरूप जानने वाला, संयम तथा ) तप संयुक्त, रागरहित, सुस्व और दुःख में समान भाव युक्त श्रमम् को । शुद्धोपयोग कहा है।
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मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज ( ४० )
आसव-बंध के हेतु इससे यह स्पष्ट हो जाता है, कि कुंदकुंद स्वामी ने गृहस्थ को शुद्धोपयोग का अपात्र माना है ।
* गोम्मटसार कर्मकाण्ड में मिध्यात्व अविरति कषाय, तथा योग को भाव कहा है। उनके क्रमश पांच, द्वादश, पच्चीस नया पंद्रह भेद हैं। सत्वार्थ सूत्र में इन कारणों को बंध का कारण कहा है। समयसार में बंध के कारण मिथ्यात्व अविरति कषाय तथा योग कहे गए हैं ।
1
सामण्णपच्चया खलु चउरो भांति बंध कत्तारो । मिच्छतं प्रविरमणं कसाय जागा य बोधव्या ॥ १०६ ॥
इन भिन्न कथनों का समन्वय कैसे होगा ?
समन्वय पथ - अध्यात्मकमल मार्तण्ड में कहा है, कि मिथ्यात्व बादि चारों कारण भाव तथा बंध में हेतु हैं, क्योंकि उनमें दोनों प्रकार की शक्तियां हैं; जिस प्रकार अग्नि में दाहकत्व और पान्चकत्व रूप शक्तियों का सद्भाव पाया जाता है। जो मिथ्यात्व आदि प्रथम समय में श्रस्रव के कारण होते हैं, उनसे हो द्वितीय क्षण में बंध होता है। इसलिए पूर्वोक्त कथन में अपेक्षा कृतभेद है । देशना में भिन्नता नहीं है |
शंका -- श्लोकवार्तिक में यह शंका उत्पन्न की गई है, “योग एव आस्रवः सूचितो न तु मिध्यादर्शनादयोऽपीत्याह " -- सूत्र में योग को ही आस्रव कहा है, मिध्यादर्शन आदि को श्राव नहीं कहा है। इसका क्या कारण है ?
* मिच्छन्तं श्रविरमणं कसाय-जोगा य आसा होंति । पर-वारस परगुवीसं-परसा होंति सभेया ॥ ७६ ॥ अत्वारः प्रत्ययास्ते ननु कथमिति भावास्रवो भावबन्ध -- चैकत्वात् वस्तुतस्तो वत मतिरिति चेत्तन्न शक्तिद्वयात्म्यात् । एकस्यापीह बह्नर्दहन - पचन - भावात्म शक्तिद्रयायें वह्निः स्यात् दाहकश्च स्वगुणबलात्पाच कश्चेति सिद्धेः ।। मिथ्यात्वाद्यात्मभावाः प्रथमसमय एवानवे हेतवः स्युः । कर्म प्रतिसमसमये तौ भवेतां कथंचित् ॥ नव्यानां कर्मसागमनमिति तदात्वे हि नाम्नास्तत्रः स्यात् । आयत्या स्यात्स पंधः स्थितिमिलिय- पर्यन्त मेषो नयोर्थिवः । परिच्छेद
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समाधान -- ज्ञानावर खादि कर्मों के भागमन का कारण मियादर्शन मिध्यादृष्टि के ही होता है। सासादन सम्यग्दृष्टि के नहीं होता है। अम्रयत के पूर्णतया अविरतिपना है। देशसंयत के एक देश अविरति पाई जाती है, संयत के नहीं पाई जाती है । प्रमाद भी प्रमत्तगुरूस्थान पर्यन्त पाया जाता है, अप्रमत्तादि के नहीं। कषाय सकषाय के ही पायी जाती है । उपशान्त कषायादि के वह नहीं पाई जाती है। योगरूप आत्र योगकेवली पर्यन्त सबके पाया जाता है। अतः उसे भाव कहा है । मिथ्यादर्शनादि का संक्षेप से योग में ही अंतर्भाव हो जाता है (६,२, पृ० ४४३) | द्रव्य संग्रह में कहा है --
"
राणा र दीर्गः जोग महाराज दव्यासबोस यो प्रणेयमेभो जिणक्खादो ॥ ३१ ॥ द्र.सं.
ज्ञानावरणादि आठ कर्मरूप परिमन करने योग्य जो पुद्गल आता है, वह द्रव्यास्त्र है। उसके अनेक भेद हैं. ऐसा जिनेन्द्र ने कहा हैं। जीव के जिन भावों के द्वारा कर्मों का स्व होता है, उनको: भावालव कहा है ।
मिन्नाविरदि प्रमाद जोम कोहाद भोऽथ विरोया ।
पण-पण-पादस - सिय- चंदु-कमसो भेदा दु पुञ्चस्स ॥ ३० ॥
1.
मिध्यात्व अविरति, प्रमाद, योग तथा क्रोधादि कषाय भावाव के भेद हैं, उनके कमश: पांच, पांच, पन्द्रह, तीन और चार भेद कहे है। मिध्यात्व के एकान्त विपरीत, संशय, विनय तथा अज्ञान ये पांच भेद है। पांचों इंद्रिय सम्बन्धी अविरति पांच प्रकार की है । प्रमाद के पंद्रह भेद हैं। योग मन, वचन तथा कार्य के भेद से तीन प्रकार । क्रोध, मान माया और लोभ के भेद से कषाय चार प्रकार है ।
अनगारधर्मामृत में लिखा है, "आम्रये योगो मुख्यो, बच त्रायादि: यथा राजसभायामनुब्राह्म-निमायोः प्रवेशन राजादिष्टपुरुषो मुख्यः, तयोरनुग्रह-निमकरणे राजादेशः (११२ )---.
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आ में बोला को मुख्यता है, बंध में कषायादि की मुख्यदा है । जैसे राजसभा में अनुप्रड़ करने ओम्य तथा निग्रह करने योग्य पुरुषों के प्रवेश कराने में राज्य कर्मचारी मुख्य है, किन्तु प्रवेश होने के पश्चात् उन व्यक्तियों को सत्कृत करना या दण्डित करना इसमें राजा मुख्य है 12
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+10 पासव तथा बंध के पौर्यापर्य के विषय में अनगारधर्मामृत का यह स्पष्टीकर रा ध्यान देने योग्य है-"प्रथमक्ष कर्मस्कंधानागमनमात्रयः, श्रागमनानन्तरं द्वितीयक्षणायौ जीवप्रदेशेष्ववस्थानं अन्ध इति भेदः।" (पृ. ११२)-प्रथम इसमें कर्मस्कन्धों का आगमन-बानव होता है। श्रागमन के पश्चात् द्वितीय क्षम के श्रादि में कर्मवर्गणाओं की जीव के प्रदेशों में जो अस्थिति होती है, वह बंध कहा गया है। इस प्रकार काल की अपेक्षा उनमें अन्तर है।
शंका-योग की प्रधानता से आकर्षित किये गए. तथा कपायादि की प्रधानता से श्रात्मा से सम्बन्धित कमे किस भाति जगत की अन्त विचित्रताओं को उत्पन्न करने में समर्थ होते है ? कोई एकेन्द्रिय है, कोई दो इंद्रिय है, बादि चौरासी लाख योनियों में जीव कर्मवश अनंत वादि धारण करता है । यह परिवर्तन किस प्रकार संपन्न होता है ? //
समाधान
..मार्गदर्शक:- आचार्य श्री सविहिासागर जी महाराज पम समाधान हेत कुन्दकुन्द स्वामी
कहते हैं
जा पुगिसणाहारो गहिनी परिणाम सो अणेयविहं । मंस-चमा-हिरादीभावे उयररिंगमंजुत्तो ॥ १७६ ।। सह णाणिस्म दु पुध्वं बद्धा पच्चया बहुवियप्यं । बज्मते कम्म ने णय-परिहीणा उ ने जीवा ॥१०॥ममयसार
जैसे पुरुष के द्वारा खाया गया भोजन जठराग्नि के निमिन वश मांस, ची, रुधिर श्रादि पर्यायों के रूप परिणमन करता है, उसो प्रकार ज्ञानवान जीवके पूर्वबद्ध दुव्यास्रय बहुत भेदयुक्त को को बांधने है । वे जीव परमार्थदृष्टि से रहित हैं। आचार्य पूज्यपाद तथा अकलंक देव ने भी पूर्वोक्त उदाहरण्म द्वारा सभाधान प्रदान किया है। सर्वार्थ सिद्धि ( ८२५२२ ) में लिखा है. “जठराग्न्य-नुरूपाहार--ग्रहणवनीव-भत मध्यम-कषायाशयानुरूप-स्थित्यनुभव-विशेष-प्रतिपत्यर्थम"-- जिस प्रकार घाई गई वस्तु प्रत्येक के भामाशय में पहुँचकर नाना रूपों में परिमत होती है, उसी प्रकार योग के द्वारा आकर्षित किये गया कम प्रात्मा के साथ संश्लेष रूप होने पर अनंत प्रकार से परिमान को प्राप्त होता है । इस परिणमन की विविधता में कारस रागादि भावों की दीवाधिकता है।
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पुण्य-पाप मीमांसा -जीव के भावों में विशुद्धवा आने पर जो कार्मास वर्गणाएं आती हैं, उनकी पुण्य रूपमे परिणति होती है तथा संलश परिसामों के होने पर कार्मास वर्गपाची का पापरूप के परिणमन होता है। संसार के कारण रूप होने से पुण्य तथा पाप समान माने गए हैं; किन्तु इस विषय में एकान्तवाद नहीं है । अमृतचन्द्रसूरि ने तत्वार्थसार
में कहा है:मार्गदर्शक :- अलवसुविसा जीवाशपुण्य-पापयोः ।
हेतू शुभाशुमौ मावी कार्ये चैत्र शुभाशुभे ॥१०३॥ श्रास्त्रवतत्त्व - पुण्य और पाप में साधन और फल की अपेक्षा भिन्नता है । पुण्य का कारण कषायों की मन्दसा है पाप का कारण कषायों की तीत्रता है। पुण्य का कारण शुभ परिणाम है: पाप का कारण अशुभ परिणाम है । पुण्य का फल सुख तथा सुखदायी साधन-सामग्री की प्राप्ति है । पाप का फा दुःख तथा दुःखप्रद मामयों की प्राप्ति है। कारण की भिन्नता होने पर कार्य में भेद स्वीकार करना न्यायशास्त्र तथा अनुभव सम्मत बात है। पुण्य की प्रकाश से तथा पाप की अंधकार से नुलना की जाती है।
हिसा, झूठ. चोरी, कुशील तथा तीन तृधमा द्वारा पाप का बंध होता है । इसके परिणाम म्प यह जीव दीन, दुःखी मनुष्य, तिर्यच तथा तथा भारकी होकर महस्रों प्रकार की व्यथाओं से पीड़ित होसे हैं। ममतभद्र स्वामी ने हिसादि को "पाप-प्रसालिका" पाप की नाली कहा | है। गृहस्थ का मन भोगों से पूर्णतया विरक्त नहीं हो पाता है. याप वह सम्यक्त्व के प्रकाश में तथा जिनेन्द्र की श्राझा के द्वारा भोगापभोगों की निस्सारता को बौद्धिक स्तर पर स्वीकार करता है । इस प्रकार की मनोदशा बाला श्रावक श्रमरों की अभिवंदना करता हुआ गधा-शक्ति विषयों के त्याग को अपनाता हुआ भोग-विजय के पश्च में प्रवृज होता है । इस आचरण द्वारा विवेकी थावक मुक्तिपथ में प्रगति करता हुआ शीघ्र ही नित्राम-रूप परम मिद्धि को प्राम करता है।
जह बंधे चिततो बंधणबद्धो ण पाव विमोक्खं ।
तहबंध चिततो जीयोवि श पावइ विमोखं ॥२६१॥ --- जैसे कोई बंधनों से बंधा पुरुप बंध का विचार मात्र करने में
धन-मुक्त नहीं होता है, उसी प्रकार बंध के बारे में केवल विचार करने वाला व्यक्ति मोक्ष नहीं पाता है । “बंधेछित्तम य जीवो संपायद
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विमोक्खं"-कर्म बंधन का नाश करने वाला ही मोच पाता है । ( ०१२ गाथा ) सर्वार्थ सिद्धि में विद्यमान महान तत्त्वज्ञ देव तेंसीस सागर पर्यन्त उच्चकोटि का तत्वानुक्तिनादि कार्य करते हैं. फिर भी वे शीघ्र मोक्ष नहीं जा पाते, क्योंकि वहीं विशेष कमौत्ययश पार तथा पुरय क्षय के कारण . तप का परिपालन संभव नहीं है। इसी कारण वे विवेंकी देवराज यह भावना किया करते हैं- मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविद्यासागर जी महाराज
'कदा नु खलु मानुष्यं प्राप्स्यामि स्थिति-संचये ।। ....... : देवं पर्याय की स्थिति पूर्ण होने पर मैं कर मनुष्य पर्याय को धारण करूँगा ? थे ये भी विचारते रहते है
विषयारि परित्यज्य स्थापयित्वा वशे मनः । . .
नीत्वा कर्म प्रयास्यामि तपमा गतिमाहतीम् ।। पद्यपुराण पर्व ११३ . ....उस मनुष्य पर्याय में विर्षयरूपी शत्रुओं का त्याग करूंगा और मन्, को वश में करके कर्मों का क्षय करके तप द्वारा महन्त की पदवी को प्राप्त कगा। ! : . परिपालनीय मध्यम पध-लो. पुरुष अमरस अवस्था के • योग्य उमच ममोयल तथा विशुद्धता को नहीं प्राप्त कर शता, बह जिनेन्द्र
भक्ति आनि सत्कार्यों में संलग्न हो धर्म ध्यान का आश्रय लेता है। जिनेन्द्र भगवान की भक्ति द्वारा संसार के श्रेष्ठ सुख तथा मोक्ष का महान सुन भी प्राम- होले हैं। धन धान्य, तक्षा वैभव विभूति में जिस मन लगा हुआ है, स महापुरासकार के थे शब्द ध्यान देने योग्य ही नहीं, तत्काल परिपालन के योग्य भी है :- . . . . .
. . --0 .... .....
पुण्यं जिनेन्द्र-परिपूजनमाध्यमाद्यम् । पुण्यं सुपात्र-गव-दान-समुत्थमन्यन् । पुण्यं व्रतानुचरणा-दुपवास-योगात्। .
पुण्यार्थिनामिति चतुष्टयमर्जनीयम् ॥२८॥२१६॥ ॥ - जिनेन्द्र भगवान की पूजा से उत्पन पुण्य प्रथम है। सुपात्र को दान देने से उत्पन्न. पुण्य दूसरा है । व्रतों के पालन द्वारा प्राप्त पुण्य तीसग -है। उपवास करने से जपत्र पुण्य पीथा है। इस प्रकार पुण्यार्थी को पूजा .: दान, व्रत, तथा उपवास द्वारा पुण्य का उपार्जन करना चाहिये ।
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अंतर्मुहूर्त में केवल ज्ञान प्राप्त करने वाले महान तत्वज्ञानी चक्र वर्ती भरतेश्वर ने गृहस्थावस्था में पुण्य का समुचित मूल्यांकन किया था। इससे उन्होंने प्रमु आदिनाथ की पुण्यदायिनी स्तुति करने के पश्चात ये महत्वपूर्ण शब्द कहे थे, ..... ..... ... भगवन् ! त्वगुणस्तोत्राद् यन्मया पुण्यजितम् । तेनास्तु त्वत्पदाम्भोजे पर भक्ति सदा मे ॥३३॥१६६॥म. पु.॥
मार्गदर्शक.: आचार्य श्री सुविष्टिासागर जी महाराज
हे भगवन ! मैंने आपके गुरम-स्सवन द्वारा जो पुण्य प्राप्त किया है, उसके फल स्वरूप आपके घरपकमलों में मेरी सर्वदा श्रेष्ठ भक्ति हो । जो व्यक्ति पापों तथा व्यसनों में आसक्त होते हुए पुण्यार्जन के विरुद्ध प्रलाप किया करते हैं, वे विष का बीज बोते हुए जैन सुमधुर फलों को चाहने है, जो पुण्यरुपी वृद पर लगा करते हैं किन्तु पाप बीज से उत्पन्न वृक्ष द्वारा जब दुःवरूपी फलों की प्राप्ति होती है, तब वे मार्त और रौद्रध्यान की मूर्ति बनकर और भी कष्ट-परंपरा का पथ पकड़ते हैं। विवेकी गृहस्थ को जिनमेन स्वामी इस प्रकार समझाते है- '
पुण्य का फल-
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पुण्यात् चक्रधरश्रियं विजयिनीमेन्द्रीच दिव्यश्रियम् ।।.. पुण्यात् तीर्थकाश्रियं च परमां नःश्रेयसी चाश्नुते । पुण्यादिन्यसुभृच्छुियां चतसृणा-माविभवेद् भाजनम् । तस्मात्पुण्य मुपाजयन्तु सुषियः पुण्पाजिननेन्द्रागमात् ॥३०॥२६।।
पुण्यसे सर्व विजयिनी चक्रवर्ती की लक्ष्मी प्राप्त होती है।- पुण्य से इन्द्र की दिव्यश्री प्राप्त होती है । पुण्य से ही तीर्थकर की नक्ष्मी प्राप्त होती है तथा परम कल्याणरूप मोच लाक्षी भी पुरयसे प्राप्त होती है। इस प्रकार पुस्यसे ही यह जीप चार प्रकार की तक्ष्मी की प्राप्त करता है। इससे हे सुधीजनो ! तुम लोग भी जिनेन्द्र भगवान के पवित्र मागम के अनुसार पुण्य का उपार्जन करो।' :
"- - प्रश्न-पुण्य सम्पादक्र पूजा, दान, बस तथा उपवास समात्मा . को क्या लाभ होगा? - . समाधान पूजादि कारमा सेकषाय भाव मन्द होते हैं। - आस्मा की विभीष परमति न्यून होने लगती है। उससे अशुभ कर्म का
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मकर होता है। पूर्ववद्ध पापराशि प्रलय को प्राप्त होती है। इस प्रकार दान पूजादि द्वारा पुण्य के बंध के साथ संवर तथा निर्जरा का भी लाभ होता है।
समाधिशतक में पूज्यपाद स्वामी का यह मार्गदर्शन महत्वपूर्स
अनतानि परित्यज्य तेषु परिनिष्ठितः । ..
गार्गदर्शक:- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज त्यजेत्तानपि संप्राप्य परमं पदमास्मनः ॥४॥
सर्व प्रथम प्राणातिपात,अदत्तादान,असत्य-संभाषण,कुशील-सेवन परिग्रह की आसक्ति रूष पाप के कारण अत्रता को त्यागकर अहिंसा अचौर्य, सत्य, ब्रह्मचर्य सथा अपरिग्रह रूप व्रतों में पूर्णता प्राप्त करनी चाहिए । अवों के परिपालन में उच्च स्थिति होने के अनंतर श्रात्मा के निर्विकल्प स्वरूप में लीन हो परम समाधि को प्राप्त करता हुआ महा मुनि उन विकल्प रूप व्रतों को छोड़कर आत्मा के परम पद को प्राप्त करें। यह भी स्पष्ट है कि व्रतों के द्वारा पुण्य अंध होता है तथा अवतों से पाप का बध होता है। यदि गृहस्थ ने पुण्य के साधन प्रतों का श्राश्रय नहीं लिया, तो वह पाप के द्वारा पशु तथा नरक पर्याय में जाकर कष्ट पायगा। मनुष्य की सार्थकता प्रतों का यथाशक्ति परिपालन करने में है । धर्म ध्यान का शरम ग्रहण करना इस काल में श्रावकों तथा श्रमों का परम कनेव्य है । दुःपमा काल में शुक्लध्याम का अभाव है।
शंझा-बंध का कारण अज्ञान है । अतः मुमुक्षु को ज्ञान के पथ में प्रवृत्त होना चाहिए। व्रत पालन का कष्ट उठाना अनावश्यक है। अमृतचंद्रसूरि ने अज्ञान को बंध का कारण कहा है :--
अज्ञानात् मृगतृष्णिको जलधिया धावन्ति पातुं मृगाः। अज्ञानात्तमसि द्रवन्ति भुजगाध्यासेन रज्जो जनाः । अज्ञानाच्च विकल्पचक्र-करणाद्वातोत्तरंगाधिवत् । शुद्धज्ञानमया अपि स्वयममी की भवन्त्याकुलाः ।।५८।।
अजान के कारण मृगतृष्णा में जल की भ्रान्ति यश मृगगम पानी पौने को दौड़ा करते हैं। अज्ञान के कारस मनुष्य रस्मी में सर्प वश भागते हैं। जैसे पवन के वेग से समुद्र में लहरें उत्पन्न होती हैं, उसी प्रकार अज्ञानवश विविध विकल्पों को करते हुए स्वयं शुद्धज्ञानमय होते हुए भी अपने को कत्तो मानकर ये प्राणी दुःखी होत है।
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(i)
समाधान- यहां मिथ्याभाव विशिष्ट ज्ञान को अज्ञान भानकर उम अज्ञान की प्रधानता की विवक्षावश उपरोक्त कथन किया गया है। वास्तव में रागद्वेषादि विकारों सहित अज्ञान बंध का कारण हैं । यदि अल्प भी ज्ञान वीतरागता संपन्न हो, तो वह कर्मराशि को विनिष्ट करने में सम्पति आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज
मूलाधार में कुन्दकुन्द महर्षि ने कहा है
धीरो वरपरी थोषिय मिक्खिदुग सिज्झदि हु ।
सिज्यदि वेगविदीयो पढिदूश सव्वसत्थाहं ॥ ३-३ ॥
श्री द्रपभु विकराला
खामगांव जि. बुलडाणा
वीर ( सर्व उपसर्ग - सद्दन - समर्थः ) तथा विषयों से पूर्ण विरक्त यति अल्प भी (सामायिकादि स्वरूप प्रमाण) ज्ञान को धारणकर कर्मों का अय करता है; वैराग्यभाव शून्य व्यक्ति सर्व शास्त्रों को पढ़कर... सोच नहीं पाया है ।
માઁ
आचार्य की यह मंगलवाणी सार- पूर्ण है:
था
जो
पुग
सिक्खिद जिद्द बहुसुदं जो चरिच- संपूया |
चरितहोणो किं तस्स सुदेश चहुए || ३-६ ॥
जो चारित्र पूर्ण व्यक्ति है, वह अल्प ज्ञान युक्त होते हुए भी दशपूत्र के पाठी बहुश्रुतन को पराजित करता है । जो चारित्रहीन हैं, उसके बहुश्रुत होने से क्या प्रयोजन सिद्ध होता है ?
टीकाकार वसुनंदि सिद्धान्तचक्रवर्ती ने लिखा है, स्तोके शिक्षिते पंच-नमस्कारमात्रेऽपि परिज्ञाते तस्य स्मरणे सति जयति बहुश्रुन दशपूर्वधरमपि करोत्यवः"--- अल्पज्ञानी होने का अभिप्राय है, कि पंच नमस्कार मात्र का ज्ञान तथा स्मरण संयुक्त व्यक्ति यदि चारित्र - संपन्न है. तो वह दशपूर्वधारी महान ज्ञानी से आगे जाता है ।
सम्यकचारि का महत्व - प्रवचन खार में यह महत्वपूर्ण कथन आया है -
यहियागमेण सिञ्झदि सद्दद्दणं यदि व अति श्रत्थे मद्दहमाणो अस्थे श्रसंजदो वा खिव्वादि
|
॥ २३७॥
}
यदि स्वार्थ की श्रद्धा नहीं है. वो आगम के ज्ञान मात्र से सिद्धि नहीं प्राप्त होती है। तत्र की श्रद्धा भी हो गई, किन्तु यदि वह व्यक्ति
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मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज
( ४८ ) संयम अर्थात् चारित्र से शून्य है, तो भी उसे मोक्ष का लाभ नहीं होगा।.. अमृत चंद्रसूरि टीका में लिखते हैं... "संयमशून्यात् श्रद्धानात सानाद्वा नास्ति सिद्धि-संबन शून्य श्रद्धा अथवा जान से सिद्धि नहीं प्रपल होती है।
सम्यग्ज्ञानी उच्छवास मात्र में उन कर्मों का वयं करता है, जिनका चय करोड़ों भवों में नहीं होता है; यह कथन किया जाता है। प्रमासरूप में यह गाथा उपस्थित की जाती है :
जं अएगाणी कम्मं सवेदि भव-मय-सहासकोडीहिं । तं गाणी तिहिं गुत्तो स्ववेइ उस्सासमेण ॥२३८॥प्र.मा.
यहाँ निर्विकल्प समाधि रूपं त्रिगुप्त स्वरूप बारित्र की महिमा अवगत होती है । मुमार के कारण रुपं मन, वचन तथा काय की क्रिया के निरोध रुप गुलि नामक सम्बक चारित्र है । अतः सम्यग्ज्ञान के साथ चारित्र का सगम आवश्यक है । द्रव्यसंग्रह में कम है :... . .
बहिरतर-किरिया-गोही भवकारण-पणासठं । णाणिस्म जं. जिणुत्तं तं परमं ; सम्माचारित्तं ॥४६॥
. संसार के कारणों का क्षय करने के लिये जो बाम और आभ्यंतर क्रियाओं के निरोध रूप नानी के जो कार्य होता है, उसे जिनेन्द्र देव ने सम्यक्चारित्र कहा है। इस बात वारसी के प्रकाश में अल्पकाल में होने वाली महान निर्जरा में ज्ञान के स्थान में सम्यक्चारित्र का महत्व ज्ञात होता है।
- शंका-समयसार में सम्यक्स्वी जीव के प्राभव और अंध का निरोध कहा है। इस कारण मारित्र का महत्व मानमा उचित नहीं प्रसील होती? .
. .. .. .: . . ..
ममाधान-समयसार में उक्त गाथा के पश्चात् की गाथा द्वारा । यह स्पष्ट सूचित किया गया है, कि रागादि से विमुक्त पुरुष प्रबंधक
है। राग और द्वेष चारित्र मोहनीय के भेद है। चारित्र बारगम किये बिना का और द्वेष का प्रभाव सोचना अनुचित है । अतः चारित्र की प्रतिष्ठा को किसी प्रकार क्षति नहीं प्राप्त होती । समयसार की ये गाथाएँ ध्यान देने योग्य हैं।
मावो रागादिजुदों जीवण कदों दुबंधगो मरिणदो । रामादि-विप्पमुक्को प्रबंधगो जाणंगो गवरि ॥१६७॥
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जीव के द्वारा किया गया रागादिभाव बंधक कहा गया है । रागादि से विमुक्त अर्थात् वीतराग भाव प्रबंधक है । वह ज्ञायक भाव कहा गया है ।
___सम्यक्त्वी के बंध पर आगम-ज्ञानी के बंध का सर्वथा अभाव मानने की धारणा आगम के प्रतिकूल है, इस बात का स्पष्टीकरम समयसार की इस गाथा द्वारा होता है। उसमें यह कहा गया है कि जब सम्यक्त्वी के ज्ञान गुण का जघन्य रूप से परिसमन होता है, तच बंध होता है।
जम्हा दु जहरणादो वाणगुखादो पुणोवि परिणमदि । अएणतं गाणगुणो तेण दु भो बंधगो मणिदो || १७१ ॥
जिस कारण ज्ञानगुस जघन्य ज्ञानगुण से अन्य रूपसे परिगमन करता है. इस कारण वह शानगुस बंधक कहा गया है।
जो अविरति युक्त सम्यक्स्वी को सर्वथा प्रबंधक सोधत है, पाकिसदेहायकावासादीकुममृतचंद्र स्वामी कहत है
"यथाख्यातचारित्रावस्थाया अधस्तादवश्यंभावि-राग-सद्भावात बंधहेतुभव स्यात्'-यथाख्यात चारित्र रुप अवस्था के नीचे अथात सूक्ष्म
माम्पराय गुमस्थान पर्यन्त नियम से राग का अस्तित्व पाया जाता ( है, अतः उस राग से बंध होता है।
दसण-णाणे-चरिच जं परिणमदे जहरणभावेण । णाणी तेण दु झदि पुग्गलकम्मेण विविहेण।।१७।।म.सा.
__ इस कारस, दर्शन, ज्ञान तथा चारित्र जघन्य भाव से पारगमन हैं। अतएव ज्ञानी नाना प्रकार के पौद्गलिक कर्मों का बंध करता है । 'जघन्यभाव' का अर्थ सकषायभाव है । जयसेनाचार्य कहते हैं, "जघन्यभावेन सकपायभावेन ।"
इस प्रकार आगम का कथन देखकर भी कुछ लोग यह कहा करते हैं, सम्यक्त्वी के बंध नहीं होता है। जो बंध है, वह भी कथन मात्र है । यथार्थ में वह बंध रहित है। यह एकान्त पक्ष का समयन विशुद्ध पिसन तथा भागम की देशना के प्रतिकूल है । जब अविरत सम्यक्त्वी के बंध के कारण अविरति, प्रमाद, कषाय तथा योग रूप चार कारण विद्यमान हैं तथा उनके द्वारा चारों प्रकार कर्मबंध होता है,
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व उसके सघया अबंधपने का कथन करना उचित कार्य नहीं है। भागम चं. अनुसार अपनी श्रद्धा को बनाना विचारवान व्यक्ति का कर्तव्य है।
जिस पद खंडागम सूत्र का संबंध क्रमागत परंपरास सर्वज्ञ भगवान महाक प्रभु श्रायसिसुविधिगज्वीकाणमें कहा है, "सम्मादिट्टी बंधा वि मास्थि, अबंधा वि अस्थि" । चद्रक बंध भाग, सूत्र २६) सम्यक्त्वी के वंध होता है, अवधभी होता है। टीकाकार धवला टीका में कहते हैं, "कुदो। सामवाणामधेसु सम्म सगुवलमा'-आस्रव तथा अनाव अवस्था युक्त जीवों के सम्यग्दर्शन की उपलब्धि होती है। सूक्ष्म दृष्टि में विचार करने पर अयोग केवली भगवान को निरास्रव कहा है। "रिसरुद्ध शिस्सेस-आसनो जी"गयजोगो केवली 'पागम जब सर्वच सयोगी जिनको पानव रहित नहीं कहता है, तब विरति सम्यक्त्वी की निगराभव मानना उचित नहीं है।
महत्यपूर्ण कथन-उत्तरपुर में गुणभद्र आचार्य ने कहा है कि विमलनाथ भगवान चैराग्य भाव उत्पन्न होने पर सोधत है :
चारित्रस्य न गन्धोपि प्रत्याख्यानोदयो यनः । पंधश्चतुविधोप्यम्ति बह-मोह-परिग्रहः ॥३५॥ प्रमादाः संति सपि निर्जराप्यल्पिब मा । अहो मोहम्य माहात्म्यं मान्धाभ्य मि हव हि ॥३६॥ मर्ग ५६॥
प्रत्याख्यानाधयम का उदय होने से मेरे चारित्र की गंध भी नहीं है: बहुत माह तथा परिग्रह ग्रुगः चार प्रकार का कर्म बंध भी हो रहा है। मेरे सभी प्रमाद पाए जात है। मेरे कर्मों की निजंग भी अत्यन्त अल्प प्रमाण में हो रही है। अहो! यह मोह की महिमा है, जो मैं (तीर्थकर होते हुए भी) इभ पंसार में शिथिलतावश बैठा
रत्नत्रय का महत्व-इस कथन का यह अर्ध नहीं है कि चारित्रही सय कुछ है. । श्रद्धा और मम्यज्ञान का कुछ भी मूल्य नहीं है। यथार्थ में मोक्ष का कारण रहलनय धर्म है। सोमदेवसूर ने यशस्तिलक में मार्मिक बात कही है, जिसस रत्नत्रय धर्म का महत्व स्पष्ट होता है :
सम्यक्त्वात् मुगतिः प्रोक्ता ज्ञानात्कोतिरुदाहृता । वृचात्पूजामयामोत याच्च लभते शिवम् ।।
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5
जयभु
1.4.
झाला
( ५१ )
सामग्रीन कुडाणा सम्यक्त्व के द्वारा देव तथा मनुष्य गति मिलती है, ज्ञान के द्वारा यश का लाभ होता है तथा चारित्र से पूजापना मिलता है, किन्तु मोक्ष की प्राप्ति सम्यक्त्व, ज्ञान तथा चारित्र के द्वारा होती है।
रयणसार में कुंदकुंद स्वामी का यह कथन सच्चे तत्वज्ञ को महत्वपूर्ण लगेगा :
सीखने ईसारा
गायणाणी |
विज्जी मेसजमहं जाणे हृदि सम्मदे वाही ॥ ७२ ॥
5-20
ज्ञानी पुरुष ज्ञान के प्रभाव से कर्मों का क्षय करता है यह कथन करने वाला अज्ञानी हैं। मैं वैध हूं. मैं श्रीषधि को जानता हूं क्या इतने जानने मात्र से व्याधि का निवारण हो जायेगा ?
सम्यक्त्व सुर्गात का हेतु है यह कथन कुंकुंद स्वामी द्वारा समर्थित है :
सम्मत्तगुणाइ सुम्ग मिच्छा दो होई दुग्गगई णियमा । इदि जाग किमिह बहुणा जं ते रुचेड़ तं कुणाहो || ६६ ॥
सम्यक्त्व के कारण सुगति तथा मिथ्यात्व से नियमतः कुगति होती है, ऐसा जानो । अधिक कहने से क्या प्रयोजन ? जो डुझ को रुचे वह कर |
1
६ । २१ ) सूत्र द्वारा कहा इस विवेचन का यह अभ मूल्य नहीं है । रत्नत्रय स्कन्ध ज्ञान है; चारित्र
है।
तत्वार्थ सूत्र में “सम्यक्लं " है. कि सम्यक्त्व देवायु का कारण नहीं है, कि मोक्षमार्ग में सम्यक् का = रूपी वृक्ष का मूल सम्यग्दर्शन है; उसका उसकी शाखा है । जिस जीव ने निर्दोष सम्यक्त्व रूप आरंम प्रकाश प्राप्त कर लिया है, उसके लिए सर्वांगीण विकास तथा आत्मीक उन्नति का मार्ग खुला हुआ है । लौकिक श्रेष्ठ सुखादि की सामग्री केवल सम्यक्त्री ही पाता है। तीर्थकर की श्रेष्ठ पदवी के लिए बंध करने वाला ate सम्यग्दर्शन समलंकृत होता है । वह सम्यक्त्वी संयम और संयमी को हृदय से अभिवंदना करता हुआ उस ओर प्रवृत्ति करने का सदा प्रयत्न किग्रा करता है । वह अपने असंयमी जीवन पर अभिमान न कर स्वयं की शिथिल प्रवृत्तियों की निन्दा-गर्दा करता है। सच्चे सम्यक्त्वो का आदर्श परमात्म पद की प्राप्ति है, अतः व अपनी यथार्थ स्थिति को समझकर स्त्र-स्तुति के स्थान पर स्वयं की समालोचना करने में तत्पर
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होता है। ऐसे निर्मल सम्यक्त्वो के विषय में यशस्तिलक में सोमदेवसूचि कहते हैं :
चक्रनीः संश्योन्कएठा नाश्रिीः दर्शनोत्सुका । तस्य दूरे न मुक्तिश्री: निर्दोष यस्य दर्शनम् ।। मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज
"""चक्रवर्ती की श्री उसको माश्रय ग्रहण करने को उत्कीरत रहती हैं, देवों को लक्ष्मी उसके दर्शन के लिए उत्सुक रहती है, तथा मोक्ष लक्ष्मी भी उसके समीप है, जिसका सम्यग्दर्शन निर्दोष है।
प्रात्मश्रद्धा युक्त अल्पशान भी यदि सम्यकचारित्र समन्वित है, तो मोक्ष की प्राप्ति सुनिश्चित है। बारित्र मोहरूप शत्रु पर विजय होने पर अल्पज्ञान भी अद्भुत शक्ति संपन्न हो जाता है। प्राचार्य समन्तभद्र प्राप्तमीमांसा में कहते हैं।
अज्ञानान्मोहिनो बंधो न ज्ञानाद्वीतमोहतः । ज्ञानस्तोकाच्च मोक्षः म्यादमोहान्मोहिनोन्यथा ॥ ६॥
-- मोहविशिष्ट अर्थात मिथ्यात्वयुक्त व्यक्ति के अलान में बंध होता है। मोह सारित व्यक्ति के ज्ञान से बंध नहीं होता है। मोह रहित अल्पन्नान से मोक्ष प्राप्त होता है। मोही के ज्ञान से बंध होता है।
यहां बंध का अन्वय-व्यतिरेक ज्ञान की न्यूनाधि कता के साथ नहीं हैं। मोह सहित ज्ञान घध का कारण है। मोह रहित ज्ञान मोक्ष का कारण है । इस कथन में मन्वय व्यतिरेक पाया जाता है।
शंका-यह कथन सूत्रकार उमास्वामी के "मिथ्यादर्शनाविपतिप्रमाद-कपाय-योगा बंध-हेतवः' (८ | १) इस सूत्र के विरुद्ध पड़ता है ?
समाधान-विद्यानदि स्वामी अष्टसहनी (२६७ ) में कहते हैं, कि मोहविशिष्ट अज्ञान में संक्षेप से मिथ्यादर्शन आदि का संग्रह किया गया है। इष्ट, निष्ट फल प्रदान करने में समर्थ कर्म बंधन का हेतु कषायैकार्थसमवायी अज्ञान के अविनाभावी मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कपाय तथा योग को कहा गया है। मोह और अज्ञान में मिध्यात्व आदि का समावेश होता है।
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कर्मसिद्धान्त और एकान्तवाद-यह कर्म सिद्धान्त अनेकान्त शासन में ही सुव्यस्थित रूप से सुघटित होता है। तस्वर्षिसन के प्रकाश में एकान्तबादी सौगतादिक की दार्शनिक मान्यताओं के साथ उनके द्वारा स्वीकृत कर्म सिद्धान्त का कथन असम्बद्धसा अवगत होता है। महान ताकिक समंतभद्र स्वामी इस सम्बन्ध में समीक्षा करते हुए कहते हैं :
कुशलाऽकुशलं कर्म परलोकश्च न कचित् ।
एकान्त-ग्रह-रक्तेषु नाथ स्व-पर-वरिषु ॥मा. मी. ८॥ मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज,
स्व सिद्धान्त तथा अनेकांत सिद्धान्त के विपक्षी नित्यैकान्त, चागि कैकान्त आदि पक्षों में अनुरक्तों के यहां कुशल अर्थात पुण्य कर्म, अकुशल अर्थात पाप कर्म तथा परलोक नहीं सिद्ध होते हैं।
नित्यैकान्त अश्रया अनित्यैकान्त पक्ष में क्रम तथा अक्रमपूर्वक अर्थक्रिया नहीं बनती है। अर्थक्रियाकारित्व के अभाव में पुण्य-पाप के बंधादि की व्यवस्था भी नहीं बनती है । बौद्ध दर्शन को मान्यता है, कि 'सर्व क्षणिक सत्वात' सत्व युक्त होने से सभी पदार्थ क्षणिक हैं। उसमें कमों का बंधन, फज़ का उपभोग आदि कथन स्वसिद्धान्त विपरीत पड़ता है । हिंसा आदि पाप कार्यों का करने वाला, अकुशल कर्म का फलानुभवन के पूर्व क्षय को प्राप्त हो जाने से, फलानुभवन नहीं करेगा। इस विषय पर समंतभद्र स्यामी इस प्रकार प्रकाश डालते हैं :
हिनस्त्यनभि-सन्धात न हिनस्स्यभिसंधिमत् । बध्यते तवयापेनं चित्तं बर्द्ध' न मुच्यते ||५१साश्रा. मी.
हिसा का संकल्प करने वाला चित्त द्वितीय क्षस में नष्ट हो चुका, (क्योंकि वह चरम स्थायी था), अतः संकल्पषिहीन चित्त के द्वारा प्रासघात संपन्न हुषा। हिंसक व्यक्ति भी दूसरे क्षस में नष्ट हो गया, अतः हिंसा के फलस्वरूप दण्ड का भोगने वाला चित्त ऐसा होगा, जिसने न ती हिंसा का संकल्प किया और न हिंसा का कार्य ही किया। इसी कम के अनुसार बंधन-बद्ध चित्त उत्तर क्षरस में नष्ट हो गया, अतः मुक्ति को पानेवाला चित्त नवीन ही होगा । सूक्ष्म चिंतन द्वारा ऐसी अव्यवस्था तथा अद्भुत स्थिति क्षणिकैकान्त पक्ष में उत्पन्न होती है । इस एकान्त पक्ष में नैतिक जिम्मेदारी का भी अभाव हो जाता है । कृत कर्मों का नाश और अकृषकों का फलोपभोग होगा।
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(५४ मार्गदर्शक :- 'आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज
श्रो
एकान्त नित्य पक्ष में क्रियाशीलता का अभाव हो जाने से देश से देशान्तर गमन रूप देश-क्रम नहीं होगा । शाश्वतिक रहने से कालक्रम नहीं बनेगा | सकल काल-कलाव्यापी वस्तु को विशेष काल में विद्यमान मानने पर नित्य पक्ष का व्याघात होगा । सहकारी कारस की अपेक्षा कम मानने पर यह प्रश्न होता है कि सहकारी कारण उस वस्तु में कुछ विशेषता उत्पन्न करते हैं या नहीं ? यदि विशेषता पैदा करते हैं, ऐसा मानते हो, तो नित्यत्य पक्ष को क्षति पहुँचती है। यदि विशेषता नहीं उत्पन्न करते हैं, यह पक्ष मानते हो, तो सहकारी की अपेक्षा लेना व्यथ हो जाता है | अकार्यकारी को सहयोगी सोचना तर्क बाधित है।
नित्य पक्ष में युगपद् प्रकियाकारित्व मानने पर एक ही समय में एक ही चरण में समस्त कार्यों का प्रादुर्भाव होगा द्वितीय क्षण में क्रिया का अभाव होने से वस्तु अवस्तु रूप हो जायेगी । श्रतः नित्य पक्ष में भी अर्थक्रिया का अभाव होने से कर्मबंध की व्यवस्था नहीं बनेगी |
अद्वैत पक्ष में भी कर्म सिद्धांत की मान्यता बाधित होती है । श्राप्त मीमांसा में कहा है:
कर्मद्वैतं फलद्वैतं लोकतं च नो भवेत् । विद्याविद्याद्वयं न स्याद् बंध - मोक्षद्वयं तथा ॥ ३५॥
लौकिक-वैदिक कर्म, कुशल अकुशल कर्म, पुण्य-पाप कर्म लोकद्वैत, विश्वा श्रविद्या का देत तथा बंध- मोक्ष देत भी अ पत्र में सिद्ध नहीं होते । "अद्वैत" शब्द स्वयं "द्वैत" के सद्भाव का झापक है । प्रतिषेध्य के बिना संज्ञावान पदार्थ का प्रतिषेध नहीं बनता है । यदि युक्ति द्वारा अद्वैत तत्व को सिद्ध करते हो, तो साधन और साध्य का द्वैत उपस्थित होता है । यदि वचनमात्र से अद्वैत तत्र मानते हो, तो उसी न्याय से द्वैत पक्ष भी क्यों नहीं सिद्ध होगा ?
कर्मसिद्धान्त का अतिरेक — कोई व्यक्ति देव, भाग्य, निर्यात आदि का नाम लेकर यह अतिरेक कर बैठते हैं, कि जैसा कुछ विधाता ने भाग्य में लिखा है. यह कोई नहीं टाल सकता है । "यदत्र भाले लिखित, वन स्थितस्यापि जायते" | देव ही शरण है । 'विधिरेव शरस' | एक मात्र दैव ही शरण है ।
इस देवैकान्त की आलोचना करते हुए समंतभद्र स्वामी कहते - 2 ] है - चैव से ही प्रयोजन सिद्ध होता है, तो यह बताओ औव के प्रयत्न
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द्वारा देव की उत्पत्ति क्यों होती है ? आज जिसे पुरुषार्थ कहा जाता है वही आगे देव कहा जाता है । पुरुषार्थ द्वारा बाँधा गया कर्म ही || आगे देष कहा जाता है। देवैकान्त की दुर्बलता को देख पुरुषार्थं का एकान्तवादी कहता है पूर्वबद्ध कर्मों में क्या ताकत है ? 'देवमविद्वांसः प्रमाणयति' – अज्ञानी लोग ही देव को प्रमाण मानते हैं ।
येषां बाहुबलं नास्ति, येषां नास्ति मनोबलम् | तेषां चंद्रबलं देव किं कुर्यादम्बरस्थितम् ॥ यश. ति. ३ | ४४ ॥
जिनकी भुजाओं में शक्ति नहीं है और जिनके पास मनोबल | नहीं है, ऐसे व्यक्तियों का आकाशवाटमात्र जी महाराज आदि की विशेष स्थिति ) क्या करेगा ?
इस एकान्त विचार की समीक्षा करते हुए समंतभद्र स्वामी पूछते हैं - यह बताभो तुम्हारा पुरुषार्थ देव से कैसे उत्पन्न हुआ ? कहाचित् ग्रह मानो कि सब कुछ पुरुषार्थ से ही उत्पन्न होता है, ता सभी प्राणियों का पुरुषार्थं सफल होना चाहिये। कर्म के तीव्र उदय | आने पर पुरुषार्थं कार्य कारी नहीं होता है । समान पुरुषार्थ करते हुए भी पूर्वकृत कर्म के उदयानुसार फलों में भिन्नता पाई जाती है । समान श्रम करने वाले किसान देववश एक समान फसल नहीं काटते हैं ।
समन्वय पथ – दैव और पुरुषार्थ की एकान्त दृष्टि का निराकरण करते हुए सोमदेव सूरि इस प्रकार उनमें मैत्री स्थापित करते हैं । इस लोक में फल प्राप्ति देव अर्थात पूर्वोपार्जित कर्म तथा मानुष कर्म अर्थात् पुरुषार्थ इन दोनों के अधीन हैं। यदि ऐसा न माना जाय, तो क्या कारण हैं कि समान चेष्टा करने वालों के फलों में। भिन्नता प्राप्त होती हैं ?
यशस्तिलक में कहा है-
परस्परोपकारे जीवितौषधयोरिव ।
दैव- पौरुपयोति फलजन्मनि मन्यताम् ।। यश. ति. ३ | ३३
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जैसे औषधि जीवन के लिए हित प्रद हैं और आयु कर्म औषधि के प्रभाव के लिए आवश्यक है अर्थात् फलोत्पत्ति में श्रायुर्म औषधि सेवन परस्पर में एक दूसरे को लाभ पहुंचाते हैं, उसी प्रकार देव और पौरुष को वृति है ।
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वे कहते हैं, सच आदि इन्द्रियों के अगोचर अतीन्द्रिय आत्मासे दैव संबंधित है, और प्राणियों की समस्त क्रियाएं पुरुषार्थ पर निर्भर हैं, इससे उद्यम को ओर ध्यान देना चाहिये ।
___आत्मावाससमें मचायानाधिक्षिामनमर्श हवाम किया गया है" श्रायुः श्रीवपुरादिकं यदि भवेत्पुण्यं पुरोषार्जितम् स्यात्सर्वं न भवेन तच्च नितरामायासितेप्यात्मनि । इत्यार्या सुविचार्य कार्य-कुशलाः कात्रे मंदोद्यमा : !
द्रागागामि-भवाथमेव सततं प्रीत्या यतन्ते तराम् ॥ ३७ ।। - यदि पूर्व संचित पुण्य पास में है, तो दीर्घ जीवन, धन, शरीर संपत्ति प्रादि मनोवांछित पदार्थ प्राप्त हो सकते हैं। यदि वह पुण्य रूप मामग्री नहीं है, तो स्वयं को अपार कष्ट देने पर भी वह सामग्री प्राप्त नहीं हो सकती। अतएव उचित अनुचित का सम्यक विचार करने में प्रवीम श्रेष्ठ पुरुष भावी जीवन निर्माण के विषय में शीत ही प्रीतिपूर्वक विशेष प्रयत्न करते है तथा इस लोक के कार्यों के विषय में मंद रूप से उद्यम करते हैं।
नियतिवाद समीधा-कोई कोई प्रमादी व्यक्ति मानवोचित पुरुषार्थ से विमुख हो भावी दैव अथवा नियति ( Destiny ) का आश्रय होकर अपने मिथ्या पक्ष को उचित ठहराने की चेष्टा करते हैं। वे कहते हैं, जिस समय जहाँ जैसा होना है, उस समय वहाँ वैसा ही होगा। नियति के विधान को बदलने की किसी में भी जमना नहीं है। प्राचार्य
नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती ने ऐसे पौष शून्य तथा भीरुतापूर्ण भावों " को मिथ्यात्वका भेद नियतिवाद कहा है।
जसु जदा जेण जहा जस्स य णियमेण होदि तनु तदा । तेण तहा तस्स हवे इदि वादो णियदिवादो दु । ८०२ । गो.क.||
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जो जिस काल में जिसके द्वारा, जैसे, जिसके, नियम से होता है, वह उस काल में, उससे उस प्रकार उसके होता है। इस प्रकार की ! मान्यता नियतिवाद है।
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- श्री प्रभु (५७ )
रामाना
खामगाव जि. अट डाणा विवेकी तथा पुरुषार्थी धर्मात्मा देव का काम न बनकर तथा नियतिवाद को आदर्श न बनाकर आत्मशक्ति, जिनेन्द्रभक्ति तथा जिनाम की देशना को अपने जीवन का श्राश्रय केन्द्र बनाकर सच्चरित्र होता हुआ उज्वल भविष्य का निर्माण करता है। जो कायर तथा पौरुष- शून्य देव या नियतिवाद को गुण-गाथा गाते हुए पाप पथ का परित्याग करने से डरने हैं, वे प्रमादो अपने नर जन्म रूपी चिन्तामणि रत्न को समुद्र में फेक देते हैं। नियतिवाद का एकात मिथ्यात्व है। अमृतचंद्रर ने कथंचित रूप में नियतिवाद का समर्थन किया है। उन्होंने लिखा है "निर्यातनयेन नियमितपण्य-वहिवन्नियत-स्वभावासि । अनियतिनयेना नियनिमित्तौपण्यपानीयवदनियतस्वभावासि"-नयति नय में जीव नियमित उपस तायुक्त अम्नि सदृश नियत स्वभाव युक्त है। अनियत नय से वह अनियमित निमितवश उष्णतायुक्त जल सदृश अनियत स्वभाव
है। (प्रवचनसार गाथा २७५ टोका) मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज
.इस प्रसंग में समंतभद्र स्वामी का यह दार्शनिक विश्लेषण महत्वपूर्ण मार्गदर्शन करता है:
अबुद्धि - पूर्वापेक्षाया-मिष्टानिष्टं स्वदेवतः धुद्धिपूर्वव्यपेक्षाया-मिष्टानिष्टं स्वपौरुषात् ।। श्रा. मी. ६१
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अधुद्धिपूर्वक अर्थात् अतर्कितल्प से उपस्थित इष्ट - अनिष्ट कार्य । अपने देव की मुख्यता से होता है । युद्धपूर्वक इष्ट अनिष्ट फल को/ ओ प्राप्ति होती है, उसमें पुरुषार्थ की प्रधानता रहती है।
इस विषय को बुद्धिमाही बनाने के लिए सोमदेव सूरि यह रांत देते हैं- सोते हुए व्यक्ति का सर्प से स्पर्श होते हुए भी मृत्यु का नहीं होना देव की प्रधानता को सूचित करता है । सपे को देखकर बुद्धिपूर्वक श्रात्म संरक्षण का उद्योग पुरुषार्थ की विशेषता को व्यक्त करता है। भोगी वथा अंधकार पूर्ण भविष्य वाला व्यक्ति वात्माराधन के कार्य में दैव तथा नियतिवाद का आश्रय लेता है तथा जीवन को उच और मंगल मय बनाने के कर्तव्य से विमुख बनकर पाप के गर्त में पटकने वाले हिंसा, असत्य, चोरी, छल, कपट, तीन तृपणा, परनी सेवन, सुरापान आदि कार्यों में इच्छानुसार अनियंत्रित प्रवृत्ति करता है। इस प्रकारं भोगी प्राणी देव और पुरुषार्थ के विवेचन रूप महासागर का मंथन कर अमृत के स्थान में विष को निकाला करता है। विषय भोग संबंधी कार्यों में वह पुरुषार्थ की मूर्वि बनता है सथा त्याग एवं सदाचार के विषय में यह देव का आश्रय ले हरा करता है। ऐसी कमजोर प्रात्मा को
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धारिन चक्रवर्ती १०८ क्षपकराज आचार्य शांतिसागर महाराज को ३६ दिन पर्यन्त होने वाली यम सल्लेखना के २६ ब दिन दी गई धर्मदेशना को स्मरण करना चाहिए, जिसमें उन्होंने सान्त्वना तथा अभय प्रद वाणी में कहा था, "घरे प्राणी भय का परित्याग कर और संयम का माश्रय अवश्य ग्रहण कर ।" मोक्ष परम पुरुषार्थी को मिलता है। यह स्मयं धतुर्थ पुरुषार्थ कहा गया है। प्राचार्य कुन्दकुन्द ने भावपाहुड में कहा है, कि अत्यन्त अल्पज्ञानी होते हुए भी शिवभूति नामकी पुरुषार्थी
आत्मा ने सफल कर्मों का हय करके मोक्ष प्राप्त किया । उस आत्मा ने भौगों पर विजय प्राप्त कर के मुनि पद को धार किया तथा सत्साहस सहित हो कर्मा के साथ युद्ध किया तथा अन्त में मोह कर्म का ज्ञय करके मोच प्राप्त किया। उन्होंने निर्यात वाद का पाश्रय न ले पुरुषार्थ का मार्ग अंगीकार किया था। भावपाहुन में लिखा है
सुममासम्मल भावावसुद्धा महाणिमात्रागर जी महाराज सामेण य सिवभूई केवलणाणी फुड जाओ ॥ ५३ ॥
निर्मल परिणाम युक्त तथा महान् प्रभावशाली शिवभूति मुनि ने 'तुष-माष भिन्न'-दाल और छिलका जैसे पृथक है, इसी प्रकार मेरा
आत्मा भी कर्मरूपी छिलके से जुदा है, इस पद को स्मरस करते हुए (भेद विज्ञान द्वारा) केवलज्ञान पाया था। शिषभूति मुनिराज का यह दृष्टान्त जन लोगों को सत्पथ यवलाता है, जो मन्दज्ञानी व्यक्ति को ब्रतापरण में प्रवृत्त होने से गोकते हैं अथवा विन्न उपस्थित करते हैं। यथार्थ मात है कि यहि चिश में मचा घराय भाव उत्पन्न हो गया है, वो अल्पज्ञानी को आत्म कल्याण हेतु उच्च त्याग में प्रवृत्त होवे देखकर हर्षित होना चाहिए, न कि विधकारी तत्व पनना चाहिए।
मात्मा की शक्ति अपार है। फर्म की शक्ति भी अदभुत है। वह (अनतक्तिधारी तथा प्रध्यार्थिक दृष्टि से अनंत कानवान भात्मा को निगोदिया की पर्याय में अक्षर के मनतवें भाग ज्ञानवाला बनाता है। कार्तिकेयानुप्रेता में कहा है
का वि अपुव्वा दोसदि पुग्गल-दध्वस्स एरिसी सनी। केवलणाण-सहाचो चिणासियो धार श्रीयस्स ॥२१॥
पुद्गल कर्म की भी ऐसी अद्भुत सामर्थ्य है, जिसके कारण जीप का केवलबान स्वभाष विनाश को प्राप्त हो गया है।
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ऐसी अद्भुत शक्ति युक्त कर्मराशि का क्षय अकर्मण्य बनकर "मैं स्वयं परमात्मा हूं” ऐसी बाद मात्र द्वारा नहीं होगा। इसके लिए धनादि तथा हट जनों का संपर्क त्यागकर बीतराग महामुनि की दीक्षा लेकर आगमको आज्ञानुसार रत्नत्रय धर्म को स्वीकार करना होगा। रत्नत्रय की सलवार के प्रचण्स प्रहार द्वारा कर्म सैन्य का सम्राट मोहनीय कर्म क्षय को प्राप्त होता है । वीरसेन आचार्य ने बेदना खण्ड के मंगलाचरण में लिखा है :
तिरयण-खग्ग विहारगुचारिय- मोह से रण- सिर- विहो । आइरिय-राउ पसिय परिवालिय-भविय-जिय-लोओ ||
जिन्होंने रत्नत्रयरूपी खड्ग के प्रहार से मोहरूपी सेना के शिरसमूह का नाश कर दिया है तथा भव्य जीव लोक का परिचालन किया है, वे आचार्य महाराजाकहोवें आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज
कर्मों के विविध प्रकार इस कर्म के ज्ञानावरण, दर्शनावरण वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्वराय ये आठ भेद हैं। ज्ञानावरण के पांच, दर्शनावरण के है, वेदनीय के दो, मोहनीय के अट्ठाईस आयु के चार नाम के तेरानये, गोत्र के दो तथा अंतराय के पांच ये सब मिलकर (१ भेद होते हैं। इनको फर्म प्रकृति नाम से कहा जाता है । शब्द की दृष्टि से कर्म के असंख्यात भेद हैं। अनंतानंवात्मक स्कन्धों के परिमन की अपेक्षा कर्म के अनंत भेद हैं। ज्ञानावरणादि के अविभागी प्रतिच्छेदों की अपेक्षा भी अनंत भेद कहे गए हैं।
कर्म के अंध, उत्कर्षण, संक्रमण, अपकर्षण, उदीरणा, सत्व, उश्य, पशु, निवृत्ति तथा निकोचना रूप देश भेड़ कहे गये हैं ।
ご
"कम्मास संबंधो धो" मिध्यात्वादि परिणामों से पुद्गल द्रव्य ज्ञानावरण आदिरूप से परिणत होता है, तथा ज्ञानादि गुणों का आवरण करता है इत्यादि रूप कर्म का संबंध होना बंध है । "स्थित्यनुभागयोः बृद्धिः नत्कर्षां" स्थिति और अनुभाग की वृद्धि उत्कर्ष है । "परकृतिरूप परिणमन संक्रमणं”-अन्य प्रकृतिरूप परिणमन को संक्रमण कहते हैं । 'स्थिस्यनुमागयो हनिरपकर्ष नाम " - स्थिति और अनुभाग की हानि की अपकर्षर कहते हैं । "उदयावनि बाह्यस्थित द्रव्यस्यापकर्षण-वशादुदयावल्यां निच्चे परममुदीरणा खलु” – उदयावली बाझ स्थित द्रव्य को अपकषस के वश में उदयावली में निक्षेपण करना उदीरणा है । ' अस्तित्वं वस्त्र' - कर्मों के अस्तित्व को सत्य कहा है। "स्वस्थितिं प्राप्तमुदयो भवति" - कर्म का
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मागस्वकीय स्थिति को प्राप्त होना उदय है। "यकर्म उदगावल्यां निक्षेप्तुमशक्य
तदुपशांतं नाम"-जो कर्म उदयावली में निक्षिप्त करने में अशक्त है, उसे उपशम कहते हैं। "उदयावल्यां भिक्षप्तुं संक्रयितं चाशक्यं तनिधत्तिर्नाम". जो कम उदगावली में प्राप्त करने में तथा अन्य प्रकृति रूप में संक्रमण किए जाने में असमर्थ है, वह निर्धात्त है । "उदयायल्यां निक्षेप्तं संक्रमयितुमुत्कर्षे. यि अपकर्षयितु चाशक्यं तनिकाचितं नाम भवति"--- जो कर्म उदयावली में न लाया जा सके, संक्रमण, उत्कर्षण, अपकर्षण किए जाने को समर्थ नहीं है, वह निकाचित है।
सात कर्मों में ये दशकरस पाये जाते हैं। प्रायु कर्म में संक्रमण नाम का करण नहीं पाया जाता है। अपूर्व करण गुणस्थान पर्यन्त दश करण होते हैं उससे आगे सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान पर्यन्त उपशांत, निकाचना और निर्धात्त को छोड़कर शेष मात करण कहे गए हैं। वहां भो संक्रमण फरण के बिना सयोगी पर्यन्त छह करण हैं। अयोगी के "सतं उदयं प्रजोगि ति"-सत्व और पदय मात्र होते हैं । उपशान्त कषाय गुणस्थान में मिथ्यात्व और मिश्र प्रकृति के परमाणुओं का सम्यक्त्व प्रकृतिरूप संक्रम होता है। शेष प्रकृतियों के छह करण होते हैं।
मिश्न गुणस्थान को छोड़कर अप्रमत्तसंयत पर्यन्त आयु बिना पात तथा आयु सहित भाठ कर्मों का बंध होता है । मिश्र गुण स्थान अपूर्व करण तथा अनियतिकरण में श्रायु तथा मोह के यिना छह कर्म बंधते है। उपशांत कपाय, क्षीणकपाय तथा सयोगी जिनके एक चेदनीय का ही बंध होता है। "अबंधगो एकको".-एक अयोगी जिन श्रबंधक हैं। (गो.क.४५२)
उदय की अपेक्षा दश गुणास्थान पर्यन्त पाठों कर्मों का उदय होता है। उपशान्त कपाय तथा क्षीणामोह गुणस्थानों में मोह को छोड़ सात कर्मों का उदय होता है । तेरहवें सयोगकेवली तथा चौदहवें अयोगी जिसके चार अधातिया कर्मों का ही उदय होता है।
दीरणा के विषय में यह ज्ञातव्य है कि मोहनीय की उदीरमा सूक्ष्मसापराय गुणस्थान पर्यन्स होती है। ज्ञानावरण, दर्शनावरण सथा अंतराय की प्रदीरण। क्षीरशमोह गुणस्थान पर्यन्त होती है । वेदनीय और मायु की दारणा प्रमत्त संयत पर्यन्त होती है | नाम और गोत्र को भदीरणा सयोगी जिन पर्यन्त होती है।
कर्मों की दश अवस्थानों पर ध्यान देने से यह स्पष्ट होता है, कि जीव के परिणामों के माश्रय से कर्म को हीन शक्ति युक्त अरवा
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मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज
अधिक शक्तियुक्त भी बनाया जा सकता है 1 उदीरणा के द्वारा फर्मों का अनियत काल में उदय होकर निर्जरा होती है। तप के द्वारा जो असमय में निर्जरा होती है, उसे अविपाक निर्जरा कहते हैं । कमों का फल भोगना ही पड़ेगा-"नामुक्त क्षीयते कर्म" यह पात सर्वथा रूप से जैन सिद्धान्त में नहीं मानी गई है । जब अात्मा में रत्नत्रय की ज्योति प्रदीप्त होती है, तब अनंतानंत कार्मास वर्गणाएं बिना फल दिए हुप निर्जरा को प्राप्त हो जाती है। केवली भगवान के एक समय की स्थिति षाला साता वेदनीय कर्म का बंध होता है, जो अनतर समयमें उदय को प्राप्त होता है । उसी साता वेदनीय रूपमें परिणत होकर असाता वेदनीय की निर्जरा हो जाती है। इस कारण केवली भगवान के ज्ञधा आदि की पीड़ा का अभाव सर्वज्ञोक्त शासन में स्वीकार किया गया है।
ज्ञानावरण और दर्शनायरण का स्वभाव जीव के ज्ञान और दर्शन गुणों का आवरण करना है। बौद्धिक विकास में न्यूनाधिकता का संबंध ज्ञानावरण कमे से है। सुख तथा दुःख का अनुभवन कराना घेदनीय कर्म का कार्य है। आत्मा के श्रद्धा और चारित्र को विकृत घनाना मोहनीय का कार्य है। इसके द्वारा प्रात्मा के सुख गुणको भी क्षति प्राप्त होती है। यह मदिरा के समान जीव को अपने सच्चे स्वरूप की स्मृति नहीं होने देता है । मनुष्यादि पर्यायों में नियत काल पर्यन्त जीव की अवस्थिति का कारण आयु कम है। शरीरादि की रचना का कारण माम कर्म है । यह चित्रकार सदश जीव को विविध रूपता प्रदान करता है। लोक पूजिव अथवा उच्च नीच देह पिण्ड की प्राप्ति में कारण गोत्र कर्म है। यह कुंभकार के समान माना गया है। दान, लाभ तथा भोगादि में यिन्न करने वाला अंतराय फर्म कहा गया है। जीव में उच्चपना नीचपना, समाज की कल्पना नहीं है। जैन शासन में इसे गोत्र फर्म बन्य माना गया है।
वेदनीय कर्म यद्यपि अघातिया है, फिर भी यह ज्ञानावरण, दर्शनावरण के पश्चात तथा मोहनीय रूप धातिया कर्मों के मध्य में रखा गया है, क्योंकि मोह का अवलंथन प्राप्त कर यह कर्म जीव के गुण का घात करता है। वेदनीय कर स्वरूप गोम्मदसार कर्मकाण्ड में इस प्रकार दिया गया है :
अक्वाणं अणुभवणं चेयणियं सुहसरूवयं सादं । दुःखसरूवमसादं तं वेदयदीदि वेदणियं ॥१४॥
इंद्रियों का अपने विषयों का अनुभवन अर्थात्, जानना वेदनीय है। जो दुःख स्वरूप अनुभवन कराता है, वह असावा वेदनीय है तथा जो
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मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुबिधासागर जी महाराज
सुख रूप अनुभवन करावे, वह साता बेदनीय है। टीकाकार के शब्द ध्यान देने योग्य हैं, "इंद्रियाणां अनुभवनं विषयावबोधनं वेदनीयं । सब सुखस्वरूपं सातं, दुःखस्वरूपमातं वेदयति ज्ञापयति इति बेदनीयम्" । इन फर्मों की निरुक्ति करते हुए इस प्रकार स्पष्टीकरण गोम्मटसार की संस्कृत टीका में किया गया है।
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उदाहरण -- ज्ञानावरण के विषय को स्पष्ट करते हुए चाचार्य कहते है, "ज्ञानमावृणोति ज्ञानावरणीय स्य का प्रकृतिः ? ज्ञानप्रच्छादनता । किं वत् देवतामुखयत् ।" जो शनि का आवरण करे, वह ज्ञानावरण है । उसका क्या स्वभाव है ? ज्ञान को ढांकना स्वभाव है। किसके समान ? देवता के समक्ष ढाले गए वस्त्र की तरह वह ज्ञान का आवरस करता है ।
दर्शनावरण--"दर्शनमावृसोतीति दर्शनावरणीयं प्रेतस्य का प्रकृतिः दर्शनप्रानता किंवत् राजद्वार- प्रदिनियुक्त प्रवीहारवत् ।" जो दर्शन का आवरण करें, वह दर्शनावरसीय है। उसकी क्या प्रकृति है ? दर्शन को ढांकना उसका स्वभाव है। किस प्रकार ? यह राजद्वार पर नियुक्त द्वारपाल के समान है ।
वेदनीयं
वेदनीय - [["वेदयतीति तस्य का प्रकृतिः ! सुख-दुखोत्पादना, कि वत् ? मघुलिप्तासिधारावत्" -- जो अनुभवन करावे, वह वेदनीय है। उसका क्या स्वभाव है ? सुख-दुःख उत्पन कराना उसका स्वभाव है। किस प्रकार ? मधु लिप्त तलवार की धार के समान उसका स्वभाव है । मधु द्वारा सुख प्राप्त होता है, तलवार की धार द्वारा जीभ को क्षति पहुंचने से क भी होता है ।
यह
मोहनीय -- "मोहयतीति मोहनीयं तस्य का प्रकृतिः १ मोहोत्पादना । किंतू ? मद्य धत्तूर मदनको द्रववत् " - जो मोह को उत्पन्न करे, मोहनीय है। उसका क्या स्वभाव है ? मोह को उत्पन्न करना । किस प्रकार ? मदिरा, धतूरा तथा मादक कोदों के समान वह मादकता उत्पन्न करता है। राजवार्तिक में मोहनीय की निरुकि इस "मोहयति, मुझते अनेनेति या मोहः" जो मोहित करता है द्वारा जीव मोहित किया जाता है, वह मोह है ।
प्रकार की है, अथवा जिसके
आयु — "भवधारणाय एति गच्छतीति आयु: 1 तस्य का प्रकृतिः ? भवधारणा किंवत् १ हलिवत्"- -भव अर्थात् मनुष्यादि की पर्याय को धारण करने को उसके उदय से जीव जादा है, इससे उसे वायु कहते हैं । उसकी क्या प्रकृति है ? भव को धारण करना। किस प्रकार ? जिस प्रकार इलि अर्थात् का के यंत्र में पैर को फंसाकर नियव
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काल तक पंडित व्यक्ति पराधीन बनता है, उसी प्रकार पर्याय विशेष में नियत काल पर्यन्य जीव पराधीन रहा भावा है ।
नाम--"नाना मिनोतीति नाम । तस्य का प्रकृत्तिः १ नर-नारकादिनानाविध विधिकरणता किंवत् ? चित्रकवत् । " - नाना प्रकार के कार्य को संपादन करे सो नाम है। इसकी क्या प्रकृति ? जिस प्रकार चित्रकार नाना प्रकार के चित्र निर्माण करता है, eसी प्रकार यह नर नारकावि रूपों को जनसागर जी महाराज मार्गदर्शक :- आचार्य श्री
गोत्र / उच्चनीचं गमयतीति गोत्रं तस्य का प्रकृतिः ? उचनीचत्व प्रापकता । किवत् ? कुंभकारवत्। " जो उच्च नोचपने को प्राप्त करावे वह गोत्र है । उसकी क्या प्रकृति है ? उच्चता. नीचता को प्राप्त कराना । किस प्रकार ? कुंभकार के समान । जैसे कुंभकार छोटे बड़े बर्तन बनाया है, उसी प्रकार यह कर्म नीच, ऊंच भेद का जनक है
阿
अंतराय दातु पात्रयोरंतर मेतीति अंतरायः ] तस्य प्रकृतिः ? विघ्नकरसता किंवत् ? भांडागारिकवत् । " दाता तथा पत्रि के मध्य जो श्रावे, वह अंतराय है। उसकी क्या प्रकृति है ? विघ्न उत्पन्न करना। किस प्रकार ? जैसे भंडारी देने में विन करता है, इसी प्रकार यह पात्र के द्रव्य लाभ में विघ्न उत्पन्न करता है । दाता ने आज्ञा दे दी, कि पात्र को दान दे दिया जाय, किन्तु भण्डारी देने में विघ्न उत्पन्न करता है ।
इस प्रकार छठ कर्मों का स्वरूप समझना चाहिये ।
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ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अंतराय ओव के ज्ञान, दर्शन, सम्यक्त्व और अनंतवीर्य रूप मनुजीवी गुणों का घात करने के कारण घातिया कर्म कहे गए हैं। आयु. नाम, गोत्र तथा वेदनीय अघातिया कहे गए हैं, कारण इनके द्वारा अवगाहनत्व, सूक्ष्मत्व, अगुरुलघुत्व तथा अव्यावाघत्व रूप प्रतिजीवी गुणों का घाव होता है। इनके संके चार भेद कहे गए हैं:
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स्वभावः प्रकृतिः प्रोक्ता स्थितिः कालावधारणम् । अनुभागो विपाकस्तु प्रदेशोंश - विकल्पनम् ।
कर्मों का नामानुसार जो स्वभाव है, वह प्रकृति है । उनका मर्यादित काल पर्यन्त रहना स्थिति है। उनमें रसदान की शक्ति का सद्भाव अनुभाग है तथा कर्म वर्गमाओं के परमाणुओं की परिगयाना
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। प्रदेश बंध फहा है। योग के कारण प्रकृति और प्रदेश बंध होते हैं। | कषाय के कारण स्थिति और अनुभाग बंध होते हैं।
कर्मा का प्रधान-आठौं कर्मों के सम्राट् के समान मोहनीय की स्थिति है । सत्वानुशासन ग्रंथ में लिखा है:
मंध - हेतुषु सर्वेषु मोहश्चक्री प्रमोदितः । मिथ्याज्ञानं तु तस्यैव सचिरत्वमशिश्रयतू ।। १२ ॥
मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज समस्त बंध के कारणों में मोह कर्म चक्रवर्ती कहा गया है। उसका मंत्री मिथ्याज्ञान कहा गया है ।
ममाहंकारनामानौ सेनान्यों च तन्सुतो। यदायत्तः सुदुर्भेदो मोह-व्यूहः प्रवर्तते ।। १३ ॥
उस मोह के ममकार और प्राहकार नाम के दो पुत्र हैं, जो सेना नायक हैं। उन दोनों के आधीन मोह का अत्यन्त दुर्भद्य सेना घ्यूह-सेनाचक्र कार्य करता है।
ग्रन्थ का प्रमेय---इस कपाय पाहतु ग्रंथ में मोहनीय कर्म का ही वर्णन किया है । बीरसेन आचार्य ने कहा है "एत्थ कसाय-पाहुडे सेस-सत्तराई कम्मा परूवया राथि ति भगिर्द होदि"-इस कषाय पाहु ग्रंथ में शेष सात कमों की प्ररूपणा नहीं की गई है।
मोहनीय के प्रभेद-मोहनीय कर्म के दो भेद हैं (१) दर्शन - (२) चारित्र मोहनीय । दर्शनमोहनीय के मिथ्यात्व, सम्यक्त्व प्रकृति
तथा मित्र प्रकृति ये तीन भेद है। चारित्र मोह के काय तथा अकषाय (नोकपाय ) ये दो भेद हैं। क्रोध, मान, माया तथा लोभ रूप चार प्रकार कषाय हैं। उनमें प्रत्येक के अनंतानुबंधी; एक देश संयम को रोकने पाली अप्रत्याख्यानावरण, सकल संयम को रोकने वाली प्रत्याख्यानाबरणा तथा जिस कपाय के रहते हुए भी संयम का परिपालन होता है तथा जिसके कारण यथाख्यात चारित्र नहीं हो पाता, वह संज्वलन कषाय रूपभेद हैं।
हास्य, रति, परति, शोक, भय, जुगुप्मा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद तथा नपुंसक घेद ये नोकपाय या अकषाय कही गई है। अपाय का अर्थ ईपत् कषाय है। क्रोधादि कषायों के होते हुए ये नोकषाय वीत्र रूप से जीव को
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मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज
साम.... .... . ni कष्ट देती हैं; किन्तु उनके अभाव में ये निस्तेज हो जाने से नोकषाय अथवा अकषाय कही गई हैं।
कवायपाहुड ग्रंथ के चतुः अनुयोगद्वार में गुणधर भट्टारक ने लिखा है :
कोधो चउन्विहो रुत्तो माणो वि चउध्यिहो भवे । माया चउन्विहा बुता लोभो विय चउन्विहो ॥७॥
__क्रोध चार प्रकार का कहा गया है। मान भी चार प्रकार का कहा गया है। माया चार प्रकार की कही गई है । लोभ भी चार प्रकार का कहा गया है।
रणग-पुढवि-बालुमोदय-ई-सरिसो चउब्धिहो कोहो ।
सेल-घण-अद्वि-दारुल-लदा समाणो हवे माणो ॥७॥ •b नग राजि अर्थात पर्वत की रेखा, पृथ्वी की रेखा, बालुका की रेखा तथा जल की रेखा समान क्रोध चार प्रकार है ।
+ शैलघन अर्थात् शिला स्तंभ, अस्थि, दारु (काष्ठ) लता के समान मान चार प्रकार कहा गया है 1
गोम्मटसार जीवकांड में क्रोध का वालुका की रेखा के समान लल्लेख के स्थान में 'धूलि रेखा' का बदाहरस दिया है। राजवार्तिक में अकलंक स्वामी ने गुणधर आचार्य के समान ही क्रोध को चार प्रकार कहा है " कोधः ) स चतुः प्रकारः पर्वत-पृथ्वी-वास्नुकोदक-राजितुल्यः" (अ. ८, सु. ६. पू. ३०५)। मान भी उसी प्रकार चतुविष कहा है, "शैलस्तंभास्थि-दाम-लतासमानश्चतुर्विधः'। जोवकांड गोम्मटसार में मान का दृप्रान्त'लता' के स्थान में 'बेत' दिया गया है ।
दीर्घ काल पर्यन्त टिकने वाला क्रोध पर्वत की रेखा सहश कहा है । उसकी अपेक्षा न्यूनता पृथ्वी रेखा, बालुका रेखा तथा जल की रेखा सदश क्रोध में पाई जासी है। आचार्य नेमिचंद सिद्धान्तचक्रवर्ती ने लिखा है कि उक्त चार प्रकार के कोध से क्रमशः नरक, तिबंध, मनुष्य सथा देव गति में उत्पाद होता है। (गी. जी. २८५)
ओ मान दीर्घकाल तक रहता है, वह शैलघन सदश है। वह नरक गति का उत्पादक कहा गया है । 'अस्थि, काठ तथा बेत समान
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माया क्रमशः न्यून होती हुई विर्यच, नर एवं देवगति में जीव को पहुँचाती है। माया के विषय में कहा है:
बंसी-जएहुग मरिसी मेढविसारण मरिसी य गोमुत्ती । अवलेहणी यमाया माया वि घडचिहा मणिदा ॥ ७२ ॥
बांस की जन् समान मेढे के सींग समान, गोमूत्र समान तथा अवलेखनी अर्थात् , दातीन वा जीभी के समान माया चार प्रकार का मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज
अत्यन्त भयंकर कुटिलता रूप माया बांस की जड़ तुल्य कही है। उसके होने पर यह जीव नर कति में जाता है। उससे न्यून मेटे के सींग, गोमूत्र तथा अवलेखनी समान भाया के द्वारा क्रमशः तिर्यच, मनुष्य तथा देव पर्याय में उत्पत्ति होती है।
गोम्मटसार में अवलेहनी के स्थान में 'खोरप्प-शुराम का उदाहरण दिया गया है। बांस की जड़ समान उत्कृष्ट शक्ति युक्त माया कषाय नरकगति का कारण है। मेंढे के सींग सहश माया अनुत्कृष्ट शक्ति युक्त माया मनुष्य गति का कारण है। अक्लेखनी समान माया जघन्य शक्ति युक्त होने से देव गति का कारण कही गई है। राजवार्तिक में कषाय पाहुड के ही उदाहरण दिए हैं। “माया प्रत्यासन-वंश पर्वोपचितमूल-मेष शृंग-गोमूत्रिका-वलेखनी सदशा चतुविधा"।
लोभ के विषय में कहा है:किमिराय-रत्त-समगो अक्ख-मल-ममा य पंसुलेक्समो ।
हालिद्दवस्थसमगो लोभो विउविहो भणिदो ॥ ७३ ।। - कृमिराग रूप कीट विशेष से उत्पन्न होरा से निर्मित वस्त्र के समान, अत्यन्त पक्का रंग सदृश, अर्थात् गाड़ी के आँगन के समान, पाशु लेप अर्थात् धूली के समान तथा हारिद्र अर्थात् हल्दी से रंगे वस्त्र के समान लोभ चार प्रकार का कहा गया है।
गोम्मटसार जोवकाण्ड में लोभ का पाशुलेप अर्थात् धूली के लेप के स्थान में 'वणुमन'-शरीर के मद का उदाहरण दिया है। राजपातिक में लिखा है "लोभः कृमिरान-कज्जल-कर्दम-हारिद्वारागसदृश
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चतुर्विधः" कृमिराग, कज्जल, कर्दम तथा धूलि के समान लोभ चार प्रकार का कहा है। उत्कृष्ट शक्तियुक्त लोभ कृमिराग सदृश है। वह नरकगति का कारण है। अनुत्कृष्ट लोभ अक्षमल के समान है। वह तिर्यचगति कोविक । अजय सोभा ओत ली समान है। वह मनुष्यात का हेतु है। जघन्य लोभ हल्दी के रंग समान है। यह देवगति का कारण है।
कसाय पाहुड के व्यंजन अनुयोग द्वार में कोधादि के पर्यायवाची नामों की परिगणना इस प्रकार की गई है
कोहो य कोव रामो य अक्खम संजला कलह वाढी य । झंझा दोस विवादो दस कोहयाट्टिया होति ॥८६॥
__ क्रोध, कोप, रोष, अक्षमा, संज्वलन, कलइ, वृद्धि, झंझा, द्वेष और विवाद ये क्रोध के एकार्थवाची दस नाम हैं।
__प्रत्येक नाम विशेष अर्थ का ज्ञापक है। उदाहरणार्थ क्रोध को वृद्धि संज्ञाप्रदान की गई। इसका स्पष्टीकररम् जयधवला टीका में इस प्रकार किया है। 'वर्धन्तेऽस्मात पापाशयः कलहवैरादय इदि घृद्धिःइसस पापभाव, कलह, चैरादि की वृद्धि होती है। इससे क्रोध को वृद्धि कहा है। इस विषय में इस ग्रंथ के पृष्ठ ११७ पर विशेष प्रकाश डाला गया है। मान के पर्यायवाची इस प्रकार हैं
माण मद दप्प थंभो उक्कास पगास तध समुहस्सो। अत्तुक्करिसो परिभत्र उस्सिद दसलक्खरणो माणो ॥८७t
मान, मद, दर्प, स्तंभ, पत्कर्ष, प्रकर्ष, समुत्कर्ष, भात्मीकर्ष, परिभव तथा उत्सिक्त ये दश नाम मान कषाय के हैं। -" माया के पर्यायवाची नाम
माया य मादिजागो णियदी विथ वंचणा अणुज्जुमदा। • गहणं मणुगण-मग्गण कक्क कुहक गृहणच्छएणो ॥८॥
माया, सातियोग, निकृति, वंचना, अनृजुता, ग्रहस, मनीन.. मार्गा, कल्क, कुहक, गृहन और छन्न ये माया के एकादश नाम हैं।
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दो गाथात्रों में लोभ के बीस नाम इस प्रकार कहे हैं :
कामो राग णिदाणी छंदो य सुदो य पेज्जदोसो य । गेहाणुराग आसा इच्छा मुच्छा य गिद्धी य 16|| सामद पत्थण लालस अविरदि तराहा य विज्ज जिब्भाय । लोहस्स य णामधेज्जा वीस एट्ठिया मणिदा ॥६॥
काम, राग, निदान, छंद, स्वता, प्रेय, द्वेष, स्नेह, अनुराग, भाशा, इच्छा, मूला, गृद्धि, शाश्वत या साशता, प्रार्थना, लालसा, अविरति, तृष्णा, विद्या तथा जिह्वा ये लोभ के एकार्थवाची बीस नाम हैं। मार्गदर्शक लोनावावविशुधिरितगशाला कोराक ऐसी शंका के समाधानार्थ जयधवला टीका में जिनसेन प्राचार्य कहते हैं. "विद्या जिस प्रकार दुराराध्य अर्थात् कष्टपूर्वक श्राराध्य होती है, उसी प्रकार लोभ भी है। कारण परिग्रह के उपार्जन, रक्षणादि कार्य में जीव को महान कष्ट उठाने पड़ते हैं । “विग्रेच विद्या । क इहोपमार्थः १ दुराराध्यत्वम्।"
__ लोभ का पर्यायवाची जीभ कहने का क्या काररस है ? जिस प्रकार जीभ कभी भी तुम नहीं होती, उसी प्रकार लोभ की भी तृप्ति नहीं होती है। "जिव्हेव जिव्हेत्यसंतोष-साधर्म्यमाश्रित्य लोभ पर्यायत्वं वक्तव्यम्'
(इन क्रोधादि के पर्यायवाची नामों पर विशेष प्रकाश इस ग्रंथ में पृष्ठ ११७ से १२१ पर्यन्त डाला गया है।)
दो परंपरा-नारक, तिर्यंच, मनुष्य तथा देव पर्याय में उत्पन्न जीव के प्रथम समय में क्रमशः क्रोध, माया, मान तथा लोम का उदय होता है। नारकी के उत्पत्ति के प्रथम समय में क्रोध, पशु के माया, मनुष्य के अभिमान तथा देव के लोभ कषाय की उत्पत्ति होती है। यह कषायाभूत द्वितीय सिद्धान्तग्रंथ के व्याख्याता यतिवृषभ बाचाय का अभिप्राय है। ५० टोडरमल जी ने लिखा है "सो असा नियम कषाय प्राभृत दुसरा सिद्धान्त का कर्ता यतिवृषभ नामा आचार्य ताके अभिप्रायकार जामना" (पृष्ठ ६१६-संस्कृत बड़ी टीका का अनुवाद)। 'कषायमाभृत-द्वितीय
* साठ हजार रलोक प्रमाण जयधवला टीका की बीस हजार श्लोक प्रमास रचना वीरसेन स्वामी कृत है। शेष रचना महाकवि जिनसेन की कृति है, ऐसा इंद्रिनंदि अशावतार में कहा है। इस कारण उपरोक्त टीका के इस भाग को हमने जिनसेन स्वामी द्वारा कथित लिखा है।
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सिद्धान्वव्याख्यातुर्यति वृषभाचार्यस्य"-कषाय प्रामृत की रचना गुमधर
आचार्य ने की है। उसके व्याख्या चूर्सिभूत्रकार यतिवृषभ भाचार्य हैं, यह बात स्पष्ट है। महाकर्म प्रकृति प्राभूतरूप प्रथम सिद्धान्त पंथ के कर्ता भूतबलि आचार्य के मत से पूर्वोक्त नियम नहीं है। अन्य कषायों का भी उदय प्रथम क्षण में हो सकता है। इस प्रकार दो परंपराएँ हैं । नेमिचंद सिद्धान्त चक्रवर्ती कहते हैं :णारय-तिरिक्ख-जमादाईस:
उ पद्रा विहिसागर जी महाराज कोहो माया माणो लोखुदो अणियमो वापि ॥२८॥गो.जी।
नारफ, तिच, मनुष्य तथा देवगति में उत्पन्न होने के प्रथमकाल क्रमशः कोध, माया, मान ५ था लोभ का उदय होता है अथवा इसमें कोई निश्चित रूप से नियम नहीं है।
पूर्वोक्त दो परंपराधों में किसे सत्य माना जाय, किसे सत्य न माना जाय, इसका निर्णय होना असंभव है, “अस्मिन् भरतक्षेत्रे केवलि. द्वयाभावात्' कारस इस समय इस भरतक्षेत्र में केवली तथा श्रवकेवली का अमाव है उन महान शानियों का अभाव होने से इस विषय में निमय करने में आचार्य असमर्थ हैं। "पारातीयाचार्याणां सिद्धान्तद्वयकर्तृभ्यो ज्ञानातिशयवश्वाभावात्" (गो. जी. स, टीका पृ. ६१६) प्राररातीय प्राचार्यों के सिद्धान्त द्वय के रचयिता भूतबलि तथा गुणधर श्राचायों की अपेक्षा विषय ज्ञान का अभाव है। दि कोई श्राचार्य विदेह जाकर तीर्थकर के पादमूल में पहुँचे, तो यथार्थता का परिज्ञान हो सकता है। ऐसी स्थिति के अभाव में पापभीरु बाचार्यों ने दोनों उपदेशों को समादरसीय स्वीकार किया है।
70 ये क्रोध, मान, माया तथा लोभ पाय स्व को, पर को तथा
समय को बंधन, बाधन तथा असंयम के कारण होते हैं। जीवकाण्ड में कहा है :
अप्प-परोभय-साधण-बंधासंजम-णिमित्त कोहादी । बेसि णस्थि कसाया अमला अकसाइणो जीवा ॥२८॥
अपने को, पर को, तथा दोनों को बंधन, बाधा, असंयम के कारसभूत क्रोधादि कषाय तथा वेदादि नो कषाय है। ये कषाय जिनके नहीं हैं, वे मल रहित अकषाय जीव हैं।
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( ७० ) Fqी इन क्रोधादि के शक्ति की अपेक्षा चार प्रकार, लेश्या की अपेक्षा चौदह प्रकार तथा भायु के बंधस्थान की अपेक्षा श्रीस प्रकार कहे गये हैं।
शिला मेद समान जो क्रोध का उत्कृष्ट शक्ति स्थान है, उसमें कृष्ए लेश्या ही होती है।
भूमि भेद समान क्रोध के अनुत्कृष्ट शक्ति स्थान में कम से कृष्ण आदि छह लेश्या होती हैं । (१) वहां मध्यम कृष्ण लेश्या, (२) मध्यम कृष्ण लेझ्या तथा उत्कृष्ट नील लेश्या, (३) मध्यम कृरम लेश्या, मध्यम नील लश्या, उत्कृष्ट कपोतलेश्या, (४) मध्यम कृषरस नील कपोत लेश्या जघन्य पीत; (४) मध्यम कृष्णा नील-कपोत-तेजो लेश्या, जघन्य पद्मलेश्या, (६) मध्यम कृष्ण-नील-कृपोत-तेज-पद्म जघन्य शुक्ल लेश्या रुप स्थान है। मार्गदर्शककोध आचालीप्रोग्यासासागो अनहालथान है, उसमें छह भेद होते हैं (१) जघन्य कृष्ले श्या, और शेष पांच मध्यम लेश्या (२) जघन्य नील तथा शेष चार मध्यम लेश्या (३) जघन्य कापोत तथा शेष दीन मध्यम लेश्या (४) उत्कृष्ट पीत, मध्यम पन तथा मध्यम शुक्ल (५) उत्कृष्ट पद्म तथा मध्यम शुक्ल (६) मध्यम शुक्ल रूप स्थान है।
क्रोध का जल रेखा समान जघन्य स्थान मध्य शुक्ल से रूप , एक स्थान है। इस प्रकार क्रोध के छह लेश्याओं की अपेक्षा चौदह भेद हैं। ऐसे मानादि में भी जानना चाहिये ।-"अननैव क्रमेस मानादीनामपि चतुर्दशलेश्याश्रितस्थानानि नेतव्यानि ।” (पृ. ६२१ गो. जी.)
भायु के बीस बंधा बंधस्थानों का खुलासा गाथा २६३, से २६५ तक की गो. जीवकांड की बड़ी टाका में किया गया है। उनमें पांच स्थानों में आयु बंध नहीं होता है । शेष पंद्रह स्थानों में प्रायु का अंध होता है ।
जीव मुख्य शत्र-आत्मा के निर्वाण लाभ में बाधक होने से सभी कर्म जीव के लिए शत्रु हैं, किन्तु मागम में शत्र रूप से मोह कम का उल्लेख किया जाता है। धवला टीका में 'हमो अरिहंवाएं' इस पद की व्याख्या करते हुए वीरसेन स्वामी लिखते हैं-"नरक-निर्यक कुमानुष्यप्रेतावास-गताशेष-दुःखप्राप्रि-निमित्तत्वारि-भौंहः" (नरक, वियच. कुमनुष्य तथा प्रेत इन पर्यायों में निवास करने से होने वाले समस्त दुखों की प्राप्ति का निमित्तकारण होने से मोह को 'रि' कहा हैं ।
शंका-"तथा च शेषकर्मव्यापारो वैफल्यमुपेयादिति चेत् , न मोह को ही शत्रु मानने पर शेष कर्मों का कार्य विफलता को प्राप्त हो जायगा!
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( १ ) :.. .
सामान 1. प्राणा समाधान ऐसा नहीं है, "शेषकर्ममा मोइतंत्रत्वात्" शेष कर्म मोह के प्राधीन हैं। मोह के बिना शेष कर्म अपने अपने कार्य की निष्पत्ति में व्यापार करते हुए नहीं पाए जाते हैं।
प्रश्न--"मोहे विनष्टेपि कियन्तमपि कालं शेषकर्ममा सत्त्वोपलभभावशेझ तत्त्वाविधिवेचविखागोबा महाराजाने पर भी बहुत समय पर्यन्त शेप कर्मों का सत्व पाए जाने से उनको मोह के आधीन नहीं मानना चाहिये।
समाधान ऐसा नहीं है। कारा मोहरूपी शत्रु के क्षय होने पर जन्म-मरण रूप संसार के उत्पादन की सामर्थ्य शेष कर्मों में नहीं रहने से "तत् सत्त्वस्यासत्व-समानत्वात"-उनकी सत्ता असत्व के समान हो जाती है। केवलज्ञानादि संपूर्ण श्रात्मा गुसों के आविर्भाव को रोकने में समर्थ कारण होने से मोह फर्म प्रधान शत्रु है उसके. नाश होने से अरिहंत यह संज्ञा प्राप्त होती है। ध० टी० भा० १.१.१ पृ०४३)
कषाय पर नय दृष्टि-मोहनीय के भेद क्रोध, मान,माया तथा लोभ रूप कषाय चतुष्टय विविध क्यों की अपेक्षा 'पेज्ज'-प्रेय (राग) तथा 'दोस' (द्वेष ) रूप कही गई हैं। चूमि सूत्रकार यतिवृषभ आचार्य ने कहा है कि "णेगम-संगहास कोहो दोसो, माशो दोसो माया पेज्ज, लोहो पेज"-नैगम नय तथा संग्रह नय की अपेक्षा क्रोध द्वेप है, मान द्वेष है तथा माया और लोभ प्रेय रूप हैं।
"ववहारण्यस्म कोहो दोसो, मासो दोस्रो, लोहो पेज" व्यवहार. मय से क्रोध, मान, माया द्वेष रूप हैं, लोभ प्रेय है । ऋजुसूत्रनय से क्रोध द्वेष है, मान न द्वेष है न प्रेय है । लोभ प्रेय है।
शब्द नय की अपेक्षा क्रोध, मान, माया तथा लोभ द्वेष रूप है। लोभ कथाचिन् प्रेय है।
यहां विवेचन में विविधता का कारण भिन्न विवक्षा है। कौन कषाय हर्ष का हेतु है, तथा कौन हर्ष का हेतु नहीं है, यह विवक्षा मुख्य है। . नोकषायों में हास्य, रति, स्त्रीवेद पुरुषवेद तथा नपुंसकवेद लोभ के समान राग के कारण है, अतः 'प्रेय है। भरति, शोक, भय और जुगुप्सा द्वेष रूप हैं, क्योंकि ये क्रोध के समान द्वेष के कारख है। विशेष विवेचन प्रथ के पृष्ठ २४ से २८ पर्यन्त किया गया है।)
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मोह बंधपरिण- प्रवासायपाविप्रयागम में हमारा का कथन किया गया है। उस मोह के बंध के कारस इस प्रकार कहे गए हैं
जिससे दर्शन मोह के कारण यह जीव सत्तरकोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण संसार में दुःख भोगता है, उसके बंध में ये कारण हैं, जिनेन्द्र देव, वीवराग चारणी, निर्ग्रन्थ मुनिराज के प्रति काल्पनिक दोषों को लगाना धर्म तथा धर्म के फल रुप श्रेष्ठ आत्मामों में पाप पोषरण की सामग्री का प्रतिपादन कर भ्रम उत्पन्न करना, मिथ्या प्रचार करना आदि असत् प्रवृत्तियों द्वारा दर्शन मोह का बंध होता है।
चारित्र मोह के उदय वश यह जीव चालीस कोड़ाकोड़ी सागर प्रमारम हुःख भोगा करता है। उससे यह जीव क्रोधादि कषायों को प्राप्त होता है। क्रोधादि के तीव्र वेगवश मलिन प्रचण्ड भावों का करना, तपस्वियों की निंदा तथा धर्म का ध्वंस करना, संयमी पुरुषों के चित्त में चंचलता उत्पन्न करने का उपाय करने से, कपार्यों का बंध होता है। अत्यंत हास्थ, बहुप्रलाप, दूसरे के उपहास करने से स्वयं उपहास का पात्र बनता है । विचित्र रूप से क्रीड़ा करने से, औचित्य की सीमा का उल्लंघन करने से रति वेदनीय का आनष होता है। दूसरे के प्रति विद्वेष उत्पन्न करना, पाप प्रवृत्ति करने वालो का संसर्ग करना, निंदनीय प्रवृत्ति को प्रेरणा प्रदान
आदि अरति प्रकृति कारम हैं। दूसरों को दुःखी करना और दूसरों को दुःखी देख हर्षित होना शोक प्रकृति का कारण है। भय प्रकृति के कारस यह जीव भयमोत होता है। उसका कारण भय के परिणाम रखना, दूसरों को डराना, सताना तथा निर्दयतापूर्म वृत्ति करना है । ग्लानिपूर्ण अवस्था का कारस जुगुप्मा प्रकृति है । पवित्र पुरुषों के योग्य आचरण की निदा करना, उनसे घृणा करना आदि से यह जुगुप्सा प्रकृति बंधती है ! स्त्रीत्व विशिष्ट स्त्रीवेद का कारण महान क्रोधी स्वभाव रखना, तीव्र मान, इर्षा, मिथ्यावचन, तीवराग, परस्त्री सवन के प्रति विशेष सक्ति रखना, खी सम्बन्धी भावों के प्रति तीन अनुराग भाव है । पुरुषत्व संपन्न पुरुषवेद के क्रोध की न्यूनता, कुटिलभावों का अभाव, लोभ तथा मान का प्रभाव, अल्पराग, स्वस्त्री संतोप, ईर्षा भाव की मंदता, आभूषस आदि के प्रति उपेक्षा के भाव आदि हैं। जिसके उदय से नपुंसक वेद मिलता है, उसके कारण प्रचुर प्रमास में क्रोध, मान, माया, लोम से दूषित परिणामों का सद्भाव, परखो-सेवन, अत्यंत हौन आचरस एवं दीन रागादि है।
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मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज
ग्रंथ के अधिकार-इस कसाय पाहुष्ट ग्रंथ में दो गाथाओं द्वारा पंचदश अधिकारों के नाम इस प्रकार गिनाए हैं :
पेज्ज-दोस बिहत्ती द्विदि-अणुभागे च बंधगे ने य । वेदम-उवजोगे वि य च उट्ठाण-वियंजणे चे च ॥ १३ ॥ सम्मत्त-देसविस्यी संजम-उथसामणा च खवणा च। दसण-चरितमोहे श्रद्धा परिमाण णिद्द सो ॥ १४ ।। :-0 दर्शन और चरित्र मोह के संबंध में (१) प्रेयोद्वेष-विभक्ति (२) स्थिति-विभक्ति (३) अनुभाग-विभक्ति (४) अकर्म बंध की अपेक्षा बंधक (५) कमबंधक की अपेक्षा बंधक (६) वेदक (७) उपयोग (८) चतुः स्थान (E) व्यंजन (१०) दर्शनमोह की उपशामना (११) दर्शन मोह की झपमा (१२) देशविरति (१३) संयम (१४) चारित्र मोह को उपशामना (१५) चारित्र मोह की क्षपणा; ये पंद्रह अर्थाधिकार है।
इनसे सिवाय यतिवृषभ प्राचार्य द्वारा पश्चिम स्कंध अधिकार की भी प्ररूपणा की गई है। चूमिकार ने सयोगकेवली के अघातिया कर्म का कथन इसमें किया है।
कषायों से छूटने का उपाय-यह जीव निरन्तर राग द्वेष रूप परिणामों के द्वारा कर्मों का संचय किया करता है। बाह्य वस्तुओं के रहने पर उनसे राग या द्वेष परिणाम नत्पन्न हुआ करते हैं, अतः आचार्य गुणभद्र आत्मानुशासन में कहते है :
रागद्वेषी प्रवृत्ति स्यात्रिभृचिस्तनिषेधनम् । तौ च बाह्यार्थ-संबद्धौ तस्मात्तान् सुपरित्यजेत् ॥ २३७ ॥
राग तथा द्वेष को प्रवृत्ति कहते हैं। राग-द्वेष के अभाव को निवृत्ति कहते हैं। राग और द्वेष का संबंध बाह्य पदार्थों से रहा करता है; इस कारण उन बाह्य पदार्थों का परित्याग करे।
पर वस्तुओं का परित्याग के साथ उनसे भिन्नपने अर्थात अकिंचनत्व की भावना करे। इस अकिंचनव के माध्यम से यह जीव | मोक्ष को प्राप्त करता है।
ध्यान-कषाय रूप प्रचण्ड शत्रुओं से छूटने के लिए अन्तरंग बहिरंग परिग्रह का परित्याग करके आत्मा का ध्यान करना चाहिए। उस
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आत्मा का ध्यान द्वारा कम का क्षय होता है। यह सदुपदश अत्यन्त महत्वपूर्म है
मुंच परिग्रहसन्दमशेष चारित्रं पालय सविशेषम् । __ काम-क्रोधनिपलिन यंत्रं ध्यानं कुरु रे जीव पवित्रम् ॥ 20 अरे जीव ! समस्त परिग्रह का त्याग कर । पूर्ण चारित्र का पालन कर। काम तथा क्रोध को नष्ट वाले यंत्र समान विशुद्ध आत्मा का ध्यान कर । पंचास्तिकाय में ध्यान को अग्नि कहा है, जिसमें शुभ, अशुभ सभी कर्म का क्षय हो जाता है। जस्स मा विजदि रागो दोसो मोहो व जोगपरिकम्मो । वस्स सुहासुह-उहणो झाणमो जायए अगणी ॥१४६॥
जिसके राग, द्वेष, तथा मोह का क्षय हो गया है और योगों को क्रिया भी नहीं है, ऐसे केवलज्ञानी जिनेन्द्र के शुभ अशुभ का क्षय करने वाली ध्यानमय अग्नि प्रचलित होती है।
जिस अद्भुत शक्ति संपन्न अग्नि में प्रचण्ड कर्मराशि का विनाश होता है, वह अग्नि शुक्लध्यान रूप है। मल्लिनाथ तीर्थंकर की स्तुति में समन्तभद्र स्वामी ने यही बात कही है:
यस्य च शुक्लं परमतयोग्निानमनंत दुरितमधाचीन् । तं जिनसिंह कृतकरणीयं मल्लिमशल्यं शरणभितोस्मि ॥५|
___ मैं उन कृतकृत्य, अशल्य जिनसिंह मल्लिनाथ की शरण में जाता हूँ, निनकी शुक्लभ्यानरूपी श्रेष्ठ अग्नि में अनंत पाप को दग्ध किया गया।
ध्यान का उपाय-कर्मक्षय करने की अपार शक्ति संपन्न ध्यान के विषय में द्रव्यसंग्रह का यह कथन महत्त्वपूर्ण है :
जं किंचिवि चितंतो णिरीह वित्ती हो जदा साहू । तण य एयर्स तदाहु व तस्स णिच्छियं ज्झाणं ॥५५॥
- साधुध्येय के विषय में एकाग्रचित्त होकर जिस किसी पदार्थ का चितवन करता हुमा समस्त इच्छामों से विमुक्ति रूप स्थिति को प्राप्त होता है, उस समय उस ध्यान को निश्चय ध्यान कहा गया है।
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मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविद्यिासागर जी महाराज
इस विषय में टीकाकार कहते हैं, "प्राथमिकापेक्षया सविकल्पावस्थायां विषयकापायवंचनार्थ चित्तस्थिरीकरसार्थ पंचपरमेष्ट्यादि-परद्रव्यमपि ध्येयं भवति, पश्चादभ्यासघशेन स्थिरीभूते चित्ते सति शुद्धबुद्धकस्वभाव-निजशुद्धात्मस्वरूपमेव ध्येयमित्युक्तं भवति ।" (२१६ पृष्ठ) कषायों को दूर करने को तथा चित्त को स्थिर करने के लिये पंचपरमेष्ठी
आदि परद्रव्य भी ध्येय होते हैं। इसके पश्चात् अभ्यास हो जाने पर चित्त के स्थिर होने पर शुद्ध तथा बुद्ध रूप पक स्वभाव सहित अपनी शुद्ध आत्मा का स्वरूप ही ध्येय हो जाता है। श्रेष्ठ ध्यान के विषय में आचार्य कहते हैं :
मा चिट्ठह मा जंपह मा चिंतह किं वि जेण होइ थिरो। अप्पा अप्पम्मि स्त्रो इणमेव परं हवे झाणं ||५६॥
- हे भव्य ! कुछ भी शरीर की चेष्टा मत कर; कुछ भी वचनालाप मत कर, कुछ भी संकल्प विकल्प चितवन मतकर। इससे आत्मा स्थिर दशा को प्राप्त होकर स्वयं अपने रूप में लीनता को प्राप्त होगा। यही उत्कृष्ट ध्यान है।
___"आत्मा योगत्रय-निरोधेन स्थिरी भवति"-आत्मा मन, वचन, काय की क्रियाओं के रुकने पर अर्थात् योग निरोध होने पर जो स्थिर अवस्था को प्राप्त करता है वही शुक्लध्यान का चतुर्थ भेद समुच्छिन्नक्रिया निवृत्ति नाम का श्रेष्ठ ध्यान है। इसमें ही अत्यन्त अल्पकाल में समस्त कर्म भस्म हो जाते हैं। "तदेव निश्चय-मोक्षमार्ग स्वरूपम्" वही निश्चय मोक्षमार्ग का स्वरूप है। इसी अवस्था को इन पवित्र शब्दों में स्मरण करते हैं, "वदेव परब्रह्मस्वरूप, तदेव परमविष्णुस्वरूपं, तदेव परम-शिवस्वरूपं, तदेव परम बुद्धस्वरूपं, तदेय परम जिनस्वरूपं, तदेव सिद्धस्वरूपं सदेच परमतत्वज्ञानं, तदेव परमात्मनः दर्शनं, तदेव परमतत्वं, सैघ शुद्वात्मानुभूति, तदेव परमज्योतिः, स एव परमसमाधिः स एवं शुद्धोपयोगः स एव परमार्थः स एव समयसार, तदेव परमस्वास्थ्य, उदेव परमसाम्य, सदेव परमैकत्वं तदेव परमाद्वैत' (पृ. २२१-२२२)
इस ध्यान की प्राप्ति के लिए उप, श्रुत तथा व्रत समन्वित जीवन आवश्यक है । “तव-सुद-वदर्घ चेदा मासरह-धरंधरो हवे" (ड्रव्यसंग्रह ५७) जो पुरुष पाप परिपालन में प्रवीण हैं, दुर्व्यसनों के आचार्य है, तथा सदाचार से दूर है, वे ध्यान के पावन-मंदिर में प्रवेश पाने के भी अनधिकारी हैं। मार्जार सदा हिंसन कार्य में ही निमग्न रहती है अतः उसे स्वप्न में भी हिंसा का हो दर्शन होता है, इसी प्रकार दुराचरण वाला व्यक्ति निर्मल ध्यान के स्थान में मलिन मनोवृत्ति को
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प्राप्त कर कुगति के कारस दुर्सान को प्राप्त करता है। समंतभद्रस्वामी ने ध्यान या समाधि के पूर्व त्याग आवश्यक कहा है। उसके लिए इंद्रिय दमन आवश्यकहिकउसके पूवा करमापूर्णिजीवनावश्यक है। इस कथन का भाव यह है कि सर्व प्रथम जीवन में जीवदया की अवस्थिति श्रावश्यक है। उसके होते हुए भी कार्यसिद्धि के लिये संयम तथा त्यागपूर्ण जीवन चाहिए । दया दम और त्याग के द्वारा समाधि अर्थात् ध्यान की पात्रता आती है। इस पार्षवाणी से उन शंकाकारों का समाधान होता है, जिनका जीवन हीनाचरण युक्त है और जो अपने को ध्यान करने में असमर्थ पाते हैं। जीवन शुद्धि, पूर्वक मार्नासक शुद्धि होती है । तत्पश्चात् ध्यान की बात सोची जा सकती है। महापुरासकार जिनसेन स्वामी ध्यान के विषय में कहते हैं :
यत्कर्मक्षपणे साध्ये साधनं परमं तपः । तत्तध्यायनाह्वयं सम्यगः अनुशास्मि यथाश्रुवम् ॥ ७ ॥
हे राजन् ! जो कर्म क्षपरम रूप साध्य का मुख्य कारण है, ऐसे ध्यान नाम के श्रेष्ठ तपका मैं पागम के अनुसार तुम्हें उपदेश देता हूँ।
स्थिरमध्यवसानं यत्तद्ध्यानं यत्तद्ध्यानं यच्चलाचलम् । सानुप्रेक्षाथवा चिन्ता भावना चित्तमेव वा ॥ ६ ॥
एक ओर चित्त का स्थिर होना ध्यान है। जो चंचलतापूर्ण मनोवृत्ति है, वह अनुप्रेक्षा, चिन्ता अथवा भावना है।
योगो ध्यानं समाधिश्च धीरोधः स्वान्तनिग्रहः ।
अंतः संलीनता चेति तत्पर्याया स्मृता चुधैः ॥१२॥ - योग, ध्यान, समाधि, धी का रोध अर्थात् विचारों को रोकना स्वान्त अर्थात् मन का निग्रह तथा अन्तः संलीनता अर्थात् मात्मनिमग्नता ये ध्यान के पर्याय शब्द है, ऐसा बुधमन मानते हैं।
यह जीव अपनी अनादिकालीन दुर्वासना के कारस आर्तध्यान एवं रौद्रध्यान के कारण अपना दुःखपूर्ण मलिन भविष्य बनाता चला श्रा रहा है। उसे अपनी मनोवृत्ति को उर्ध्वगामिनी बनाने के हेतु महान उद्योग, श्रेष्ठ त्याग और अपूर्ये साधना करनी होगी। ममोजय के माध्यम से उच्च ध्यान की साधना सम्पन्न होती है। चित्त की शुद्धि के लिए महापुरासकार ने तत्त्वार्थ की भावना को उपयोगी कहा है, क्योंकि उससे विचारों में विशुद्धता आदी है जिसके द्वारा विशुद्ध ध्यान की उपलब्धि होती है। उन्होंने कहा है
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संकल्पधशगो मूढो वस्त्विष्टानिष्टतां नयेत् । रागढ़ पो ततस्ताभ्यां बंधं दुर्मीचमश्नुते ॥२१-२५॥म. पु.
संकल्प-विकल्प के वशीभृत हुश्रा अज्ञानी जीव वस्तुओं में प्रिय और अप्रिय की कल्पना करता है । उससे राग-द्वेष अर्थात 'पेज्ज-दोष' पैदा होत है। राग-द्वेष से कठिनता से छूटने वाले कमों का बध होता है।
इसलिए यह आवश्यक है कि यह जीव सदाचार और संयम का शरगा प्रहा कर राग और देष को न्यून करने में सफल - प्रयत्न हो। इस मलिनता के दूर होने पर आत्मदर्शन होने के साथ श्रात्मा की उपलब्धि भी हो जाएगी।
कषाय क्षय का उपायु-कषाय रूप, शत्रुओं का क्षय करने के लिए मा, मार्दव, सत्य, संयम, तप, त्यागादि प्रारमगुणाकामावलिमागर जी महाराज
आवश्यक है। मूलाचार में लिखा है कि मूल से उखड़े हुए वृक्ष की जिस प्रकार पुनः उत्पत्ति नहीं होतो असी प्रकार कर्मों के मूल क्रोधादि कषायों का । क्षय होने पर पुनः कर्म की परंपरा नहीं चलती। श्राचार्य कुन्दकुन्द ने मूलाचार में लिखा है :
दंतेंदिया महरिसी गगं दोसं च ते स्ववेदणं । झाणोरजोगजुत्ता खनि कम्मं खविदमोहा ॥११६-॥
इन्द्रिय-विजता महामुनि ध्यान तथा शुद्धोपयोग के द्वारा राम और द्वेष का क्षय दर क्षीरा-मोह होते हुए कर्मों का क्षय करते हैं।
अभिवंदना-अन्त में हम महाश्रमा भगवान महावीर, गौतम म्वामी, सुधर्माचार्य तथा सम्बृ स्वामी का सत्या श्रुतकेवली आदि महाज्ञानी भागमवेत्ता मुनीन्द्रों को सविनय प्रणाम करते हुए जयधवलाकार जिनसेन स्वामी के शब्दों में परमपूज्य गुणधराचार्य को प्रणाम करते है :
जे सिह कसाय-पाहु-मणेय-णय मुज्जलं अणंतत्थं । गाहाहि विवारियं तं गुणहर-भडारयं चंदै ।।
मैं उन गुणधर भट्टारक को प्रणाम करता हूँ, जिन्होंने अनेक नयों के द्वारा उज्ज्वल तथा अनन्त अर्थपूर्ण कमायपाहुड की गाधामों में निबद्ध किया ।
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श्री चंद्रप्रभु
पाटणाला
खामगांव जि. बुलडाणा
सिरि-भगवंत-गुणहर-भंडारश्रवइट्ठस्स
मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज
कसाय पाहुड- सुत्तस्स टीका
अनंत सुख-संपन्न ज्ञान - ज्योति - विराजितं । निर्मलं निष्कलंक च तीर्थनाथं नमाम्यहम् ॥१॥ वर्धमानं जिनं नत्वा गौतम गुणधरं तथा । कसाय - पाहुडसुत्तस्य लघुटीकां करोम्यहम् ॥२॥
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मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज
कसाय पाहुड मुत्त
पुव्वमि पंचमम्मि दुदसमे बत्थुम्मि पाहुडे तदिए । पेज्जति पाहुडम्मि दु हवदि कसायाण पाहुडं खाम ॥ १ ॥
ज्ञानप्रवाद नाम के पंचम पूर्व के भेद दशमी वस्तु में पेज्जपाइड नाम का तीसरा अधिकार है, उससे यह कसायपाहुड उत्पन्न हुआ है ।
विशेष – 'पूर्व' शब्द दिशा, कारण तथा शास्त्रका वाचक हैं, किंतु यहाँ 'परणवसेण एत्थ सत्यवाचो घेत्तव्बो' ( पृष्ठ ३, ताम्र पत्र प्रति) प्रकरण के वशसे शास्त्र वाचक अर्थ ग्रहण करना चाहिये ।
'वत्थु' शब्द भी अनेक ग्रंथों में प्रसिद्ध है, किन्तु यहां 'वत्सहो सत्यवाच घेत्तन्वो वस्तु शब्द को शास्त्र वाचक ग्रहण करना चाहिये । 'पेज्ज सद्दो पेज्जदोसाणं दोपहपि वाचश्रो सुपसिद्धो वा' पेज्ज शब्द पेज्ज श्रीर दोस दोनों का वाचक सुप्रसिद्ध है। 'पेज्ज' प्रेय अथवा राग का वाचक हैं तथा 'दोस' द्वेष का वाचक है । राग और द्वेष को कषाय शब्द द्वारा कहा जाता है । पेपाहुड से कषाय पाहुड (प्राभृत) शास्त्र उत्पन्न हुआ ।
}
शंका- जब पेज और कषाय में प्रभिन्नता है, तब उनमें उत्पाद्य और उत्पादक भाव किस प्रकार संभव है ?
समाधान -- उपसंहार्य श्रीर उपसंहारक में कथंचित् भेद पाया जाता है, इस अपेक्षा से पेज्जपाहुड के उपसंहार रूप कषाय पाहुड में कथंचित् भिन्नता मानना उचित है ।
द्वादशांग जिनागम का द्वादशम भेद दृष्टिवाद अंग है। उसके परिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग, पूर्व और चूलिका पंच भेद कहे गए हैं। ।
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मार्गदर्शक :- अ
: परिकर्म में चंद्रप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति, जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति, द्वीप सागर
प्रज्ञप्ति और व्याख्या प्रज्ञप्ति पांच अधिकार हैं । दूसरे भेद सूत्र में ... असामी प्रायविशाराहारानके नामों का परिज्ञान असंभव
है। प्राचार्य कहते हैं 'ण तेसिं णामाणि जाणिज्जति संपहि विसिटु वएसाभावादो'- उनके नामों का परिज्ञान नहीं है, इस समय उनके विषय में विशिष्ट उपदेश का सदभाव नहीं हैं। • यह सूत्र नाम का अर्थाधिकार तीन सौ बेसठ मतों का वर्णन करता है। जीव प्रबंधक ही है, अवलेपक ही है, निगुण ही है, प्रभोक्ता ही है, सवंगत ही है, अणुमात्र ही है, निश्चेतन ही है, स्वप्रकाशक ही है, पर प्रकाशक ही है, नास्ति स्वरूप ही है; इत्यादि रूप से नास्तिवाद, क्रियावाद, अज्ञानवाद, ज्ञानवाद, और वैनयिकवाद का तथा अनेक एकान्तवादों का इस सूत्र में वर्णन किया गया है। - प्रथमानुयोग तीसरे अधिकार में चौबीस तीर्थकर, बारह चक्रवर्ती, नौ बलभद्र, नौ नारायण, नौ प्रतिनारायण के पुराणों का, जिनेन्द्र भगवान, विद्याधर, चक्रवर्ती, चारणऋद्धिधारी मुनि और राजा प्रादि के वंशों का वर्णन किया गया है। इसके चौबीस अर्थाधिकार हैं । चौबीस तीर्थंकरों के पुराणों में समस्त पुराणों का अंतर्भाव हो जाता है-'तित्थयरपुराणेसु सव्वपुराणाणमंतब्भावादो'।
पूर्वगत नामक चतुर्थ अर्थाधिकार में उत्पाद-व्यय-प्रीव्य प्रादि रूप विविध धर्मयुक्त पदार्थों का वर्णन किया गया है | इसके चौदह भेद इस प्रकार कहे गए हैं :-उत्पाद, अग्रायणी, वीर्यानुवाद, अस्तिनास्ति-प्रवाद, ज्ञानप्रवाद, सत्यप्रवाद, प्रात्मप्रवाद, कर्मप्रवाद, प्रत्याख्यान-प्रवाद, विद्यानुवाद, कल्याणप्रवाद, प्राणावायप्रवाद, क्रियाविशाल और लोकबिन्दुसार । पंचम पूर्व ज्ञानप्रवाद के द्वादश अर्थाधिकार है। प्रत्येक अर्थाधिकार के बीस, बीस अर्थाधिकार हैं, जिन्हें प्राभूत कहते हैं । प्राभूत संज्ञावाले अधिकारों में से प्रत्येक
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अर्थाधिकार के चतुर्विशति अनुयोगद्वार नाम के अधिकार कहे गए हैं । कषायप्रामृत पागलाया:अर्थाचियाना तुलाघासारसजीएमयाराज पुण कसायपाहुडस्स पयदस्स पण्णारस प्रत्याहियारा ।” (पृष्ठ २८) * पंचम भेद चूलिका के जलगता, स्थलगता, मायागता, रूपगता
और आकाशगता रूप पांच भेद कहे गए हैं । के जलगता चूलिका जल-स्तंभन, जल में गमन के कारण रूप मंत्र, तंत्र, तपश्चरण, अग्नि स्तंभन, अग्निभक्षण, अग्नि पर प्रासन लगाना, अग्नि पर तैरना आदि क्रियाओं के कारण, स्वरूप,प्रयोगों का वर्णन करती है । स्थलगता चूलिका पर्वत, मेरु, पृथ्वी आदि पर चपलतापूर्वक गमन के कारणभूत मंत्र, तंत्र और तपश्चरण का वर्णन करती है। मायागता चूलिका महान इंद्रजाल का वर्णन करती है। रूपगता चूलिका सिंह, हाथी, घोड़ा, बैल, मनुष्य, वृक्ष, खरगोश प्रादि का रूप धारण करने की विधि का तथा नरेन्द्रवाद का 'परिंदवायं च' वर्णन करती है। आकाश में गमन के कारण मंत्र, तंत्र तथा तपश्चरण का वर्णन आकाशगता चूलिका में किया गया है।
कपाय के स्वरूप पर प्राचार्य नेमिचंद्र सिद्धान्त चक्रवर्ती ने इस प्रकार प्रकाश डाला है :
थापन
1.:. ..1 याला सुहदुक्ख-सुबहुसस्सं कम्मवखेत्त' कसेदि जीवनमान | युगवाणा संसारदुरमेरं तेण कसानोत्ति बेति ॥ २८२ ।। गो. जी.
जिस कारण सुख, दुःख रूप बहु प्रकार के तया संभार रूप * सुदूर मर्यादा युक्त ज्ञानावरणादि रूप कर्म क्षेत्र (खेत) का कर्षण (हलादि द्वारा जोसना आदि) किया जाता है, इस कारण इसे कषाय कहते हैं।
क्रोधादि कषाय नाम का सेवक मिथ्या दर्शन आदि संक्लेश भाव रूप बीज को प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशबंध लक्षण
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( ६ ) कर्मरूप क्षेत्र में बोता हुआ कालादि सामग्री को प्राप्तकर सुख दुःख रूप बहुविध धान्यों को प्राप्त करता है । इस कर्म क्ष ेत्र को श्रनादि अनंत पंच परावर्तन संसार रूप सोमा है। यहां कुषतीति कषाय:" इस प्रकार निरुक्ति की गई है।
वास्तव में इस जीव के संसार में परिभ्रमण का मुख्य कारण कषायभाव है । इस ग्रंथ का प्रवास मिशा के विषय में पेज्जपाहुड मार्गदर्शक के अनुसार प्रतिपादन करना है ।
अन्य परमागम के ग्रंथों के प्रारंभ में मंगलाचरण की परंपरा पाई जाती है; किन्तु इस कषाय- प्राभृत सूत्र के आरंभ में मंगलस्मरण की परिपाटी का परिपालन नहीं हुआ है । इस सम्बन्ध में प्राचार्य वीरसेन ने जयधवला टीका में महत्वपूर्ण चर्चा करते हुए कहा है :
शंका- गुणधर भट्टारक ने गाथा सूत्रों के प्रारम्भ में तथा चूर्णिकार यतिवृषभ स्थविर ने चूर्णिसूत्रों के आदि में क्यों नहीं मंगल किया ?
समाधान -- यह कोई दोष नहीं है । प्रारब्ध कार्य के विघ्नों के क्षय हेतु मंगल किया जाता है । यह विघ्नविनाश रूप कार्य परमागम के उपयोग द्वारा भी संपन्न होता है । यह बात प्रसिद्ध नहीं है । शुभ और शुद्ध भावों से कर्मक्षय को न मानने पर कर्मों के क्षय का प्रभाव नहीं बनेगा । कहा भी है
:
प्रदइया बंधयरा उवसम - खय - मिस्सया य भावो दु पारिणामिश्र करणोभय- वज्जिओ
मोक्खयरा । होइ ॥
Ww
Mafia के कारण है। उपशम भाव, तथा क्षायोपथमिक भाव मोक्ष के कारण है । पारिणामिक भाव क्षायिक भाव न बंब का कारण है, न मोक्ष का कारण है ।
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इस कारण ग्रंथ रचना में उपयुक्त ग्रंथकार के विशुद्ध परि. मार्गदशामों केधाचा नाही विशाम्पा होता है, जिसके लिए शास्त्र के
प्रारम्भ में मंगल रचना की जाती है । वीरसेन स्वामी ने कहा है "विसुद्धणयाहिप्पारण गुणहर-जइवसहेहि ण मंगलं कदं त्ति दट्ठवं"- शुद्ध नब के अभिप्राय से गुणधर प्राचार्य तथा यतिवृषभ ने मंगल नहीं किया यह जानना चाहिये।
शंकाः-१ व्यवहार नय का आश्रय लेकर गौतम गणधर ने चौबीस अनुयोग द्वारों के प्रारम्भ में मंगल किया है।
समाधान-व्यवहार नय असत्य नहीं है, क्योंकि उससे व्यवहार नय का अनुकरण करने वाले शिष्यों की प्रवृत्ति देखी जाती है ! उसका आश्रय लेना चाहिये, ऐसा मन में निश्चयकर गौतम स्थविर ने चौबीस अनुयोग द्वारों के प्रारम्भ में मंगल किया है।
शंकाः-पुण्य कर्म का बंध करने की कामना करने वाले देशवती श्रावकों को मंगल करना उचित है, किन्तु कर्मों के क्षय की इच्छा करने वाले मुनियों के लिए वह उचित नहीं है।
समाधान-यह ठीक नहीं है। पुण्य बंध के कारणों में श्रावकों तथा श्रमणों की प्रवृत्ति में अन्तर नहीं है। ऐसा न मानने पर
१..-बवहारणयं पडच्च पुण गोदमसामिणा चदुबीसहमणियोगहाराणमादीए मंगलं कदं । ण च ववहारणो चप्पलो, तत्तो ववहारणयाणुसारि सिस्साण पउत्ति दंसणादो । जो बहजीवअणुग्गहणकारी ववहारपणाम्रो सो चेव समस्सिदव्यो त्ति मणेणाबहारिय गोदमथेरेण मंगलं तत्थ कयं । पुण्णकम्म-बंधत्थीणे देसव्वयाणं मंगलं करणं जुत्तं, ण मुणीणं कम्मक्खय-कंखुवाणमिदि ण वोत जुत्त, पुण्णबन्ध-हे उस पडि विसेसाभावादो। मंगलस्सेब सरागसंजमस्स वि परिचागप्पसंगादो परमागममुगजोगम्मि णियमेण मंगल-फलोवलंभादो, एदस्स प्रत्थविसेसस्स जाणावण8 गुणहरभडारएण गंथस्सादीए ण मंगलं कयं ( ताम्र पत्र प्रति पृष्ठ २)
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Ε >
( मंगल के त्याग के समान सराग संयम के परित्याग का भी प्रसंग आयगा, क्योंकि सराग संयम के द्वारा भी पुण्य का बन्ध होता है । सरागसंयम का परित्याग करने पर मुक्तिगमन का प्रभाव हो जायगा । परमागम में उपयोग लगाने पर नियम से मंगल का फल प्राप्त होता है। इस विशिष्ट अर्थ को अवगत कराने के उद्देश्य से मार्गदशधर भुद्धात श्री धमें नहीं किया—
इंद्रभूति गौतम गणधर ने सोलह हजार मध्यम पदों के द्वारा कषाय प्राभूत का प्रतिपादन किया। एक पद में कितने श्लोकों का समावेश होता है, उसका स्पष्टीकरण इस प्रकार किया गया है :
कोडि इकावन आठहि लाख | सहस चौरासी छह सौ भाखं । साढ़े इक्कीस श्लोक बताये । एक एक पद के ये गाए ।
ܝ:
एक पद के पूर्वोक्त श्लोकों में सोलह हजार का गुणा करने पर जो संख्या उत्पन्न होती है, उतने श्लोक प्रमाण रचना गणधर देव ने की थी, उसका उपसंहार करके इस रचना के प्रमाण के विषय में गुणधर भट्टारक कहते हैं
गाहासदे असीदे अत्थे पण्णरसधा बित्तम्मि | बोच्छामि सुत्तगाहा जयि गाहा जम्मि अत्थम्मि ॥ २ ॥
इस ग्रंथ में एक मौ अस्सी गाथासूत्र हैं, जो पंचदश प्रर्थाधिकारों में विभक्त है । जिस अर्वाधिकार में जितनी सूत्र गाथाएँ प्रतिबद्ध हैं, उन्हें मैं कहूँगा ।
विशेष :- यहां ग्रंथकार ने स्वरचित गाथाओं को 'माहासुत्त' गाथा सूत्र कहा है । इस सम्बन्ध में शंकाकार कहता है। :―
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(&)
शंका :- गुणधर भट्टारक गणधर नहीं है, प्रत्येक - बुद्ध, श्रुतवली, अभिन्नशपूर्वी भी नहीं हैं। उनकी रचना को सूत्र नहीं कहा जा सकता है । सूत्र का लक्षण इस प्रकार कहा गया है।
:―
सुत्त गणहरकहियं सहेब पत्तयबुद्ध कहियं च । सुदकेवलिया कहिये अभिण्णदस-पुवि-कहियं च ।
जो गणधर के द्वारा कहा गया है, प्रत्येक बुद्ध द्वारा कहा गया है, aham के द्वारा कहा गया है तथा प्रभिन्नदशपूर्वी के द्वारा कहा गया है, वह सूत्र है ।
समाधान -- निर्दोषत्व, प्रल्पाक्षरत्व और सहेतुकत्व गुणों से विशिष्ट होने के कारण गणधर भट्टारक रचित गाथाओं को मार्गदर्शननिता गुज्यत हो। सूत्र का यह लक्षण भी प्रसिद्ध है :
सूत्र
जी
मल्पाक्षरमसंदिग्धं सारवद गूढनिर्णयम् । निर्दोषं हेतुमत्तथ्यं सूत्रमित्युच्यते बुधैः ॥
जो अल्प अक्षर युक्त हो; असंदिग्ध हो, सारपूर्ण हो, पूर्ण हो, निर्दोष हो, युक्तिपूर्ण हो तथा वास्तविकता बुद्धिमानों ने सूत्र कहा है । ]
गंभीर निर्णय युक्त हो, उसे
शंका ( १ ) - सूत्र का यह लक्षण जिनेन्द्र भगवान के मुख कमल से विनिर्गत प्रथं पदों में ही घटित होता है । गणधर देव के मुख से विनिगंत ग्रंथ रचना में यह लक्षण नहीं पाया जाता, क्योंकि गणधर को रचना में महान परिमाण पाया जाता है ।
१. एदं सम्बंपि सुत्त लक्खणं जिण-वयण-कमल-विणिग्गयप्रत्य पदाणं चेत्र संभवइ । ण गणहरमुह - विणिग्गयगंथ रयणाए तत्थ महापरिमाणुत्तवलंभादो ।
P
पण, सच्च ( सुत्त ) सारिच्छमस्सिद्वण तत्थ वि सुचत्त' पडिविरोहाभावादो (पृष्ठ २९ )
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समाधान-ऐसा नहीं है । उनके वचन सूत्र के सःश हैं, अत: उनके सूत्रपने में कोई बाधा नहीं पाती। इस कारण द्वादशांग वाणी भी सूत्र मानी गई है।
पेज्ज-दोस-विहत्ती टिदि-अणुभागे च बंधगे चैत्र । तिण्णेदा गाहाओ पंचसु अत्थेसु णादव्वा ॥३॥
प्रेयो-द्वेष-विभक्ति, स्थिति-विभक्ति, अनुभाग विभक्ति, प्रकर्मबंध की अपेक्षा बंधक, कर्मबंध की अपेक्षा बंधक, कर्मबंध की अपेक्षा संक्रमण इन पंच अर्थाधिकारियों में तीन तीन गाथाएं निबद्ध
१९ मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज चतारि वेदयम्मि दु उवजोगे सत्त होति गाहामो। सोलस य चउट्ठाणे वियंजणे पंच गाहाओ ॥ ४॥ ____ वेदक नामके छठवें अधिकार में चार सूत्र गाथा है। उपयोग नामके सातवें अधिकार में सात सूत्र गाथा हैं। चतुःस्थान नामके आठवें अधिकार में सोलह सूत्र गाथा हैं तथा व्यंजन नामके नवम अधिकार में पंच सूत्र गाथा है। दसणमोहस्सुवसामणाए पण्णारस होति गाहारो। पंचेव सुत्तगाहा दंसणमोहस्स खवणाए ॥ ५ ॥ ___दर्शनमोह की उपशामना नामके दशम अधिकार में पंचदश गाथा है। दर्शनमोह की क्षपणा नामके एकादशम अधिकार में पंच ही सूत्र गाथा है। लद्धी य संजमासंजमस्स लद्धी तहा चरित्तस्स । दोसु वि एक्का गाहा अट्ठवुवसामणद्धम्मि ॥ ६ ॥
१. 'बंधग' इति चउत्थो अकम्मबंधग्गणादो । पुणो वि 'बंधगे'.
ति आवित्तीए कम्मबंधग्गहणादो पंचमो प्रत्याहियारो (पृ. २९)
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संयमासंयम को लब्धि द्वादशम अधिकार तथा चारित्रकी लब्धि त्रयोदशम अधिकार इन दो अधिकारों में एक ही गाथा है। चारित्र मोहकी उपशामनापाई अधिकारी माविमायाग जी म्हाराज चत्वारि य पठ्चए गाहा संकमाए त्रि चत्तारि । ओवट्टणाए तिण्णिा दु एक्कास होति किट्टीए ॥७॥
चारित्रमोह की क्षपणा के प्रस्थापक के विषय में चार गाथा है। चारित्रमोह के संक्रमण से प्रतिबद्ध चार गाथा है। चारित्रमोह को अपवर्तना में तीन गाथा हैं । चारित्रमोह की क्षपणा में जो द्वादश कृष्टि हैं, उनमें एकादश गाथा हैं । चत्तारि य खवणाए एक्का पुण होदि खीणामोहस्स। एक्का संगहणीए अट्ठावीस समासेण ॥८॥
कृष्टियों की क्षपणामें चार गाथा हैं। क्षीण मोह के विगय में एक गाथा है। संग्रहणी के विषयमें एक गाथा है। इस प्रकार चारित्र-मोहकी क्षपणा अधिकार में समुदाय रुप से अट्ठाईस गाथा है।
किट्टीकय-वीचारे संगहणी खीणमोहपट्ठवए । सत्तेदा गाहाओ अण्णाओ सभासगाहाओ ।।६।।
कृष्टि संबंधी एकादश गाथाओं में चोचार सम्बन्धी एक गाथा, संग्रहणी सम्बन्धी एक गाथा, क्षीणमोह प्रतिपादक एक गाथा, चारित्र मोह की क्षपणा के प्रस्थापक से संबद्ध चार गाथा ये सात गाथाएं सुत्र गाथा नहीं हैं। इनके सिवाय शेष इक्कीस गाथा सभाप्य गाथा अर्थात् सूत्र गाथा हैं !१
१. 'किट्टीकयवीचारे' त्ति भणिदे एक्कारसण्हं किट्टिगाहाणं
मज्झे एक्कारसमी बोचारमूलगाहा एक्का । 'संगहणी' त्ति भणिदे संगहणिगाहा एकका घेतब्वा । 'खीणमोह' इत्ति मणिदे
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(
मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज १२ ) विशेष – जो गाथाएं भाष्य गाथाओं के साथ पाई जाती हैं, अर्थात् जिन गाथाओं का स्वरूप स्पष्ट करनेवाली भाव्यरुप गाथाएं हैं, उन्हें सभाष्य गाथा कहा गया है - "सह भाष्यगाथाभिवर्तन्ते इति सभाष्यगाथा इति सिद्धम् " ( पृ० ३३ ) यहाँ इक्कीस गाथाओं को सूत्र गाथा माना गया है, क्योंकि उनमें सूत्र का यह लक्षण पाया जाता है ।
अर्थस्य सूचनात् सम्यक सूतेनार्थस्य सूरिणा । सूत्रमुक्तमनल्पार्थं सूत्रकारेण तत्वतः ॥
जो अच्छी तरह अर्थ को सूचित करे, प्रर्थं को जन्म दे, उस महान अर्थों से गर्भित सूचना को सूत्रकार प्राचार्य ने तत्वतः सूत्र कहा है ।
संकामण - श्रवण - किट्टी - खवरणाए एक्कवीसं तु । पदाओ सुत्तगाहाओ सुरा प्रष्णा भासगाहाओ ॥ १०॥
(२) चरित्र मोह की क्षपणा नामक अर्थाधिकार के अंतर्गत संक्रमण सम्बन्धो चार गाथा, श्रपवर्तना विषयक तीन गाथा, कृष्टि संबंधी दस गाथा, कृष्टि क्षपणा संबंधी चार गाथा हैं । ये सब मिलाकर इक्कीस सूत्र गाथा है । अन्य भाष्यगाथा हैं। उन्हें सुनो ।
खोणमोहगाहा एक्का घेत्तव्वा । 'पट्टवए' द्धि भणिदे चत्तारि पट्टणगाहाओ घेत्तव्वा । 'सत्त ेदा गाहाओ' त्ति भणिदे सत्तेदा गाहाश्रो सुत्तगाहाम्रो ण होंति ।
२. ताम्रो एक्कवीस सभास- गाहाओ कत्य होंति त्ति भणिदे भाइ संकामण प्रवट्टण-किट्टी-खवणाए होंति । तं जहा, संकमणाए चत्तारि ४, भोवट्टणाए तिष्णि ३, किट्टीए दस १०, खवणाए चत्तारि ४ गाहाओ होंति । एवमेदास्रो एक्कदो कदे एक्कवीस भासगाहाओ २१ । एदानो सुत्तगाहाओ ।
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पंच यतिण्णि यदोछक्क चउक्क तिण्णिा तिणि एक्काय। चत्तारि य तिगिण उभे पंच य एक्कं तह य छक्कं ॥११॥ तिण्णिा य चउरोतह दुगचत्तारि य होति तह चउक्कंच। दो पंचेव य मानकापणाचायका विनगद याहाहाई २ ___ इक्कीस सूत्र गाथाओं की भाष्य रूप गाथाओं की संख्या पांच, तीन, दो, छह; चार, तीन, तीन, एक, चार, तीन, दो, पांच, एक, छह, तीन, चार, दो, चार, चार, दो, पाच, एक, एक, दस और दो, इस प्रकार छ्यासी गाथाएं हैं ।
विशेष—इनमें इक्कीस सूत्र गाथा, सात · असूत्रः गाथा को जोड़ने पर चारित्रमोह के क्षपणा-अधिकार में निबद्ध गाथाओं की संख्या ( २१+७+८६ = ११४ ) एकसौ चौदह होती है। इनमें चौदह अधिकार सम्बन्धी चौसठ गाथात्रों को जोड़ने पर एक सौ अठहत्तर ( ११४+ ६४ = १७८ ) गाथाए होती हैं ।
अब कषाय पाहुड के पंचदश अर्थाधिकारों का प्रतिपादन करने के लिए गुणधर भट्टारक दो सूत्रगाथाओं को कहते हैं :पेज्ज-होसविहत्ती द्विदि-अणुभागे च बंधगे चेय । वेदग-उवजोगे वि य चउट्ठाण-वियंजणे चेय ॥१३॥ सम्मत्त-देसविरयी संजम उवसामणा च खवणा च । दंसण-चरित्तमोहे अद्धा-परिमाण णिवसो॥ १४ ॥ ___ दर्शन और चारित्र मोह के सम्बन्ध में (१) प्रेयोद्वेष-विभक्ति (२) स्थिति-विभक्ति (३) अनुभाग विभक्ति (४) अकर्मबन्ध की अपेक्षा बंधक (५) कर्मबंधक की अपेक्षा बंधक (६) वेदक (७) उपयोग (८) चतुःस्थान ९) व्यंजन (१०) दर्शनमोहकी उपशामना (११) दर्शनमोहकी क्षपणा [१२] देशविरति [१३] संयम [१४] चारित्र मोहकी उपशामना [१५] चारित्रमोहको क्षपणा ये पंद्रह प्राधिकार हैं। इन समस्त अधिकारों में श्रद्धापरिमाण का निर्देश करना चाहिये।
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मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज
( १४ )
विशेष :- ( १ ) पूर्वकथित १७८ गाथाओं में तेरहवीं और चौदहवीं गाथाओं को जोड़ने पर १८० गाथा होती हैं, जिनका उल्लेख गंथकार ने दूसरी गायामें किया था। इनमें द्वादश सम्बन्ध गाथा, श्रद्धापरिमाण का निर्देश करने को कही गई छह गाथा, प्रकृति संक्रम में आई पैंतीस वृत्ति गाथाओं को जोड़ने पर [ १७८ + २ + १२ + ६ + ३५ = २३३ ] दो सौ तेतीस गाथाएँ होती हैं ।
चौदहवीं गाथामें 'दंसण चरित्रमोहे पद पर प्रकाश डालते हुए प्राचार्य वीरसेन ने कहा है 'पूर्वोक्त पंचदश अधिकार दर्शन और चारित्र मोहके विषय में होते हैं, ऐसा अर्थ ग्रहण करना चाहिये । "देण एत्थ कसा पाहुडे सेस- सत्तण्हं कम्माणं परुवणात्थिति भणिदं होदि " - इस कथनसे यह भी बात विदित होती हैं कि इस कपायप्रासत में मोहनीय को छोड़ शेष सात कर्मों की प्ररूपणा नहीं है।
'पेज्जदोस' अर्थात् राग और द्वेष का लक्षण जीव के भाव का विनाश करना है; इससे उन दोनों को कषाय शब्द द्वारा कहा जाता हैं । कषाय का निरुपण करने वाला प्राभृत [ शास्त्र ] कषायपाहुड है । ( २ ) यह कषाय-- प्रामृत संज्ञा नय की अपेक्षा उत्पन्न हुई है। यह संज्ञा द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा से है । यदि यह संज्ञा द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा न मानी जाय, तो पेज्ज और दोस इन दोनों का एक कषाय ब्द के द्वारा एकीकरण नहीं किया जा सकता है ।
१.
तासि पमाणमेदं १८० | पुणो एत्थ बारह संबंधगाहाल, २ श्रद्धापरिमाणणिद्द सणट्ट' भणिद-छ-गाहाओ ६, पुणो पर्याडसंकम्मि संकमउवक्कमविही० एस गाहापहूडि पणतीसं संकमवित्तिगाहाओ च ३५ । पुब्विल प्रसीदिसयगाहासु पक्खि गुणहराइरिय मुहकमलविणिग्गय सव्वगाहाणं समासो तेत्तीसाहिय- वे सदमेत्तो होदि २३३ ।
एसा सण्णा यदो पिप्पण्णा । कुदो ? दव्बट्टियणय-मवलंबिय समुष्णतादो ।
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वामग
श्राद्रप्रभु ( १५ ) :... हिमाली
रडाणा टात शब्द की निरुक्ति करते हुए जयधवलाकार" कहते हैं, "प्रकृष्टन तीर्थ करेण प्रामृतं प्रस्थापितं इति प्रामृतम्"-श्रेष्ठ तीर्थकर के द्वारा आत अर्थात् प्रस्थापित प्रामृत है। दूसरी निरूक्ति इस प्रकार है, "प्रकृष्टैराचार्य विद्या-वित्त-वदभिरामृतं धारित व्याख्यातमानीतमिति प्रामृतम्"-विद्याधन युक्त महान् प्राचार्यों के द्वारा जो धारण किया गया है, व्याख्यान किया गया है अथवा परंपरारूप से लाया गया है, वह प्रामत है।
चूणिसूत्रकार यतिवृषभ विपर्क कहता वा अहसविहिल्लिागलजा महाराज तम्हा पाहुडं"-यह पदों से अर्थात् मध्यमपद और अर्थ पदों से स्फुट अर्थात् स्पष्ट है, इससे इसे पाहुड कहते हैं ।
___ १ कषाय पर भिन्न २ नयों की अपेक्षा दृष्टि डालने पर उसका अभिधेय विविध रूपता को प्राप्त करता है । नैगम, संग्रह, व्यवहार तथा ऋजुसूत्रनय की अपेक्षा क्रोधादि कषायों का वेदन करने वाला जीव कषाय है, कारण जीव को छोड़कर अन्यत्र कषायों का सदभाव नहीं पाया जाता।
शब्दनय, समभिरूढ़ नय तथा एवंभूत नय की अपेक्षा क्रोध, मान, माया तथा लोभ ये कषाय हैं। इन तीन नयों की दृष्टि से क्रोधादिरूप भाव रूप कषायों से भिन्न द्रव्यकर्म कषाय नहीं है । जीव भी कषाय नहीं है। शब्दादि नय त्रय का विषय द्रव्य नहीं है।
वीरसेन स्वामी कहते हैं "कसायविसयं सुदणाणं कसापो, तस्स पाहुर्ड कसायपाहुडं"-कषाय को विषय करने वाला श्रुतज्ञान कषाय है । उसका शास्त्र कषाय पाहुड हैं। __ अब अद्धा परिमाण का प्रतिपादन करते हैं :- १. गम-संगह-ववहार-उजुसुदाणं जीवस्स कसाओ । कुदो ? जीवकसायाणं भेदाभावादो। तिण्हं सद्दणयाणं ण कस्स वि कसानो। भावकसाएहिं वदिरितो जीव-कम्म-दवाणमभावादो ( पृष्ठ ६५ )
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मार्गदर्शक :- आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज आवलिय अणायारे चविखदिय-सोद-घारण जिब्भाए । मण-वयंण-काय-पासे अवाय-ईहा-सुदुस्सासे ॥१५॥
. अनाकार अर्थात् दर्शनोपयोग का जघन्य काल संख्यात प्रावली प्रमाण है । इमसे विशेषाधिक चक्षु, इंद्रियावग्रह का जघन्य काल है। इस विशेषाधिक श्रोत्रावग्रह का जघन्य काल है। इससे विशेषाधिक प्राण का जघन्य अवग्रह काल है। इससे विशेषाधिक रसनावग्रह का जघन्य काल है। इससे विशेषाधिक मनोयोग का जघन्य काल है । इससे विशेषाधिक वचन योग का जघन्य काल है। इससे विशेषाधिक काययोग का जघन्य काल है ।
___ इससे विशेषाधिक स्पर्शन इंद्रिय का जघन्य अवग्रह काल है । . इससे विशेषाधिक किसी भी इंद्रिय से उदभूत अवाय का जघन्य
काल है। इससे विशेषाधिक ईहाज्ञान का जघन्य काल है। . इससे विशेषाधिक श्रुतज्ञान का जघन्य काल है। इससे विशेषाधिक श्वासोच्छवास का जघन्य काल का है।
विशेष-भवाय ज्ञान दृढात्मक हैं। इस कारण अवाय में धारणा ज्ञान का भी अंतर्भाव किया गया है.। 'प्रावलिय पद अनेक प्रावलियों का बोधक है । इस पद के द्वारा यह स्पष्ट किया गया है कि अल्पबहुत्व के समस्त स्थानों के काल का प्रमाण मुहूतं, दिवस आदि नहीं है।
'पनीकार' शब्द दर्शनोपयोग का वाचक है--'उवजोगो ____ प्रणायारो णाम, दंसप्मुवजोगने ,त्ति मणिदं होदि' ( ६८ ) १. चक्षु
इंद्रिय शब्दसे 'चक्षुइंद्रिय जनित ज्ञान को जानना चाहिये, यहां कार्य में कारण का उपचार किया है। ज्ञान कार्य है तथा इंद्रिय उस ज्ञान में कारण है । यहां ज्ञानरुप कार्य में कारण रुप' इंद्रिय का उपचार किया गया है। प्रागे ईहा और अवाए ज्ञान का उल्लेख होने से यहां अवग्रह ज्ञान का ग्रहण करना चाहिये। विशेषाधिक का १. चक्खिदियं च उत्ते चक्खिदियजणिदणाणस्स गहणं । कुदो
कज्जे कारणोवयारादो [६८ ]
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( १७ ) स्पष्टोसिकतेलाही है विर्षिविणामीणंहासनात्य संखेज्जावलियानो" ---विशेष का प्रमाण सर्वत्र संख्यात प्रावली है ।
शंका --'तं कथं णब्वदे' १ यह कैसे जाना ?
समाधान-'गुरुपदेसादो'--यह गुरुओं के उपदेशसे ज्ञात हुआ है। शंका--मनोयोग, वचनयोग तथा काययोग का जघन्यकाल एक समय मात्र भी पाया जाता है, उसका यहां क्यों नहीं ग्रहण किया गया?
समाधान--१ निर्व्याघात रुप अवस्था में अर्थात् मरण आदि व्याघात रहित अवस्था में मन, बचन तथा काय योग का जघन्य काल एक समय मात्र नहीं पाया जाता है ।
२ दर्शनोपयोग का विषय अन्तरंग पदार्थ है। यदि ऐसा ने माना जाय, तो वह अनाकार नहीं होगा ।
शंका--अनाकार ग्रहण का अर्थ अव्यक्त ग्रहण मानने में क्या बाधा है ?
समाधान--ऐसा मानने पर केवलदर्शन का लोप हो जायगा, क्योंकि प्रावरण रहित होने से केवलदर्शन का स्वभाव व्यक्त ग्रहण करने का है।
प्रश्न-श्रुतज्ञान का क्या अर्थ है ?
१ णिव्याघादेण मरणादिवाघादेण विणा घेतन्यानो चि भणिदं होदि [७२]
२ अंतरंगविसयस्स उवजोगस्स दसणत्तब्भुवगमादो। तं कथं नवदे ? अणायारत्तणण्णहाणुववत्तीदो। प्रवत्तग्गणमणायारग्गहणमिदि किण्ण धिप्पदे १ ण एवं संते केवल-दसण-णिरावरणचादो वत्तग्गहण-सहावस्स अभावप्पसंगादो [६९]
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मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी म्हार समाधान---श्रुतज्ञान की परिभाषा इस प्रकार है, "मदिणाणपरिच्छिण्ण-त्थादो पुधभूदत्थावगमो सुदणाणं"--मतिज्ञान के द्वारा जाने गए पदार्थ से भिन्न पदार्थ को ग्रहण करने वाले ज्ञान को श्रुतज्ञान कहते हैं। वह शब्दलिंगज और अर्थ लिंगज के भेद से दो प्रकार का है। शब्द लिंगज के लौकिक और लोकोत्तर ये दो भेद हैं। सामान्य पुरुष के बचन समुदाय से जो ज्ञान उत्पन्न होता है, वह लौकिक शब्द लिंगज श्रुतज्ञान है । असत्य बोलने के कारणों से रहित पुरुष के मुख से निकले हुए शब्द से जो श्रुतज्ञान उत्पन्न होता है, वह लोकोत्तर शब्द लिंगज श्रुतज्ञान है। धूमादि पदार्थ रूप लिंग से उत्पन्न अर्थलिंगज श्रुतज्ञान को अनुमान कहा गया है। केवलदंसा-णाणे कसाय-सुस्केकए पुधत्ते य । पडिवादुवा तय-खर्वतए संपराए य ॥ १६ ॥
तद्भवस्थकेवली के केवलदर्शन और केवलज्ञान का काल तथा सकषाय जीव की शुक्ललेश्या का काल समान होते हुए भी इनमें से प्रत्येक का काल श्वासाच्छ्वास के जवन्य काल से विशेषाधिक है । इन तीनों के जघन्यकालसे एकत्ववितर्क अवीचार ध्यान का जघन्य काल विशेषाधिक है । पृथक्त्ववितर्क वीचार का जघन्य काल विशेषाधिक है। उपशमश्रेणीसे पतित सुक्ष्मसांपरायिक का जघन्य काल विशेषाधिक है । उपशम श्रेणी पर चढ़नेवाले सूक्ष्मसांप रायिक का जघन्य काल विशेषाधिक है। क्षपकश्रेणीगत सूक्ष्मसापरायिक का जधन्यकाल विशेषाधिक है।
विशेष--शंका--केवलदर्शन तथा केवलज्ञान का काल केवलो सामान्य को अपेक्षा से न कहकर तदभवस्थ केवली की अपेक्षा कहा गया है, यह कैसे जाना जाता है ?
समाधान-- केवलदर्शन और केवलज्ञान का जघन्य काल श्वासोच्छ्वास के जघन्य काल से विशेष अधिक कहा है। इस कथन से प्रतीत होता है कि यह प्रतिपादन तदभवस्थ केवली की अपेक्षा
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( १६ )
किया गया है । उपसर्गं सहित केवली में हो यह कथन सुघटित होता है ।
मार्गदर्शक :- आचार्य श्रहन्वागिरे मात्र से एकत्ववितर्क प्रवीचार १ तथा पृथक्त्ववितथीचार रूप शुक्लध्यानों का ग्रहण किया गया है।
उपशमश्रेणी से गिरनेवाला प्रतिपात सांपरायिक, उपशम श्रेणी पर प्रारोहण करने वाला सूक्ष्मसांपरायिक संगमी उपशामकसांपरायिक तथा क्षपक श्रेणी पर चढ़ने वाला सूक्ष्मसांपराविक क्षपक सूक्ष्मपरायिक कहा जाता है । मादा कोहद्धा मायद्धा तहय देव लोहद्वा । खुद्धभवग्गणं पुण किट्टीकरणं च बोद्धव्या ॥१७॥ -
roseraiyaकि वो जयन्य काल की अपेक्षा मान कपाय का जघन्य काल विशेषाधिक है। उससे विशेष अधिक क्रोध का जघन्य काल है | उससे विशेषाधिक माया कषाय का जघन्य काल है। उससे विशेषाधिक लोभ कषाय का जघन्य काल है। उससे विशेषाधिक क्षुद्रग्रहण का जघन्य काल है । उससे विशेषाधिक कृष्टिकरण का जघन्य काल है ।
विशेष-- क्षुभव ग्रहण के जघन्य काल से विशेष अधिक काल कृष्टिकरण का कहा गया है । यह जघन्य कृषि लोभ के उदय के साथ पक श्रेणी पर चढ़ने वाले जोव के होती है । 'एसा लोहोपण खगसेकि चस्सि होदि' ( पृष्ठ ७१ )
संकामा श्रवण उवसंत कसाय - खीणामोहन्द्रा । उवसातय - अद्वा खवेंत - अद्धा य बोद्धव्वा ॥ १८ ॥
कृष्टिकरण के जघन्य काल से संक्रामण का जघन्य काल विशेषाधिक है। उससे विशेषाधिक जघन्य काल अपवर्तन का है ।
१ एकत्वेन वितर्कस्य श्रुतस्य द्वादशांगादेरविचारोऽर्थं व्यंजनयोगसंक्रान्तिर्यस्मिन् ध्याने तदेकत्ववितर्कावीचारं ध्यानं । पृथक्त्वेन भेदेन fanita श्रुतस्य द्वादशांगादेव चारोऽयं व्यंजन-योगेषु संक्रा न्तिर्यस्मिन् ध्याने तत्पृथक्त्ववित कंबीचारं ध्यानम् [30]
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विशेषाधिक है। उससे
( २० ) उससे उपशांतकषाय का जघन्य काल क्षीणमोह का जघन्य काल विशेषाधिक है। उससे उपशामक का जघन्य काल विशेषाधिक है । उससे क्षपक का जघन्य काल विशेषाधिक जानना चहिये ।
विशेष - ( १ ) अन्तरकरण कर लेने पर जो नपुंसक वेद का क्षपण है, उसे संक्रामण कहा है।
नपुंसक वेद का क्षपण होने पर ग्रवशिष्ट नोकषायों के क्षपण को अपवर्तन कहा है ।
तथा बारहवें
उपशमश्रेणी पर आरोहण करने वाला जब मोहनीय का अन्तरकरण करता है, मानद उपमा कहते सागर जी महाराज क्षपक श्रेणी पर आरोहण करने वाला जब मोह का अन्तरकरण करता है तब उसे क्षपक कहते हैं । पिव्याघादेदा होंति जहराणा श्रागुपुथ्वीए । एत्तोपुवी उक्कस्सा होंति भजियव्वा ॥ १६ ॥
ग्यारहवें गुणस्थानवर्ती को उपशान्तकषाय गुणस्थानवर्ती को क्षीणकषाय कहा है।
पूर्वोक्त चार गाथाओं द्वारा प्रतिपादित अनाकार उपयोग आदि सम्बन्धी जघन्यकाल आनुपूर्वी क्रम से व्याघात रहित अवस्था में होता है। इससे आगे कहे जाने वाले उत्कृष्टकाल सम्बन्धी पदों को अनानुपूर्वी अर्थात् परिपाटी क्रम के बिना जानना चाहिए ।
पूर्वोक्त पदों का उत्कृष्टकाल कहते हैं ।
१ अंतरकरणे कए जं णवंसयवे यक्खवणं तस्स 'संकामण' त्ति सण्णा वुंसय वे खविदे सेस - पीक सायकलवणमोवट्टणं णाम । उवसमसेढि चढमाणेण मोहणीयस्स अंतरकरणे कदे सो उवसामयो ति भण्णदि । खवयसेढि चढमाणेण मोहणीयस्स अंतरकरणे कदे 'खवेंतो ति भण्णदि [ ७१]
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( २१ )
चक्खू सुदं पुधतं मागोवा तहेव उवसंते । उवसातय अद्धा दुगुणा सेसा हु सविसेसा ||२०||
चक्षु इंद्रिय सम्बन्धी मतिज्ञानोपयोग, श्रुतज्ञानोपयोग, पृथक्त्ववितर्कवीचार ध्यान "मतिज्ञान, युवशान्तकषाय और उपशामक के उत्कृष्ट कालों का परिमाण अपने से पूर्ववर्ती स्थान के काल से दुगुना है। उक्त पदों से शेष बचे स्थानों का उत्कृष्टकाल अपने से पहिले स्थान के काल से विशेषाधिक है ।
विशेष-१ चारित्र मोह के जघन्य क्षपणाकाल के ऊपर चक्षुर्दर्शनोपयोग का उत्कृष्ट काल विशेष अधिक है। इससे चक्षुज्ञानोपयोग का काल दूना है ।
चक्षुज्ञानोपयोग के उत्कृष्ट काल से श्रोत्र ज्ञानोपयोग का उत्कृष्ट काल विशेषाधिक है | गाथा २० में आगत पद सेसा हु सविसेसा' से उपरोक्त अर्थ अवगत होता है ।
शंका- केवलज्ञान और केवलदर्शन का उत्कृष्ट उपयोग काल अन्तर्मुह कहा है। इससे ज्ञात होता है कि उन दोनों की प्रवृत्ति एक साथ नहीं होती, किन्तु क्रमशः होती है । यदि केवल ज्ञान और केवल दर्शन की एक साथ प्रवृत्ति मानी जाती है, तो तद्भवस्थकेवली के केवलज्ञान और केवल दर्शन का उपयोग काल कुछ कम पूर्व कोटिप्रमाण होना चाहिये, क्योंकि गर्भ लेकर ग्राठ वर्ष काल के व्यतीत हो जाने पर केवल ज्ञान सूर्य की उत्पत्ति देखी जाती है- "देसूण पुव्यकोडिमेत्तरेण होदव्वं, गन्भादिश्रटुबर सेसु इक्कसु केवलनादिवायरसुग्ग- मुचलंभादो" [ पृष्ठ ]
समाधान - केवलज्ञानावरण और केवलदर्शनावरण का एक साथ क्षय होता है, क्योंकि क्षीणकषाय गुणस्थान में ज्ञानावरण, २ मोहणीयजहण-खवणढाए उवरि चक्खुदंसणु उक्कस्सकालो विसेसाहियो, णाणुवजोगस्स उक्कस्स कालो दुगुणो (पृ. ७२ )
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( २२ ) दर्शनावरण और अंतराय रूप तीन छातिया कर्म एक साथ क्षय को प्राप्त होते हैं, अतः केवलज्ञान और केवल दर्शन की उत्पत्ति एक साथ होती है । वीरसेन प्राचार्य कहते हैं" अक्कमेण विणासे संते केवलणापोण सह केवलदं सणेण वि उपज्जेयब्वं, अक्कमेण, अविकलकारणे संते तेसि कमुष्पत्तिविरोहादो"- केवलज्ञानावरण और केवल दर्शनावरपा का प्रक्रमपूर्वक क्षय होने पर केवलज्ञान के साथ केवल दर्शन भी उत्पन्न होना चाहिए । संपूर्ण कारण कलाप मिलने पर क्रमसे उत्पत्ति मानने में विरोध प्राता है।
शंका-केवलज्ञान और केवलदर्शन की एक साथ प्रवृत्ति कैसे संभव है ?
- मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज समाधान--"अंतरंगुनोवो केवलदसणं, बहिरंगत्थविसो पयासो केवलणाणमिदि इच्छियव्व- अन्तरंग उद्योत केवलदर्शन है और बहिरंगपदार्थों को विषय करने वाला प्रकाश केवलज्ञान है; ऐसा स्वीकार कर लेना उचित होगा। ऐसी स्थिति में दोनों उपयोगों की एक साथ प्रवृति मनाने में विरोध नहीं रहता है, क्योंकि उपयोगों की क्रमवृत्ति कर्म का कार्य है और कर्म का अभाव हो जाने से उपयोगों की क्रमवृत्ति का भी प्रभाव होता है।
शंका-- केवलज्ञान और केवलदर्शन का उत्कृष्ट काल अंतमुहूर्त कैसे बन सकता है ?
समाधान--सिंह, व्याघ्र आदि के द्वारा खाए जाने वाले जीथों में उत्पन्न हुए केवलज्ञान और केबलदर्शन के उत्कृष्ट काल का ग्रहण किया गया है। इससे इनका अन्तर्मुहुर्त प्रमाण काल बन जाता है।
शंका - व्यान आदि के द्वारा भक्षण किए जाने वाले जीवों के केवलज्ञान के उपयोग का काल अन्तर्मुहुर्त से अधिक क्यों नहीं होता है ?
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श्री चंद्रप्रभु (२३)
: ' पगाला
खान बुटाणा समाधान-नहीं, क्योंकि जो अपमृत्यु से रहित हैं. किन्तु जिनका शरीर हिंसक प्राणियों के द्वारा भक्षण किया गया है ऐसे चरम शरीरी जीवों के उत्कृष्ट रूपसे भी अंतर्मुहूर्त प्रमाण आयु के शेष रहने पर ही केवलज्ञान की उत्पत्ति होती है। इससे ऐसे जीवों के केवलज्ञान का उपयोग काल वर्तमान पर्याय की अपेक्षा अंतर्मुहूर्त से अधिक नहीं होता है।
शंका--(१) तदभवस्थ केवलज्ञान का उपयोगकाल कुछ कम पूर्व कोटि प्रमाण पाया जाता है, अतः यहां अंतहत प्रमाण काल क्यों कहा गया. आचार्य श्री सुविहिासागर जी महाराज
समाधान--जिनका आधा शरीर जल गया है तथा जिनकी देह के अवयव जर्जरित किए गए हैं, ऐसे केवलियों का विहार नहीं होता, इस बात का परिज्ञान कराने के लिए यहां केवलज्ञान के उपयोग का उत्कृष्ट काल अंतर्मुहूर्त कहा है ।
यहां उपसर्गादि को प्राप्त तदभव केबली की विवक्षा को
पेज्जदोस विहत्ती नामके प्रथम अधिकार से प्रतिबद्ध गाथा को कहते हैं:पेज्जं वा दोसो वा कम्मि कसायम्मि कस्स व रणयस्स। दुट्टो व कम्मि दव्वे पियायदे को कहिं वा वि १२१
किस किस कषाय में किस नय की अपेक्षा प्रेय या द्वेष का व्यवहार होता है ? कौन नय किस द्रव्य में द्वेष को प्राप्त होता है तथा कोन नय किस द्रव्य में प्रिय के समान आचरण करता है ? - १ तब्भवत्थकेवलुवजोगस्स देसूपापुवकोडि-मेत्तकाले संते किमट्टमेसो कालो परुविदो ? दड्ढद्ध गाणं जर्जरीकयावयवाणं च केवलीणं विहारो पत्थि त्ति जाणावगट्ठ ।
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( २४ )
इस गाथा में कहे गए प्रश्नों का समाधान भट्टारक गुणधरने नहीं किया है । यतिवृषभ आचार्य ने उनका उत्तर इस प्रकार दिया है । (१) गम और संको-प्रोार्यक्रधिसागर जी महार मान द्वेष रूप हैं तथा माया और लोभ प्रेयरूप हैं ।
व्यवहार नय की दृष्टि से क्रोध, मान और माया द्वेष रूप हैं तथा केवल लोभ कपाय ही द्वेष रूप है ।
ऋजुसूत्र नय की अपेक्षा केवल क्रोध द्वेष रूप है । मान न द्वेष है, न प्रेय है । इसी प्रकार माया भी न द्वेष है, न प्रेय हैं । लोभ प्रेयरूप है |
शब्द नय की अपेक्षा क्रोध द्वेष, माया द्वेष है तथा लोभ भी द्वेष है । क्रोध, मान तथा माया पेज्ज नहीं हैं, किन्तु लोभ कथचित् पेज्ज है ।
उपरोक्त प्ररूपण को पढ़कर जिज्ञासु सोचता है कि कषायों को किसी नय से प्रिय तो किसी नय से श्रप्रिय-द्वेष रूप कहने में क्या कोई कारण भी है या नहीं ? इस दृष्टि को ध्यान में रखते हुए आचार्य बोरसेन ने इस प्रकार स्पष्टीकरण किया है। वे लिखते हैं, क्रोध द्वेष रूप है, क्योंकि क्रोध के करने से शरीर में संताप होता है । देह कंपित होती हैं | कान्ति बिगड़ जाती है । नेत्रों के समक्ष अंधकार छा जाता है । कान बधिर हो जाते हैं । मुख से शब्द नहीं निकलता । स्मरण शक्ति लुप्त हो जाती है । क्रोधो व्यक्ति अपने माता पिता आदि की हत्या कर बैठता है । क्रोध समस्त श्रनर्थो का कारण है ।
१ गम-संगहाणं कोहो दोसो, माणो दोसो माया पेज्ज, लोही पेज्जं । ववहारणयस्स कोहो दोसो, माणो दोसो, माया दोसो, लोहो पेज्जं । उजुसुदस्स कोहो दोसो, माणो णो-दोसी, णोपेज्जं । माया णो-दोसो, णो-पेज्जं । लोहो पेज्जं ।
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( २५ ) मान द्वेष रूप है क्योंकि वह क्रोध के अनंतर उत्पन्न होता है । क्रोध के विषय में प्रतिपादित समस्त दोषों का कारण है। ___माया प्रिय है, क्योंकि उसका पालंबन प्रिय पदार्थ है। वह अपना कार्यक्पूर्ण होनारमन्ना सितोपर को छानकरती है । लोभ भी पेज्ज अर्यात प्रेय है, 'पाल्हादनहेतुत्वात्', क्योंकि बह अानन्द का कारण है।
शंका-क्रोध, मान, माया तथा लोभ दोष रूप है, क्योंकि उनसे कर्मों का प्रास्रव होता है।
समाधान- यह कथन ठीक है, किन्तु यहां कौन कषाय हर्ष का कारण है, कौन प्रानन्द का कारण नहीं है; इतनी ही विवक्षा है । अथवा प्रेय में दोषपना पाया जाता है, अतः माया और लोभ प्रेय है। __ अरति, शोक, भय, जुगुप्सा दोष रूप हैं। वे क्रोध के समान अशुभ के कारण हैं। हास्य, रति, स्त्रीवेद, पुरुषवेद तथा नपुंसकवेद प्रेय रूप हैं, क्योंकि वे लोभ के समान राग के कारण हैं ।
शंका-- यह अनुद्दिष्ट बात कैसे जानी गई ? समाधांन–'गुरुवएसादो' गुरु के उपदेश से यह बात अवगत
शंका-व्यवहार नय माया को दोष कहता है, इसका क्या हेतु है ?
समाधान- माया में अविश्वासपना और लोकनिन्दितपना देखा जाता है । लोक निन्दित वस्तु प्रिय नहीं होती है । लोकनिन्दा से सर्वदा दुःख की उत्पत्ति होती है, 'सर्वदा निन्दातो दुःखोत्पत्तः।
लोम पेज्ज है, क्योंकि लोम से रक्षित द्रव्य के द्वारा सुख से जीवन व्यतीत होता है। स्त्री वेद, पुरुषवेद प्रिय हैं । गेष
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मार्गदर्शक ६- आचार्य श्री सुविहिासागर जी महाराज नोकषाय दोष हैं; क्योंकि इस प्रकार का लोक व्यवहार देखा जाता है।
शंका-ऋजुसूत्र नय की अपेक्षा क्रोध द्वेष रूप है, लोभ पेज्ज है, यह ठीक है, किन्तु भाम और माया न द्वेष हैं, न पेज यह कैसे सुसंगत कहा जायगा ?
समाधान-अजुसूत्र नय को अपेक्षा मान और माया दोष नहीं हैं, क्योंकि उनसे अंग को संताप नहीं प्राप्त होता है । उनसे प्रानन्द की उत्पत्ति नहीं होने से वे पेज भी नहीं है।
शब्द नय की दृष्टि में क्रोध, मान, माया और लोभ कर्मों के प्रास्रव के कारण होने से तथा उभय लोक में दोष का कारण होने से दोषरूप कहे गए हैं। यह उपयोगी पद्य है :
क्रोधात्नौतिविनाश मानाद्विनयोपघातमाप्नोति । शाठ्यात्प्रत्ययहानि सर्वगुणविनाशको लोभः ।।
क्रोध से प्रेमभाव का क्षय होता है। अभिमान से विनय को क्षति होती है। शठता अर्थात् कपटवृत्ति से विश्वास नहीं किया जाता है । लोभ के द्वारा समस्त गुणों का नाश होता है।
क्रोध, मान और माया ये तीनों पेज्ज नहीं है, क्योंकि इनसे जीव को संतोष और प्रानन्द की प्राप्ति नहीं होती। लोभ कचित् पेज्ज है, क्योंकि रत्नत्रय के साधन विषयक लोभ से स्वर्ग और मोक्ष की प्राप्ति देखी जाती है-"तिरयणसाहण-विसय-लोहादो सग्गापवग्गाणमुप्पत्ति-दसणादो" । शेष पदार्थ संबंधी लोभ पेज्ज नहीं है, क्योंकि उससे पाप की उत्पत्ति देखी जाती है ।
मैगम नय की अपेक्षा जीव किसी काल या देश में किसी जोव में द्वष युक्त होता है, कभी अजीव में द्वेषभाव धारण करता है।
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इस प्रकार प्राठ भंग उत्पन्न होते हैं । (१) कथंचित् जीवों में (२) कथंचित् अजीवों में (३) कथंचित् एक जीव तथा एक अजीव में (४) कथंचित् एक जीव में तथा अनेक अजीबों में (५) कथंचित् अनेक जीवों में और एक अजीव में (६) कथंचित् अनेक जीवों तथा अनेक प्रजीवों में (७) कथंचित् एक जोध में (८) कथंचित् एक अजीव में द्वेष भाव धारण करता है । मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज शंका-कौन नय किस द्रव्य में प्रेमभाव धारण करता है ?
समाधान-नैगम नय की अपेक्षा आठ भंग हैं। कथंचित एक जीव में (२) कथंचित् एक अजीव में (३) कथंचित् अनेक जीवों में (४) कथंचित् अनेक प्रजीवों में (५) कथंचित् एक जीव में तथा एक अजीव से (६) कथंचित् एक जीव में और अनेक अजीयों में (७) कथंचित् अनेक जीवों में एक अजीव में (८) कथंचित् अनेक जीवों में तथा अनेक अजीबों में जीव प्रेम करता है।
संग्रह नय को अपेक्षा सर्व द्रव्यों पर द्वेष करता है तथा सर्व द्रव्यों पर प्रेम करता है। इसी प्रकार अजुसूत्र नय का कथन जानना चाहिए।
व्यवहार नय की अपेक्षा पेज्ज और दोस सम्बन्धी पाठ भंग होते हैं।
शब्द नय को अपेक्षा जीव आपस में ही प्रिय अथवा द्वेष व्यवहार करता है । १ जीव सर्व द्रव्यों के साथ न द्वेष करता है, न प्रेम करता है । पेज्ज और दोस के स्वामी नारकी, तिर्यंच,मनुष्य तथा देव कहे गए हैं।
१ सहस्स णो सव्वदम्वेहि युट्ठो अत्ताणे चेव प्रताणम्मि पियायदे।
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( २८ )
शंका- नारकियों में निरन्तर द्वेषाग्नि जला करती है। वहां राग या श्रानन्द का अस्तित्व कैसे माना जावे ?
समाधान---ताड़न, मारण तथा तापन यादि क्रूर कार्यों में जब कोई नारकी सफल होता है, तब कुछ काल के लिए वह आनंद को प्राप्त होता है; इस दृष्टि से वहां 'पेज्ज' का सद्भाव माना गया है ।
मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज
देवों में लोभ कषाय की मुख्यता रहने से राग भाव वाले अधिक हैं। नारकियों में द्वेष की प्रचुरता रहने से वहां द्वेषभावयुक्त जीव अधिक हैं। मनुष्यों और तिर्यंचों में द्वेष भाव धारक जीव अल्प हैं। रागभावयुक्त जीव विशेषाधिक है ।
पेज्ज और दोस भाव युक्त जीवों के प्रदयिक भाव कहा है । यहां पेज दोस-विभक्ति अधिकार समाप्त होता है ।
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( २६ ) पयडि विहत्ती
द्रम .::...: पाठशाला खामगाव जि. बुलडाणा
पयडीए मोहणिज्जा विहत्ती तह दिदीए अणुभागे। उकासमणुक्कस्सं झीणमझीणं च टिदियं वा ॥ २२
मोजोमको अवचि विक्षुविधासमिति महतसाति, अनुभाग विभक्ति, उत्कृष्ट-अनुत्कृष्ट प्रदेश विभक्ति, क्षीणाक्षीण तथा स्थित्यंतिक का प्रतिपादन करना चाहिये।
विशेष --विभक्ति, भेद, पृथकभाव ये एकार्थवाची है। “विहसी भेदो पुधभावो त्ति एयद्यो” । यतिवृषभ प्राचार्य की दृष्टि से इस गाथा के द्वारा प्रकृति विभक्ति आदि छह अधिकार सूचित किए गए हैं। प्रकृति विभक्ति के मूल प्रकृति विभक्ति और उचर प्रकृति विभक्ति ये दो भेद किए गये हैं। मूल प्रकृति विभक्ति को प्ररुपणा इन पाठ अनुयोगद्वारों से की गई है--एक जीव की अपेक्षा स्वामित्व, काल, अन्तर, नाना जीवों को अपेक्षा भंगविचय, काल, अन्तर, भागाभाग और अल्पबहुत्व ये आठ अनुयोग द्वार हैं ।
उत्तर प्रकृति विभक्ति दो प्रकार की है--(१) एकैक उत्तरप्रकृति विभक्ति (२) प्रकृति स्थान उत्तर प्रकृति विभक्ति ।
एकैक उत्तरप्रकृति विभक्ति के अनुयोग द्वार इस प्रकार कहे गए हैं । एक जीव की अपेक्षा स्वामित्व, काल, अन्तर, नाना जीवों की अपेक्षा भंगविचयानुगम, परिमाण, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, सन्निकर्ष और अल्पबहुत्व ये एकादश अनुयोग द्वार हैं।
प्रकृति स्थान विभक्ति में ये अनुयोग द्वार हैं--एक जीव की अपेक्षा स्वामित्व, काल, अन्तर, नाना जीवों की अपेक्षा भंगविचय, परिमाण, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, अल्पबहुत्व, भुजाकार, पदनिक्षेप और वृद्धि ये त्रयोदश अनुयोग द्वार हैं।
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१ प्रकृति स्वभाव का पर्यायवाची है । ज्ञानावरणादि कर्मों का जो स्वभाव है, वही उनको प्रकृति है । ज्ञानावरणादि कर्मों के उदयवश जो पदार्थों का अवबोध न होना आदि स्वभाव का क्षय न होना स्थिति है। कर्म पुदगलों को स्वगत सामर्थ्य विशेष अनुभव है। कमरूप परिणत पुदगल स्कन्धों के परमाणुरों की परिगणना प्रदेश बंध है।
मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज
ठिदि त्रिहती
यह स्थिति विभक्ति (१) मूलप्रकृति-स्थिति-विभक्ति (२) उत्तरप्रकृति-स्थितिविभक्ति के भेद से दो प्रकार की है। एक समय में बद्ध समस्त मोहनीय के कर्मस्कन्ध के समूह को मूल प्रकृति कहते हैं। कर्मबन्ध होने के पश्चात् उसके प्रात्मा के साथ बने रहने के काल को स्थिति कहते हैं।
____ मोहनीय कर्म को पृथक पृथक् अट्ठाईस प्रकृतियों की स्थिति को उत्तर प्रकृति-स्थितिविभक्ति कहते हैं।
१. प्रकृतिः स्वभावः । ज्ञानावरणादीनामर्थानयगमादि-स्वमावादप्रच्युतिः स्थितिः । तद्रसविशेषो अनुभवः । कर्मपुद्रगलानां स्वगतसामथ्यंविशेषोनुभवः। कर्मभावपरिणतपुदगलस्कन्धानां परमा. गुपरिच्छेदेन अवधारणं प्रदेशः । (सर्वार्थसिद्धि अध्याय, ८ सूत्र ३)
१ एगसमम्मि बद्धासेस-मोहकम्मक्खंधाणं पयहिसमूहो मूलपयडी णाम । तिस्से द्विदी मूलपयडिदिदी । पुधपुध अट्ठावीसमोहपयडीणं द्विदीयो उत्तरपडिट्ठिदी णाम ।
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( ३१ )
२ शंका - उत्तर प्रकृति-स्थितिविभक्ति का कथन करने पर मूलप्रकृति-स्थितिविभक्ति का नियम से ज्ञान हो जाता है, इस कारण मूल प्रकृति-स्थितिविभक्ति का कथन अनावश्यक है ।
समाधान — यह ठीक नहीं है । द्रव्यार्थिक नय तथा पर्यायाथिंकन वाले शिष्यों के कल्याणार्थ दोनों का कथन किया गया है ।
क्र :
मूलप्रकृति-स्थितिविभक्ति के ये धनुयोगद्वार हैं। सर्वविभक्ति, नोसर्वविभक्ति, उत्कृष्टविभक्ति, अनुत्कृष्ट विभक्ति, जघन्यविभक्ति, अजघन्याना सादाश्रीनिवारा वविभक्ति, अध्रुवविभक्ति एक जीव की अपेक्षा स्वामित्व, काल, अन्तर नानाजीवों की अपेक्षा भंगविचय, परिमाण, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, सन्निकर्ष, अल्पबहुत्व, भुजाकार, पदनिक्षेप और वृद्धि इस प्रकार चौवीस श्रनुयोग द्वार हैं ।
३ शंका - प्रनुयोगद्वार किसे कहते हैं ?
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समाधान कहे जाने वाले अर्थ के परिज्ञान के उपायभूत अधिकार को अनुयोगद्वार कहते हैं ।
४ ये सभी अनुयोगद्वार उत्तर-प्रकृति-स्थितिविभक्ति के विषय में संभव है ।
२ उत्तरपयडि-द्विदिविहत्तीए परुविदाए मूलपयडिट्ठिदिविहत्ती पियमेण जाणिज्जदि, तेण उत्तर पर्योड-द्विदिविहत्ती चैव वत्तच्वा, मूलपर्याडिद्विदिविहत्ती, तत्थफलाभावादी । ण, दवदट्टिय प्रज्जवट्टियया गुग्गहणॣ तप्परुवणादो (पृष्ठ २२३)
३ किमणिगद्दारं णाम ? ग्रहियारो भण्णमाणत्थस्स अवगभोबायो (२२४)
* एदाणि चेव उत्तरपयडिट्टिदिविहत्तीए कादव्वाणि ( २२५ )
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( ३२ ) अणुभाग वित्ती
अनुभाग विभक्ति में अनुभाग के विषय में प्ररूपणा की गई है ! मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज शंका- ' को प्रणुभागो' ? अनुभाग का क्या स्वरूप है ?
समाधान - 'कम्माणं सगकज्जकरणसत्ती अणुभागो नाम'आत्मा से सम्बद्ध कर्मों के फलदान रूप स्वकार्य करने की शक्ति को अनुभाग कहते हैं ।
—
१ उस अनुभाग के भेद, प्रपत्र अथवा विभक्ति का प्ररूपण करने वाले अधिकार को अनुभाग विभक्ति कहते हैं । उसके दो भेद हैं । एक भेद मूलप्रकृति अनुभाग विभक्ति है । दूसरे का नाम उत्तर प्रकृति अनुभाग विभक्ति है । भूतबलि स्वामी ने महाबंध ग्रंथ में चौबीस अनुयोग द्वारों से आठ कर्मों के अनुभाग बंध का विस्तार पूर्व निरूपण किया है । महाबंध में लिखा है "एदेण अपदेण तत्थ इमाणि चवीस- प्रणियोगराणि णादव्वाणि भवति । तं जहा सण्णा सब्वबंधो, णोसव्वबंत्रशे, उक्कस्सबंधी, प्रणुक्कस्सबंधी जहण्णबंधो, अजहष्पबंधो, सादिबंधो, प्रणादिबंधो, ध्रुवबंधी एवं याव अप्पाबगे ति । भुजगारबंधो पर्दाणिवखेवो वढिबंधो ग्रभवसाप, समुदाहारो जीवसमुदाहारो त्ति" । इस कषायपाहुड ग्रंथ में केवल मोहनीय का विवेचन किया गया है । इसमें तेईस
१ तस्य वित्ती भेदो पवंचो जम्हि महियारे परुविज्जदि भगवती । तिस्से दुवे अहियारा मूलपयडि - प्रणुभाग विहृत्ती उत्तरपयडिप्रणुभागविहत्ती चेदि । मूलपयडि - अणुभागस्स जत्य हित्ती परुविज्जदि सा मूलपयडि - श्रणुभागविती । उत्तरपयडीण मणुभागस्स जत्य विहत्ती परुविज्जदि सा उत्तरपयडिप्रणुभागविहत्ती ( ५१८ )
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( ३३ ) अनुयोगद्वारों से कथन किया गया है । एक कम में सन्निकर्ष रूप मामिसंभजाचोने प्रासेसिमलापहिला नहीं किया गया हैं । 'सष्णियासो णस्थि, एकस्से पयडीए तदसंभवादो।" सन्निकर्ष को छोड़कर ये तेईस अधिकार कहे गये हैं। (१) संज्ञा (२) सर्वानुभागविभक्ति ( ३ ) नोसर्वानुभागविभक्ति ( ४ ) उत्कृष्ट अनुभागविभक्ति ( ५ ) अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्ति (६) जघन्य अनुभाविभक्ति (७) अजघन्य अनुभागविभक्ति (८) सादि अनुभागविभक्ति ( ९ ) अनादि अनुभागविभक्ति (१०) ध्रुव अनुभागविभक्ति (११) अध्रुव अनुभागविभक्ति (१२) एकजीवको अपेक्षा स्वामित्व (१३) काल (१४) अंतर (१५) नाना जीवों को अपेक्षा भंगविचय (१६) भागाभाग (१७) परिमाण (१८) क्षेत्र (१९) स्पर्शन ( २० ) काल ( २१ ) अंतर (२२) भाव (२३) अल्पबहुत्व । यहां भुजगार, पदनिक्षेप, वृद्धिविभक्ति और स्थान ये चार अर्थाधिकार भी होते हैं।
प्रथम अधिकार संज्ञा के (१) घाति (२) स्थान ये दो भेद हैं। मोहनीय जीव के गुण का घात करता है। उसके देशघाती और सर्वघाती भेद किये गए हैं।
१ मोहनीय का उत्कृष्ट अनुभाग सर्वघाती है तथा उसका जघन्य अनुभाग देशघाती है । मोहनीय का अनुकृष्ट और अजघन्य अनुभाग सर्वघाती है तथा देशघाती भी है ।
__ मोहनीय का भेद संस्थान संज्ञा है। उसके जघन्य और उत्कृष्ट ये दो भेद हैं।
१ मोहणीयस्स उक्कस्स अणुभागविहत्ती सव्वषादी [ अणुक्कस्स अणुभागविहत्ती सव्वघादी देसघादी वा । जहण्णाणुभागविहत्ती देसघादी, अजहण्णाणुभाग-विहत्ती देसघादी सव्यपादो का (५१९)
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° उत्तर-प्रकृति-प्रनुभागविभक्ति
int मोहनीय को मूल प्रकृति को अवयवरुप मोहप्रकृतियों को सुन, उत्तरप्रकृति व्यपदेश किया जाता है। "मोहणीय-मूलपयडीए अवयवभूद-मोहपयडीणमुत्तरपडि त्ति बवएसो" (५५२)।
मोहनीय को नातियों को हाधिकारों का परिज्ञानार्थ स्पर्धकों की रचना का परिज्ञान आवश्यक है। सम्यक्त्वप्रकृति के प्रथम देशघाति स्पर्धक से लेकर अंतिम देशघाति स्पर्धक पर्यन्त ये स्पर्धक होते हैं। सम्यक्त्वप्रकृति का सबसे जघन्य प्रथम स्पर्धक देशघाती है तथा सबसे उत्कृष्ट अंतिम स्पधंक देशघाती है । वह लता रुप न होकर दारु रुप है। सभ्यंग्दर्शन के एक देश का घात करने से सम्यक्त्व प्रकृति के अनुभाग को देशघाती कहा गया है।
२ शक्ति की अपेक्षा कर्मों के अनुभाग के लता, दारु (काष्ठ) अस्थि और शैल ( पाषाण ) रुप चार भेद किए गए हैं । लता और दारु का शेष बहुभाग, अस्थि भाग और शैल रूप अनुभाग सर्वघाती है।
३ शंका- सम्यक्त्व प्रकृति के द्वारा सम्यग्दर्शन का कौनसा भाग धाता जाता है ?
२ सत्ती य लदा-दारु-अट्ठी-सेलोवमा हुँ घादीणं । दारु अणंतिमभागो ति देसघादी तदो सब्वं ॥११॥ देसोत्ति हवे सम्म तत्तो दारु प्रतिमे मिस्म। ऐसा अणंतभागा अट्ठि-सिलाफड्डया मिच्छे ॥१८१॥ गो. कर्मकांड।
•' लदासमाण-जहण्ण-फड्डयमादि कागुण जाव देसघादि दारुणसमाणुक्कस्स फड्डयं ति ट्ठिदसम्मत्ताणुभागस्स कुदो देसघादित्तं ? ण सम्मत्तस्स एकदेसं पाताणं तदविरोहादो । को भागो सम्मत्तस्स तेण घाइज्जदि . थिरत्तं पिक्कंखत्तं ( ५५२)
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( ३५ ) समाधान-सम्यक्त्व को स्थिरता और निष्कांक्षता का घात होता है । सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति का अनुभाग सत्कर्म प्रथम सर्वघाती स्पर्धक से लेकर दारु के अनंतभाग तक होता है। यह सम्यग्मिथ्यात्व संपूर्ण सम्यक्त्व का घात करने से सर्वधातो है । इसे जात्यंतर सर्वघाती कहा है।
४ इसके होने पर सम्यक्त्व तथा मिथ्यात्व के अस्तित्व का
चोर्यश्री सविधिसागर जी महाराज
कार * दारु के जिस भाग पर्यन्त सम्यग्मिथ्यात्व के स्पधंक हैं, उससे (साभार अनंतरवर्ती दारु, अस्थि तथा शैलरुप सभी स्पर्धक मिथ्यात्व Ter प्रकृति के हैं।
रवडक.
अनंतानुबंधी, अप्रत्याख्यानावरण तथा प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया तथा लोभ रुप द्वादश कषायों के सभी स्पर्धक सर्वघाती हैं । दारु के जिस भाग से सर्वधाती स्पर्धक प्रारंभ होते हैं, वहां से शैलभाग पर्यन्त इनके स्पर्धक होते हैं । संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ तथा हास्यादि नव नोकपायों के स्पर्धक लता रुष होने के साथ दारु, अस्थि तथा शैल रुप भी हैं । चूणि सूत्रकार ने कहा है, "चदु-संजलण-णव-णोकसायाणमणुभागलंतकम्मं देसघादीणमादिफद्दयमादि काद्ण उबरि सब्दधादित्ति अप्पडिसिद्ध ।" चार संज्वलन और नोकषाय नवक का अनुभाग सत्कर्म देशवातियों के प्रथम स्पर्धक से लेकर आगे बिना प्रतिषेध के सर्वघाती पर्यन्त हैं ।
अनुभाग स्पर्धकों का भेद स्थान संज्ञा रूप कहा गया है, उसके लता दारु प्रादि भेद सार्थक हैं । जिस प्रकार लता कोमल होती है
४ सम्मामिच्छुदयेणजत्तंतर-सव्वघादि-कज्जेण । ण य सम्म मिच्छं पि य सम्मिस्सो होवि परिणामो॥ गो. जी
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( ३६ ) उसी प्रकार जिस कर्म में कम अनुभाग शक्ति होती है, उसे लता समान कहा है। लता की अपेक्षा काठ (दारु) समान अनुभाग शक्ति को दारु समान कहा है। उससे अधिक कठोर अस्थि समान अस्थि भाग है। शैल सदृश अत्यन्त कठोर अनुभाग को शैल कहा है।
पदेस विहत्ती
कर्मों के समुदाय में जो परमाणु हैं; उन्हें प्रदेश कहा गया है। अकलंक स्वामी ने राजवातिक में कहा है, "कर्मभावपरिणतपुद्गलस्कम्पपिरमाणु-पार छदै नाविधारण प्रदेश इतिव्यपदिश्यते" (अ. , सू. ३. पृ.२९९)-कर्मरूप परिणमन को प्राप्त पुद्गल स्कन्ध हैं, उनमें परमाणुओं की परिगणना द्वारा निर्धारण करने को प्रदेश कहा है। उनका विवेचन प्रदेश विभक्ति में हुआ है । इस प्रदेश विभक्ति के मूलप्रकृति प्रदेशविभक्ति और उत्तरप्रकृति प्रदेशविभक्ति रूप दो भेद कहे गए हैं। "पदेस-विहत्ती दुविहा मूलपडियदेस-विहत्ती उत्तरपयडिपदेसवित्ती चेव।" मूल प्रकृति प्रदेश विभक्ति में द्वाविति अनुयोगद्वार कहे गए हैं।
___ "मूलपडिविहत्तीए तत्य इमाणि वावीस अणियोगाराणि जादव्वाणि भवंत्ति । तं जहा भागाभाग, सव्वपदेसविहत्ती, णोसब्बपदेसविहत्ती, उक्कस्स-पदेसविहत्ती, अणुकस्सपदेसविहत्ती; जहण्णपदेसविहत्ती अजहण्णपदेसविहत्ती सादियपदेसविहत्ती प्रणादियपदेसविहत्ती, धुवपदेस बिहती, अद्ध वपदेसविहत्ती, एगजीवेण सामिर कालो, अंतरं, पापाजीवेहि भंगविचनो, परिमाणं, खेत, पोसणं, कालो, अंतरं, भावो, अप्पाबहुमं चेदि । पुणो भुजगार-पदणिक्श्चेव-बहिट्ठाणाणित्ति (६४९)
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मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविहिसागर जी महाराज
(१) भागाभाग (२) सर्वप्रदेशविभक्ति (३) नोसर्व प्रदेशविभक्ति (४) उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति (५) अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति (6) अजघन्य प्रदेशविभक्ति (७) सादिप्रदेशविभक्ति (१) अनादिप्रदेशविभक्ति ( ध्रुव प्रदेशविभक्ति (१०) अध्रुव प्रदेशविभक्ति (११) एक जीव की अपेक्षा स्वामित्व (१३) काल (१४) अन्तर (१४) नाना जीवों की अपेक्षा भंगविचय (१४) परिमाण (१० क्षेत्र (१५) स्पर्शन (१९) काल (१९) अंतर (२०) भाव (२१) अल्पबहुत्व ये बाईस) अनुयोग द्वार हैं । इसके सिवाय भुजगार, पदनिक्षेप, वृद्धि तथा स्थान रूप भी अनुयोग द्वार हैं।
उत्तरप्रकृति प्रदेशविभक्ति में पूर्वोक्त द्वाविंशति अनुयोग-द्वारों के सिवाय सन्निकर्ष अनुयोग द्वार भी हैं। इस कारण वहा तेईस अनुयोग द्वार कहे गये हैं। उनके नाम टोकाकार ने इस प्रकार गिनाए हैं :
उत्तरपडि-पदेसविहत्तीए भागाभागो, सब्बपदेसविहत्ती, णोसव्वपदेसविहत्ती, उकस्सपदेसविहत्ती अणुक्कस्सपदेस • विहत्ती जण्यापदेसविहत्तो अजहण्णप्रदेसविहत्ती सादिय-पदेसविहत्ती प्रणादियपदेसविहत्ती धुवपदेसविहत्ती अधुवपदेसविहत्ती एगजीवेण सामित्तं कालो अंतरं गाणाजीबेहि भंगविचो परिमाणं खेत्तं पोसणं कालो अंतरं सण्णियासो भावो अप्पाबहुमं चेदि तेवीस अणियोगद्दाराणि । पुणो भुजगारो, पदणिक्खेवो बढि-ढाणाणि 'चत्तारि अणि प्रोगद्दाराणि । (६६१)
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( ३८ ) श्रीणाधिकार
वावीसवीं गाथा में 'झीणमभोगं' पद आया है । उसकी विभाषा में कहते हैं : — कर्मप्रदेश अपकर्षण से क्षीणस्थितिक हैं, उत्कर्षण से क्षोणस्थितिक हैं, संक्रमण से श्रीणस्थितिक है तथा उदय से क्षीणस्थितिक हैं । 'प्रत्थि प्रकणादो भी ट्ठिदिर्य, उक्कड्डगादो झोट्टिदियं, संक्रमणादो झोणद्विदियं उदयादो झीणद्विदियं'
जिस स्थिति में स्थित कर्मप्रदेशाय श्रपकर्षण के अयोग्य होते हैं, उन्हें अपकर्षण से क्षोणस्थितिक कहते हैं । जिस स्थिति में स्थित कर्मप्रदेशाग्र अपकर्षणार्थग्य होते हैं, श्री महाराज क्षणस्थितिक कहते हैं ।
जिस स्थिति के कर्मपरमाणु उत्कर्षण के प्रयोग्य होते हैं, उन्हें उत्कर्षण से क्षीणस्थितिक कहते हैं। उत्कर्षण के योग्य कर्मपरमाणओं को उत्कर्षण से प्रक्षीणस्थितिक कहते हैं।
संक्रमण के अयोग्य कर्मपरमाणुओं को संक्रमण से क्षीणस्थिति और संक्रमण के योग्य कर्मपरमाणुओं को संक्रमण से प्रक्षीणस्थितिक कहते हैं ।
जिम स्थिति में स्थित परमाणु उदय से निजीर्ण हो रहे हैं, उन्हें उदय से क्षीणस्थिति कहते हैं। जो उदय के योग्य हैं, उन्हें उदय से प्रक्षणस्थितिक कहते हैं ।
शंका- कौन कर्मप्रदेश अपकर्षण से क्षीणस्थितिक हैं ?
समाधान -- जो कर्मप्रदेश उदयावली के भीतर स्थित हैं, वे अपकर्षण से क्षीणस्थितिक हैं। जो कर्मप्रदेश उदयावली से बाहिर विद्यमान हैं वे श्रपकर्षण से प्रक्षीस्थितिक हैं । उनको स्थिति को घटाया जा सकता है ।
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शंका-कौन कर्मप्रदेश उत्कर्षण से क्षोणस्थितिक हैं ?
समाधान--जो कर्मप्रदेश उदयावली में प्राप्त हैं, वे उत्कर्षण से क्षोणस्थितिक हैं। जो कर्मप्रदेशाग्र उदयावली से बाहर अवस्थित हैं, वे संक्रमण से क्षीणस्थितिक है अर्थात् संक्रामण के अयोग्य हैं । जो प्रदेशाग्र उदयावली से वाहिर विद्यमान हैं, वे संक्रमण से अक्षीणस्थितिक हैं अर्थात् संक्रमण से योग्य हैं।
शंका-कौन कर्मप्रदेश उदय से क्षोपास्थितिक हैं ?
समाधादर्शको कमाधाना सही सामे अयाहासिलस्थितिक है । इसके अतिरिक्त जो प्रदेशाग्न हैं, वे उदय से प्रक्षीणस्थितिक हैं, अर्थात् वे उदय के योग्य है-'उदयादो झीणढिदियं जमुद्दिण्णं तं, त्थि अण्णं "
जहां पर बहुत से कर्मप्रदेशाग्र अपकर्षणा दिसे क्षीणस्थितिक हों, उसे उत्कृष्ट क्षीणस्थितिक कहते हैं। जहां पर सबसे कम प्रदेशाग्र अपकर्षणादि के द्वारा क्षीणस्थितिक हों, उसे जघन्य क्षीणस्थितिक कहते हैं । इसी प्रकार अनुकृष्ट और अजघन्य क्षीणस्थितिक के विषय में जानना चाहिये।
स्थितिक अधिकार
गाथा में आगत 'ठिदियं वा' इस अंतिम पद की विभाषा करते हैं । इस स्थितिक अधिकार में तीन अनुयोगद्वार हैं-~"तत्य तिण्णि अणियोगदाराणि" वे (१) समुत्कीर्तना (२) स्वामित्व (३) अल्पबहुत्व नाम युक्त हैं, 'तंजहा-समुक्कितणा समित्तमप्पाबहुअंच'।
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समुत्कोतना की अपेक्षा (१) उत्कृष्टस्थिति प्राप्तक (२) निषेकस्थिति प्राप्तक (३) ययानिषेकस्थिति-प्राप्तक (४) उदयस्थितिप्राप्तक चार प्रकार का प्रदेशाग्र होता है।
शंका-स्थिति का क्या स्वरूप है ? 'तत्थ कि द्विदियं णाम ?'
समाधान–अनेक प्रकार की स्थितियों को प्राप्त होने वाले कर्मपुजों को स्थितिक या स्थितिप्राप्तक कहते हैं "द्विदीयो गच्छइ ति द्विदियं पदेसगं टिदिपत्तयमिदि उत्त' होइ"
शंका–उत्कृष्टस्थिति प्राप्तक का क्या स्वरूप है ? मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज
समाधान-जं कम्मं बंधसमयादो कम्माटिदीए उदए दोसइ तमुक्कस्सयट्ठिदि पत्तयं'---जो कर्म बंध काल से लेकर कर्म स्थिति के उदय में दिखाई देता है, उत्कृष्टस्थिति-प्राप्तक कहते हैं ।
शंका-निषेध-स्थिति प्राप्तक का क्या स्वरूप है ?
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माया
समाधान—जो कर्मप्रदेशाग्र बंधने के समय में ही जिस स्थिति में निषिक्त किए गए अथवा अपकर्षित किए गए वा उत्कर्षित किए
गए, वे उसी ही स्थिति में होकर यदि उदय में दिखाई देते हैं तो मुह उन्हें निषेक स्थिति प्राप्तक कहते हैं-"ज कम्म जिस्से टिदीए
णिसित प्रोकडिड्दं वा उक्कडिड्दं वा तिस्से चेव द्विदीए उदए दिस्मइ त णिसेय-ट्ठिदिपत्तयं'
शंका--यथानिषेक स्थितिप्राप्तक का क्या स्वरूप है !
समाधान--जो कर्मप्रदेशाग्र बंध के समय जिस स्थिति में निषिक्त किए गए वे अपवर्तना या उद्वर्तना को न प्राप्त होकर सत्ता में उसी अवस्था में रहते हुए यथाक्रम से उस ही स्थिति में
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श्रा : दमन
... न पाठशाला
सामजि . बुलडाण होकर उदय में दिखाई दे उसको यथानिषेक-स्थितिप्राप्तक कहते हैं"जं कम्म जिस्से द्विदीए णिसित्तं अपोकडिड्दं अणुक्कड्डिदं तिस्से चेव द्विदीए उदए दिस्सइ तमधाणिसेयद्विदिपत्तयं ।
शंका--उदयट्टिदि-पत्तयं णाम किं १---उदयस्थितिप्राप्तक किसे कहते हैं ?
समाधान-जो कर्म बंधने के पश्चात् जहां कहीं जिस किसी स्थिति में होकर उदय को प्राप्त होता है, उसे उदयस्थिति प्राप्तक कहते हैं--'जं कम्म उदए जत्थ वा तत्थ वा दिरसइ तमुदयट्टिदिपत्तये।
उत्कृष्टस्थितिप्राप्तक, निषेकस्थितिप्राप्तक, यथानिषेकस्थिति प्राप्तक तथा उदयस्थितिप्राप्तक के उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य तथा
प्रजघन्य ये चार भेद प्रत्येक के जानना चाहिये । मार्गदर्शक :- अपर्मियों की प्रिपेक्षाहत्वीष्टशिषति प्राप्तकों आदि का वर्णन
किया गया है । मिथ्यात्वादि मोहनीय कर्म प्रकृतियों का उत्कृष्ट अग्रस्थिति प्रापक उत्कृष्ट अग्रस्थिति प्रापक उत्कृष्ट यथानिषेक स्थिति प्रापक श्रादि के स्वामित्व का यतिवृषभ आचार्य ने विस्तारपूर्वक प्रतिपादन किया है।
स्थितिक अल्पबहुत्व पर इस प्रकार प्रकाश डाला गया है । मिथ्यात्व आदि सर्वप्रकृतियों के उत्कृष्ट अग्रस्थिति को प्राप्त कर्मप्रदेशाग्र सबसे कम हैं । उत्कृष्ट यथानिषेक स्थिति प्राप्त कर्मप्रदेशाग्र प्रसंख्यातगुणे हैं । निषेक स्थिति प्राप्त उत्कृष्ट कर्मप्रदेशाग्र विशेषाधिक हैं । इससे उत्कृष्ट उदयस्थिति को प्राप्त कर्मप्रदेशान असंख्यातगुणित हैं।
मिथ्यात्व का जघन्य अपस्थिति प्राप्त कर्मप्रदेशाग्र सस्तो हैं । जघन्य निषेकस्थिति प्राप्त मिथ्यात्व के कर्मप्रदेशाग्र अनंतगुणित हैं । जघन्य उदयस्थिति प्राप्त मिथ्यात्व के कर्मप्रदेशाग्न असंख्यातगुणे हैं। जघन्य यथा निषेकस्थिति को प्राप्त प्रदेशाग्र असंख्यातगुणे
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मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज
( ४२ )
हैं। इसी प्रकार सभ्यवत्व प्रकृति, सम्यग्मिथ्यात्व अप्रत्याख्याना वरणादि द्वादश कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा के विषय में इसी प्रकार जानना चाहिये ।
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अनंतानुबंधी का जघन्य श्रग्रस्थिति प्राप्त कर्मप्रदेशात्र सर्व स्तोक है | जघन्य यथानिषेक स्थिति प्राप्त कर्मप्रदेशाग्र उससे अनंतगुणित हैं । [ जघन्य ] निषेक स्थिति प्राप्त कर्मप्रदेशाय विशेषाधिक हैं । जघन्य उदयस्थिति प्राप्त प्रदेशाय प्रसंख्यातगुणे हैं । इसी प्रकार श्रल्पबहुत्व, त्रीवेद, नपुंसकवेद, अरति और शोक के विषय में जानना चाहिये, 'एवमित्थि वेद-वं सयवेद-अर दिसोगाणं ।'
इस प्रकार 'पीय मोहणिज्जा' मूल गाथा का संक्षिप्त कथन समाप्त हुआ ।
बंधक अनुयोगद्वार
कदि पयडीयो बंदि द्विदि रणुभागे जहण्णमुक्कस्सं । संकामे कदि वा गुणहीणं वा गुणविसि
॥२३॥
कितनी प्रकृतियों को बांधता है ? कितनी स्थिति अनुभाग को बांधता है? कितने जघन्य और उत्कृष्ट परिणाम सहित कर्म प्रदेशों को बांधता है ? कितनी प्रकृतियों का संक्रमण करता है ? कितनी स्थिति और अनुभाग का संक्रमण करता है ? कितने गुणहीन और गुणविशिष्ट प्रदेशों का संक्रमण करता है ?
विशेष – यतिवृषभ श्राचार्य कहते हैं 'एदीए गाहाए बंधो च संकमो च सूचिदो होइ' - इस गाथा के द्वारा बंध और संक्रम सूचित किए गये हैं।
'कद पडी बंबई' पद से प्रकृतिबंध, 'द्विदि प्रणुभागे पद द्वारा स्थितिबंध तथा श्रनुभाग बंध, 'जहणमुक्कर्स' पद से प्रदेश
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kireit
तयार और मेरा हो
( ४३ ) At Hit बंध, 'संकामेइ कदि वा' के द्वारा प्रकृति संक्रमण, स्थिति संक्रम तथा अनुभाग संक्रम, 'गुणहीणं वा गुणविसिट्ठ' के प्रदेश संक्रम सूचित किए गए हैं।
मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज 'सो पुण पयडि-द्विदि-अणुमाग-पदेसबंधों बहुसो परुविदो'यह प्रकृति स्थिति, अनुभाग तथा प्रदेशबंध बहुत बार प्ररुपण किया गया है।
___ इन बंधों का महाबंध के अनुसार बीरसेनस्वामी ने जयधवला टीका में विवेचन किया है। वे कहते हैं "महाबंधानुसारेण एस्थ पयडि-ट्ठिदि-अणुभाग-पदेसबंधेसु विहासिय समत्त सु तदो बंधो समत्तो होई' (९५७)
संक्रम अनुयोगद्वार एक कर्म प्रकृति के प्रदेशों को अन्य प्रकृति रुप परिणमन कराने को संक्रमण कहा गया है। 'संकमस्स पंचविहो उबक्कमो, प्राणुपुची, णाम, पमाणं, वत्तव्वदा, प्रत्थाहियारो चेदि'--संक्रम का उपक्रम पंचविध है । आनुपूर्वी, नाम, प्रमाण, वक्तव्यता तथा अधिकार उनके नाम है।
नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव को अपेक्षा संक्रमण का छह प्रकार निक्षेप हुआ है।
नयों की अपेक्षा प्रकाश डालते हुए चूर्णिकार कहते हैं :णेगमो सब्वे संकमे इच्छइ । संगह-ववहारा काल संकममवर्णेति उजुसुदो एदं च टवणं च अवणेइ । सहस्स णामं भावो य । नैगमनय सर्व संक्रमों को स्वीकार करता है। संग्रह और व्यवहारनय काल संक्रम को छोड़ देता है । ऋजुसूत्रनय काल एवं स्थापना संक्रम को छोड़ता है। शब्द नाम और भाव संक्रम को ही विषय करते हैं।
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मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज ( ४४ )
कर्म संक्रम (१) प्रकृति संक्रम (२) स्थिति संक्रम (३) अनुभाग संक्रम (४) तथा प्रदेश संक्रम के भेद से चार प्रकार का है ।
'पडिस्कमो दुविहो' – प्रकृति संक्रम के दो भेद हैं (१) एकैकप्रकृति-संक्रम ( २ ) प्रकृति-स्थान संक्रम ।
प्रकृति-संक्रम प्रकृत है । उसमें तीन सूत्र गाथाएं हैं । संकम उवक्कम विही पंचविहो चउव्विहोय शिक्खेवो । यविपयं पयदे च णिग्गमो होइ अट्ठविहो ॥ २४ ॥ एक्काए संकमो दुविहो संकमविही य पयडीए । संकमपडिग्गविही पडिग्गहो उत्तम - जहराणो ॥ २५॥
पयडि - पयडिट्ठाणेसु संकमो असंकमो तहा दुविहो । दुविहो पडिग्गविही दुविहो अपडिग्गहविही य ॥२६॥
योग्यता "Hey savio संक्रम की उपक्रम विधि पांच प्रकार है । निक्षेप चार प्रकार है । नयविधि प्रकृत है । प्रकृत में निर्गम आठ प्रकार है ||२४|| "दूर असण
प्रकृति संक्रम दो प्रकार है- एकैकप्रकृति संक्रम तथा प्रकृतिस्थानसंक्रम ये दो भेद हैं । संक्रम में प्रतिग्रहविधि कही है। वह उत्तम श्रर्थात् उत्कृष्ट तथा जघन्य भेद युक्त है ॥२५॥
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संक्रम के दो प्रकार हैं । एक प्रकृति संक्रम, दूसरा प्रकृतिस्थान संक्रम है। असंक्रम, प्रकृति-प्रसंक्रम तथा प्रकृतिस्थान असंक्रम दो भेद युक्त है । प्रतिग्रह विधि प्रकृतिग्रह और प्रकृतिस्थान प्रतिग्रह भेद युक्त है। प्रतिग्रह विधि के प्रकृति अप्रतिग्रह और प्रकृतिस्थान श्रप्रतिग्रह दो भेद हैं ॥ २६ ॥
विशेषार्थ - संक्रम को उपक्रमविधि के प्रानुपूर्वी, नाम, प्रमाण, वक्तव्यता और अधिकार ये पांच भेद हैं। निक्षेप के द्रव्य, क्षेत्र,
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मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधासागर जी महाराज
काल और भाव ये चार प्रकार हैं । यहां नाम और स्थापना निक्षेप का ग्रहण नहीं हुआ है-"चविहो य णिक्खेको ति णाम-टुवणवज्जं दब्वं खेत कालो भावो च" (९६२)
निर्गम निकलने को कहते हैं। उसके पाठ भेद कहे गए हैं। प्रकृति संक्रम, प्रकृति असंक्रम,प्रकृति स्थानसंक्रम, प्रकृति स्थानप्रसंक्रम, प्रकृति प्रतिग्रह, प्रकृति अप्रतिग्रह. प्रकृतिस्थान-प्रतिग्रह, प्रकृतिस्थान अप्रतिग्रह ये आठ निगम के भेद हैं ।
मिथ्यात्व प्रकृति का सम्यग्मिथ्यात्व अथवा सम्यक्त्व प्रकृति रुप से परिवर्तित होना प्रकृतिसंक्रम है।
मिथ्यात्व का अन्य रुप में संक्रम नहीं होना प्रकृतिप्रसंक्रम है । मोहनीय की अट्ठावीस प्रकृतियों की सत्तावाले मिथ्यादृष्टि में सत्ताईस प्रकति रुप स्थान परिवर्तन को प्रकृतिस्थानसंक्रम कहते हैं। मोहनीय की अट्ठावीस प्रकृतियों की सत्तावाले मिथ्याष्टि का उसी रुप में रहना प्रकृतिस्थान-असंक्रम है।
मिथ्यात्व का मिथ्यादृष्टि में पाया जाना प्रकृति प्रतिग्रह है। दर्शन मोहनीय का चरित्र मोहनीय में अथवा चरित्र मोहनीय का दर्शनमोहनीय के रुप में संक्रमण नहीं होना प्रकृति अप्रतिग्रह है। मिथ्यादृष्टि में बाईस प्रकृतियों के समुदाय रुप स्थान के पाए जाने को प्रकृतिस्थान प्रतिग्रह कहा है।
मिथ्यादृष्टि में सोलह प्रकृति रुप स्थान के नहीं पाए जाने को प्रकृतिस्थान अप्रतिग्रह कहते हैं।' (९६३) . एकैकप्रकृतिसंक्रम के चतुर्विशति अनुयोगद्वार हैं । (१) समुत्कीर्तना (२) सर्वसंक्रम (३) नोसर्वसंक्रम (४) उत्कृष्टसंक्रम (५) अनुत्कष्ट संक्रम (६) जघन्य संक्रम (७) अजघन्य संक्रम () सादि संक्रम. (९) ननादि संक्रम (१०) ध्रुव संक्रम (११) अध्रुव
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संक्रम (१२) एक जीवको अपेक्षा स्वामित्व (१३) काल (१४) अन्तर (१५) नाना जीवों की अपेक्षा भंगविचय (१६) भागाभाग (१७) परिमाण (१८) क्षेत्र (१९) स्पर्शन (२०) काल (२१) अन्तर (२२) सन्निकर्ष (२३) भाव (२४) अल्पबहुत्व ।
मिथ्यात्व प्रकृति का संक्रमण करने वाला सम्यग्दृष्टि है। संक्रमण के योग्य मिथ्यात्व की सत्तावाले सभी वेदक सम्यक्त्वी मिथ्यात्व का संक्रमण करते हैं। प्रासादना निरासान सभी उपशम सम्यक्त्वो मिथ्यात्व का संक्रमण करते हैं ।
सम्यक्त्व प्रकृति का संक्रमण उसको सत्तायुक्त मिथ्याष्टि जीव कारचायत्री हिविवशष है कि जिसके एक प्रावलीकालप्रमाण हो सम्यक्त्वप्रकृति को सत्ता शेष रही हो, वह मिथ्यात्वी इस प्रकृति का संक्रमण नहीं करता है।।
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सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति का संक्रमण सम्यग्मिथ्यात्व की उद्वेलना करने वाला मिथ्यादृष्टि करता है।
- आसादना रहित उपशम सम्यक्त्वी भी इस प्रकृति का संक्रामक होता है ! ..
प्रथम समय में सम्यग्मिथ्यात्व की सत्तावाले जीव को छोड़कर सर्व वेदक सम्यक्त्वी भी सम्यग्मिथ्यात्व के संक्रामक होते है। यह भी स्मरण योग्य है कि "दसणमोहणीयं चारित्तमोहणीए ण संकमइ । चारित्तमोहणीयं पि दसणमोहणीए ण संकमई"दर्शनमोहनीय का चरित्र मोहनीय में संक्रमण नहीं होता है । चारित्रमोहनीय भी दर्शनमोहनीय में संक्रम नहीं होता है। 'एवं सब्यायो चारित्तमोहणीय-पयडीमो'- यह बात सभी चारित्र मोह की प्रकृतियों में है। 'तानो पणुवीसं पि चरितमोहणीयपयडीयो अण्णदरस्स संकमंति"-वे पच्चीस चारित्र मोह की प्रकृतियां किसी भी एक प्रकृति में संक्रमण करती हैं। (पृष्ठ ९६७-६८)
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खामगांव जि. बुलडाणा
( ४७ )
मिथ्यात्व का संक्रमणकाल जघन्य से अंतर्मुहूर्त है, उत्कृष्ट से साधिक छ्यासठ सागर है ।
सम्यक्त्वप्रकृतिका संक्रमणकाल जघन्य से अंतर्मुहूर्त है तथा उत्कृष्टसे पल्योपमके असंख्यातर्वे भाग प्रमाण है । सम्यग्मिथ्यात्व के संक्रमणका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है, उत्कृष्टकाल "बे छावट्टिसागको बह्माणि. सादिया बाकि दिगोपन है ।
चारित्र मोहनीय की पंचविशति प्रकृतियों का संक्रमण काल श्रनादि - अनंत, श्रनादि-सांत तथा सादि- सान्त कहा है। सादि सान्त काल की अपेक्षा उक्त प्रकृतियों का संक्रमण काल जघन्यसे अन्तमुहूर्त है, उत्कृष्टसे 'उबड्ढपोग्गलपरियट्ट ' – उपार्थपुदगल परिवर्तन है ।
मिथ्यात्व त्रिक के संक्रमण का जघन्य विरहकाल अन्तर्मुहूर्त तथा उत्कृष्ट उपार्धंपुद्गलपरिवर्तन है । सम्यग्मिथ्यात्व के संक्रमण का जघन्य अन्तरकाल एक समय है ।
अनंतानुबंधी के संक्रमणका जघन्यतरकाल अंतर्मुहूर्त और उत्कृष्ट साधिक द्विछयासठसागर है ।
चारित्र मोहनीय की शेष इक्कीस प्रकृतियों का संक्रमण संबंधी जघन्य अन्तरकाल एक समय है, उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। गतियों की अपेक्षा संक्रमण पर प्रकाश डालते हुए चूर्णिकार कहते हैं ।
नरकगति में सम्यक्त्व प्रकृति के संक्रामक सर्व स्तोक अर्थात् सबसे अल्प हैं । मिथ्यात्व के संक्रामक उससे असंख्यात गुणे हैं । उससे सम्यग्मिथ्यात्व के संक्रामक विशेषाधिक हैं । अनंतानुबंधी के संक्रामक उससे प्रसंख्यातगुणे हैं। शेष मोह के संक्रामक परस्पर तुल्य और विशेषाधिक हैं ।
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मार्गदा
देवगति में नरक गति के समान वर्णन है :
तिर्यंचों में सम्यक्त्वप्रकृति के संक्रामक सबसे अल्प हैं। मिथ्यात्व के संक्रामक असंख्यात गुणे हैं। सम्यक्त्वमिथ्यात्व के संक्रामक इससे विशेषाधिक हैं। अनंतानुबंधी के संक्रामक इससे अनुतगुणित है ओमायोसाने अंहार परस्पर में तुल्य तथा विशेषाधिक हैं।
मनुष्यगति में मिथ्याल्व के संक्रामक सर्व स्तोक हैं। सम्यक्त्व के संक्रामक उससे असंख्यातगुणे हैं । सम्यग्मिथ्यात्व के संक्रामक उससे विशेषाधिक हैं । अनंतानुबंधी के संक्रामक उससे असंख्यात गुणे हैं। शेष कर्मों का अल्पवहुत्व मोघ के समान है।
एकेन्द्रियों में सम्यक्त्वप्रकृति के संक्रामक सर्व स्तोक हैं। सम्यग्मिथ्यात्व के संक्रामक विशेषाधिक हैं 1 शेष कर्मों के संक्रामक परस्पर तुल्य तथा अनंतगुणित हैं ।
अन प्रकृतिस्थान संक्रम के निरुपण हेतु सूत्र कहते हैं :अट्ठावीस चउबीस सत्तरस सोलसेव परणरसा। एदे खलु मोत्तूणं सेसाणं संकमो होइ ॥ २७ ।।
मोहनीय के अट्ठाईस स्थान हैं। उनमें अट्ठाईस, चौवीस, सत्रह, सोलह तथा पन्द्रह प्रकृतिरुप स्थानों को छोड़कर शेष तेईस स्थानों में संक्रमण होता है।
विशेष--संक्रमण के स्थान २७, २६, २५, २३, २२, २१, २०, १९, १८, १४, १३, १२, ११, १०, ९, ८, ७, ६, ५, ४, ३, २ तथा १ ये तेईस कहे गए हैं।
सोलसग बारसग वीसं वीस तिगादिगधिया य । एदे खलु मोत्तूणं सेसाणि पडिग्गहा होति ॥ २८ ॥
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सोलह, बारह, पाठ, बीस तथा तीन, चार, पांच, छह, सात तथा आठ अधिक बीस अर्थात् तेईस, चौबीस, पच्चीस, छब्बीस, सत्ताईस तथा अट्ठाईस प्रकृतिरुप स्थानों को छोड़कर शेप अठारह प्रतिग्रहस्थान होते हैं।
विशेष–२२, २१, १९, १६, १७, १५, १४, १३,११,१०, ९, ७, ६, ५, ४, ३, २ प्रौर १ ये अठारह प्रतिग्रहस्थान हैं।
जिस आधार रुप प्रकृति में अन्य प्रकृति के परमाणुनों का संक्रमण होता है, उसे प्रतिग्रह प्रकृति कहते हैं ।
मोहनोय के निशान ति सानो झा, सुविधासतिजास्थक्षातोंजमें संक्रमण होता है, वे प्रतिग्रह स्थान कहे जाते हैं।
जिन प्रकृतियों में संक्रमण नहीं होता, वे अप्रतिग्रहस्थान हैं । यहां दस अप्रतिग्रह स्थान कहे गए हैं । छब्बीस सत्तवीसा य संकमो णियम चदुसु द्वाणेसु । वावीस पण्णरसगे एक्कारस ऊरणवीसाए ॥२६॥
बाईस, पंद्रह, एकादश और उन्नीस प्रकृतिक चार प्रतिग्रह स्थानों में ही छब्बीस और सताईस प्रकृतिक स्थानों का नियमसे संक्रम होता है। सत्तारसेगवीसासु संकमो शियम पंचवीसाए । गियमा चदुसु गदीसु य णियमा दिट्ठीगए तिविहे ॥३०॥ ___ सत्रह तथा इक्कीस प्रकृतिक स्थानों में पच्चीस प्रकृतिक स्थान का नियम से संक्रम होता है । . यह पच्चीस प्रकृतिक संक्रमस्थान नियम से चारों गतियों में होता है । दृष्टिगत तीन गुणस्थानों में अर्थात् मिथ्यादृष्टि, सासादन सभ्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानों में ही यह पच्चीस प्रकृतिक संक्रम स्थान नियम से पाया जाता है।
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( ५० }
बावीस परारसगे सत्तग एगारसुरावीसाए । तेवीस संकमो पुरा पंचसु पंचिदिए
हवे ॥३१॥
तेईस प्रकृतिक स्थान का संक्रम बाईस, पंद्रह सत्रह, ग्यारह तथा उन्नीस प्रकृतिक पंच स्थानों में होता है । यह स्थान संज्ञी पंचेन्द्रियों में ही होता है ।
चोइसग दसग सत्तग अहारसगेच शियम वावीसा । |ियमा भरगुसगईए विरदे मिस्से अविरदे य ॥ ३२ ॥
बाईस प्रकृतिक स्थान का संक्रम नियम से चौदह, दस, सात और अठारह प्रकृतिक स्थानों मनुष्य गति में ही विरत, देशविरत तथा अविरत सम्यक्त्वो गुणस्थानों में होता है । २
मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराजू
तेरसय गवय सत्तय सत्तारस पाय एककवीसाए । एमाधिए वीसाए संकमो छप्पि सम्मत्ते ॥ ३३ ॥
एकाधिकate प्रकृतिक स्थान का संक्रम तेरह, नौ, सात, सत्रह पांच तथा इक्कीस प्रकृतिक छह स्थानों में सम्यक्त्वयुक्त गुणस्थानों में होता है ।
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एतो अवसेसा संजमम्हि उवसामगे च खवगे च । वीसाय संक्रम- दुगे छक्के पणगे व बोद्धव्वा ॥३४॥
पूर्वोक्त स्थानों से शेष बचे संक्रम और प्रतिग्रह स्थान उपशमक और क्षपक संयतके ही होते हैं ।
१ पंचिदिएस चेव तेवीससंकमो णाणत्थे त्ति घेतव्वं । तत्थवि सणी पंचिदिए चैव णासणीसु ( १००० )
२ पियमा मणुसईए । कुदो एस नियमो ? सेसगईसु दंसणमोहक्खणाए श्रणुपुव्विसंकमस्य वा असंभवादो ।
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मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज
बोस प्रकृतिक स्थान का सक्रम छह तथा पांच प्रकृतिक दो प्रतिग्रह स्थानों में जानना चाहिये। पंचसु च ऊणवीसा अट्ठारस चदुसु होति बोद्धव्या । चोइस छसु पयडीसु य तेरलयं छक्क परणगम्हि ॥३५॥
उन्नीस प्रकृतिक स्थान का संक्रम पांच प्रकृनिक स्थान में होता है । अट्ठारह प्रकृतिक स्थान का संक्रम चार प्रकृतिक स्थान में होता है । चौदह प्रकृतिक स्थान का संक्रम छह प्रकृति वालों में होता है । त्रयोदश प्रकृतिक स्थान का संक्रम छह
और पांच प्रकृतिक प्रतिग्रह स्थानों में जानना चाहिये । पंच चउक्के बारस एक्कारस पंचगे तिग चउक्के । दसगं चउक्क-पणगे रावगं च तिगम्मि बोदव्या ॥३६॥
बारह प्रकृतिक स्थान का संक्रम पांच और चार प्रकृतिक प्रति ग्रह स्थानों में होता है । एकादश प्रकृतिक स्थान का सक्रम पांच, तीन, चार प्रकृतिक प्रतिग्रह स्थानों में होता है । दश प्रकतिक स्थान का चार और पांच प्रकृतिक प्रतिग्रह स्थानों में होता है। नव प्रकृतिक स्थान का संक्रम तीन प्रकृतिक प्रतिग्रह स्थान में जानना चाहिए ।
... ...
1 ला अट्ट दुग तिग चदक्के सत्त चउक्के तिगे च बोध्या जि. बुलडाणा छक्कं दुगम्हि णियमा पंच तिगे एक्कग दुगे वा ॥३७॥ - आठ प्रकृतिक स्थान का संक्रम दो, तीन तथा चार प्रकृतिक प्रतिग्रह स्थानों में होता है। साप्त प्रकृतिक स्थान का संक्रम चार और तीन प्रकृतिक प्रतिग्रह स्थानों में जानना चाहिये। छह प्रकृतिक स्थान का संक्रम नियम से दो प्रकृतिक स्थान में तथा पांच प्रकृतिक स्थान का संक्रम तीन, एक तथा दो प्रकतिक प्रतिग्रहे स्थान में होता है।
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( ५२ )
चारितिगचदुक्के तिणि तिगे एक्कगेच बोद्धव्वा । दो दुसु एगाए वा एगा एगाए बोद्धव्वा ॥ ३८ ॥
चार प्रकृतिक स्थान का संक्रम तीन और चार प्रकृतिक दो प्रतिग्रह स्थानों में होता है । तीन प्रकृतिक स्थान का संक्रम तीन और एक प्रकृतिक प्रतिग्रह स्थानों में होता हैं । दो प्रकृतिक स्थान का संक्रम दो तथा एक प्रकृतिक प्रतिग्रह स्थानों में होता है। एक प्रकृतिक स्थान का संक्रम एक प्रकृतिक प्रतिग्रह स्थान में होता है ।
संक्रम स्थानों केमार्गाचा कहते है:--
अणुपुव्वमणपुण्वं भीमभीणं च दस मोहे | सामगे च वगे च संकमे मग्गणोवाया ॥ ३६ ॥
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प्रकृति स्थान संक्रम में अनुपूर्वी, अनानुपूर्वी, दर्शनमोह के क्षय निमित्त तथा प्रक्षय निमित्तक संक्रम, चारित्र मोह के उपशामना तथा क्षपणानिमित्तक संक्रम ये छह संक्रम स्थानों के अनुमार्गेण के उपाय हैं।
अब प्रदेश की अपेक्षा प्रश्नात्मक दो सूत्र गाथायें गुणधर प्राचार्य कहते हैं:
-
एक कहि य हाणे पडिग्गहे संकमे तदुभए च । भविया वाऽभविया वा जीवा वा केसु ठाणेसु ॥ ४० ॥
कदि कम्हि होंति ठाणा पंचविहे भावविधि विसेस हि । संकमपडिग्गहो वा समायाता वाऽध केवचिरं ॥ ४१ ॥
में
एक एक प्रतिग्रह स्थान, संक्रमस्थान तथा तदुभयस्थान गति आदि मार्गणा स्थान युक्त जीवों का भार्गण करने पर भव्य
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मार्गदर्शक
( ५३ )
और अभव्य जीव कितने स्थान पर होते हैं तथा गति आदि शेष मार्गेणा युक्त जीव किन किन स्थानों पर होते हैं ? श्रदयिक प्रादि पंचविध भावों से विशिष्ट जीवों के किस गुणस्थान में कितने संक्रम :- आचार्यथान तथा प्रतिग्रहस्थान होते हैं ? किस संक्रम तथा प्रतिग्रहस्थान की समाप्ति कितने काल में होती है ?
इन प्रश्नों के समाधान हेतु पहले गति मार्गेणा के विषय में प्रतिपादन करते हैं :
:
णिरयगइ अमर पंचिंदियेसु पंचैव संकमद्वाणा । सव्वे मगुसगईए सेसेसु तिगं असण्णी ॥४२॥
-
"
नरकगति, देवगति, संज्ञी पंचेन्द्रियतिर्यंचों में सत्ताईस छवोस, पच्चीस, तेईस और इक्कीस प्रकृतिक पांच ही संक्रम स्थान होते हैं । मनुष्यगति में सर्व ही संक्रम स्थान होते हैं । शेष एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय तथा असंज्ञी जीवों में सत्ताईस, छब्बीस घोर पच्चीस प्रकृतिक तीन ही संक्रम स्थान होते हैं ।
विशेष -- सव्वे मणुसगईए- मणुस गईए सव्वाणि वि संकमट्टाणणि संभवंति उत्त होइ, सब्बेसिमेव तत्थ संभवे विरोहाभावादो ( १००५ ) - 'सब्बे मणुस गईए' - इसका अर्थ यह है कि मनुष्यगति में संपूर्ण संक्रम स्थान संभव है क्योंकि वहां संपूर्ण संक्रमों के पाए जाने में विरोध नहीं आता है ।
'सेसे सुतिंगं' – सेसग्ग्रहणेण एइंदिय-विगलिदियाणं ग्रहणं
'कायव्वं' – 'सेसेसुतिगं' यहां शेष ग्रहण का अभिप्राय एकेन्द्रिय तथा विकलेन्द्रियों का ग्रहण करना चाहिए ।
प्रश्न- यहां पंचेन्द्रिय का चतुर्गति-साधारण अर्थं न करके . तिच पंचेन्द्रिय को ही क्यों ग्रहण किया है ?
कथमेत्य पंचिदियग्गहणेण च उगइसाहारणेण तिरिक्खाणमेव पडिवत्ती ? ण पारिसेसियणायेण तत्येव सप्पउत्तीए विरोहाभावादो ( १००५ )
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( ५४ ) समाधान-ऐसा नहीं हैं। पारिशष्यन्याय से उसकी वहां ही प्रवृत्ति मानने में विरोध का प्रभावहै शुविद्यासागर जी महाराज सम्यक्त्व और संयम मार्गणामें संक्रमस्थान--
चदुर दुगतेबीसा मिच्छत्त मिस्सगे य सम्मत्ते । वावीस पणय छक्कं विरदे मिस्से अविरदे य ॥ ४३ ॥
मिथ्यात्व गुणस्थानमें सत्ताईस, छब्बीस, पच्चीस तथा तेईस प्रकृतिवाले चार संक्रम स्थान होते हैं । मिश्र गुणस्थानमें पच्चीस और इक्कीस प्रकृतिक दो संक्रम स्थान होते हैं । सम्यक्त्वयुक्त गुणस्थानों तेईस संक्रमस्थान होते हैं।
संयमयुक्त प्रमत्तादि गुणस्थानों में बाईस संक्रमस्थान होते हैं । मिश्र अर्थात् संयमासंयम गुणस्थान में सत्ताईस, छथ्वीस, तेईस बाईस और इक्कीस प्रकृतिक पांचसंक्रम स्थान होते हैं । अविरत गुणस्थानमें सत्ताईस, छब्बीस, पच्चीस, तेईस, बाईस और इक्कीस प्रकृतिक छह संक्रम स्थान होते हैं ।
विशेष-गाथा में आगत---‘मिस्सगे' शब्द द्वारा पांचवे विरताविरत गुणस्थान को ग्रहण किया गया है-"मिस्सग्गणमेत्थ संजमासंजमस्स संगहट्ट ( १००६ )।
'सम्मत्त' शब्द द्वारा सम्यक्त्वोपलक्षित गुणस्थान का ग्रहण किया गया है। यहां संपूर्ण संक्रमस्थान संभव हैं। "सम्मत्तोवलक्खियगुणट्ठाणे सबसंकमट्टाणसंभवो सुगमो ।" ।
शंका- यहां पच्चीस संक्रमस्थान कैसे संभव होंगे ?
१ कयस्थ पणुवीससंक्रमट्ठसंभवो ति णासंकणिज्ज अट्ठावीस.. संतकम्मियोवसम-सम्माइट्ठिपच्छापद सम्माइट्ठिम्मि तदुवलभादो (१००५)
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( ५५ )
समाधान - ऐसी आशंका नहीं करना चाहिए । अट्ठाईस प्रकृतियों की सत्तावाले तथा उपशमसम्यक्त्व से गिरे हुए सासादन सम्यक्त्वी में वह पाया जाता है ।
मिथ्यादृष्टि के २७, २६, २५ तथा २३ प्रकृतिक चार संक्रम स्थान कहे गए हैं । सासादन सम्यवत्वी के २५ तथा २१ दो स्थान हैं; सम्यग्मिथ्यादृष्टि के २५, २१ प्रकृतिक दो स्थान हैं । सम्यग्दृष्टि के सर्व स्थान हैं ।
संयम मार्गणा की दृष्टि से सामायिक तथा छेदोपस्थापना संगत के २५ प्रकृतिक स्थान को छोड़कर शेष बाईस स्थान होते हैं ।
मार्गदर्शक
आचार्य श्री सुविधिसागर जी महारा परिहार विशुद्धिसंयमी के २७, २३, २२, २१ प्रकृतिक स्थान हैं । सूक्ष्मसांपराय तथा यथाख्यात संयमी के चौबीस प्रकृतियों की सत्ता की अपेक्षा दो प्रकृतिक स्थान होता है ।
लेश्या मार्गणा :
तेवीस सुक्कलेस्से छक्कं पुण पायं पुख काऊए खीलाए
-
तेउ-पम्म लेस्सासु । किण्हलेस्साए ॥ ४४ ॥
शुक्ललेश्या में तेईस स्थान हैं। तेजोलेश्या, पद्मलेश्या में छह स्थान हैं ( २७, २६, २५, २३, २२ और २१ ) । कापोल, नील और कृष्णलेश्या में पांच स्थान (२७, २६, २५, २३, २१ ) कहे गए हैं।
वेद मार्गणा :
अवयवेद - एवं सुय - इत्थी पुरिसेसु चाणुपुवीए । अट्ठारसयं वयं एक्कारसयं च तेरसया ॥ ४५ ॥
अपगतवेदी, नपुंसक वेदो, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी में आनुपूर्वी से श्रर्थात् क्रमशः श्रठारह, नौ, एकादश तथा त्रयोदश स्थान होते हैं ।
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( ५६ )
विशेष – अपगतवेदी अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में २७, २६, २५, २३ र २२ इन पांच स्थानों को छोड़कर शेष प्रष्टादश स्थान कहे हैं। नपुंसकवेदी के सत्ताईस, छबीस, पच्चीस, तेईस, बाईस, इक्कीस, बींस, सोमोर द्वाद्वाथ होते हैं । स्रीवेदी के नपुंसकवेदी से उन्नीस और एकादश प्रकृतिक दो संक्रम स्थान अधिक होने से उनकी संख्या एकादश कही है । स्त्रीवेदी के एकादश स्थानों के सिवाय अष्टादश और दश प्रकृतिक दो और स्थान पुरुषवेदी के होने से वहां त्रयोदश स्थान कहे हैं । कषाय मार्गणा
:
कोहादी उबजोगे चदुसु कसाए सु चाणुपुवीए । सोलस य ऊणवीसा तेवीसा चेव तेवीसा ॥ ४६ ॥
क्रोध, मान, माया तथा लोभ रूप चार कषायों में उपयुक्त जीवों के क्रमशः सालह, उन्नीस, तेईस, तेईस स्थान होते हैं ।
कोकषाय में सत्ताईस, छवीस, पच्चीस, तेईस, बाईस, इक्कीस, बोस, उन्नीस, अठारह, चौदह, त्रयोदश, द्वादश, एकादश, दस, चार और तीन ये सोलह संक्रम स्थान हैं ।
I
मानकषायी में पूर्वोक्त सोलह स्थानों के सिवाय नव, आठ तथा दो इन तीन स्थानों को जोड़ने से उशीस स्थान कहे गए हैं। माया तथा लोभकषायी जीवों में प्रत्येक के तेबीस, तेवीस स्थान कहे हैं ।
कषायी के दो प्रकृतिक स्थान होता है । इसका कारण यह है कि चौबीस प्रकृतियों की सत्ता वाले उपशामक जीव के दो प्रकृतिक स्थान पाया जाता है । १
महाराज
१ एत्थ अकसाईसु संकमणद्वाणमेक्कं चेव लब्भदे | चवीससंतकम्मियोवसा मगस्स उवसंतकसायगुणद्वाणम्मि दोहं पयडी ं संकमोवलंभादो (१००८ )
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I
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ज्ञानमार्गणा वाणम्हि य तेवीसातिविहे ऐक्कम्हिी एकवीसा य महाराज अण्णाणम्हि य तिविहे पंचेव य संकमट्ठाणा ॥४७॥
मति, श्रुत तथा अवधिज्ञानों में तेईस संक्रमस्थान होते हैं । एक अर्थात् मनःपर्ययज्ञान में पच्चीस और छब्ब'स प्रकृतिक स्थानों को छोड़कर शेष इक्कीस संक्रम स्थान होते हैं । कुमति, कुश्रुत और विभंग इन तीनों अज्ञानों में सत्ताईस, छब्बीस, पच्चीस, तेईस और इक्कीस प्रकृतिक पांच स्थान हैं।
विशेष--यहां 'णाणम्हि' पद में मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अबधिज्ञान के साथ मिश्रज्ञान का भी ग्रहण हुआ है।
शंका—सम्यग्ज्ञानों में मिश्रज्ञान का अंतर्भाव किस प्रकार संभव है ?
समाधान – ऐमा नहीं है । शुद्धनय की अपेक्षा सम्य ज्ञानों में मिथ ज्ञान के अंतर्भाव में विरोध का अभाव है । "कधमिस्सणाणस्स सगणापतब्भावो ? णो सुद्धणयाभिप्पारण तस्स तदंतम्भावविरोहाभाबादो" ( १००८ ।
'एक्काम्हि पद द्वारा मनःपर्ययज्ञान का ग्रहण किया गया है
मनःपर्ययज्ञान में पच्चीस और छब्बीस प्रकृतिक संक्रमस्थान असंभव है। "एक्काम्म एक्कवीमाय"-"एक्कम्मि मणपज्जवणाणे एक्कबोरा-संखावच्छिण्णाणि संकमट्ठाणाणि होति, तत्थ पणुवीस छन्बोसाणममंभवादो”
१ इस गाथा के द्वारा चक्षु, अबक्षु तथा अवधिदर्शन वाले जोबों की प्ररूपणा की गई है। उनका पृथक प्रतिपादन नहीं किया गया है। उनमें प्रोध प्ररूपणा से भिन्नता का अभाव है।
१ एत्थ चक्खु-अचक्खु-ओहिदंसणीसु पुधपरुवणा ण कया तेसिमोधपरुवणादो भेदाभावादो (१००८)
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( ५८ ) २ यहां मति, श्रुत तथा अवधिज्ञान का त्रिविधज्ञान रूप में ग्रहण हुआ है। यहां तेईस संक्रम स्थान कहे गए हैं।
शंका-यहां तेईस संक्रम स्थान असंभव हैं। यहां पच्चीस प्रकृतिक संक्रमादिशक कैसे धीच ओगसुविद्यासागर जी महाराज
ममाधान --सम्पग्मिथ्या ष्टि में पच्चीस प्रकृतिक स्थान संभव है। भव्य तथा प्राहार मार्गणा
आहारय-भविएसु य तेवीसं होति संकमट्ठाणा । अणाहारपसु पंच य एक्कं ठाणं अभवियेस्तु ॥४८॥
प्राहारकों तथा भव्यजीवों में तेईम संक्रमस्थान होते हैं। अनाहारकों में सत्ताईस, छब्बीस, पच्चीस, तेईस और इक्कीस प्रकृतिक पंच संक्रम स्थान होते हैं । __ अभव्यों में एक पच्चीस प्रकृतिक ही स्थान होता है। अपगत वेदीछव्वीस सत्तावीसा तेवीसा पंचवीस वावीसा। एदे सुण्णट्ठाणा अवगवेदस्स जीवस्स ॥४६॥
अपगतबेदी जीव के छब्बीस, सत्ताईस, तेईस, पच्चीस, बाईस प्रकृतिक संक्रमस्थान शून्य स्थान हैं । ३
२ एत्थ तिविहणाणग्गहेण मदिसुदरोहिणाणाणं संगहो कायन्यो। तेबोससंकमट्ठाणाहाराणमसंभवादो । कथमेत्थ पणुवीससंकमट्ठाणसंभवो त्ति णा संकियव्वं ? सम्मामिच्छाइट्ठिम्मि तदुवलंभसंभवादो ___३ पंचसंमट्ठाणाणि अवगववेदविसए ण संभवति तदो एदाणि तत्थ सुग्णट्ठाणाणि त्ति घेत्तव्वाणि (१००९)
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मार्गकि ) आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज
नपुंसकवेदी—
उगुवीस अहारसयं चोइस एक्कारसादिया सेसा । पढ़े सुट्टामा सए चोइसा होंति ॥५०॥
"
नपुंसक वेदियों में उन्नीस प्रकारह, चौदह तथा ग्यारह को यादि लेकर शेष स्थान ( दश, नौ, आठ, सात, छह, पांच, चार, तीन, दो और एक ) मिलकर चौदह शून्य हैं |
स्त्रीवेदी
अट्ठारस चोस द्वाणा सेसा य दसगयादीया | एदे सुकाणा बारस इत्थीसु बोद्धव्वा ॥ ५१ ॥
स्त्री वेदियों में ग्रठारह चौदह प्रकृतिक स्थान तथा दश को लेकर एक पर्यन्त दश स्थान मिलकर द्वादश शून्य स्थान जानना चाहिए ।
पुरुपवेदी -
चोट्सग - एत्रगमादी हवंति उवसामगे च खवगे च । एदे सुरापटाखा दस विय पुरिसेसु बोद्धव्या ॥५२॥
पुरुषवेदी जीवों में, उपशामक तथा क्षपक में चौदह प्रकृतिक स्थान तथा नौ से एक पर्यन्त नौ स्थान कुल मिलकर दस स्थान शून्य स्थान हैं ।
क्रोधादिकषायी
रराव अटठ सत्त छक्क पराग दुगं एक्कयं च बोद्धव्वा । सुगाट ठाणा पढम - कसायोवजुते ॥५३॥
पदे
प्रथम कषाय से उपयुक्त जीवों के अर्थात् क्रोधियों के नौ, आठ, सात, छह, पांच, दो और एक प्रकृतिक ये सप्त शून्य स्थान हैं ।
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( ६० )
सत्तय छक्कं परागं च एक्कयं चेव आणुपवीए । विदिय - कसायोवजुत्तेसु ॥५४॥
एदे सुसाट ठाणा मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज द्वितीय अर्थात् मान कषायोपयुक्तों के सात, छह, पांच, एक प्रकृतिक शून्य स्थान हैं। इस प्रकार आनुपूर्वी से शून्य स्थान कहे गए हैं।
विशेष :- यहां मात्रा और लोभकषाय के शून्य स्थानों का कथन नहीं किया गया, क्योंकि दो कषायों में सभी संक्रम स्थान पाये जाते हैं । इस कारण उनमें शून्य स्थानों का सद्भाव है - सेदोका एस पत्थि एसो विचारो सवेसिमेव संकमद्वाणाण तत्थासुणावणादो" ( १००९ )
दिट्ठ सुखासु वेदकसाए सु देव द्वासु । मग्गा - गवेसणाए दु संकमो श्राणपुच्चीए ॥ ५५ ॥
इस प्रकार वेद तथा कषाय मार्गणाओं में शून्य तथा शून्य संक्रम स्थानों के दृष्टिगोचर होने पर शेष मार्गणाओं में भी आनुपूर्वी से मार्गणाओं की गवेषणा करना चाहिए ।
कम्मं सियट्ठाणेसु य बंधट्टासु संकमद्वाणे । एक्केकेण समाय बंधेण य संकमहारणे ॥ ५६ ॥
कर्माशिक स्थानों में ( मोहनीय के सत्व स्थानों में ) तथा बंध स्थानों में संक्रम स्थानों की प्रन्वेषणा करनी चाहिये । एक एक बंध स्थान और सत्वस्थान के साथ संयुक्त संक्रम स्थानों के एक संयोगी तथा द्विसंयोगी भंगों को निकालना चाहिये ।
विशेष :- "कम्मंसियट्ठाणाणि नाम संतकम्मट्टाणाणि " (१०१०) कर्माशिक स्थानों को सत्कर्म स्थान कहते हैं । मोहनीय के सत्व स्थान अट्ठाईस सत्ताईस, छव्वीस, चौबीस, तेईस, बाईस, इक्कीस,
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मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज
तेरह, बारह ग्यारह, पांच, चार, तीन, दो, एक मिलाकर पंचदश सत्व-स्थान हैं। ___मोहनीय के बंध स्थान-वाईस, इक्कीस, सत्रह, तेरह, नौ, पांच चार, तीन, दो और एक मिनाकर दस बंध-स्थान हैं।
मोहनीय के पंचदश मत्व स्थानों के विषय में यह खुलासा किया गया है । दर्शन मोह की तीन प्रकृतियां, चारित्र मोह की सोलह ऋचाय और नव नोकषाय मिलाकर मोहनीय को २८ सत्व प्रकृतियां होती है।
ग़म्यक्त्व प्रकृति की उद्वलना होने पर २७ प्रकृति रुप स्थान होता है । मिश्र प्रकृति की भी उद्वलना होने पर २६ प्रकृति सा स्थान होता है । अनंतानुवंधी चतुष्क की विसंयोजना होने पर २८ - ४ = २४ प्रकृति रुप स्थान होता है। मिथ्यात्व का क्षय होने पर २४ - १ = २३ प्रकृति रुप स्थान होता है । मिश्र का क्षय होने पर २२ प्रकृति रुप स्थान, सम्यक्त्व प्रकृति का क्षय होने पर २१ प्रकृति रुप स्थान क्षायिक सम्यक्त्वी के पाया जाता है। अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानाबरण कषायाष्टक का क्षय होने से २१-८ = १३ प्रकृति रुप स्थान है । स्त्रीबेद या नपुंसकवेद का क्षय होने पर १२ प्रकृतिक रुप स्थान होता है। स्त्रीवेद या नपुंसकवेद में से शेष बचे वेद का क्षय होने पर ११ प्रकृतिक स्थान होता है । हास्यादि षट्क का क्षय होने पर ११-६ = ५ प्रकृति रुप स्थान आता है । पुरुषवेद के क्षय होने पर ४ प्रकृतिरुप स्थान आता है। संज्वलन क्रोध का क्षय होने पर तीन प्रकृतिक स्थान, संज्वलन मान का क्षय होने पर दो प्रकृतिक स्थान, संज्वलन माया का अभाव होने पर संज्वलन लोभ की सत्ता युक्त एक प्रकृतिक स्थान होता है।
सूक्ष्मसांपराय (सूक्ष्म लोभ) गुण-स्थान में सूक्ष्मलोभ पाया जाता है । यहां भी पूर्ववत् लोभ प्रकृति है । इससे इसको पृथक स्थान नहीं गिना है।
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(
६२ )
गुण स्थान सस्त्र स्थान विशेष विवरण प्रथम
तीन
२८-२५-२६ द्वितीय वृतोय
२८-२४ मार्यसुर्थीक :- आचार्य श्रीपराविधिसागर जी महारा४, २३, २२, २१ पंचम
पांच
पूर्ववन् पष्टम
पांच
पूर्ववत सप्तम
पांच
पूर्ववत् अष्टम (उपशम श्रेणी)| तीन
२८, २४, २१ अनम (क्षपक श्रेणी) नयम (पशम श्रेणी) | तीन
२८, २४, २१ नवम ( क्षपक श्रेणी) नौ दशम ( उ० श्रे०) तीन
-४-२१ दशम ( ज्ञ० अंक)पक
१ सूक्ष्मलाभ उपशांत भोझ चीन
२८-२४-२१
मोहनीय के बंध स्थान दश कहे गए हैं । उसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है। मिथ्यात्व गुणस्थान में मिथ्यात्व, १६ कषाय, एक बेद, भय-जुगुप्सा तथा हास्यरति अथवा अरतिशोक रुप युगल मिलकर २२ प्रकृतिक बंध स्थान हैं।
सासादन में मिथ्यात्व रहित २१ प्रकृति का बंध स्थान है। मिश्र गुणस्थान तथा अविरत सम्यक्त्वी २१ - ४ = अनंतानुबंधी रहित १७ प्रकृतिक बंध स्थान है । संयतासंयत के अप्रत्याख्यानावरण रहित १७-४१३ प्रकृतिक स्थान है । संयत के प्रत्याख्यानावरण रहित १३ - ४ = १ प्रकृतिक स्थान है । यही क्रम अप्रमत्त संप्रत तथा अपूर्वकरण गुणस्थानों में है। अनिवृत्तिकरण में भय-जुगुप्मा तथा हास्य रति रहित पांच प्रकृतिक स्थान है। पुरुषवेद का बंध रुकने पर वेद रहित अवस्था में संज्वलन ४ का बंध होगा । क्रोध रहित के ३ प्रकृति का, मानरहित के दो प्रकृतिका, माया रहित के केवल लोभ के बंध रुप एक प्रकृतिक
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( ६३ )
स्थान है । इस प्रकार २२,२१,१७,१३, ९, ५, ४, ३, २, १ प्रकृतिरुप दश बंध स्थान हैं ।
बंध स्थान की प्रकृतियां सत्य स्थानों
की संख्या
સમ
२२ प्रकृतिक स्थान
1"
32
२१
१७- १३ ..
५ प्रकृतिक स्थान
"
73
४
१
"
73
-E
ן,
57
"
35
विवरण
२८–२७–२६
मार्गदर्शक:- अरिवार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज
२८, २४, २३, २२, २१
पांच
छुट्ट
सास
चार
चार
चार
२८, २४, २३, २२, २१, ११ पूर्ववत् तथा ४
२८, २४, २१ तथा ३
२८, २४, २१, २
२, २४, २१. १
एक एक सत्वस्थान को आधार बनाकर बंध तथा संक्रम स्थानों का तथा संक्रम स्थान को आधार बनाकर सत्व तथा बच स्थानों के परिवर्तन द्वारा द्विसंयोगी भंगों को निकालने का कथन गाथा में किया गया है 1 सूक्ष्म तत्व के परिज्ञानार्थी को जयधवला टीका का परिशीलन करना उपयोगी रहेगा ।
प्रकृतिस्थान संक्रम
'सादि य जहासंकमकदिखुत्तो होइ साथ एक्के क्के । अविरहिद सांतरं केवचिरं कदिभाग परिमाण ॥५७॥
१ सादिजष्णगहण सादि प्रणादि-भुव श्रद्धव सव्व-पोसव उक्कस्सा प्णुक्कस्स-जहृष्णाजहण्ण--संकम-सण्णियासणमणियोगद्दाराणं संगहो कायव्यो । संकमग्गहण मे देसिमणियोगद्दाराणं पयडिट्ठाण संकम वसमत्तं सूचेदि । कदिखुत्तो एदेणप्पाबहुप्राणियोगारं सूचिदं । 'अविरहिद' गहणेण एयजीवेण कालो सांतरग्गहणेण वि एयजीवेणंतरं सूचिदं । केवचिरं ग्रहणेण दोन्हं पि विसेसणादो कदि च भागपरिमाण मिच्वेदेण भागाभागस्स संगहो कायब्धो ।
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एवं दव्वे खेत्ते काले भावे य सरिावा य । संकमणयं णयविदू णेया सुद-देसिद-मुदारं ॥५॥
प्रकृतिकस्थानसंक्रम अधिकार में प्रादि संक्रम, जघन्य संक्रम, अल्पबहुत्व, काल, अंतर, भागाभाग तथा परिमाण अनुयोगद्वार हैं । इस प्रकार नय के ज्ञाताओं को श्रुतोपदिष्ट, उदार और गंभीर संक्रमण, द्रव्य, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अंतर, भाव तथा सन्निपात ( सन्निकर्ष ) की अपेक्षा जानना चाहिये ।
विशेष-~-प्रकृतिस्थान संक्रम अधिकार में कितने अनुयोगद्वार हैं, इसका कथन किया है । 'अविरहित' पद से एक जीव की अपेक्षा काल को जानना चाहिये । 'सान्तर' पद से एक जीव की अपेक्षा अंतर, 'कतिभाग' से भागाभाग, 'एवं' पद से एक भंगविचय, 'द्रव्य पद से द्रव्यानुगम, 'क्षेत्र' पद से क्षेत्रानुगम तथा स्पर्शनानुगम, 'काल' पद से नाना जीवों की अपेक्षा कालाचामा प्राविहितामा महाराज _ 'भाव' पद से भावानुगम कहे गए हैं । प्रथम गाथा में प्रागत 'च'
शब्द के द्वारा ध्रुव, अध्रुव, सर्व, नोसर्व, उत्कृष्ट और जघन्य भेद युक्त संक्रमों को सूचित किया गया है ।
दूसरी गाथा में प्रागत 'च' शब्द के द्वारा भुजाकार, पदनिक्षेप और वृद्धि प्रादि अनुयोग द्वारों का ग्रहण हुआ है।
२ एवं दवे खेत्ते. अत्र वमित्यनेन नानाजीवसंबंधिनो भंग. विचयस्य संगहः । दब्बे इच्चेदेण सुत्तावप्रवेण दध्वपमाणाणुगमो, खेत्तरगहोण खेत्ताणुगमो, पोसणाणुगमो च । कालग्गहणेण वि कालंतराणं णाणाजीवविसयाणं सगहो गयब्बो । भावग्गणं च भावाणियोगद्दारस्स संगणफलं । एत्था हियरण णिसो तब्धिसयपरुवणाए तदाहारभावपदुप्पायणफलोत्ति दट्टब्यो । सण्णिवादग्गहणं च सण्णियासाणियोगद्दारस्स सूचणा मेत्तफलं । च सद्दो वि भुजगारपद-णिक्खेव-वड्ढीणं सप्पभेदाणं संगाहो । 'णयविद'-नयज्ञः 'णेया' नयेत्, प्रकाशयेदित्यर्थः (१०१५)
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स्थिति संक्रमाधिकार १ कर्मों की स्थिति में संक्रम अर्थात् परिवर्तन को स्थिति मार्गदर्शकंक्रम झालामा विद्यासाई जी शितिका संक्रमण अपवर्तना,
अथवा उद्वर्तना अथवा परप्रकतिरूप परिणमन से भी होता है। स्थिति को घटाना अपवर्तना है। अल्पकालीन स्थिति का उत्कर्षण करना उद्वर्तना है । संक्रमयोग्य प्रकृति की स्थिति को समानजातीय अन्य प्रकृति की स्थिति में परिवर्तित करने को संक्रमण या प्रकृत्यन्तर परिणमन कहते हैं ।
ज्ञानावरणादि मूलकों के स्थिति संक्रमण को मूल प्रकृति स्थितिसंक्रम कहते हैं। उत्तरप्रकतियों के स्थिति संक्रमण को उत्तरप्रकृति स्थिति संक्रम कहते हैं ।
मूलप्रकृतियों की स्थिति का संक्रमण केवल अपवर्तना और उद्वर्तना से ही होता है। उत्तर प्रकृतियों को स्थिति का संक्रमण अपवर्तना, उद्वर्तना तथा प्रकृत्यंतर-सक्रमण द्वारा होता है। ___ मूल प्रकृतियों का दूसरे कमरुन परिणमन नहीं होता है । मूल कर्मों के समान मोहनीय के भेद दर्शन-मोहनीय तथा चारित्र मोहनीय का परस्पर में संक्रमण नहीं होता है। प्रायुकर्म की चार प्रकृतियों में भी परस्पर संक्रमण नहीं होता है। जिस स्थिति में अपवर्तनादि तीनों न हों, उमे स्थिति-असंक्रम कहते हैं।
जा ट्ठिदी प्रोकड्डिजदिवा उकाहिज्ज दिवा अण्णपडि संका. मिज्जइ वा सो विदिसंकमो । सेसो द्विदि प्रसंकमो । एत्थ मूलपयडि. द्विदीए पुण प्रोक्कडुवकणावसेण संकमो । उत्तर पयडिट्ठिदीए पुण प्रोकड्डुक्कडडणपर-पयडिसंकती हि संक्रमोदट्ठन्वो। एदेणोकड्डणादप्रो जिस्से द्विदीए णत्थि सा द्विदी द्विदि असंक्रमो ति भण्णदे (१०४१)
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अनुभाग संक्रमाधिकार
मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी म्हाराज कमों की स्वकार्योपादन शक्ति अथवा फलदान की शक्ति को अनुभाग कहते हैं । “अपाभागो णाम कम्माणं सग-कज्जुप्पायणसत्ती"। उस अनुभाग के संक्रमण अर्थात् स्वभावान्नु र परिणमन को अनुभाग संक्रमण कहते हैं--"तस्स संकमो सहावनर, संकती, सो अणुभागसंकमोत्ति वुच्चइ” ।
यह अनुभाग संक्रमण (१) मूल प्रकृति-अनुभाग-संक्रमण (२) उत्तरप्रकृति अनुभाग संक्रमण के भेद से दो प्रकार का है।
मूलप्रकृतियों के अनुभाग में अपकर्षणसंक्रमण, उत्कर्षण संक्रमण होते हैं। उनमें परप्रकृतिरुप संक्रमण नहीं होता है। ___ उत्तर प्रकृतियों के अनुभाग में उत्कर्षण, अपकर्षण तथा परप्रकृतिरुप परिणमन होता है । (पृष्ठ १११४)
एत्थ मूलपयडीए मोहणीयसाणिदाए जो अणुभागो जीवाम्मि मोहुपायण-सत्तिलक्खणो तस्स प्रोकड स्कहुणावसेण भावंतरावत्ती मूलपयडि-अणुभागसंकमो णाम ।।
. उत्तरपयडीण मिच्छत्तादोणमणुभागस्स ओक झुक्कड्डणपरपडिसकमेहि. जो. सत्ति-विपरिणामो सो उत्तरपयडिअणुभाग संकमोत्ति भण्णदे ॥ ( १११४ )
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मार्गदर्शक :- आचार्य
जी महाराज
प्रदेश-संक्रमाधिकार जो प्रदेशाग्र जिस प्रकृति से अन्य प्रकृतिको ले जाया जाता है, वह उस प्रकृति का प्रदेशाग्र कहलाता है-"जं पदेसग्गमण्णपर्याड णिज्जदे जत्तो पयडीदो तं पदेसम्गं णिज्जदि तिस्से पयडीए सो पदसमंक्रमो । ११९४ )। जैसे मिथ्यात्व का प्रदेशाग्र सम्यक्त्व प्रकृति रुप में संक्रान्त किया जाता है, वह सम्यक्त्वप्रकृति के रुप में परिणत प्रदेशाग्र मिथ्यात्व का प्रदेशाग्र संक्रमण है-''जहा मिच्छत्तल्स पदेसरगं सम्मत्त संछुददि तं पदेसगं मिच्छत्तस्स पदेससंकमो” ।
इस प्रकार सर्व कर्म प्रकृतियों का प्रदेशसंक्रमण जानना चाहिए "एवं सम्वत्थ"।
यह प्रदेश संक्रमण पांच प्रकार का है। (१) उद्वेलन, (२) विध्यात, (३) अधःप्रवृत्त (४) गुणसंक्रमण (५) सर्वसंक्रमण ये पांच भेद हैं।
यह बात ज्ञातव्य है, कि जिस प्रकृतिका जहां तक बंध होता है, उस प्रकृति रुप अन्य प्रकृति का संक्रमण वहां तक होता है; जैसे असाता वेदनीय का बंध प्रमत्तसंयतमुणस्थान पर्यन्त होता है अतः असाता वेदनीय रुप सातावेदनीय का संक्रमण छटवें गुणस्थानपर्यन्त होगा। सातावेदनीय का बंब मयोगों जिन पर्यन्त होता है। इससे सातावेदनीय रुप असाता बेदनीय का संक्रममा प्रयोदशगुणस्थान पर्यन्त होता है । मून प्रकृति में संक्रमण नहीं है। ज्ञानावरण दर्शनावरणादि रूप में परिवतित नहीं होगा। उत्तरप्रकृतियों में संक्रमण कहा गया है । दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय में परस्पर संक्रमण नहीं कहा गया है। प्राय चतुष्क में भी परस्पर संक्रम नहीं होता है। यही बात प्राचार्य नेमिचंद्र सिद्धान्तचक्रवर्ती ने गोम्मट्टसार कर्मकाण्ड में कही है :
बंधे संकामिज्जदि जोबंधे पत्थि मूलपयडीणं । . सण-चरितमोहे पाउ-चउक्के ण संकमणं ॥ ४१० ॥
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( ६ )
अधःप्रवृत्तादि तीन करणों के बिना ही कर्म प्रकृतियों के परमाणुओं का अन्य प्रकृति रूप परिणमन होना उद्वेलन संक्रमण है । जैसे रस्सी निमित्त विशेषको पाकर उकल जाती है, इसी प्रकार इन त्रयोदश प्रकृतियों में उद्वेलन संक्रमण होता है । वे प्रकृतियां इस प्रकार हैं
--
आहारदुंगं सम्भं मिस्सं देवदुगणारय- चउक्कं । उच्च मणुद्रुगमेदे तेरस उव्वेरुलणा पयडी ॥ ४१५
गो.. ।।
आहारक शरीर, आहारक प्रागोपांग, सम्यक्त्व प्रकृति, मिश्र प्रकृति, देवयुगल, नारक चतुष्क, उच्चगोत्र, मनुष्यगति, मनुष्यगति प्रायोग्यानुपूर्वी ये त्रयोदश उद्वेलना प्रकृति हैं।
आचार्य
उन त्रयोदश उद्वेलना प्रकृतियों में मोहनीय कर्म संबंधी सम्यक्त्व प्रकृति तथा सम्यग्मिथ्यात्व ये दो प्रकृतियां पाई जाती हैं । अनादि मिथ्यादृष्टि जीव के 'को सद्भाव नहीं पाया जाता है । उपशम सम्यक्त्वी जीव के प्रथमोपशम सम्यक्त्व रूप परिणामों के द्वारा मिथ्यात्व प्रकृति को त्रिरूपता प्राप्त होती है, जैसे यत्र से पीसे जाने पर कोदों का त्रिविध परिणमन होता है ।
गोम्मटसार कर्मकांड में कहा है
जंतेण को वा पढमुवसमभावजंतेण ।
मिच्छं दव्वं तु तिथा असंखगुणहीणदव्यकमा ॥ २६ ॥
यंत्र द्वारा कोदों के दले जाने पर कोंडा, धान्य तथा भुसी निकलती है, इसी प्रकार प्रथमोपशम सम्यक्त्वरुप भावों से मिथ्यात्व का मिथ्यात्व सम्यक्त्व और मिश्र प्रकृति रुप परिणमन होता है | वह द्रव्य असंख्यात गुणहीनक्रम युक्त होती है ।
मिथ्यात्व प्रकृति का सम्यक्त्व और मिश्र प्रकृतिरूप परिणमन होने के अंतर्मुहूर्त पश्चात् वह उपशम सम्यक्वी गिरकर मिथ्यात्वी होता है । उसके मिध्यात्वी बनने के अन्तर्मुहूर्त काल पर्यन्त अधःप्रवृत्त
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श्राद्रप्रभु
शिवराम नाटयाला
( ६६ )
खामगांव जि. बुलडाणा
संक्रमण होता है । उसके अनंतर उद्वेलना संक्रमण होता है । इसका उत्कृष्टकाल पल्योपमका श्रसंख्यात वा भाग है । इतने काल पर्यन्त वह मिथ्यादृष्टि जीव मिश्र तथा सम्यक्त्व प्रकृति का उद्वेलन करता है !
प्रथमोपशम सम्यक्त्वो मिथ्यात्वी होने के कारण अंतर्मुहूर्त पश्चात् मिश्र और सम्यक्त्व प्रकृति को पल्पोप के असंख्यातवें भाग प्रमाण उद्वेलना करता है । पुनः द्वितीय अंतर्मुहूर्त के द्वारा पत्योपम के प्रसंख्यातवें भाग प्रमाण स्थिति खण्ड को उत्कीर्ण करता है। यह क्रम पल्योपम के प्रसंख्यातवें भाग तक जारी रहता है। इतने काल में दोनों प्रकृतियों का उद्वेलन द्वारा क्षय हो जाता है | यह कथन स्थिति संक्रम की अपेक्षा किया गया है ।
प्रदेश संक्रमण की दृष्टि से पूर्व पूर्व स्थिति खण्ड से उत्तरोत्तर स्थिति खंड प्रदेश सत्र में श्रल्पप्रदेशों की उद्वेलना की जाती है । द्वितीयादि समयों में असंख्यात गुणित, श्रसंख्यात गुणित प्रदेशों की उद्वेलना की जाती हैं । यह क्रम प्रत्येक अंतर्मुहूर्त के अंतिम समय पर्यन्त रहता है ।
यह जीव कुछ प्रदेशों की उद्वेलना कर स्वस्थान में हो नोचे निक्षिप्त करता है और कुछ को परस्थान में निक्षिप्त करता है ।
प्रथम स्थिति खण्ड में से प्रथम समय में जितने प्रदेश उकेरता है, उनमें से परस्थान अर्थात् परप्रकृतिरुप में अल्पप्रदेश निक्षेपण करता है किन्तु स्वस्थान में उनसे प्रसंख्यातगुणित प्रदेशों का
निक्षेपण करता हैं। इससे द्वितीय समय में स्वस्थान में संख्यातगुणित प्रदेशों का निक्षेपण करता है, किन्तु परस्थान में प्रथम समय के परस्थान-प्रक्षेप से विशेषहीन प्रदेशों का प्रक्षेपण करता है । यह क्रम प्रत्येक अन्तर्मुहूर्त के अन्तिम समय पर्यन्त जारी रहता है । यह उद्वेलन - संक्रमण का क्रम उक्त दोनों प्रकृतियों के उपान्त्य स्थिति खण्ड तक चलता है । अन्तिम स्थिति खण्ड में गुणसंक्रमण और सर्वसंक्रमण होते हैं।
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. विध्यातसंक्रमण-जिन कर्मों का गुणप्रत्यय या भवप्रत्यय से जहां पर बंध नहीं होता, वहां पर उन कर्मों का जो प्रदेश संक्रमण होता है, उसे विध्यात संक्रमण कहते हैं। ___गुणस्थानों के निमित्त से होने वाले बंध को गुण-प्रत्यय कहते हैं । जैसे मिथ्यात्व के निमिमध्यावाई कसविनिमप्रसताहाराज सृपाटिका संहनन, एकेन्द्रिय जाति प्रादि सोलह प्रकतियों का बंध होता है । आगे के सासादन गुणस्थान में इन मिथ्यात्व निमित्तक मोलह प्रकृतियों की बंध व्युच्छित्ति हो जाने से इनका बंध नहीं होता। वहां उक्त प्रकृतियों का जो प्रदेशसत्व है, उसका पर प्रकृतियों में संक्रमण होता है। इस संक्रमण को विध्यात संक्रमण कहते हैं।
जिन प्रतियों का मिथ्यात्व आदि गुणस्थानों में बंब संभव है, फिर नरक, देव आदि भव विशेष के कारण { प्रत्यय ) बश वहां उनका बंध नहीं होता, इसे भव प्रत्यय प्रबंध कहते हैं । जैसे मिथ्यात्व गुणस्थान में एकेन्द्रिय जाति, स्थावर, सूक्ष्म, साधारण प्रादि प्रकृतियों का बंध होता है, किन्तु नारको जीवों के नरकभव के कारण उनका बंध नहीं होता है, कारण नारकी जीव मरकर एकेन्द्रियों में उत्पन्न नहीं होते हैं। वे मरकर संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक कर्मभूमिया मनुष्य अथवा तिर्यंच में हो पैदा होते हैं। "णेरयियाणं गमणं सप्णीपज्जत्त-कम्मभूमि-तिरियणरे ।" उन नारकी जीवों के जो पूर्व में बांधी एकेन्द्रियादि प्रकृतियां थीं, उनके प्रदेशों का परप्रकति रुप से संक्रमण होता रहता है । यह भी विध्यात संक्रमण है। यह संक्रमण प्रधः प्रवृत्तसंक्रमण के रुकने पर ही होता है। __ अधः प्रवृत्तसंक्रमण---सभी संसारी जीवों के १ ध्र व-बंधिनी प्रकतियों के बंध होने पर तथा स्व-स्व भवबंध योग्य परावर्तन प्रकृतियों के प्रदेशों का जो प्रदेश संक्रमण होता है, वह अधःप्रवृत्त सक्रमण हैं। ... १ घादिति-मिच्छ-कसाय-भयतेजदुग-णिमिण-वण्णचनो।
सत्तशालधुवाणं चदुधा सेसाणयं च दुधा-गो, क. १२४
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मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज
गुणसंक्रमण-अपूर्वकरणादि परिणाम विशेषों का निमित्त पाकर प्रति समय जो प्रदेशका असंख्यातगुणश्रेणी रूप से संक्रमण होता है, उसे गुणसंक्रमपा कहते हैं । __सर्वसंक्रमण ---विवक्षित कर्म प्रकृति के सभी कर्मप्रदेशों का जो एक साथ पर प्रकृनि रुप में संक्रमण होता है, उसे सर्व संक्रमण कहते हैं। यह सर्व संक्रमण उद्वेलन, विसंयोजन, और क्षपणकाल में चरमस्थिति खण्ड के चरमसमयवर्ती प्रदेशों का ही होता है, अन्य का नहीं होता है ।
" वेदक महाधिकार " कदि आवलियं पवेसेइ कदि च पविस्संतिकस्सावलियं। खेत-भव-काल-पोग्गल-द्विदि-विवागोदय-खयो दु॥५६॥
प्रयोग विशेष के द्वारा कितनो कर्म प्रकृतियों को उदयावली में प्रवेश करता है ? किस जीव के कितनी कम प्रकृतियों को उदोरणा के बिना ही स्थिति क्षय से उदयावली में प्रवेश करता है । क्षेत्र, भव, काल और पुद्गल द्रव्य का प्राश्रय लेकर जो स्थिति विपाक होता है, उसे उदीरणा कहते हैं। उदयक्षय को उदय कहते हैं ।
विशेष- वेदगेत्ति अणियोगद्दारे दोणि अणियोगद्दाराणि-तं जहा उदयो च उदीरणाच' घेदक अनुयोग द्वार में दो अनुयोगद्वार होते हैं, एक उदय तथा दूसरा उदीरणा है । . तत्थ उदयोणाम कम्माणं जहाकाल जणिदो फलविवागो कम्मोदयो उदयो त्ति भणिदं होइ'-कर्मों का यथाकाल में उत्पन्न फल-विपाक. उदय है। उस कर्मोदय को उदय कहते हैं । "उदीरणा पुण अपरिपत्तकालाणं चेव कम्माणमुवाविसेसेण परिपाचनं
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अपस्व-परिपाचन मुदीरणा इति बचनात्” उदोरणा का स्वरुप यह है, कि जो उदय को अपरिप्राप्त कर्मों को उपायविशेष (तपश्चरणादि) द्वारा परिपक्व करना-उदयावस्था को प्राप्त करना उदीरणा है। अपक्व कर्मों का परिपाचन करना उदीरणा है, ऐसा कथन है । १ कहा भी है:
कालेण उवायेणय पच्चंति जहा वणफ्फइफलाई। तह कालेण तवेण य पच्चंति कयाई कम्माई ॥
जैसे अपना समय आने पर यथाकाल अथवा पायाद्वारा पहाराज वनस्पति आदि फल पकते हैं, उसी प्रकार किए गए कर्म भी यथा काल से अथवा तपश्चर्या के द्वारा परिपाक अवस्था को प्राप्त होते हैं।
शंका-~-कधं पुण उदयोदोरणाणं वेदगबबएसो ? उदय और उदीरणा को वेदक व्यपदेश क्यों किया गया है ?
समाधान—“ण, वेदिज्जमाणत्व-सामण्णावेक्वाये दोण्हिमेदेसि तब्बवएससिद्धीए विरोहाभावादो"- ऐसा नहीं है। वेद्यमानपना को सामान्य अपेक्षा से उदय, उदीरणा दोनों को वेदक व्यपदेश करने में विरोध का अभाव है । (१३४४)
क्षेत्र पद से नरकादि क्षेत्र, भव पद से एकेन्द्रियादि भव, कालपद से शिशिर, हेमन्त आदिकाल अथवा यौवन, बुढ़ापा आदि कालजनित पर्यायों का, पुद्गल शब्द से गंध, तांबूल, वस्त्र, प्राभूषणादि इष्ट तथा अनिष्ट पदार्थों का ग्रहण करना चाहिए । को कदमाए हिदीए पवेसगो को व के य अणुभागे । सांतर-णिरंतर वा कदि वा समया दु बोहव्वा ॥६॥
१ खेत्त भव-काल-पोग्गले समस्सियूण जो ट्ठिदिविवागो उदयक्खनो च सो जहाकममुदीरणा उदयो च भणयि त्ति। (१३४६)
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मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुबिधासागर जी महाराज
कौन किस स्थिति में प्रवेशक है ? कौन किस अनुभाग में प्रवेश कराता है ? इनका सांतर तथा निरंतरकाल कितने समय प्रमाण जानना चाहिए ?
विशेष - "यहाँ को कदमाए द्विदीए पवेसगो" इस प्रथम श्रवयव द्वारा स्थिति- उदीरणा सूचित की गई है । 'को व के य श्रणुभागे' इस द्वितीय अवयव द्वारा अनुभाग उदीरणा प्ररुपित की गई है । इसके द्वारा प्रदेश उदीरणा भी निर्दिष्ट की गई है। इसका कारण यह है कि स्थिति और अनुभाग का प्रदेश के साथ अविनाभाव है ।
"सांतरणिरंतरं वा बाद्धव्वा" के द्वारा उदय और उदीरणा का सांतरकाल तथा निरंतरकाल सूचित किया गया है ।
'कदि समया' वाक्य के द्वारा नाना और एक जीव संबंधी काल और अंतर प्ररूपणा सूचित की गई है । 'वा' शब्द के द्वारा समुत्कीर्तना श्रादि अनुयोग द्वारों की प्ररूपणा सूचित की गई है। इससे समुत्कीर्तना आदि प्रलाबहुत्व पर्यंत चौबीस श्रनुयोग द्वारों की यथासंभव उदय और उदीरणा के विषय में सूचना की गई यह श्रवधारण करना चाहिये ।
बहुगदरं बहुगदर से काले को णु थोवदरगं वा ।
समयमुदीरेंतो कदि वा समये उदीरेदि ॥ ६१ ॥
विवक्षित समय से अनंतरवर्ती समय में कौन जीव बहुत कर्मों की, कोन जीव स्तोकतर कर्मो की उदीरणा करता है ? प्रति समय उदीरणा करता हुआ यह जीव कितने काल पर्यन्त निरन्तर उदीरणा करता है ?
विशेष -- इस गाथा के पूर्वार्ध द्वारा प्रकृति-स्थिति- अनुभाग और प्रदेश सम्बन्धी उदीरणा विषयक भुजगार तथा श्रल्पतर की सूचना दी गई है । उत्तरार्धं गाथा द्वारा भुजगारविषय कालानुयोग द्वार की सूचना दी गई है। इसके द्वारा शेष भनुयोगद्वारों का
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संग्रह करना चाहिए। इसके द्वारा पद-निक्षेप तथा वृद्धि की प्ररुपणा की गई है।
" मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज जो जं संकामेदि य जं बंधदि जं च जो उदीरेदि । के केण होइ अहियं द्विदि-अणुभागे पंदेसग्गे ॥ ६२॥ । जो जीव स्थिति अनुभाग और प्रदेशाग्न में जिसे संक्रमण करता है, जिसे बांधता है, जिसकी उदो रणा करता है, वह द्रव्य किससे अधिक होता है ? . विशेष---१ यहां 'प्रकृति' पद अनुक्तसिद्ध है, क्योंकि प्रकृति के बिना स्थिति, अनुभागादि का होना असंभव है। बंत्र पद में बंध तथा सत्व का अंतर्भाव है। उदीरणा में उदीरणा तथा उदय का ग्रहण करना चाहिए। - प्रकृति उदीरणा के (१) मूल प्रकृति उदीरणा (२) उत्तर प्रकृति उदीरणा ये दो भेद कहे गये हैं। उत्तर प्रकृति उदीरणा के दो भेनन् । एक भेद एकैकोतरप्रकृति-उदीरणा तथा दूसरा भेद प्रकृतिमनि-उदीरणा है। यह सूत्र प्रकृतिस्थान उदीरणा से सम्बद्ध है, किन्तु चूणिकार उसके निरुपण को स्थगित करते हैं, कारण एकैक प्रकृति उदीरणा की प्ररूपणा के बिना उसका प्रतिपादन असंभव है ! : . एकैकप्रकृति उदीरणा के (१) एकैकमूलप्रकृति-उदी रणा (२) एकैकोत्तर प्रकृति-उदीरणा ये दो भेद हैं। इनका पृथक् पृथक चतुर्विशति अनुयोगद्वारों से अनुमार्गण करने के पाश्चात् 'कदि प्रावलियं पवेसेदि' इस सूत्रावयव की अर्थविभाषा करना चाहिये ।
१ पयडिवदिरित्ताणं दिदि-अणुभास-पदेसाणमभावेण पयडीए प्रगुत्तसिद्धत्तादो। जो जं बंधदि ति एदण बंधो पयडि-टिदिमणुभाग-पदेस भयभिण्णो घेत्तव्यो। एत्थेव संतकम्मस्स वि अंतभावो वृक्खायलो । उदीरणाए उदयसहादाए गणं कायक्वं (.१३४८)
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मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज
. २ एक समय में जितनी प्रकृतियों को उदीरणा संभव है उतनी प्रकृतियों के समुदाय को प्रकृति-स्थान-उदीरणा कहते हैं । - इसका संदप्तरा अनुयोगद्वारों से वर्णन किया गया है । समुत्कीर्तना से अल्पबहुल्ब पर्यन्त अनुयोग द्वार तथा भुजगार पदनिक्षेप तथा वृद्धि द्वारा वर्णन किया गया है।
__समुत्कीर्तना के स्थान समत्कीर्तना और प्रकृति समु-कीर्तना ये दो भेद हैं । अट्ठाईस प्रकृतिरूप स्थान को प्रादि लेकर गुणस्थान और मार्गणा स्थान के द्वारा इतने प्रकृति स्थान उदयावली के भीतर प्रवेश करते हैं, इस प्रकार की प्ररुपणा स्थान समुत्कीर्तना कही जाती है।
इतनी प्रकृतियों के ग्रहण करने पर यह विवक्षित स्थान उत्पन्न होता है, इस प्रकार के प्रतिपादन को प्रकृति समुत्कोतंना या प्रकृति निर्देश कहते हैं। स्थिति उदीरणा---
गाथा ६० में यह पद पाया है 'को कदमाए दिदीए पदेसगो।' इसकी स्थिति-उदीरणा रूप व्याख्या करना चाहिये।
यह स्थिति-उदोरणा (१) मूलप्रकृति-स्थिति-उदो रणा (२) उत्तर-प्रकृति-स्थिति उदीरणा के भेद से दो प्रकार है । इनका
२ पयडीणं ठाणं पयडिट्ठाणं पयतिसमूहोत्तिभणिदं होई । तस्स उदीरणा पयडिट्ठाणउदीरणा । पयडीणमेक्ककालम्मि जेत्तियाणमुदीरिदु संभवो तेत्तियमेतीणं समुदायो पडिट्ठाण-उदीरणा ति वुत्तं भवदि । तत्थ इमाणि सत्तारसमणियोगद्दाराणि णादव्वाणि भवंति समुश्कित्तणा जोव अप्पाबहुएत्ति भुजगार-पदणिक्लेव-बड्डी प्रो
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निरुपण (१) प्रमाणानुगम (२) स्वामित्व ( ३) एक जीवको अपेक्षा काल ( ४ ) अंतर (५) नाना जीवों की अपेक्षा भंगविचय (६ ) काल ( ७ ) अंतर (८) सन्निकर्ष ( ९ ) अल्पबहुत्व १०) भुजाकार (११) पदनिक्षेप (१२) स्थान (१३) वृद्धि इनके द्वारा किया गया है । ( १४१६ )
अनुभाग उदीरणा
गाथा ६० में यह पद पाया है "को व के य अणुभागे ति" कौन जीव किस अनुभाग में प्रवेश करता है ? इस कारण अनुभाग उदीरणा पर प्रकाश डालना उचितचचि श्री सुविधासागर जी महाराज
१ प्रयोग ( परिणाम विशेष ) के द्वारा स्पर्वक, वर्गणा और अविभाग प्रतिच्छेद रूप अनंत भेद युक्त अनुभाग का अपकर्षण करके तथा अनंतगुणहीन बनाकर जो स्पर्धक उदय में दिए जाते हैं, उसको अनुभाग उदीरणा कहते हैं ।
जिस प्रकृतिका जो आदि स्पर्धक है, वह उदीरपा के लिए अपकर्षित नहीं किया जा सकता । "तत्थ जं जिस्से आदिफट्टयं तं ण प्रोकड्डिज्जदि' । इस प्रकार दो प्रादि अनंत स्पर्धक उदोरणा के लिए अपकर्षित नहीं किए जा सकते हैं । 'एवमणताणि फड्डयाणि ण ओकड्डिजति' ( १४७६ }
प्रश्न- उदीरणा के लिए अयोग्य स्पर्धक 'केत्तियाणि ?' कितने हैं ?
१ अणुभागा मूलुत्तरपयडीय मणंतभेयभिषण फड्डय-बग्गणाविभाग-पडिच्छेदसरुवा पयोगेण परिणामविसेसेण प्रोकड्डियूण अणंतगुणहीणसरुवेण जमुदये दिज्जति सा उदीरणा शाम । कुदो ? अपक्वपाचनमुदीरणे ति वचनात् { १४७९ )
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समाधान- जितने जघन्यनिक्षेप हैं और जितनी जघन्य अतिस्थापना है, उतने उदीरणा के अयोग्य स्पर्धक हैं। इससे आगे के समस्त स्पर्धकारमा के अलाप्रपालतिषकाएगजान याम्या है। "जत्तिगो जहण्णगो णिवखेवो जहणिया च अइच्छावना तत्तियाणि"
अनुभाग उदीरणा के ( १) मूल प्रकृति अनुभाग उदीरणा (२) उत्तरप्रकृति अनुभाग उदीरणा ये दो भेद हैं ।
१ मूल प्रकृति अनुभाग उदीरणा का तेईस अनुयोग द्वारों से निरुपण हुआ है। ___ उत्तर प्रकृति अनुभाग उदोरणा के ये चौबीस अनुयोग द्वार हैं । ( १ ) संज्ञा ( २ ) सर्व उदी रणा ( ३ ) नोसर्व उदीरणा ( ४ ) उत्कृष्ट उदीरणा ( ५ ) अनुत्कृष्ट उदीरणा ( ६ ) जघन्य उदीरणा ( ५ ) अजघन्य उदीरणा ( ८ ) सादि उदीरणा (९) अनादि उदीरणा (१०) ध्र व उदीरणा (११) अध्र व उदीरणा (१२) एक जीव की अपेक्षा स्वामित्व (१३) काल (१४) अन्तर (१५) नाना जीवों को अपेक्षा भंगविचय (१६) भागाभाग (१७) परिमाण (१८) क्षेत्र (१९) स्पर्शन (२०) काल (२१) अंतर (२२) सन्निकर्ष (२३) भाव (२४) अल्पबहुत्व तथा भुजाकार, पदनिक्षेप, वृद्धि और स्थान इनके द्वारा अनुभाग उदरीणा पर प्रकाश डाला गया है।
उत्तर प्रकृति अनुभाग उदीरणा का निरुपण करते हुए चूणि सूत्रकार कहते हैं- 'दुविहा सण्णा घाइसण्णा . टाणसण्णा च' ( १४९१)
__ मंज्ञा के ( १ ) धाति संज्ञा (२) स्थान संज्ञा ये दो भेद हैं।
१ मूलपडि-अणुभागुदीरणाए तत्य इमाणि तेवीसमणियोगहाराणि सण्णा-सव्वुदोरणा जाब अप्पाबहुएत्ति । भुजगारो पदणिक्लेवो वढि उदीरणा चेदि ( १४८० )
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घातिसंज्ञा के देशपाती और सर्वघाती ये दो भेद हैं । स्थान संज्ञा 'लता, दारु, अस्थि, शैल रुप स्वभाव के भेद से चार प्रकार को कही गई है।
१ घाति संज्ञा तथा स्थान संज्ञा का एक साथ कथन किया गया है, क्योंकि ऐसा न करने से ग्रंय. का अनावश्यक विस्तार
हो जाता । ...: . मिथ्यात्व, अनंतानुबंधी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण, क्रोच मान माया और लोभ रूप बारह कषायों की अनुभाग-उदी रणा सर्वघाती है। वह हिस्थानिक, त्रिस्थानिक और चतुःस्थानिक है । "मिच्छत्त-आरसकसायाणुभाग-उदीरणा सव्वघादी; दुढाणिया तिहाणिया घउट्टाणिया वा" (१४९१) मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधासागर जी म्हारा - सम्यग्मिथ्यात्व की अनुभाग उदीरणा सर्वघाती तथा द्विस्थानीय है।
२ सम्यग्मिथ्यात्व के द्वारा जीव के सम्यक्त्व गुण का निमूल बिनाश होता है, इससे मिथ्यात्व को उदीरणा के समान ही इसकी उदीरणा है। यहां द्विस्थानि। कहा है, क्योंकि द्विस्थानिकत्व को छोड़कर प्रकारान्तर असंभव है। . ३ आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती ने सम्यग्मिथ्यात्व को जात्यंतर सर्वघाती कहा है।
१ तानो दो वि सण्णाग्रो एयपवट्टयेणेत्र वत्तइस्सामो पुध पुत्र परुवगाए गंथगउरवप्पसंगादो (१४९१)
मिच्छतोदीरणाए इव सम्मामिच्छत्तोदोरणाए वि सम्मत्तसपिणदजीवगुणस्स णिम्मूलविणासदसणादो ( १४९२) . . सम्मामिच्छुदयेण जरांतरसवधादि-कज्जेण । जब सम्म मिच्छ पि य सम्मिस्सो होदि परिणामो ॥२१, गो.जी.॥
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( ) सम्यक्त्व प्रकृति की अनुभाग उदी रणा देशघाती है । वह एक स्थानीय और द्विस्थानिक है । "एयवाणिया वा दृढाणिया वा"
१ संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ तथा स्रीवेद, नपुंसकवेद और पुरुषवेद की अनुभाग-उदीरणा देशघाती भी है, सर्वघाती भी है । बह एक स्थानिक, द्विस्थानिक, त्रिस्थानिक तथा चतुःस्थानिक भी है । "चदुसजलण-तिवेदाणमणुभागुदीरणा देसघादी सम्बधादी वा एगट्ठाणिया वा दृट्ठाणिया, तिढाणिया चउट्टाणिया वा” (१४९२)
संज्वलन चतुष्क और वेदत्रय जघन्य अनुभाग की अपेक्षा देशघाती हैं । अजघन्य और उत्कृष्ट अनुभाग की अपेक्षा दोनों रुप. भी है । मिथ्या दृष्टि से लेकर असंयतमम्यष्टि पर्यन्त संक्लेश और विशुद्धि के निमित्त से उक्त प्रकृतियों की अनुभाग-उदीरणा सर्वघाती तथागदेशकाती दोनों हैं श्रीसंझुम्बाससागर अादिहाप्रथानों में अनुभाग-उदीरणा देशघाती मात्र है । वहां सर्वघाती उदीरणा का उस गुणस्थान रुप परिणमन के साथ विरोध है। हास्यादि छह नोकषायों की अनुभाग उदारणा देशपाती तथा सर्वघाती भी है। द्विस्थानीय, त्रिस्थानीय तथा चतु:स्थानीय भी है। ___ संयतासंयतादि उपरिम गुणस्थानों में हास्यादिषट्क की अनु. भाग उदीरणा द्विस्थानीय है तथा देशघाती है। सासादन, मिश्र तथा अविरत सम्यक्त्वो तक द्विस्थानीय तथा देशघाती है तथा सर्वघाती भी है । मिथ्यादृष्टि को अनुभाग उदीरणा द्विस्थानीय, त्रिस्थानीय तथा चतुःस्थानीय है।
- - - १ एतदुक्तं भवति-मिच्छाइटिप्पहुडि जाव असजदसम्माइट्टि ताव एदेसि कम्माणमणु-भागुदीरणाए सबघादी देसघादी च होदि । संकिलेसविसोह्विसेण संजदासंजदप्पहुडि उबरि सन्धत्थेव देसघादी होदि । तत्थ सव्वधादिउदीरणाए तगुणपरिणामेण सह विरोहादो त्ति ( १४९२)
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( ८० ) प्राचार्य यतिवृषभ ने कहा है, "चदुसंलजण-णबणोकसायाणमणुभागउदीरणा एइंदिए वि देसघादी होइ” (१४९२) संज्वलन चतुष्क और नोकषाय नवक की अनुभाग उदीरणा एकेन्द्रिय में देशघाती ही होती है।
मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिधसागर जी महाराज प्रदेश उदीरणा :
यह प्रदेश उदीरणा (१) मूलप्रकृति प्रदेश उदीरणा (२) उत्तर प्रकृतिप्रदेश उदीरणा के भेद से दो प्रकार की है।
- मूलप्रकृति प्रदेश-उदीरणा का प्रतिपादन तेईस अनुयोग द्वारों से हुआ है।
"मूलपडिपदेसुदीरणाए तत्थेमाणि तेवीस अणियोगद्दाराणि समुक्कित्तणा जाव अप्पाबहुए ति भुजगार-पदणिक्खेव-वडिलउदीरणा चेदि" (१५४१)
· उत्तर-प्रकृति-प्रदेश-उदोरणा का वर्णन चौबीस अनुयोग द्वारों से हुआ है। - १ मिथ्यात्वको उत्कृष्ट प्रदेश-उदीरणा संयमके अभिमुख चरमसमयवर्ती मिथ्यादृष्टि जीव के होती है। वह जीव मिथ्यात्व का परित्यागकर तदनंतर समयमें सम्यक्त्व और संयमको एक साथ ग्रहण करने वाला होता है । - सम्यक्त्व प्रकृति की उत्कृष्ट प्रदेशउदीरणा समयाधिक पावली काल से युक्त अक्षीणदर्शनमोही कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि के होती है।
१ मिच्छत्तस्स उक्कस्सिया पदेसुदीरणा कस्स ? संजमाभिमुह चरिमसमय-मिच्छाइट्ठिस्स से काले सम्मत्तं संजमंच पडिबज्जमाणस्स (१५४९)
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* सभ्यग्मिथ्यात्व की उत्कृष्ट प्रदेशउदोरणा सर्वविशुद्ध तथा सम्यक्त्व के अभिमुख चरमसमयवर्ती सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव के होती है। अनंतानुबंधी कषाय चतुष्टयकी उत्कृष्ट प्रदेशउदोरणा सर्व विशुद्ध और संयम के अभिमुख चरमसमयवर्ती मिथ्यादृष्टि के होती है। अप्रत्याख्यानावरण की उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा सर्वे विशुद्ध अथवा ईषन्मध्यम परिणामवाले तथा संयम के उन्मुख चरमसमयवर्ती असंयत सम्यक्त्वो के होती है। ." प्रत्याख्यानावरण की उत्कृष्ट प्रदेशउदीरणा सर्वविशुद्ध या ईषन्मध्यम परिणामवाले संयमाभिमुख चरमसमयवर्ती देशवती के होती है।
“ संज्वलन क्रोध की उत्कृष्ट प्रदेशउदीरणा चरमसमयवर्ती क्रोध
का घेदन करने वाले क्षपक की होती है। प्रकार संज्वलन मान मार्गदर्शी र मायावे शिष्माको सानजमावासिन
लोभ संज्वलन की उत्कृष्ट प्रदेश-उदोरणा समयाधिकपावलीकाल वाले चरमसमयवर्ती सूक्ष्मसापरायगुणस्थानयुक्त के होती है।
स्रीवेद को उत्कृष्ट प्रदेशोदोरणा समयाधिक प्रावलीकाल वाले चरमसमयवर्ती स्रीवेद का वेदन करने वाले क्षपक के होती है।
पुरुषवेद की उत्कृष्ट प्रदेशोदीरणा समयाधिक प्रावली काल वाले और घरम समय में पुरुषवेद का वेदन करने वाले क्षपक के होती है।
नपुसकवेद की उत्कृष्ट प्रदेश-उदीरणा समयाधिक प्रावली कालवाले चरमसमयवर्ती नपुसकवेद का वेदन करने वाले क्षपक के होती है।
__ छह कषायों की उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा प्रपूर्वकरण के अंतिम समय में वर्तमान क्षपक के होती है ।
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(. ८३.). , - चूणि सूत्रकार कहते हैं "यडिभुजगारो ठिदिभुजगारी अणुभाग भुजगारो पदेमभुजगारो" ( पृष्ठ १५८६ )-प्रकृति भुजाकार, स्थिति भुजाकार, अनुभाग भुजाकार तथा प्रदेश भुजाकार रुप भुजाकार के चार प्रकार हैं। यहां भुजाकार के सिवायं पदतिक्षेप और वृद्धि उदोरणा भी विभासनीय है।
शंका – वेदक अधिकार में उदय और उदोरणा का वर्णन तो ठीक है, किन्तु यहां गाथा ६२ में बंत्र, संक्रम और सत्कर्म का कथन विषयान्तर सा प्रतीत होता है ?
. मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधासागर जी महाराज समाधान- ऐसा नहीं है । उदयोदी रण विसयणिण्णयजाणट्ठमेव टॅमि पि परुवणे विरोहाभावादो" (१५७८) उदय और उदीरणा विषय-निर्णय के परिज्ञानार्थ बंध, संक्रमादि का कथन करने में कोई विरोध नहीं आता है।
श्री प्रश
f.:: : :... कामाला उपयोग अनुयोगद्वार खान जि. बुलडाणा केवचिरं उवजोगो कम्मि कसायम्मि को व केणहियो।। को वा कम्मि कसाए अभिक्खमुबजोगमुवजुत्तो ॥ ६३ ॥ __ किस कषाय में एक जीव का उपयोग कितने काल पर्यन्त होता है ? कौत उपयोग काल किससे अधिक है ? कौन जीव किस कषाय में निरन्तर एक सदृश उपयोग से उपयुक्त रहता है ? एक्कम्मि भवग्गहणे एक्ककसायम्मि कदि च उवजोगा। एक्कम्मि य उवजोगे एक्कसाए कदि भवाच ॥ ६४ ॥___ एक भवके ग्रहण कालमें तथा एक कषाय में कितने उपयोग होते हैं ? एक उपयोग में तथा एक कषाय में कितने भव होते हैं ? उवजोगवग्गणाओ कम्मि कसायम्मि केत्तिया होंति । . करिस्से. च गदीए केवडिया वग्गणा होति ।। ६५ ॥.
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मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज
किस कषायमें उपयोग संबंधी वर्गणाएं कितनी होती हैं ? किस गति में कितनी वर्गणाएं होती हैं ? एक्कम्हि य अणुभागे एक्क्कसायम्मि एवककालेण । उवजुत्ता का च गदी विसरिस-मुबजुज्जदे काच॥६६ ॥
एक अनुभाग में तथा एक कषायमें एक काल की अपेक्षा कौनसी गति सदृशरुप से उपयुक्त होती है ? कौनसी गति विसदृशरुपसे उपयुक्त होती है ? केवडिया उवजुत्ता सरिसीसु च वग्गणा-कसाएसु । केवडिया च कसाए के के च विसिस्सदे केण ॥ ६७ ॥
सदृश कषाय-उपयोग वर्गणाओं में कितने जीव उपयुक्त हैं ? चारों कषायों से उपयुक्त सब जीवों का कौनसा भाग एक एक कषाय में उपयुक्त है ? किस किस कषायसे उपयुक्त जीव कोन कौनसी कषायों से उपयुक्त जीवराशि के साथ गुणाकार और भागहारकी अपेक्षा होन अथवा अधिक होते हैं ?
जे जे जम्हि कसाए उबजुत्ता किएणु भूदपुव्वा ते । होहिंति च उवजुत्ता एवं सब्वस्थ बोद्धव्वा ॥१८॥
जो जो जीव वर्तमान समय में जिस कषाय में उपयुक्त पाये जाते हैं, वे क्या अतीत काल में उसी कषाय से उपयुक्त थे तथा आगामी काल में क्या वे उसी कषायरुप उपयोग से उपयुक्त होंगे?
इस प्रकार सर्व मार्गणाओं में जानना चाहिये उवजोगवग्गणाहि च अविरहिंद काहि विरहिदंचावि । पढम-समयोवजुत्तेहिं चरिमसमए च बोद्धव्या ॥६६॥ (७)
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मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविष्टिष्ट्र जी महाराज
कितनी उपयोग वर्गणाओं के द्वारा कौनसा स्थान अविरहित और कौनसा स्थान विरहित पाया जाता है ? प्रथम समय में उपयुक्त जीवों के द्वारा तथा इसी प्रकार अंतिम समय में उपयुक्त जीवों के द्वारा स्थानों को जानना चाहिए ।
विशेष - जयधवला टीका में उपरोक्त गाथा - मालिका के विषय में इस प्रकार प्रकाश डाला गया है " एत्थ गाहासुत्तपरिसमत्तीए ससह मंकविण्णासो किमट्ठ कदो ?" -- यहां गाथासूत्रों के समाप्त होने पर 'सप्त' अंक का विन्यास किस हेतु किया गया है ?
एदाओ सत्त चेव गाहाओ उबजोगणियोगद्दारे पडिबद्धाम्रो ति जाणावण ( १६१५ ) -- ये सात गाथाएं उपयोग अनुयोगद्वार से प्रतिबद्ध हैं, इसके परिज्ञानार्थं यह किया गया है।
चूणिसूत्र में कहा है, "केवचिरं उवजोगो कम्हि कसायम्हि त्ति एदस्स पदस्स श्रत्थो श्रद्धापरिमाणं" - किस कषाय में कितने काल पर्यन्त उपयोग रहता है? इस पद का अर्थं श्रद्धा काल परिमाण है, "श्रद्धा कालो तस्स परिमाणं"
इस पृच्छा के समाधानार्थं यतिवृषभाचार्य कहते हैं- "क्रोधद्धा, माणद्धा, मायद्धा, लोहद्धा जहणियाओ वि उक्कस्सियाम्रो वि तोमुहुत्तं" (१६१५ ) - क्रोध कषाय युक्त उपयोगकाल, मान कषाय युक्त उपयोगकाल, माया कषाय युक्त उपयोग काल तथा लोभ कषाय युक्त उपयोगकाल जघन्य से तथा उत्कृष्ट से अंतमुहूर्त है।
गतियों के निष्क्रमण तथा प्रवेश की अपेक्षा चारों कषायों का जघन्यकाल एक समय भी होता है "गदीसु णिक्खमाणपवेसण एकस भयो होज्ज" ( १६१५ )
'को व केण हिमो' (गाथा ६३ ) किस कषायका उपयोग काल किस कषाय के उपयोग काल से अधिक है, इस द्वितीय पद का अथं कषायों के उपयोगकाल सम्बन्धी अल्पबहुत्व है ।
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( ८६ ). '. मान कषायका जवन्यकाल सबसे, अल्प है। क्रोध. कषायका जधन्यकाल इससे विशेष अधिक है। माया कषायका जघन्यकाल क्रोध कषाय के जघन्यकालसे विशेषाधिक है। लोभ कपायका जघन्य काल माया कषाय के जघन्य काल से विशेषाधिक है ।
मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज ४ मान कषाय का उत्कृष्ट काल लोभ कषाय के जघन्यकाल से संख्यातगुणा है। क्रोध का उत्कृष्टकाल मानके उत्कृष्ट कालसे विशेषाधिक है। माया का उत्कृष्ट काल. क्रोध के उत्कृष्ट कालसे विशेषाधिक है | लोभकषाय का उत्कृष्टकाल मायाके उत्कृष्टकाल से विशेषाधिक है।
चूणिसूत्र में कहा है, "पबाइज्जतेण उवदेसेण अद्धार्ण बिसेसो अंतोमुहुत्त" (१६१७)-प्रवाह्यमान उपदेश के अनुसार प्राबलीके असंख्यातवें भाग मात्र ही विशेषाधिक काल जानना चाहिए ।
प्रश्न-"को वुण पवाइज्जतोवएसो णाम बुन भेदं ?"प्रवाह्यमान उपदेश का क्या अभिप्राय है ? . जो उपदेश सर्व प्राचार्य सम्मत है, चिरकाल से अविच्छिन्न संप्रदाय द्वारा प्रवाहरुपसे चला आ रहा है, और जो शिष्यपरंपरा के द्वारा प्रतिपादित किया जा रहा है, वह प्रवाह्यमान उपदेश है।
... चारों गतियों की अपेक्षा से कषायों के जघन्य तथा उत्कृष्ट काल. के विषय में यह देखना अवधारण करने योग्य हैं :
... नरकगति में लोभ कषायका जघन्यकाल सर्व स्तोक है। देवगति में क्रोध का जघन्य काल उससे अर्थात् नरकगति के जघन्य लोभ काल · से विशेषाधिक है। देवगति में मानका जघन्य काल देवगति के जघन्य क्रोध काल से संख्यातगुणित है। नरकगति में माया का जघन्यकाम देवगति में मान के जघन्य काल से
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विशेषाधिक है। नरक गति में मानका जत्रन्यकाल नरकंगति के मार्गदर्शक :- अजधय मायालागसीसहयातगणा है। देवगति में माया का
जयच्यकाल नरकगति के जधन्य मानकाल से विशेषाधिक है।
* मनुष्य तथा तिर्यंचगति में मान का जघन्यकाल देवगति के जघन्य मायाकाल से संख्यातगुणा है। मनुष्य और तिर्यंचों के क्रोधका जघन्य काल उनके जघन्य मान काल से विशेषाधिक है। मनुष्य और तिर्यंचों के माया का जघन्यकाल उन्हीं के जघन्य क्रोध काल से विशेष अधिक है। उनके लोभ का जघन्यकाल उन्हीं मनुष्य तथा तिर्यंचगति के जघन्य माया काल से विशेषाधिक है।
नरकगति के क्रोध का जघन्यकाल मनुष्य तथा तिर्यंचयोनि के जीवों के जघन्य लोभ-काल से संख्यातगुणा है। देवगति में लोभ का जघन्य काल नरकगति के जवन्य क्रोध काल से विशेष अधिक है। ____ नरकगति में लोभ का उत्कष्टकाल देवगति के जघन्य लोभ काल से संख्यातगुणित है। देवगति में कोध का उत्कटकाल नरकगति के उत्कृष्ट लोभकालसे विशेष अधिक है।
देवगति में मानका उत्कृष्ट काल देवगति के उत्कृष्टक्रोधकाल से संख्यातगुणा है । नरकगति में मायाका उत्कृष्टकाल देवगति के उत्कृष्ट मानकाल से विशेष अधिक है । नरकगति में मानका उत्कृष्ट काल नरक गति के उत्कृष्ट माया काल से संख्यातगुणा है । देवगति में मायाका उत्कृष्ट काल नरकगति के उत्कृष्ट मान काल से विशेषाधिक है।
___ मनुष्य और तिर्यंचों के मार . उत्कृष्ट काल देवगति के उत्कृष्ट माया काल से संख्यातगुणा है। मनुष्य और तिर्यंचों के कोष का उत्कृष्टकाल उन्हीं के उत्कृष्ट मानकालसे विशेषाधिक है। मनुष्य
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( १८ ) तिर्यचों के माया का उत्कृष्टकाल उनके उत्कृष्ट क्रोधकाल से विशेष अधिक है। मनुष्य-तिर्यंचों के लोभ का उत्कष्टकाल उनके मायाकालसे विशेषाधिक है।
नरकगति में क्रोध का उत्कृष्टकाल मनुष्यों तथा तिर्यंचों के उत्कृष्ट लोभकाल से संख्यातगुणा है। देवगति में लोभ का उत्कृष्ट काल नरकगति के उत्कृष्ट लोभकाल से विशेषाधिक है।
गाथा ६३ में यह कहा है "को वा कम्हि कसाए अभिक्खमुवजोगमुवजुत्तो" ? कौन जीव किस कषाय में निरन्तर एक सदृश उपयोग से उपयुक्त रहता है ? इस विषय में यह स्पष्टीकरण किया गया है।
मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज शंका-"अभिक्खमुबजोगमुवजुत्तो" वाक्य में प्रागत 'अभिक्ख. मुवजोग' अभीक्षण उपयोग का क्या भाव है ?
समाधान-अभीक्ष्ण उपयोग का भाव है बार बार उपयोग। एक जीव के एक कषाय में पुनः पुनः उपयोग का जाना अभीक्ष्ण उपयोग है-"अभीक्षणमुपयोगो मुहुमुहुरुपयोग इत्यर्थः । एकस्य जीवस्यैकस्मिन् कषाये पौनःपुन्येनोपयोग इति यावत्" (१६२२)
प्रोध की अपेक्षा लोभ, माया, क्रोध तथा मान में अवस्थित रुप परिपाटी से असंख्यात अपकर्षों के व्यतीत होने पर एक बार लोभकसाय के उपयोग का परिवर्तनबार अतिरिक्त होता है। प्रर्थात् अधिक होता है। - कषायों के उपयोग का परिवर्तन इस क्रमसे होता है।
रोघेण ताव लोभो मा क्रोधो माणो ति प्रसंखेज्जेसु आगरिसेसु गदेसु सई लोभागरिसा प्रदिरेगा भवदि । १६२२
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(FE)
मार्गदर्शक
आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज
मोघ की अपेक्षा लोभ, माया, क्रोत्र और मान कषाय में इस अवस्थितरुप परिपाटी से असंख्यात अपकर्षो श्रर्थात् परिवर्तनवारों के बीत जाने पर एक बार लोभकषाय के उपयोग का परिवर्तनवार ( भागरिसा) अतिरिक्त होता है । 'एत्थागरसा ति वृत्त परिट्टणवारी ति गय"
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मनुष्यों और तियंचों के पहिले एक अंतर्मुहूतं पर्यन्त नोभ का उपयोग पाया जायगा । पुनः एक अंतर्मुहूर्त पर्यन्त माया कपायरुप उपयोग होगा । इसके पश्चात् अंतर्मुहूतं पर्यन्त क्रोध कषायरूप उपयोग होगा । इसके अन्तर अंतमुहूर्त पर्यन्त मान कषायरूप उपयोग होगा । इस क्रम से प्रसंख्यातवार परिवर्तन होने पर पीछे लोभ, माया, क्रोध और मानरुप होकर पुनः लोभ कषाय से उपयुक्त होकर माया कषाय में उपयुक्त जीव पूर्वोक्त परिपाटी क्रम से क्रोध रूप से उपयुक्त नहीं होगा, किन्तु लोभ कपायरुप उपयोग के साथ अंतर्मुहूर्त रहकर पुनः माया कषाय का उल्लंघन कर क्रोध कषायरुप उपयोग को प्राप्त होगा । तदनंतर मान रूप होगा। इस प्रकार क्रोध, मान, मांया तथा लोभ इन चारों कषायों का उपयोग परिवर्तन असंख्यात वार व्यतीत हो जाने पर पुनः एक बार लोभकषाय संबंधी परिवर्तनवार अधिक होता है। "असंखेज्जेसु लोभाग रिसेसु प्रदिरेगेसु गदेसु कोवारिसेहि मायागरसा श्रादिरेगा होइ" (१६२३) - उक्त प्रकार से प्रसंख्यात लोभकषाय संबंधी अपकर्षो (परिवर्तनवारों) के प्रतिरिक्त हो जाने पर क्रोध कषाय सम्बन्धी अपकर्ष ( परिवर्तनवार) अधिक होता है।
असंख्यात माया अपकर्षो के अतिरिक्त हो जाने पर मान अपकर्ष की अपेक्षा क्रोध प्रपकर्ष अधिक होता है ।
"असंखेज्जेहि मायागरिसेहिं प्रदिरेगेहि गदेहिं माणागरिसेहि कोधारिसा आदिरेगा होदि (१६२४ ) " ।
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इस प्रोध प्ररूपणाके समान तिर्यंचगति तथा मनुष्यगति में वर्णन 'जानना चाहिये "एव प्रोघेण । एवं तिरिक्खजोणिगदीए मणुसगदीए च।"
मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज ... नरकगति में क्रोध, मान, पुनः क्रोध, मान इस क्रमसे सहस्त्रों परिवर्तन बारों के बोतने पर तदनंतर एक बार लोभ कपायरुप उपयोग परिवर्तित होता है। .. देवगतिमें लोभ, माया, पुनः लोभ, माया इस क्रमसे सहस्त्रों बार परिवर्तनवारों के बीतने पर तदनंतर एक बार मान कषाय संबंधी उपयोग का परिवर्तन होता है । २ - मान कषाय में उपयोग संबंधी संख्यात-सहस्य परिवर्तनवारों के व्यतीत होने पर तदनंतर एक बार क्रोध कषायल्प उपयोग परिवर्तित होता है । ३
- शंका- "एकस्मि . भवग्गहणे एक्ककसायम्मि कदि च उवजोगा"--एक भव के ग्रहण करने पर तथा एक कषाय में कितने उपयोग होते हैं ?
* समाधान-एक नारकीके भवन हणमें क्रोध कषाय संबंधी उपयोग के बार संख्यात होते हैं। अंसंख्यात भी होते हैं। मान के उपयोग के बार संख्यात होते हैं। असंख्यात भी होते हैं। इस
२ "णिरयगईए कोहो माणो, कोहो माणो ति बार-सहस्साणि परियचिदुण सय माया परिवत्तदि। मायापरिवत्तेहि सहस्सेहिं गदेहि लोभो परिवत्तदि" (१६२४) ।
२ देवगदीए लोभो माया, लोभो माया त्ति वारसहस्साणि गंत्ण तदो सई माण कसायो परिवत्तदि ।
३ माणस्स संखज्जेसु गरिसेसु. गदिसु तंदी सई कोधो परिवत्तदि ( १६२६)
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( १ ) प्रकार माया और लोभ कषाय के बार भी जानना चाहिये । “एवं सेसासु गदोसु" (१६२९) इस प्रकार शेष अर्थात तिर्यंच, मनुष्य और देवगति में वर्णन जानना चाहिये।
नरकगति के जिस भवग्रहण में क्रोध कषाय संबंधी उपयोगबार संख्यात होते हैं, उसी भव-ग्रहणमें उसके मानोपयोगबार नियमसे संख्यात ही होते हैं। इसी प्रकार माया और लोभ संबंधी उपयोग के विषय में जानना चाहिये।
नरकगति के जिम भवग्रहण में मानोपयोग संबंधी उपयोग के बार संख्यात होते हैं, वहां क्रोधोपयोग संख्यात भी होते हैं तथा
असख्यात भी होते हैं। माया के उपयोग तथा लोभ के उपयोग मार्गदर्शक :- आचार्य श्री विद्धिासागर जी महाराज
नियम से संख्यात होते हैं। जहां मायाके उपयोग संख्यात हैं, वहां । क्रोधोपयोग, मानोपयोग संख्यात व असंख्यात हैं । लोभ के उपयोग नियमसे संख्यात होते हैं।
नरकगति के जिस भव-ग्रहण में लोभकषाय संबंधी उपयोगबार संख्यात होते हैं, वहां क्रोधोपयोग, मानोपयोग, मायोप्रयोग के वार भाज्य हैं अर्थात् संख्यात भी है, प्रसंख्यात भी हैं। .
नरकगति के जिस भवग्रहणमें क्रोधोपयोगवार असंख्यात हैं, वहां शेष कषायों के उपयोगवार संख्यात होते हैं; तथा असंख्यात भी होते हैं। ___ नारकी के मानोपयोगके बार जहां असंख्यात होते हैं, वहां क्रोधोपयोग के वार नियम से. असंख्यात होते हैं । मानोपयोग और लोभोपयोग के बार भजनीय हैं अर्थात् संख्यात होते हैं, असंख्यात भी होते हैं। नारकी के जहां माया कषाय के उपयोगवार असंख्यात होते हैं, वहां क्रोध और मान के उपयोगवार असंख्यात होते हैं । लोभोपयोगवार संख्यात होते हैं, असंख्यात भी होते हैं।
जहां लोभोपयोग-वार असंख्यात होते हैं, वहां क्रोध, मान तथा माया कषायके उपयोगवार नियमसे असंख्यात होते हैं।
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( ६२ )
देवों में नारकियों के समान क्रोधादि कषाय सम्बन्धी उपयोगवार कहे गए हैं। इतनी विशेषता है कि जिस प्रकार १ नारकी जीवों के क्रोत्रोपयोग सम्बन्धी विकल्प हैं, उस प्रकार के विकल्प देवों में लोभोपयोग के विषय में ज्ञातव्य हैं। नारकियों के जैसे मानोपयोग के विकासे देवों के साया संबंधी विकल्प है । नारकियों के जैसे मायोपयोग के विकल्प है, वैसे देवों के मान संबंध हैं। नारकियों के जैसे लोभोपयोग के विकल्प हैं, देवों के उस प्रकार क्रोधोपयोग के विकल्प हैं । (१६३१ )
प्रश्न -" उवजोग वग्गणाश्रो कम्हि कसायम्हि केत्तिया होंति ? उपयोग वर्गणाएं किस कषायमें कितनी होती हैं ?
समाधान — यहां यह बात ज्ञातव्य है कि उपयोग वर्गणाएं ( १ ) कालोपयोग-वगंणा ( २ ) भावोपयोग वर्गणा के भेदसे दो प्रकार हैं ।
१ क्रोधादिकषायों के साथ जो जीव का संप्रयोग हैं, बह उपयोग है । कषायों के संप्रयोग रुप कषायोपयोग के काल को कषायोपयोग काल कहते हैं । वर्गाणा, विकल्प तथा भेद एकार्थवाची हैं । 'वग्गणा वियप्पा - भेदा ति एयट्ठो' (१६३६ )
१ जहा परइयाणं कोहोजोगाणं वियप्पा तहा देवाणं लोभोवजोगाणं वियप्पा । जाणेरइयाणं माणोवजोगाणं वियप्पा तहा देवाणं मायोवजोगाणं वियप्पा । जहाणेरइयाणं मायोवजोगाणं वियप्पा तहा देवाणं माणोवजोगाणं वियप्पा | जहानेर इयाणं लोभोवजुत्ताणं वियप्पा तहा देवाणं कोहोवजोगाणं वियप्पा
२ गो णाम कोहादिकसा एहि सह जीवस्स संपजोगो । कालविसयादो उवजोगवग्गणाओ कोलोवजोग वग्गणाश्रो त्ति गहणादो।
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कषायों के उदयस्थानों को भावोपयोग वर्गणा कहते हैं"भावो-वजोगवग्गणाप्रो णाम कसायोदयट्ठाणाणि" (१६३७)। भाष की अपेक्षा तीव्र, मन्द आदि भावों से परिणत कषायों के जघन्य विकल्प से लेकर उत्कृष्ट विकल्प तक षड्वृद्धिक्रमसे अवस्थित उदयस्थानों को भावोपयोग घर्गणा कहते हैं । १ ।।
वे कषायोदयस्थान असंख्यातलोकों के जितने प्रदेश होंगे, उतने प्रमाण हैं । वे उदयस्थान मान कषायमें सबसे अल्प हैं। क्रोध में विशेषाधिक हैं । माया में विशेषाधिक हैं । लोभमें विशेषाधिक हैं।
दोनों प्रकारको वर्गणा कथन, प्रमाण तथा अल्पबहुत्व प्रागममें विस्तार पूर्वक कहा गया है।
क्रमप्राप्त गाथा नं. ६६ को चौथी गाथा कहा है । 'एक्कम्हि मार्गदर्शय प्रभा एक सुकिसायाम्मजीएक्ककालण । उवजुत्ता का च गदी
विसरिसमुवजुज्जदे का च ॥' इस गाथा का अर्थ है, एक कषाय संबंधी एक अनुभाग में तथा एक ही काल में कौनसी गति उपयुक्त होती है अथवा कोनसी गति विसदृश अर्थात् विपरीत क्रमसे उपयुक्त होती है? ___ इसके समाधान में चूणिकार कहते हैं 'एत्थ विहासाए दोषिण उवएसा'-इस गाथा की विभाषा में दो प्रकार के उपदेश हैं । एक उपदेश के अनुसार जो कषाय है, बही अनुभाग है। कषायसे भिन्न अनुभाग नहीं है।
क्रोधकषाय क्रोधानुभाग है। मानकषाय, मायाकषाय तथा लोभकषाय क्रमशः मानानुभाग, मायानुभाग तथा लोभानुभाग हैं। "एक्केण उवएसेण जो कसाम्रो सो अणुभागो, तत्थ जो कसाम्रो सो . १ भाषदो तिव्यमंदादिभावपरिणदाणं कसायुदयट्ठाणाणं जहण्णवियप्पप्पहुडि जावुक्कस्सवियप्पोत्ति छवढिकमेणावट्ठियाणं भावोवजोगवगणा त्ति बबएसो। भावविसेसिदानो उबजोगवाग्गणाओ भावोबजोगवग्गणाप्रो सि वियक्खियत्तादो (१६३६)
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अणुभागो ति भागंतस्साभिप्पायो ण कसायदो वदिरित्तो अणुभागो अस्थि ! कोपो कोधाभागो। क्रोध पर क्रोधानुभागो नान्यः कश्चिदित्यर्थः । एवं माण-माया-लोभाणं' । (१६.३९)
अनुभाग कारण है। कषाय परिणाम उससे उत्पन्न कार्य है,
..... मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज इस प्रकार अनुभाग और कषाय में कार्य कारण का भेद है ऐसा नहीं कहना चाहिए अर्थात् अनुभाग और कंपाय भिन्न भिन्न नहीं है। "अणुभागो कारणं कसायपरिणामो तक्कज्जमिदि ताणं भेदो ण वोत्तजुत्तो"।
यह उपदेश प्रवाहमान नहीं है। प्रवाहमान दूसरा उपदेश है, जो कषाय और अनुभाग में भिन्नता मानसा है। कार्य और कारण में भिन्नता के लिये भेद नय का अवलंवन किया गया है। कार्य ही कारण नहीं है। ऐसा मानने का निषेध है-"एत्य बुण अपणो कसामो अण्णो च अणुभागो त्ति विवक्खियं कज्जकारणाणं भेदणयावलंबणादो । ण च कज्ज चेव कारण होइ, विष्यडिसेहादो" (१६४१)
१ आर्यमंक्षु प्राचार्य का उपदेश अप्रवाह्यमान है तथा नांगहस्ति प्राचार्य का उपदेश प्रवाहमान जानना चाहिए
नरकगति तथा देवगति में एक, दो, तीन अथवा चार कषायों से उपयुक्त जीव पाये जाते हैं। तिथंच तथा मनुष्यगति में चारों कषायों से उपयुक्त जीवराशि ध्रुवरुप से पाई जाती है । इस कारण उनमें शेष विकल्पों का प्रभाव है, "णिरयदेवगशेणमेदे वियप्पा अस्थि, सेसाप्रो गदीग्रो णियमा चदुकसायोबजुत्तानो" |
नरकगति में यदि एक कषाय हो, तो नियमसे क्रोध कषाय होती है। यदि वहां दो कषाय होगी तो क्रोधकषाय के साथ अन्य
अज्जमखुभयवंताणं उवएसो एत्थापनाइज्जमाणो गाम । णागहस्थिखवणार्ण उधएसो पवाइज्जतमो त्ति घेतब्बो १६४१
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था प्रभु | .:: ... दशाला
खामा .म. बुलडाणा कषाय का संयोग होगा; जैसे क्रोध और मान, क्रोध और माया, क्रोध और लोभ । यदि तीन कषाय हों तो क्रोध के साथ अन्य कषायों का संयोग होगा; जैसे क्रोध के साथ मान और माया, अथवा क्रोध के साथ 'मान और लोभ अथवा क्रोध के साथ माया और लोभ तथा यदि चारों कषाय हों, तो क्रोध, मान, माया और लोभ ये कषाय चतुष्टय रहेंगी। .
जैसा नरकात में क्रोध कषायके साथ शेप विकल्पों का स्पष्टीकरण किया गया है, उसी प्रकार देवगति में लोभ कषाय के साथ शेष विकल्पों का वर्णन जानना चाहिए। ___ यह भी ज्ञातव्य है कि एक एक कषाय के उदय स्थान में प्रसार्थिका जीजास्वसिविलो श्रीसंस्थानचे भाग मात्र होने हैं। एक एक कषाय के उपयोगकाल-स्थानमें उत्कर्षसे असंख्यात जगत् श्रेणी प्रमाण त्रस जीव रहते हैं । इससे यह अर्थ स्पष्ट होता है, कि सभी गति वाले जीव नियमसे अनेक कषाय-उदय स्थानों में तथा अनेक कषायोपयोगकाल स्थानों में उपयुक्त रहते हैं ।
अल्पबहुत्व को नौ पदों द्वारा इस प्रकार कहा गया है :उत्कृष्ट कषायोदय-स्थान में तथा उत्कृष्ट मानकषायोपयोगकाल में जीव सबसे कम हैं। इससे उत्कृष्ट कषायोदयस्थानमें तथा जघन्य मानकषायोपयोगकालमें जोव असंख्यातगुणित होते हैं। इससे उत्कृष्ट कषायोदयस्थान में और अनुत्कृष्ट-मजघन्य मानकषायोपयोग काल में जोव उपयुक्त पद से असंख्यातगुणित होते हैं। इससे जघन्यकषायोदय स्थान में और उत्कृष्ट मानकषायोपयोग कालमें जीव असंख्यातगुणित होते हैं। ...
. इससे जघन्य कषायोदय स्थानमें तथा जघन्य मावोदय कषायोपयोग कालमें जीव असंख्यातगुणित हैं। इससे जघन्य कषायोदयस्थानमें और अनुत्कृष्ट-प्रजघन्य मानकषायोपयोगकालमें जीव असंख्यातगृणित होते हैं । इससे अनुत्कृष्ट-अजघन्य अतुभाग स्थानमें
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और उत्कृष्ट मानकषायोपयोगकालमें जोव असंख्यातगुणित होते हैं। इससे अनुत्कृष्ट-अजघन्य अनुभाग स्थानमें तथा जघन्य मानकषायोपयोगकालमें जीव असंख्यातगुणित होते हैं। इससे अनुत्कृष्टअजघन्य अनुभाग स्थानमें तथा अनुत्कष्ट प्रजघन्य मानकषायोपयोग काल में जीव असंख्यातगुणित होते हैं।
१ यहां जिस प्रकार नौ पदों के द्वारा मानकषायोपयोग परिणत जीवों का वर्णन हुआ है, उसी प्रकार क्रोध, माया तथा लोभ इन कषायत्रयसे परिणत जीवों के अल्पबहुत्व का अवधारण करना चाहिए, कारण इनमें विशेषता का अभाव है।
परस्थान अल्पबहुत्व के विषय में चूणि सूत्रकार कहते हैं "एत्तो छत्तीसपदेहि अप्पाबहुअं काय" (१६४६) । इस स्वस्थान अल्पबहत्व से परस्थान संबंधी अल्पबहत्व छत्तीस पदों से प्रतिबद्ध
मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधासागर जी महाराज करना चाहिये मार्गदर्शक
वह छत्तीस पदगत अल्लबहुत्व इस प्रकार कहा गया है:उत्कृष्ट कषायोदय स्थान में उत्कृष्ट माया कषायके उपयोगकाल से परिणत जीव विशेषाधिक होते हैं । इससे उत्कृष्ट कषायोदय स्थान में उत्कृष्ट लोभ के उपयोगकाल से परिणत जीव विशेषाधिक हैं। इससे उत्कृष्ट कषायोदयस्थान में जघन्य मानकषाय के उपयोगकाल से परिणत जीव अंसख्यातगुणित होते हैं । इससे उत्कृष्ट कषायोदय स्थान में जवन्य क्रोधोपयोगकालसे परिणत जीव विशेषाधिक हैं। इससे उत्कृष्ट कषायोदय स्थान में जघन्य माया कषाय के उपयोग काल से परिणत जीव विशेषाधिक हैं । इससे उत्कृष्ट कषायोदय स्थान में जघन्य लोभ कषाय के उपयोग काल से परिणत जीव
विशेषाधिक हैं। इससे उत्कृष्ट कषायोदय स्थान में अजघन्य-अनु...' ट मान कषाय के उपयोग काल में जीव प्रसंख्यात गुणे हैं ।
णागहस्थिलाहा माणकसायस्स णवहिं पदेहिं पयदप्पाबहुप्रविणिण्णनो
कोह-माया-लोभाणं पि कायब्दो, विसेसाभावादो (१६४६)
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इससे उत्कृष्ट कषायोदय स्थान में और प्रजघन्य-अनुत्कृष्ट क्रोध के उपयोग काल में जीव विशेषाधिक हैं। इससे उत्कृष्ट कथायोदय स्थान में प्राइजघन्य-प्रमुष्ट माया पायक म्हवाग काल में जीव विशेषाधिक हैं। इससे उत्कृष्ट कषायोदय स्थान में और अजघन्य-अनुत्कृष्ट लोभ के उपयोग काल में विशेषाधिक है।
इससे जघन्य कषायोदय स्थान में श्रीर उत्कृष्ट मानकपाय के उपयोग काल में जीव असंख्यात गुणित है। इससे जघन्य कपायोदय स्थान में और उत्कृष्ठ क्रोध कषाय के उपयोगकाल में जीव विशेषाधिक हैं। इससे जघन्म कषायोदय स्थान में और उत्कृष्ट माया कषाय के उपयोग काल में जीव विशेषाधिक हैं। इससे जघन्य कषायोदय स्थान में और उत्कृष्ट लोभकषाय के उपयोग काल में जीव विशेषाधिक हैं । इससे जघन्य कपायोदय स्थान में प्रोर जघन्य मानकषाय के उपयोगकाल में जीव असंख्यातगुणे हैं। इससे जघन्य कापायोदय स्थान में और जघन्य कोष के उपयोग काल में जीव विशेषाधिक हैं। इसमे जवन्य कषायोदय स्थान में प्रोर जपन्य माया कषाय के उपयोग काल में जीव विशेषाधिक हैं। इसके जघन्य कषायोदय स्थान में और जघन्य लोभ कषाय के उपयोग काल में जीव विशेषाधिक हैं। इससे जघन्य कपायोदय स्थान में और प्रजघन्य-अनुत्कृष्ट मानकषाय के उपयोग काल में जीव असंध्यातगुणे हैं । इससे जघन्य कषायोदय स्थान में और प्रजघन्य-अनुत्कृष्ट क्रोध के उपयोग काल में जीव विशेषाधिक हैं। इससे जघन्य कपायोदय . स्थान में तथा अजयन्य-अनुत्कृष्ट माया के उपयोगकाल में जीव विशेषाधिक हैं । इमसे जघन्य कषायोदय स्थान में और अजघन्यअनुत्कृष्ट लोभ के उपयोग काल में जीव विशेषाधिक हैं।
इपसे अजघन्य-अनुत्कृष्ट कपायोदय स्थान में प्रोर उत्कृष्ट मान कषाय के उपयोग काल में जीव असंख्यात गुणे हैं । इमसे अजघन्य अनुत्कृष्ट कषायोदय स्थान में और उत्कृष्ट क्रोध के उपयो काल में जीब विशेषाधिक हैं । इससे अजयन्य-अनुत्कृष्ट कषा
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( १८ । योदय स्थान में और उत्कृष्ट माया कपाय के उपयोगकाल में जोव विशेषाधिक हैं। इससे प्रजवार्य तुम्कृष्ट कवायोदय स्वानमालथी म्हाराज उत्कृष्ट लोभ के उपयोगकाल में जीव विशेषाधिक हैं । इससे प्रजधन्य-अनुत्कृष्ट कषायोदय स्थान में और जन्घय मान के उपयोग काल में जीव असंख्यात गुणे हैं । इससे अजघन्य-अनुत्कृष्ट कषायो. दय स्थान में और जघन्य क्रोध के उपयोग काल में जीव विशेषाधिक हैं । इससे अजघन्य अनुत्कृष्ट कषायोदय स्थान में और जघन्य माया कषाय के उपयोग काल में जीव विशेषाधिक होते हैं । इससे प्रजघन्य-अनुत्कृष्ट कषायोदय स्थान में और जघन्य लोभ के उपयोग काल में जीव विशेषाधिक हैं। इससे जघन्य-अनुत्कृष्ट कपायोदय स्थान में और अजधन्य-अनुत्कृष्ट मानकषाय के उपयोग काल में जीव असंख्यात गुणित हैं । इससे अजघन्य-अनुत्कृष्ट कपायोदय स्थान में और अजघन्य-अनुत्कृष्ट क्रोधकषाय के उपयोग काल में जीव विशेषाधिक हैं। इससे प्रजघन्य-अनुत्कृष्ट कषायोदय स्थान में
और अजघन्य-अनुस्कृष्ट मायाकपाय के उपयोग काल में जीव विशेषा धिक हैं । इससे अजघन्य-अनुत्कृष्ट कपायोदय स्थान में और अजधन्यअनुत्कृष्ट लोभ पापाय के उपयोग काल में जीव विशेषाधिक हैं। इस प्रकार प्राधकी अपेक्षा यह परस्थान अल्पबहुत्व कहा गया। "एवं चेव तिरिक्ख-मणुसगदी सु वि वत्तब्वं'-इसी प्रकार तिर्यच प्रौर मनुष्य गति में भी कहना चाहिए । 'णिरयगदीसु परयाण-अप्पा बहुग्रं चितिय पोदध्वं' नरक गति में परस्थान अल्पवहुन्व विचार करके जानना चाहिए । (पृष्ठ १६४७)
अब पंचमी गाथा "केवडिया उचजुना मरिसीसु च वगणाकसाएमु” सदृश क पायोपयोग-वर्गणागों में कितने जीव उपयुक्त हैं, की विभाषा की जाती है। ऐसा गाहा सूचनासुत्तं'-यह गाथा सूचना सूत्र है । इसके द्वारा ये अनुयोगद्वार सूचित किये गये हैं
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. . ) मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिासागर जी महाराज
"संतपरुवणा, दव्वपमाणं, खेत्त---पमाणं, फोसणं कालो अंतरं भागाभागो अध्याबहुधे च"-सत्प्ररुपणा, द्रव्य प्रमाण, क्षेत्रप्रमाण, स्पर्षन, काल, अन्तर, भागाभाग और अल्पबहुत्व ये पाठ अनुयोग द्वार हैं ।
उक्त अनुयोग द्वारों से कषायोपयुक्त जीवों का गति, इंद्रिय, काय, योग, वेद, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्यत्व, सम्यक्त्व, संज्ञित्व और आहार इन त्रयोदश मार्गणा-स्थान रुप अनुगमों से अन्वेषण करना चाहिये। इसके पश्चात् चार गति सम्बन्धी अल्पबहुत्व विषयक महादंडक करना चाहिये 'महादंडयं कादूण समत्ता पंचमी गाहा ।' ( १६४९ ) महादंडक करने पर पांचवीं गाथा का स्वरुप प्रतिपादन पूर्ण होता है। उदाहरणार्थ एक महादंडक इस प्रकार कहा गया है। ___ मनुष्यगति में मानोपयुक्त जीव सर्व स्तोक हैं । क्रोधोपयुक्त विशेषाधिक हैं । मायोपयुक्त विशेषाधिक हैं । लोभोपयुक्त विशेषाधिक हैं । नरक गति में लोभोपयुक्त मनुष्यगति को अपेक्षा असंख्यात गुणे हैं । मायोपयुक्त संख्याप्तगुणे हैं । मानोपयुक्त संख्यातगुणे हैं । क्रोधोपयुक्त संख्यातगुणित हैं।
देवगति में नरकगति के क्रोधोपयुक्तों की अपेक्षा क्रोधोपयुक्त देव असंख्यातगुण हैं | उनसे मानोपयुक्त संख्यातगुणित हैं। उनसे मायोपयुक्त संख्यातगुणे है । उनसे लोभोपयोक्त संख्यातगुणे हैं । तिर्यंचगति में देवगति में लोभोपयुक्त जीवों की अपेक्षा मानोपयुक्त तिर्यंच अनंतगणित है । उनसे क्रोधोरयुक्त विशेषाधिक हैं। उनसे मायोपयुक्त विशेषाधिक हैं। उनसे लोभोपयुक्त विशेषाधिक हैं । 'एबमेसो गइमरगणा विसो एगो महादंड प्रो' (१६५०) इस प्रकार यह गति मार्गणा संबंधी एक महादंडक हुग्रा । इस प्रकार इंद्रियादि मागंणा सम्बन्धी महादंडक ज्ञातव्य हैं। __ प्रब छठवी गाथा “जे जे जम्हि कसाए उवजुत्ता किण्णु भूदपुग्धा ते"- जो जो जीव वर्तमान काल में जिस कषायोपयुक्त
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मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज
( १०० ) है, प्रतीत काल में वे क्या उसी कषाय से उायुक्त थे ?" के संबंध प्रतिपादना क्रमागत है। ___इस विषय में इस प्रकार प्ररूपणा है - जो जीव वर्तमान समय में मान कषायोपयुक्त हैं, वे अतीत कालमें मान काल नोमानकाल तथा मिश्रकाल में थे।
जिस कालविशेष में वर्तमान कालीन मानकषायोपयुक्त जीवराशि मानोपयोग से परिणित पाई जाती है, वह काल मानकाल है। इस जीवराशि में से जिस काल विशेष में एक भी जीव मानकषाय में उपयुक्त न होकर क्रोध, माया तथा लोभ कपायों में यथा विभाग परिणत हो, उस काल को नोमानकाल कहते हैं । यहां विवक्षित मान से अतिरिक्त शेष कषाय नोमान कहे जात हैं। इसी विवक्षित जीव राशि में से जिसकाल में अल्प जीव राशि मानकषायसे उपयुक्त हो तथा थोड़ो जीवराशि क्रोध, मान तथा लोभकषाय से यथासंभव उपयुक्त होकर परिणत हो, उस काल को मिश्र काल कहते हैं । (१६५१)
इस प्रकार क्रोध कषायमें, माया कषाय में तथा लोभ कपाय में तीन प्रकार का काल होता है। इस प्रकार मान कपायोपयुक्त जीबों का काल बारह प्रकार होता है । ____जो जीव वर्तमानकाल में क्रोधोपयुक्त हैं, उनका अतीत काल में 'माणकालो णन्थि, पोमाणकालो मिम्स कालो य'-मान काल नहीं है, किन्तु नोमानकाल तथा मिश्रकाल ये दो ही काल होते हैं। क्रोधोपयुक्त जीवों के एकादश प्रकारका काल प्रतीत काल में व्यतीत हुअा।
जो इस समय मायोपयुक्त हैं, उनके अतीतकाल में द्विविधमानकाल, द्विविध क्रोधकाल, त्रिविध मायाकाल तथा तीन प्रकार का लोभकाल इस प्रकार मायोपयुक्त जीवों के अतीत काल में
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दशविध काल व्यतीत हुआ। एवं मायोवजुत्ताणं दसावहा कालोइस मायोपयुक्त जीवों में दविध काल है। जो इस समय लोभ कषाय से उपयुक्त जीव हैं, उनके अतीत काल में द्विविध मान काल, द्विावध क्रोध काल, द्विविध माया काल, तथा त्रिविध लोभ काल इस प्रकार लोभोपयुक्त जीवों के अतीत कान में नविध काल व्यतीत हुप्रा ।
इस प्रकार मब भेद मिलकर १२+११ + १० +६= ४२ व्यालीस भेद होते हैं । इनमें से अल्पबहुत्व कथन हेतु द्वादश स्वस्थान पदों को ग्रहण करना चाहिए, “एत्तो नपरम मन्याण पदाणि गहियाणि' वर्तमान में लोभोपयुक्त जीवों का लोभ काल स्तोक है। मायोपयुक्तों का माया काल अनंत गुणित है । क्रोधोपयुक्तों का क्रोधकाल अनंतमुमिलि । मनोवृत्तों विमानकालनहाराज गुणित है।
लोभोपयुक्तों का नोलोभ काल पूर्वोक्त मानोपयुक्तों के काल से अनंत गुणित है । मायोपयुक्तों का नोमायाकाल अनंत गुणा है । क्रोधोपयुक्तों का नोक्रोधकाल अनंत गुणित है । मानोपयुक्नों का नोमान काल अनंतगुणित हैं।।
मानोपयुक्तों का मिश्रकाल पूर्वोक्त मानोपयुक्तों के नोमान काल की अपेक्षा अनंतगुणित है। क्रोधोपयुक्तों का निकाल विशेषाधिक है। मायोपयुक्नों का मिश्रकाल विशवायर है । लोभोपयुक्तों का मिश्रकाल विशेषाधिक है । (१६५४-१६५७)
इस प्रकार ब्यालीस पदों का अल्मबहुत्व कहना चाहिए तो बादालीस-पदपा-बहुओं काय' । इस विषय में वीरसेन प्राचार्य कहते है "बादालीस-पदमप्या-बहुअं संपहिकाले बिमिट्टोबासाभावादा ण सम्ममवगम्मदि त्ति ण तविवरणं कीदरे । १६५७ -यालोस पदों का अल्पबहुत्त्र सम्बन्धी विशिष्ट उपदेश का इस काल में प्रभाव होने से उसका अवबोध नहीं होने से उसका विस्तार नहीं किया गया है।
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मातवी गाथा-'उधजोगवगणाहिय अविरहिंद' काहि विरहियं वा वि'-कितनी उपयोग वर्गणाओं में कौन स्थान अविरहित तथा कौन स्थान विरहित पाया जाता है, के पूर्वाधं के विषय में इस प्रकार कथन किया गया है।
उपयोग वर्गणाएं ( १ ) कषायोदय स्थान ( २) उपयोग काल के भेद से दो प्रकार है . . क्रोधादि प्रत्येक कषाय के जो असंख्यात लोक प्रमाण उदयानुभाग सम्बन्धी विकल्प हैं, उन्हें कषायोदयस्थान कहते हैं । मार्गाचादि प्रत्या कषावकागजन्यनुपयोग काल से लेकर उत्कृष्ट उपयोग काल तक भेद हैं, उन्हें उपयोग-काल स्थान कहते हैं । “एदाणि दुविहाणि विट्ठाणा णि उधोग-बग्गणानो ति बुच्चति" ( १६५८ ) इन दोनों प्रकार के स्थानों को उपयोग वर्गणा कहते हैं।
शंका-किन जीवों से किस गति में निरन्तर स्वरूप से उपयोग काल स्थानों के द्वारा कौन स्थान विरहित है और कोन स्थान अविरहित सहित पाया जाता है ।
समाधान-इस अर्थ विशेष सूचक ये नरकादि मार्गणाएं कही आती हैं । नरकगति में एक जोब के क्रोधोपयोग काल-स्थानों में नाना जीवों को अपेक्षा यवमध्य होता है । यह यवमध्य संपूर्ण उपयोगप्रद्धा स्थानों के संख्यातवें भाग रूप होता है । यवमध्य के ऊपर
और नीचे एक गुण-वृद्धि और एक गुण हानिरूप स्थान प्रावली के प्रथम बर्गमूल के असंख्यात भाग प्रमाण है। ___ यवमध्य के अधस्तनवर्ती सर्वगुणहानि स्थानान्तर जीवों से प्रापूर्ण हैं; किन्तु सर्व प्रद्धा स्थानों का असंख्यात बहुभाग ही प्रापूर्ण है अर्थात् प्रसंख्यातेकभाग जोवों से विरहित पाया जाता है।
* एत्थ दुविहानो उवप्रोगबरगणाप्रो कसाय उदयटाणाणि च . - उबजोगट्ठाणाणि च । पृ. १६५७
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यवमध्य के उपरितन गुणहानि स्थानानंतरों का जघन्य से संख्यातवां भाग जीवों से अविरहित ( परिपूर्ण है और उत्कर्ष से सर्वगुण-हानि-स्थानान्तर जीवों से परिपूर्ण है। जवन्य से यधके मध्य के उपरिम उपयोग काल स्थानों का संख्यातवां भाग जीवों से आपूर्ण है और उत्कर्ष से प्रद्धा स्थानों का प्रख्यात बहुभाग प्रापूर्ण है । ( १६५८-६०) । यह कथन प्रबाह्यमान उपदेश की अपेक्षा है, 'एसो उवएसो पवाइज्जई' ( १६६१)
अप्रवाह्यमान उपदेश की अपेक्षा सभी यबमध्य के नीचे तथा ऊपर के सर्वगुणहानि स्थानान्तर सर्वकाल जीवों से अविरहित अर्थात् परिपूर्ण पाए जाते हैं। उपयोगकालों का असंख्यात बहभाग जीवों को दर्शकपूर्ण आवास में सुविधासारख्याहाराबाग जीवों से शून्य पाया जाता है ।
इन दोनों ही उपदेशों की उपेक्षा त्रस जीवों के कषायोदय स्थान जानना चाहिये । 'एदेहिं दोहिं उवदेसेहिं कसायुदयट्टाणाणि णेदव्वाणि तसाणं । (१६६२)
(१) कषायोदप स्थान असंख्यातलोक प्रमाण हैं । असंख्यात लोकों के जितने प्राकाशों के प्रदेश होते हैं, उतने कषायोदय स्थान होंगे । असंख्यातलोक प्रमाण कषायोदय स्थान अस जीवों से परिपूर्ण हैं। (२)
प्रतीत काल की अपेक्षा कषायोदय स्थानों पर त्रस जीव यवमध्य के प्रकार से रहते हैं । जचन्य कपायोदयस्थान पर त्रम जीव स्तोक हैं। द्वितीय कषायोदयस्थान पर उतने ही जीव हैं : इस प्रकार असंख्यात लोकस्थानों में उतने ही जीव हैं । तद
(१) असंखेज्जाणं लोगाणं जत्तिया अागास पदेसा अत्थि तत्तियमेत्ताणि चैव कसायुदयद्वाणाणि होति ति भणिदं होइ (१६६२)
( २ ) तेसु जत्तिगा तसा तत्तियमेत्ताणि अावुण्णाणि ।
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( १०४) नंतर अन्य स्थान पर एक जीव पूर्वोक्त प्रमाण से अधिक रहता है। तदनंतर असंख्यात लोक प्रमाण स्थानों पर उतने ही जोब रहते हैं । तदनंतर अन्य प्रागे वाले स्थान पर एक जीव पूर्वोक्त प्रमाण से अधिक रहता है । इम प्रकार एक एक जीव के बढ़ने पर ल आवक रहता ९ 'मोगदर्शक:- आचार्य श्री सविधिसागर जी महाराज उत्कर्ष से एक कपायोदय स्थान पर प्रावलि के असंख्यातव भागे प्रमाणा त्रस जीव पाये जाते हैं। Y एक कषायोदय स्थान पर उत्कर्ष से जितने जीव होते हैं, उतने ही जीव अन्य स्थान पर पाए जाते हैं । इस प्रकार क्रम असंख्यात लोक प्रमाण कषायोदय स्थानों पर्यन्त है । असंख्यात लोकों के व्यतीत होने पर यवमध्य होता है । अनंतर अन्य स्थान एक जीव से न्यून होता है । इस प्रकार प्रमख्यात लोक प्रमाण स्थान तुल्य जीव वाले हैं। इस प्रकार शेष स्थानों पर भी जीव का अवस्थान ले जाना चाहिए।
यहां स्थावर जीवों के विषय में यवमध्य रचना नहीं कही गई है, क्योंकि उनकी यवमध्य रचना अन्य प्रकार है।
सातवी गाथा के उत्तरार्ध में लिखा है, "पढमपमयोबजुत्तेहि चरिम समए च बोद्धब्वा"-प्रथम समय में उपयुक्त जीवों के द्वारा स्थानों को जानना चाहिए।
यहां ( १ द्वितीयादिका ( २ प्रथमादिका (३) चरमादिका रूप से तीन प्रकार की श्रेणी कही गई हैं। का वाच्यार्थ पंक्ति या अल्पबहुत्व की परिपाटी है-'सेडी पंती अप्याबहुप्र-परिवाडित्ति एयट्टो” (१६७२)
जिस अल्पबहुत्व परिपाटी में मानसंज्ञित दूसरी कपाय से उपयुक्त जीवों को आदि लेकर अल्पबहुत्व का वर्णन किया गया है, उसे द्वितीयादिका श्रेणी कहते हैं । यह मनुष्य और तिर्यञ्चों की अपेक्षा कथन है। इनमें ही मान कषाय से उपयुक्त जीव सबसे कम पाए जाते हैं।
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( १-५ ' )
जिस अल्पत्व परिपाटी में प्रथम कषाय क्रोध से उपयुक्त जीवों को आदि लेकर अल्पबहुत्व का वर्णन किया गया है, उसे प्रथमादिका श्रेणी कहते हैं । यह देवगति में ही संभव है, कारण मार्गदर्शक वहां अतीकोपाहारी सर्व स्तोक हैं ।
जिस अल्पबहुत्व परिपाटी में अंतिम कषाय लोभ को प्रारंभ कर अल्पबहुत्व का कथन किया गया है, उसे चरमादिका श्रेणी कहते हैं । यह नारकी जीवों में संभव हैं, कारण नरक गति में ही लोभ कषाय से उपयुक्त जीव सर्व स्तोक हैं ।
गाथा में श्रागत 'च' शब्द द्वारा द्वितीयादिका श्रेणी सूचित की गई है। द्वितीयादिका श्रेणी सम्बन्धी अल्पबहुत्व मनुष्यों श्रीर तिर्यंचों की अपेक्षा जानना चाहिये, कारण यह श्रेणी उनमें हो संभव है ।
१ मानकप्राय से उपयुक्त जीवों का प्रवेशनकाल सर्वस्तोक है । क्रोधोपयुक्त जोवों का प्रवेशनकाल विशेषाधिक है । इसी प्रकार माया और लोभ कषायोपयुक्त जीवों का वर्णन है ।
२ यह विशेषाधिक कथन प्रवाह्यमान उपदेश से पल्योपम के संख्यातवें भाग है तथा प्रवाह्यमान उपदेश से प्राचली के प्रसं ख्यातवें भाग है |
इस प्रकार उपयोग अनुयोग द्वार समाप्त हुआ ।
१ कथं पुनः प्रवेशनशब्देन प्रवेशकालो गृहीतुं शक्यत इति नाशंकनीयम् प्रविशत्यस्मिन्काले इति प्रवेशनशब्दस्य व्युत्पादनात् । (१६७३)
२ एसो विसेसो एक्केण उवदेसेण पलिदोवमस्स श्रसंखेज्जदिभागोपडिभागो | पवाइज्जेतेण श्रावलियाए प्रसंखेज्जदिभागो ।
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( १०६ )
चतुः स्थान अनुयोग द्वार. कोहो चउबिहो वुत्तो माणोवि चउब्विहो भवे । माया चउचिहा वुत्ता लोभो विय चउविहो ॥७॥
क्रोध चार प्रकार का कहा गया है। मान भी चार प्रकार का है। माया भी चार प्रकार की कही गई है। लोभ भी चार. प्रकार का कहा गया है।
विशेष—यहां क्रोधादि के भेद अनंतानुबंधी प्रादि की विवक्षा नही सोदाहै, क्योंकि आकावाति निश्चतिहासादि में पहले ही पूर्ण निर्णय हो चुका है । इस अनुयोग द्वार में लता, दारु, अस्थि, शैल आदि स्थानों का वर्णन होने से चतुः स्थान अमुयोगद्वार नाम सार्थक है।
"कोहो दुविहो सामण्ण कोहो विसेसकोहो चेदि" (१६७६)क्रोध (१) सामान्य क्रोध (२) विशेष क्रोध के भेद से दो प्रकार है । णग-पुढवि-चालुगोदय राई-सरिसो चउबिहो कोहो । सेल-घरण-अट्टि-दारुअ-लदासमारणो हवदिमारणो॥७१॥ ___ क्रोध चार प्रकार का है। नगराजि प्रथति पर्वत की रेखा समान, पृथ्वी की राजि १ समान, बालुका राजि समान और जल की रेखा समान वह चार प्रकार है। ___ मान-शैलधन समान, अस्थि समान, दारु (काछ) समान तथा लता समान चतुर्विध है। १ राइसबो रेहा पज्जाय वाचनी घेत्तव्बो (पृष्ठ १६७७) सिल-पुढविभेद धूली-जल-राइ-समाणनो हवे कोहो । णारय-तिरिय-परामर-गईसु उध्यायग्रो कमसो ।। २८४ ॥ सेलट्ठि-कट्ठ-बेते णियभएणणु हरंतो माणो।। णारय-तिरिय णरामर-गईसु उपायो कमसो ॥२८५॥ जी. गो.
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( १०७ )
विशेष - दीर्घकाल तक रहने वाला क्रोध पर्वत की रेखा मान कहा गया है । उसकी अपेक्षा अल्पकाल स्थायी क्रोध पृथ्वी की रेखा सदृश होता है । बालुका की रेखा सदृश क्रोध उससे भी अल्पकाल पर्यन्त रहता हैं तथा जल की रेखा समान को अल्प समय पर्यन्त रहता है ।
जो मान दीर्घ समय पर्यन्त रहता है वह शैलधन या शिला स्तंभ के समान है । जो उसकी अपेक्षा कम कठोरतापूर्ण रहता है, वह अस्थि समान है | जो उससे भी विशेष कोमलता युक्त मान है, वह दारुक समान हैं तथा जो मान लता के समान मृदुता युक्त हो तथा जो शीघ्र दूर हो जाय, उसको लता सदश भान कहा है ।
ET
अण्डुमा सरिसका विसारा सरिस्सी य गोमुत्ती । अवलेही समाया माया वि चउव्विहा भणिदा ॥ ७२ ॥
बांस की जड़ समान, मेढे के सींग समान, गोमूत्र के समान तथा श्रवलेखन श्रर्थात् दातौन या जीभी के समान माया चार प्रकार की है ।
विशेष – प्रत्यंत भयंकर कुटिलतापूर्ण माया बांस की जड़ के समान हैं। उससे भी न्यून वक्रता या माया गोमूत्र समान है। उससे भी कम कुटिलता युक्त माया दातौन ममान है। ? किमिरायरत्तसमगो अक्खमलसमोय पंसुलेवसमो । हालिद्दवत्थसमगो लोभो विचउव्वि हो भणिदो ॥ ७३ ॥
"
कृमिराग के समान, अक्षमल अर्थात् गाड़ी के प्रोगन के समान, पांशुलेप अर्थात् धूली के लेप समान तथा हारिद्र प्रर्थात् हल्दी से रंगे वस्त्र के समान लोभ चार प्रकार का कहा गया है । २ १ वेणुवमूलोमयसिंगे गोमुत्तए य खोरप्पे ।
सरिसी माया णारय- तिरिय णरामर गईसु खियदि जियं ॥ २८६ ॥ २ किमि राय चक्क तमल-हारिद्दराएण संरिम्रो लोहो । यतिरिक्ख माणुस देवेसुप्पायनो कमसो ॥ २८७॥ गो. जी.
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( १०८ ) : विशेष-प्रत्यंत तीव्र लोभ को कृमिराग सदृश कहा है ? कृमिराग कोट विशेष है। वह जिस रंग का आहार करता है, उसी रंग का अत्यंत चिकना डोरा वह अपने मल द्वार से बाहर निकालता है । उसका जो वस्त्र बनता है, उसका रंग कभी भी नहीं छूटता है । इसी प्रकार तीव्र लोभ का परिणाम होता है। उसकी अपेक्षा न्यूनता युक्त लोभ को गाड़ी के प्रोगन समान कहा
है। गाड़ी का आँगन वस्त्रादि पर लगने पर कठिनता से छूटता या। उसोनालोखामांसासाराथलि लेप सदृश होता है।
हल्दी का रंग शीघ्र छूटता है तथा धूप आदि से वह शीघ्र दूर हो जाता है, इस प्रकार मंदता युक्त जो लोभ है, उसे हारिद्र सदृश कहा है। एदेसि हाणाणं चदुस कसाएस सोलसरह पि । कं केण होइ अहियं द्विदि-अणुभागे पदेसग्गे ॥७॥
इन अनंतर प्रतिपादित चारों कषायों संबंधी सोलह स्थानों में स्थिति, अनुभाग और प्रदेशों की अपेक्षा कौन स्थान किससे अधिक होता है ( अथवा कौन स्थान किससे हीन होता है ?) माणे लदासमाणे उक्कस्सा वग्गणा जहरणादो। हीणा च पदेसग्गे गुरणेण णियमा अण्णतेण ॥७५।। __ 'लता समान मान में उत्कृष्ट वगंणा ( अंतिम स्पर्धक की अंतिम वर्गणा ) जघन्य वर्गणा से (प्रथम स्पर्धक की प्रथम वर्गणा) प्रदेशों की अपेक्षा नियम से अनंतगुणीहीन है।
१ कृमिरागो नाम कीटविशेषः । स किल यद्वर्णमाहारविशेषमभ्यवहार्यते तद्वर्णमेव सूत्रमति श्लक्ष्णमात्मनो मलोत्सर्गद्वारेणोत्सृजति, तत्स्वाभाव्यात् । लोभपरिणामोपि यस्तीव्रतरो जीवस्य हृदयवर्ती न शक्यते परासयितु स उच्यते कृमि रागरक्तसमक इति ( १६७७)
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विशेष – इस गाथा के
भार्गदर्शक
स्वस्थान अल्पबहुत्व को सूचना :- आचार्य श्री सुविधिसीगर जी महाराज दी गई है । जैसे लता स्थानीय मान को उत्कृष्ट प्रोर जवन्य वर्गणाओं में अनुभाग और प्रदेश की अपेक्षा अत्पबहुत्व कहा है, उसी प्रकार शेष पंद्रह स्थानों में भी अल्पबहुत्व जानना चाहिये । गियमा लदासमाणो दारुसमायो अांतगुणहीणो । ऐसा कमेण हीणा गुणेण शियमा अते ॥७६॥
(
१०६ }
लता समान मानसे दारु समान मान प्रदेशों की अपेक्षा नियम से अनंतगुणित होन है । इसी क्रम से शेष अर्थात् दारु समान मान से अस्थि समान मान तथा अस्थि समान मानसे शैलसमान मान नियम से अनंतगुणित होन हैं ।
यिमा लदासमाखो शुभागग्गेण वग्गग्गेण । ऐसा कमेरा अहिया गुण शियमा अते ॥७७॥
लता समान मानसे शेष स्थानीय मान अनुभाग तथा वर्गणाग्र की अपेक्षा क्रमशः नियम से अनंतगुणित अधिक होते हैं ।
के
विशेष- १ यहां अग्र शब्द समुदायका वाचक है । अनुभाग समूह को अनुभागार, वर्गणा के समूह को वर्गणाग्र कहते हैं । अथवा अनुभाग ही अनुभागाग्रः वर्गणा ही वर्गणाग्र जानना चाहिये | अग्रशब्द का अविभाग प्रतिच्छेद भी अर्थ होता है । इस दृष्टि से यह भी अर्थ किया जा सकता है, कि लता स्थानीय मान के अनुभाग संबंधी विभाग प्रतिच्छेदों के समुदाय से दारु स्थानीय मान के अनुभाग संबंधी प्रविभाग प्रतिच्छेदों का समूह अनंतगुणा है । दारु स्थानीय से ग्रस्थि संबंधी तथा अस्थि संबंधी से शैल संबंधी प्रविभाग-प्रतिच्छेद अनंतगुणित हैं ।
१ एत्थ अग्गसद्दो समुदायत्थवाचश्रो । अणुभागसमूहो अणुभागग्गं, वग्गणासमूहो वग्गणाग्गमिदि । अथवा अणुभागो चेव अणुभागग्गं, वग्गणात्र चेव वग्गणास्गमिदि घेत ( १६७९ )
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( समर्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज
संधीदोसंधी पुण अहिया णियमा होइ अणुभागे। हीणा च पदेसग्गे दो वि य णियमा विसेसेण ॥७॥ . विवक्षित संधि से अग्निम संधि अनुभाग की अपेक्षा नियम मे अनंतभागरुप विशेष से अधिक होती है तथा प्रदेशों को अपेक्षा नियम से अनंतभाग से हीन होती है।
विशेष-विवक्षित कषाय की विवक्षित स्थान की अंतिम वर्गणा तथा उससे आगे के स्थान की प्रादि वर्गणा को सधि कहते हैं। उदाहरणार्थ "लदासमाणचरिम-वग्गणा दारुप्रसमाण पढमवगणा च दो वि संधि त्ति वुच्चंति" लता समान अंतिम बर्गणा तथा दारु समान प्रथम वर्गणा इन दोनों को संधि समान कहते हैं । "वं सेससंधीणं अत्थो बत्तब्वो" ( १६८०) इसी प्रकार शेष संधियों का अर्थ कहना चाहिये।
विवक्षित पूर्व संधि अनुभाग की अपेक्षा नियम से अनंतभाग से अधिक होती है, किन्तु प्रदेशों की अपेक्षा नियम से अनंतभाग से हीन होती है। जैसे मान कषाय के लता स्थान को अंतिम वर्गणा रुप संधि से दारु स्थान की प्रादि वर्गणा रुप मंधि अनुभाग की अनंत भाग से अधिक है किन्तु प्रदेशों की अपेक्षा अनंत भाग से हीन है। यही नियम क्रोध, मान, माया तथा लोभ के सोलह स्थान संबंधी प्रत्येक संधि पर लगाना चाहिये। सव्वावरणीयं पुण उक्कस्सं होई दारुमसमारणे । हेहा देसावरणं सव्वावरणं च उरिल्लं ॥७॥
दारु समान स्थान में जो उत्कृष्ट अनुभाग के अंश हैं, वे सर्वघाती हैं । उससे अधस्तन भाग देशधाती है तथा उपरितन भाग सर्वघाती है।
विशेष-अस्थि और शैलस्थानीय अनुभाग सर्वघाती है तथा लता स्थानीय अनुभाग देशघाती है। दारु स्थानीय अनुभाग में
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( १११ ) उपरितन अनंतबहभाग सर्वधाती है तथा अधस्तन जो एक अनंतवां भाग है, वह देशघाती है। एसो कमो य माणे मायाए णियमसा दु लोभे वि । सव्वं च कोहकम्मं चदुसु ट्ठाणेसु बोद्धव्यं ॥२०॥
यही क्रम नियम से मान, माया, लोभ और क्रोध कपाय संबंधी चारों स्थानों में पूर्णतया जानना चाहिए।
मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज एदेसि ट्ठाणाणं कदमं ठाणं गदीए कद मिस्से । बद्धं च बम्झमाणं उवसंतं वा उदिएणं वा॥८॥
इन पूर्वोक्त स्थानों में से कौन स्थान किस गति में बद्ध, वध्यमान, उपशांत अथवा उदीर्ण रुप में पाया जाता है।
सगणीसु असणीसु य पज्जत्ने वा तहा अपज्जत्ते । सम्मत्ते मिच्छत्ते य मिस्सगे चेव बोधव्वा ॥८॥
पूर्वोक्त सोलह स्थान यथासंभव संशियों में, असंज्ञियों में, पर्याप्प में, अपर्याप्त में, सम्यक्त्व में, मिथ्यात्व में तथा मिश्र में जानना चाहिये।
५ विशेष- "एत्थ सण्णीसु असणीसु च इन्चेदेण मुनावरण मणिमगणा पयदपस्वणा-विसेसिदा गहिया ।"
"पज्जते वा तहा अज्जत एदेणवि सुत्तावयवेण काय-इंदियमग्गाणं संगहो कायब्बो, सम्मत मिच्छत्त एदेण वि गाहापच्छद्धण सम्मत्तमरगणा सूचिदा" ( १६८२) । यहां 'संज्ञी असंज्ञो पदों से' संजी मार्गणा रुप प्रकृत प्ररुपणा को विशेष रुप से लिया है । 'पर्याप्त तथा अपर्याप्त' इस सूत्रांश से काय और इंद्रिय मार्गणा का संग्रह करना चाहिये । 'सम्यक्त्व
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मिथ्यात्व' इस गाथा के अंतिम प्रथं अंश से सम्यक्त्र मार्गणा सूचित्त की गई है। विरदीए अविरदीए विरदाविरदे तहा अणागारे। सागारे जोगम्हि य लेस्साए चेव बोधवा ॥३॥
“ अविरति में, विरताविरत में, विरत में, अनाकार उपयोग में, साकार उपयोग में, योग में तथा लेश्या में पूर्वोक्त स्थान जानना चाहिये।
- विशेषार्थ--१ अविरति, बिरताविरत, विरति शब्दों से संयममार्गणा को सूचना दी गई है। अनाकार पद द्वारा दर्शन मार्गणा को, साकार पदसे ज्ञानमार्गणा की, योगपद से योग मार्गणा को और लेश्या पद सेमागोश्याममागंशाचायी प्रीसमाध्यिोगाईजो हारनेछ' पद से शेष पांच मार्गणाओं का संग्रह किया गया है ।
कं ठाणं वेदंतो कस्स व द्वाणस्स बंधगो होइ। के ठाण-मवेदंतो अवंधगा कस्स ठाणस्स ॥४॥
- कौन जीव किस स्थान का वेदन करता हुआ किस स्थान का बंधक होता है तथा कौन जीव किस स्थान का अवेदन करता हुना किस स्थान का प्रबंधक होता है ?
. १ विरदीय अविरदीय इच्चेदेण पढ़मावयवेण मंजममग्गणा णिरवसेसा गहेयब्वा । 'तहा अणागारेत्ति' भणिदे ईसणमग्गणा घेत्तब्वा । सागारेत्ति भणिद णाणमगणा गहेयन्वा । 'जोगम्हि य' एवं भणिदे जोगमग्गणा घेत्तव्वा । लेस्साए ति वयणेण लेस्सामग्गशाए गणं कायत्वं । एत्थतण चेव सद्देणावुत्त समुच्चय?ण वृत्त. सेस-सब्ब-मग्गणाणं संगहो कायब्बो (१६८२)
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( ११३ )
पेक्षा
विशेष मार्ग इस गाथा के द्वारा और प्रदेश सुविधिसागर चारों कषायों के सोलह स्थानों का बंध और उदय के साथ सन्निकर्ष की भी सूचना की गई है ।
सणी खलु बंधड़ लदा-समाणं दारुयसमगं च । सणी चदुसु विभज्जो एवं सव्वत्थ कायव्वं ॥ ८५॥
असंज्ञी नियम से लता समान और दारु समान अनुभाग स्थान को बांधता है । संज्ञी जीव चारों स्थानों में भजनीय है । इसी प्रकार सभी मार्गणात्रों में बंध और प्रबंध का अनुगम करना चाहिए ।
विशेष- चूर्णिसूत्रकार करते हैं, चतुःस्थान अधिकार के ये सोलह गाथा-सूत्र हैं। इनकी प्रर्थ विभाषा की जाती है " एत्थ प्रत्यविभासा ।" चतुःस्थान के संबंध में एकैकनिक्षेप एवं स्थान निक्षेप करना चाहिये । "एक्कगं पुब्वनिक्वित्रां पुत्र्वपरुविदं च" - एकैकनिक्षेप पूर्व निक्षिप्त है तथा पूर्व प्ररूपित है । (१६८४ )
चतुःशब्द के प्ररुप से विवक्षित लता, दारु आदि स्थानों की अथवा क्रोधादिकषायों की एक एक करके नाम, स्थापना आदि के द्वारा प्ररूपणा करने को एकैकनिक्षेप कहते हैं ।
इन्हीं लता, दारु आदि विभिन्न अनुभाग शक्तियों के समुदायरुप से वाचक स्थान शब्द की नाम स्थापना आदि के द्वारा प्ररूपणा करने को स्थान- निक्षेप कहते हैं । नाम स्थान, स्थापना स्थान, द्रव्य स्थान, क्षेत्र स्थान, प्रद्धास्थान, पलिवीचि स्थान, उच्च स्थान, संयमस्थान, प्रयोगस्थान और भावस्थान ये दस भेद स्थान के हैं । जीव, प्रजीव और तदुभय के संयोग से उत्पन्न हुए आठ भंगों की
१ एवं गाहासुतं प्रोघेणादेसेण च चउन्हं कसायाणं सोलसन्हं द्वाणाणं बंधोदयेहिं सष्णियास परुवणट्टमागयं ( १६८२ )
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मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज
निमित्तान्तर की अपेक्षा न करके 'स्थान' ऐसी संज्ञा करने को नाम स्थान कहते हैं। वे पाठ भंग इसप्रकार होते हैं। (१) एक जीव (२) अनेक जीव (३) एक अजीब (४) अनेक अजीव (५) एक जीव अनेक अजीव (६) अनेक जीव एक अजीव (७) एक जीव एक अजीब (८) अनेक जीव अनेक अजीव ये आठ भंग हैं। सद्भाव असद्भाव स्वरूप से स्थापना को स्थापना स्थान कहते हैं। द्रव्य स्थान प्रागम तथा नो आगम के भेद से दो प्रकार है । उर्ध्व, मध्य लोकादि में प्रकृत्रिम संस्थान रूप से अवस्थान को क्षेत्र कहते हैं। समय, प्रावलि, क्षण, लव, मुहूर्त प्रादि काल के विकल्पों को श्रद्धा स्थान कहा है। - स्थिति बंध के वीचार स्थान या मोपान स्थान को पलवीचि स्थान कहा है। “पलिबीचिट्ठाणं णाम द्विदिबंधवीचारहाणाणि मोवाणट्ठाणाणि वा भवंति (१६८५)" । पर्वतादि ऊंचे स्थान को या मान्य स्थान को उच्चस्थान कहते हैं । सामायिकादि संयम के लब्धि स्थानों को अथवा संयमसहित प्रमत्तादिगुणस्थानों को मंयम स्थान कहते हैं। मन, वचन, काय की चंचलतारूप योगों को प्रयोग स्थान कहते हैं। भावस्थान अगम, नो प्रागम के भेद से दो प्रकार है। कषायों के लता, दारु आदि अनुभाग जनित उदयस्थानों को या प्रौदयिक आदि भावों को नोमागम भाव स्थान कहते हैं । भावस्थान का एक भेद भागम भाव स्थान है।
V स्थान निक्षेपों पर नय विभाग द्वारा इसप्रकार प्रकाश डाला गया है। नैगम नय सर्व स्थानों को स्वीकार करता है। मंग्रह तथा व्यवहार नय पलिवीचि और उच्चस्थान को छोड़ शेष स्थानों को ग्रहण करते हैं। अजुसूत्र नय पलि बोचि स्थान, उच्चस्थान, स्थापना स्थान और श्रद्धास्थान को छोड़कर शेष स्थानों को ग्रहण करता है। शब्दनय नाम स्थान, संयमस्यान, क्षेत्रस्थान तथा भावस्थान को स्वीकार करता है।
~ "एत्थ भावडाणे पसदं"--यहाँ भाव स्थान से प्रयोजन है । यहां भावस्थान से नो, प्रागमभावस्थान का ग्रहण करना चाहिए,
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भाद्रप्रभु
... न पाटगाला
( ११५ ) खामगा . बुलडाणा कारण लता दारु आदि अनुभागस्थानों का इसी में अवस्थान माना गया है। ___ गाथासूत्रों के विषय में यह कहा गया है, कि चार सूत्रगाथा पूर्वोक्त सोलह स्थानों का दृष्टान्त पूर्वक अर्थसाधन करती हैं। इनमें से क्रोधकषाय के चार स्थानों का निदर्शन काल की अपेक्षा किया गया है। शेष तीन मान, माया, लोभ के द्वादश स्थानों का निदर्शन भाव की अपेक्षा किया है। ____ क्रोध के नगराजि, बालुकाराजि, आदि भेद काल की अपेक्षा कहे गए हैं। पाषाण की रेखा बहुत काल बीतने पर भी वैसी ही पाई अनीदरलक :पृथ्वीचाच श्रेलवितामाजामहासन्ति रहती है । इसी प्रकार अल्पकालपना बालुका एवं जल की रेखा में पाया जाता है। इसीप्रकार क्रोध कषाय के संस्कार या वासना के विषय में भी कालकृत विशेषता पाई जाती है।
मान, माया तथा लोभ के विषय में जो दृष्टान्त दिए गए हैं वे भाव की अपेक्षा से संबंध रखते हैं।
क्रोधकषाय के विषय में स्पष्टीकरण करते हुए इस प्रकार प्रतिपादन किया गया है:--जो जीव अंतर्मुहूर्त पर्यन्त रोप भाव को धारण कर क्रोध का वेदन करता है, वह उदकरात समान क्रोध का वेदन करता है। यह जल रेखा सदृश क्रोध संयम में मलिनता उत्पन्न करता है । संयम का घात नहीं करता है।
“जो अंतर्मुहुर्त के पश्चात् अर्धमास पर्यन्त क्रोध का वेदन करता है, यह बालुका राजि समान क्रोध का बेदन करता है। यह क्रोध ___ जो अंतोमुहत्तिगं णिधाय कोहं वेदयदि सो उदय राइसमाणं कोहं वेदयदि । जो अंतोमुत्तादीदमंतो अद्धमासस्स कोधं वेददि सो बालुवराइसमाणं कोहं वेदयदि । जो अद्धमासादीदमंतो छण्हं मासाणं कोथं वेदयदि सो पुढविराइ समाणं को, वेदयदि । जो सन्वेसि भवेहि उवसमं ण गच्छइ सो पब्बदराइसमाणं कोहं वेदयदि । (पृ. १६५८)
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सकल संयम का घातक है। देशसंयम का इससे घात नहीं
होता है। माजी अधुमास के पश्चात समाज पहाजोध का वेदन करता
है, वह पृथ्वी राजि समान क्रोध का घेदन करता है । इस क्रोध के कारण संयमासंयम भी नहीं हो पाता।
- जो क्रोध संख्यात, असंख्यात प्रथवा अनंतभवों में भी उपशान्ति को नहीं प्राप्त होता है, वह पर्वतराज समान क्रोध का वेदन करता है । इस कषाय के कारण सम्यक्त्व को भी ग्रहण नहीं कर सकता है। यह काल कथन कषायों की वासना या संस्कार का है।
- इसीप्रकार का कथन मान, माया तथा लोभ कषाय के विषय में भी जानना चाहिये । 'एदाणुमाणियं सेसाणंपि कसायाणं कायव्वं'-इसप्रकार अनुमान का आश्रय लेकर शेष कषायों के स्थानों का भी दृष्टान्तपूर्वक अर्थ का जानना चाहिये ।
कोहो सल्लीभूदो होदूण हियये ट्ठिदो। पुणो संखेज्जासंखेज्जापांतेहिं भवहिं तं चेब जीवं दट्टण कोथं गच्छइ, सज्जणिदसंसकारस्सणिकाचिदभावेण तराियमेत्तकालावट्टाणे विरोहाभावादो । (१६८८)
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व्यंजन अनुयोगद्वार कोहो य कोच रोसोय अक्खम संजलण कलह वड्ढीय। झझा दोस विवादो दस कोहेयटिया होति ॥ ८६ ॥
क्रोध, कोप, रोष, अक्षमा, संज्वलन, कलह, वृद्धि, झंझा, द्वेष औरगावदिये दाऋधिक समिथिवाची जी महाराज
“विशेष-क्रोध, कोप, रोष का अर्थ स्पष्ट है। क्रोध-कोप-शेषा धात्वर्थ सिद्धत्वात्सुबोधाः ।" अमर्ष को प्रक्षमा कहते हैं । जो स्व एवं पर को जलावे, वह संज्वलन है। कलह का भाव सुप्रसिद्ध है। "वर्धन्तेस्मात्पापाशयः कलहबैरादय इति वृद्धिः" क्रोध से पाप भाव, कलह वैर आदि की वृद्धि होने से उसे वृद्धि कहा है। यह अनर्थों का मूलकारण है-'सर्वेषामनर्थानां तन्मूलन्वात् ।' तीव्रतरसंक्लेश परिणाम को झंझा कहते हैं। 'झंझा नाम तीव्रतर संक्लेश परिणामः । अन्तरंग में कलुषता धारण करने को द्वेष कहते हैं। 'द्वेषः अप्रीतिरन्तःकालुष्य मित्यर्थः । विरुद्ध कथन विवाद है । उसे स्पर्धा, संघर्ष भी कहते हैं। 'विरुद्धो वादो विवादः स्पर्द्ध: संघर्षः इत्यनर्थान्तरम्' (पृ. १६९०) - क्रोधः कोपो रोषः संज्वलनमधाक्षमा तथा कलहः ।
झंझा-द्वेष-विवादो वृद्धिरिति क्रोध-पर्यायाः ॥
माण मद दप्प थंभो उक्कास पगास तध समुक्कस्सो। अत्तुक्करिसो परिभव उस्सिद दसलक्खणो माणो ॥७॥
मान, मद, दर्प, स्तंभ, उत्कर्ष, प्रकर्ष, समुत्कर्ष, प्रात्मोत्कर्ष, परिभव तथ उसिक्त ये दशनाम मान कषाय के हैं। - विशेष-"जात्यादिभिरात्मानं प्राधिवयेन मननं मानः"-जाति आदि की अपेक्षा अपने को अधिक समझना मान है) "तैरेवावि:
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( ११८ ) पृस्य सुरापीतस्येव मदनं मद;" जाति प्रादि के अहंकागविष्ट हो शराबी की तरह मत्त होना मद है। मद से बढ़े हुए अहंकार प्रकाशन को दर्थ कहा है। गर्व की अधिकता से सन्निपाताबस्था सदृश अमर्यादित बकना जिसमें हो वह स्तंभ है। इसी प्रकार उत्कर्ष, प्रकर्ष, समुत्कर्ष अभिमान के पर्यायवाची हैं । "तथो कर्षप्रकर्ष-समुत्कषा विजेयाः नेपामप्यभिमान-पर्यायित्वेन रूढत्वात्।" दूसरे कातिरस्कार पुचि सुचतीगहोकहासिक कहते हैं ।
स्तंभ - मद - मान - दर्प- समुत्कर्षोत्कर्ष-प्रकर्षाश्च । प्रात्मोत्कर्ष-परिभवा उत्सित्तश्चेति मानपर्यायाः ||
माया य सादिजोगो रिणयदी वि य वंचणा अणुज्जुगद।। गहणं मणुगण मग्गण कक्क कुहक ग्रहणच्छण्णा ॥॥ - माया, सातियोग, निकृति, बचना, अनजता; ग्रहण, मनोज्ञमार्गण,कल्क, कुहक, गृहन और छन्न ये माया कषाय के एकादश नाम हैं। - विशेष- कपट प्रयोग को माया कहते हैं "तत्र माया कपटप्रयोग:" कूट व्यवहार को सातियोग कहते हैं। "सातियोगः कूटव्यवहारित्वं ।" वंचना का भाव निकृति है 'निकृतिर्वचनाभिप्रायः" । विप्रलंभन को वंचना कहा है। योगों की कुटिलता अन्जुता है। दुसरे के मनोज्ञ अर्थ को ग्रहण कर उसे छुपाना ग्रहण है "ग्रहणं मनोज्ञार्थ परकीयमुपादाय नितवन ।" अंतरंग में धोखा देने के भाव को धारणकर अन्य के गुप्त भाव को जानने का प्रयत्न मनोज्ञमार्गण है । अथवा मनोज्ञ पदार्थ को दूसरे के विनयादि मिथ्या उपचारों द्वारा लेने का अभिप्राय करना मनोज्ञ-मागंण है । दंभ करना कल्क है 'कल्को दंभः।' मिथ्या मंत्र-तंत्रादि के द्वारा लोकानुरंजन पूर्वक आजीविका करना कुहक है । "कुहकमसद्ध तमंत्रतंत्रोपदेशादिभिलोकोपजीवनम् ।" अपने मनोगत मलिन भाव को
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मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज
( ११६ ) बाह्य रूप में प्रगट नहीं होने देना गूहन है "निगृहनमंतर्गतदुराशयस्य बहिराकारसंवरणं।" गुप्त प्रयोग को छन्न कहते हैं, "छन्नं छद्मप्रयोगः' । ( १६९१ )
कामो राग णिदाणो छंदो य सुदो य पेज-दोसोय । रोहाणुराग मासा इच्छा मुच्छ। य गिद्धी य॥ ८ ॥ सालद पत्थण लालस अविरदि तण्हायविज जिब्भा य। लोभस्सय णामधेज्जा वीसं एट्टिया भणिदा ॥ १० ॥ - काम, राग, निदान, छंद, स्वता, प्रय, द्वेष, स्नेह, अनुराग, आशा, इच्छा, मूर्छा, गृद्धि, सापाला या शाश्वत, प्रार्थना, लालमा, अविरनि, तृष्णा, विद्या तथा जिह्वा ये लोभ के एकार्थक बीस नाम है।
विशेष- 'कमनं काम:-इष्टदारांपत्यादिपरिग्रहामिलाप इति" इष्ट स्त्री, पुत्रादि परिग्रह की अभिलाषा काम है। रंजनं राग:-मनोजविषयाभिध्वंगः"-मनोज्ञ विषयों की प्रासक्ति राग है ! जन्मान्तर संबंधी संकल्प निदान है-"जन्मान्तरसंबंधेन निधीयते संकलप्यते इति निदानं ।' मनोनुकूल वेषभूषा में चित्त को लगाना छंद है-'छंदनं छंदो मनोनुकूल विषयाननुभूषायां मनः प्रणिधानम् ।'
" अनेक विषयों की अभिलाषा रूप कलुषित परिणामात्मक जल से प्रात्मा का सिंचन 'सुद' । सुत ) कहा है । अथवा स्व शब्द आत्मीय का पर्यायवाची हैं। स्व का भाव स्वता अर्थात् ममकार या ममता है । वह जिसमें है वहस्वेता या लोभ है। "सूयतेऽभिषिच्यते विविध विषयाभिलाषकलुषसलिल परिषेकैरिति सुतो लोभः । अथवा स्वशब्द आत्मीयपर्यायवाची। स्वस्य भावः स्वता ममता ममकार इत्यर्थः । सास्मिन्नस्तीति स्वेता लोभः ( १६९१) - प्रिय पदार्थ की प्राप्ति के परिणाम को 'पेज्ज' अथवा प्रेय कहा है । दूसरे के वैभव प्रादि को देखकर उसकी अभिलाषा करना 'दोस' अथवा द्वेष है।
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पाहिलक) आचार्य श्री सुविहिासागर जी महाराज
शंका-प्रेय और द्वेष ( दोष ) परस्पर विरोधी प्रथं युक्त होते हुए किस प्रकार लोभ के पर्यायवाची हैं ?
“ममाधान-परिग्रह की अभिलाषा पाल्हाद भाव का हेतु है, इससे बह प्रेय है किन्तु वह संसार के प्रवर्धन का कारण भी है, इससे उसमें 'दोस' ( दोष ) पना भी है । 'कथ पुनरस्य प्रेयन्वे सति दोषत्वं विप्रतिषेधादिति चेन्न पाल्हादनमात्रहेतुत्वापेक्षया परिग्रहाभिलाषस्य प्रेयत्वे सत्यपि संसारप्रवर्धनकारण वादोषतोपपत्तो।
1 इष्ट पदार्थ में सानुराग चित्तवृत्ति स्नेह है। "एवमनुरागोपि व्याख्येयः" इसी प्रकार अनुराग को भी व्याख्या करना चाहिये। अविद्यमान पदार्थ की आकांक्षा करना प्राशा है, "अविद्यमानस्यार्थस्याशासनमाशा" | बाह्य तथा अन्तरंग परिग्रह की अभिलाषा इच्छा है। तीव्रतर परिग्रह की प्रासक्ति को मूर्छा कहा है। अधिक तृष्णा गृद्धि है।
Vाशा युक्त होना साशता अथवा सस्पृहसा, सतृष्णपना है । 'सहाशया वर्तते इति साशस्तस्य भावः साशता सस्पृहता सताणता' अथवा सदा विद्यमान रहने वाला होने से लोभ को 'शाश्वत' कहा है, "शश्वद्रभवः शाश्वतो लोभः"।
शंका--लोभ को शाश्वत क्यों कहा है ? "कथं पुनस्य शाश्वतिकत्वमिति ?"
- समाधान-लोभ परिग्रह की प्राप्ति के पूर्व में तथा पश्चात् सर्वदा पाया जाने से शाश्वत है--"परिग्रहोपादाना प्राक पश्चाच्च सर्वकालमनपाया शाश्वतो लोभः" । धन की उपलिामा प्रार्थना है . "प्रकर्षेण अर्थन प्रार्थना धनोपलिप्सा" । गृद्धता को लालसा कहते हैं। विरति अर्थात् त्याग का न होना अविरति है । असंयम भाव को अविरति कहा है । विषयों को पिपासा तृष्णा है; "तृष्णा विषय
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पिपामा" लोभ का पर्यायवाची विद्या शब्द है। विद्या के समान होने से लोभ विद्या है । विद्या जिस प्रकार दुराराध्य अर्थाव कष्टपूर्वक प्राराध्य होती है, उसी प्रकार लोभ भी है, क्योंकि परिग्रह उपार्जन रक्षणादि कार्य में जीव को महान कष्ट उठाने पड़ते हैं । "विद्येव विद्या । क इहोपकार्थः ? दुराराध्यत्वम्" लोभ का पर्यायवाची जिव्हा शब्द भी है, क्योंकि जिस प्रकार जोभ कभी भी तृप्ति को नहीं प्राप्त होती है, उसी प्रकार लोभ की स्थिति है "जिव्हेव जिव्हेत्य-संतोषसाधर्म्यमाश्रित्य लोभपर्यायत्वं वक्तव्यं" (प. १६९१) इस प्रकार लोभ के पर्यायवाची बोस शब्द कहे हैं "एव मेते लोभकषायस्य विंशति-रेकार्थाः पर्यायाः शब्दाः व्याख्याताः"
मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज ,
दिनार .) सामनांग जि. डांगा
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मम्यक्त्वानुयोग सम्यक्त्व को शुद्धि के लिए सम्यक्त्व अधिकार कहते है "सम्मत्तसुत्तिहेउं वोच्छं सम्मत्तमहियारं" :दंसमोह-उवसामगस्स परिणामो केगिसो भवे । जोगे कसाय-उवचोगे लेस्सा वेदो य को भवे ॥६॥
दर्शनमोह के उपशामक का परिणाम किस प्रकार होता है ? किस योग, कषाय और उपयोग में वर्तमान, किस लेश्या तथा वेद युक्त जीव दर्शन मोह का उपशामक होता है ?
विशेष—प्राचार्य यतिवृषभ ने कहा है "एदारो चत्तारि सुत्तगाहाम्रो प्रधापवत्तस्स पढमसमए परुधिदन्वायो" ( ६६९४) ये चार गाथाएं है ( गाथा नं० ११, ९२, ९३, ९४ ), जिन्हें अधः मार्गप्रश्रुतकर पााका समयमामाहला सशरिये।।
प्रश्न-दर्शन मोह के उपशामक का परिणाम कैसा होता है ?
समाधान-दर्शन मोह के उपशामक का परिणाम विशुद्ध होता है, क्योंकि वह इसके अन्तर्मुहूर्त पूर्व से ही अनंतगुणी विशुद्धि से युक्त होता हुआ चला पा रहा है । __ 'विशुद्धतर' का स्पष्टीकरण करते हुए भाष्यकार कहते हैं, "अधःप्रवृत्त करणप्रथमसमयमधिकृत्यैतत्प्रतिपादितं भवति" (१६९५) अधःप्रवृत्तकरण के प्रथम समय की अपेक्षा यह कथन किया गया है।
अधःप्रवृत्तकरण के प्रारम्भ समय में ही परिणाम विशुद्धता को प्राप्त होते हैं । इस विषय में यह ज्ञातव्य है कि इसके अन्तर्मुहूर्त पूर्व ही भावों में विशुद्धता उत्पन्न हो जाती है। सम्यक्त्वरूप रत्न की प्राप्ति के पूर्व ही क्षयोपशम, देशना आदि लब्धि के कारण प्रात्मा की सामर्थ्य वृद्धि को प्राप्त होती है। संवेग, निर्वेद आदि
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( १२३ )
से हर्ष भाव वर्धमान हो जाता है, इस कारण अनंतगुणी विशुद्धि कही गई है। "वं पि अंतोमुहुत्तप्पहूडि अनंतगुणाए विसोहोए विसुज्झमाणो प्रागदो"
योग की विभाषा में कहा है “अण्णदर-मणजोगो वा प्रण्णदरयचिजोगो वा श्रोरालियमकार्यवधिसागर जी महाराज अन्यतर मनयोगी वा वचनयोगी वा श्रदारिक काययोगी वा वैक्तिक काययोगी जीव दर्शन-मोह का उपशमन प्रारंभ करता है । चार मनयोग, चार वचन योग में कोई भी मनयोग या वचनयोग हो सकता है किन्तु सप्तप्रकार के काययोगों में प्रौदारिक तथा वैक्रियिक काययोगों के सिवाय अन्य योगों का यहां प्रसद्भाव है " कायजोगी पुण श्रोरालिय- कायजोगो वे उब्वियकायजोगो वा होइ ग्रसिमिहासंभवादो" । उपरोक्त दशविधि योगों से परिणन जीव प्रथम सम्यक्त्व के उत्पादन के योग्य होता है । "एदेसि दसण्ह पज्जत्त - जोगाणामण्णदरेण जोगेण परिणदो पढमसम्मत्तव्यायणस्स जोगो होइ, पण सेसजोग-परिणदो त्ति एसो एत्थ सुत्तत्यपिण्ण" ।
कषाय के विषय में विभाषा करते हुए कहते हैं "प्रष्णदरों कसाओ " - दर्शन मोह के उपशामक के कषायचतुष्टय में कोई भी कषाय का सद्भाव पाया जाता है किन्तु यह विशेष बात है कि वह कषाय 'णियमा हायमाण- कषायो' - हीयमान अर्थात् मन्द कषाय रहती है ।
"
आत्मा का अर्थग्रहण का परिणाम उपयोग है " उपर्युक्ते श्रने नेत्युपयोगः श्रात्मनोऽर्यग्रहण - परिणाम इत्यर्थः " ( १९९६) । वह दो प्रकार है । साकार ग्रहण ज्ञानोपयोग है । निराकार ग्रहण दर्शनोपयोग है । सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के अभिमुख जीब के "शियमा सागारुवजोगो - नियमसे साकार उपयोग अर्थात् ज्ञानोपयोग होता हैं । दर्शनोपयोग उस समय नहीं होता है । कुमति, कुश्रुत तथा विभंगज्ञान अर्थात् कुप्रवधिज्ञान से परिणत जीव प्रथम सम्यक्त्व
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( १२४ ) की प्राप्ति कार्य में प्रवृत्त होता है "मदसुद-अण्णाणेहि विहंगणाणेण वा परिणदो होदूण एसो। पढमसम्मत्त प्यायणं पडि पयट्टइत्तिमिद्ध।" लेश्या के विषय में यह विभाषा है । "तेउ-पम्म-सुक्कलेस्लाणं णियमा वड्ढमाणलेस्सा" तेज, पद्म और शुक्ल लेश्या वाला वर्धमान लेश्या की स्थिति में ही प्रथम सम्यक्त्व को प्राप्त करता है। "एदेण किण्हणील-काउ-लेस्साणं हायमाणतेउ-पम्म सुक्कलेरमाणं च पडिसेहो को दट्टब्बो"-इससे कृष्ण, नील, कपोत लेश्या नों का तथा हीयमान तेज, पम तथा शुक्ल लेश्वाओं का प्रतिषेध किया गया है यह जानना चाहिये । नारकी जीवों में सम्यक्त्व को उत्पत्तिकाल में अशुभत्रिक लेश्याओं का सद्भाव पाया जाता है । अमादक NTS प्रसाशतिनों ही अपेक्षा किया गया है। उनके सम्यक्त्व उत्पत्ति काल में शुभत्रिक लेश्यानों के सिवाय अन्य लेश्यारों का अभाव है | "तिरिक्ख-मणुरसे प्रस्मियूणेदस्स सुत्तस्स पयट्टत्तादो। पा च तिरिक्ख-मणुस्सेसु सम्मत पडिवज्जमाणेसु सुहृतिलेस्सायो मोत्तणण्णलेस्साणं संभवो अस्थि" (१६९७)।
स्त्रीवेदी तथा पुरुषवेदी कोई भी वेद वाला दर्शनमोह का उपशामक होता है। यहां 'दब्व-भावेहि तिव्हं वेदाणमण्णदरपज्जारण विसेसियस्स' द्रव्य तथा भाव रूप तीनों वेदों में से अन्यतर वेद बाले का ग्रहण किया गया है ।
कारिण वा पुव्वबद्धाणि के वा असे गिबंधदि । कदिपावलियं पविसति कदि रहवा पवेसगो ॥२॥
- दर्शनमोह का उपशम करने वाले के कौन कौन कर्म पूर्वबद्ध हैं तथा वर्तमान में कौन कौन कर्मों को बांधता है ? कौन कौन प्रकृतियां उदयावली में प्रवेश करती हैं तथा कौन कौन प्रतियों का यह प्रवेशक है अर्थात्, किन किन प्रवृतियों को यह उदीरणा कराता है ?
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१२५ . )
विशेष - 'काणि वा पुम्दबद्धाणि' इस पद की विभाषा में कहते हैं । "एत्थ पर्याडिसतकम्मं द्विदिसतक्रम्मं प्रणभागसंतकम्म पदेससंतकम्मं च माग्गियन्वं" यहां प्रकृति सत्कर्म, स्थिति सत्कर्म, अनुभाग सत्कर्म तथा प्रकाशगंगा सुविधिस पहाराज
1
प्रकृति सत्कर्म को अपेक्षा आठों कर्मों का सद्भाव पाया जाता है। उत्तर प्रकृति की अपेक्षा इन प्रकृतियों की नत्ता है। पंच ज्ञानावरण, नव दर्शनावरण, दो वेदनीय, मिथ्यास्त्र सोलह काय नवनोकषाय इस प्रकार छब्बीस प्रकृतियों की मत्ता अनादि मिथ्यादृष्टि के होती है। सादि मिध्यादृष्ठि के छब्बीस, सत्ताईय श्रथवा अट्ठाईस की सत्ता होती है । प्रायु कर्म की श्रद्धायुष्क के एक भुज्यमान आयु की तथा बद्धायुष्क के भुज्यमान तथा एक बध्यमान श्रायु की अपेक्षा दो प्रकृति कही हैं । नामकर्म को इन प्रकृतियों की सत्ता कही है। चारगति पांच जाति, प्रौदारिक, वैक्रियिक, तैजस, कार्माणि ये चार शरीर, उनके बंवन तथा वात छहसंस्थान, औदारिक तथा वैक्रियिक मांगोपांग, छह संहनन, वर्ण गंध, रस, स्पर्श, चार आनुपूर्वी अगुरुलघु उपगात, परघात, श्रमस्थावरादि उच्छवास, श्राताप, दो उद्योत, दो विहायोगति, दशयुगल तथा निर्माण इनका मद्भाव पाया जाना है। दो गोत्र, तथा पांच अन्तराय का सद्भाव पाया जाता है |
1
स्थिति सत्कर्म तोकोड़ाकोड़ी कहा है । आयु के विषय में उसके प्रायोग्य ही है । "आउत्राणं च तप्पा श्रोग्गय गंतव्त्रं"
( १६९८ ) ।
अनुभाग सत्कम- 'अप्पमत्था कम्माण विवाणियाण भागसंतकम्भिग्रो' – प्रप्रशस्तकर्मों में द्विस्थानिक अनुभागसत्कर्म है । 'पसत्याण' पि पयडीपण चउट्ठाषाण भागसंतकम्मियो" - प्रशस्त प्रकृतियों में चतुःस्थानिक अनुभाग सत्कर्म है।
प्रदेश सत्कर्म – जिन प्रकृतियों का प्रकृतिसत्कर्म है, उनका प्रजधन्य अनुत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म जानना चाहिए ।
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'के वा असे णिबंधदि' इसको विभाषा करते हैं । प्रकृतिबंध का निर्देश करते समय तीन महादंडक प्ररूपणीय हैं । पंच ज्ञानाबरण, मार्गदर्शनावाजापासीमीयागमध्याखालीलह, कषाय, पुरुषवेद,
हास्य-रति, भय-जुगुप्सा, देवगति, पंचेन्द्रिय जाति, वैक्रियिक, तेजस, कार्माण शरीर, समचतुरस्र संस्थान, वैक्रियिक आंगोपांग, वर्णादिचतुष्क, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु प्रादि चतुष्क, प्रशस्तविहायोगति, प्रसादि चतुष्क, स्थिरादि षट्क, निर्माण, उच्च गोत्र तथा पंच अंतरायों का बंधक प्रत्यतर मनुष्य वा मनुष्यनी, वा पंचिन्द्रिय तिर्यंच अथवा तिर्यचिनी हैं । यह प्रथम दण्डक है ।
दूसरा दंडक इस प्रकार है:--पंचज्ञानावरा, नवदर्शनावरण, सातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलहकषाय, पुरुषवेद, भय-जुगुप्सा, मनुष्यगति, पंचेन्द्रिय जाति, प्रोदारिक-तैजस-कर्माण शरोर, समचतुरस्रसंस्थान, ववृषभसंहनन, प्रौदारिक-प्रांगोपांग, वर्ण, गंध, रस और स्पर्श, मनुष्यगति प्रायोग्यानुपूर्वी, अमुरुलघु चतुष्क, प्रशस्तविहायोगति, असादि चार, स्थिरादि छह, निर्माण, उच्चगोत्र तथा पंन अन्तरायों का बंधक अन्यतर देव या छह नरकों का नारको है । यह द्वितीय महादंडक है।
तीमरा महादंडक इस प्रकार हैं:--पंच ज्ञाताबरण, नव दर्शनावरण, सातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पुरुषभेद, हास्य रति, भयजुगुप्सा, तिर्यंचगति, पचेन्द्रिय जाति, प्रौदारिक तैजस कार्माणि शरीर, समचतुरनसंस्थान, ग्रौदारिक प्रांगोपांग, बवषभनाराच संहनन, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, तियंचगति प्रायोग्यानुपूर्वी, प्रगुरुलघुचतुष्क, उद्योत, १ स्यात् प्रशस्तविहायोगति, सादि चतष्क स्थिरादि षटक, निर्माण, नोच गोत्र, तथा पंच अन्तरायों का बंधक कोई सातवें नरक का नारकी होता है।
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(१) 'सिया पमत्थविहायगदि' पाठ में 'सिया' शब्द अधिक प्रतीत होता है ( पृष्ठ १६६९)
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मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविसागर जी म्हाराज
स्थितिबंध-इन प्रकृतियों का स्थिति बंध अंत:कोड़ाकोडी सागर है । विशुद्धतर भाव होने के कारण अधिक स्थिति बन्ध होता है । ___ अनुभाग बंध-महादंडकों में जो अप्रशस्त प्रकृतियां कहीं हैं. उनमे विस्थानिक अनुभागबन्ध है तथा शेष बची प्रशस्त प्रकृतियों में चतुः स्थानिक अनुभागबंध है।
प्रदेशबंध-पंच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरा, सानावेदनीय, द्वादश कषाय, पुरुषवेद, हास्यरति, भयजुगुप्सा, तिर्यचमति, मनुष्यगति, पंचेन्द्रिय जाति, औदारिक-तैजस-कामणि शरीर, प्रौदारिक शरीरांगोपांग, वर्ण, गंध, रस, स्परां, तिर्यच मनुष्यगांत प्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलुघु प्रादि चार, उद्योत, अस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, शुभ, यशःकीति, निर्माण, उच्चगोत्र, पंच अन्तरायों का अनुत्कृष्ट प्रदेशबंध होता है।
निद्रानिद्रा, प्रचला-प्रचला स्त्यानगृद्धि, मिथ्यात्व, अनंतानुबंधी चार, देवगति, वैक्रियिक शरीर, समचतुरस्र संस्थान, वैक्रियिक शरीर प्रांगोपांग, ववृषभ संहनन, देवगति प्रायोग्यानुपूर्वी, प्रशस्तविहायोगति, सुभग, सुस्वर, प्रादेय, नीच गोत्र इन प्रकृतियों के उत्कृष्ट तथा अनुत्कृष्ट स्थितिबंध होता है। ___ 'कदि प्रावलियं पविसंति' इस अंश को विभाषा इस प्रकार है । दर्शन मोह का उपशामक के कितनी प्रकृतियाँ उदायवली में प्रवेश करती हैं ? इस प्रश्न के उत्तर में चूगि सूत्रकार कहते हैं "मून मथडीप्रो सथानो पविसति" (१७००) संपूर्ण मूल प्रकृतियां उदायवली में प्रवेश करती हैं, क्योंकि सभो मूल प्रकृतियों का उदय देखा जाता है।
जो उत्तर प्रकृतियां विद्यमान हैं, उनका उदयावली में प्रवेश का निषेध नहीं है। प्रायु कर्म के विषय में यह ज्ञातव्य है कि यदि प्रबद्धायुष्क है, तो भुज्यमान एक प्रायु का ही उदय होगा।
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मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधासागर जी महाराज . . . ( १२८ )
यदि बुद्धायुष्क है, तो उसके आगामीबद्ध प्रायु का उदय नहीं होगा, ‘णवरि जइ पर भवियाउमत्थि तण्ण पविसदि ।'
गाथा में प्रश्न किया है "कदिण्हं वा पवेसगो' ?-कौन कौन प्रकृतियों का उदी रणारूप प्रवेशक है ?
विभाषा में कहते हैं, "सभी मूल प्रकृतियों का उदोरण रूप से प्रवेशक है।"
उत्तर प्रकृतियों में पंचज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, मिथ्यात्व पंवेन्द्रिय जाति, ते त्रस-कार्माण शरीर, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, प्रगुरुलघु, उपधात, परघात, उच्छ्वास, प्रस, वादर पर्याप्त, प्रत्येक शरीर, स्थिर-अस्थिर, शुभ अशुभ, निर्माण तथा पंच अन्त रायों का नियम से उदीरणा रूप से प्रवेशक है । इन प्रकृतियों को उदीरणा द्वारा नियम से उदयावली में प्रवेश करता है ।
माता -- असाता वेदनीय में से किसी एक का उदीरणा द्वारा उदयावली में प्रवेशक है । चार कपाय, तीन वेद, हास्यादि दो युगुलों में से अन्यतर अर्थात् किसी एक का प्रवेशक है। भयजुगुप्सा का स्यात् प्रवेशक है । चार प्रायु में से एक का प्रवेशक है। छह संहननों में से अन्यतर का प्रवेशक है। उद्योत का स्यात् प्रवेशक है। दो विहायोगति, सुभग-दुभंग, सुस्वर-दुस्वर, प्रादेय-प्रनादेय, यश:कीर्ति, अशयःको तिं इन युगलों में से अन्यतर को उदोरणा द्वारा उदयावली में प्रवेश करता है। के अंसे झीयदे पुव्वं बंधेण उदएण वा। अंतरवाहि किच्चाके के उवसामगोकहि ||६३॥
दर्शनमोह के उपशम के पूर्वबंध अथवा उदय की अपेक्षा कौन कौन कमांश क्षय को प्राप्त होते हैं ? कहां पर अन्तर को करता है ? कहा पर किन किन कर्मों का उपशामक होना है ?
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श्री इंद्रप्रभु
दिशपर जन माला
( १२६ ) जामगांव जि. गुडाणा विशेष-दर्शनमोह का उपशम करने वाले के असातावेदनीय, स्रीवेद, नपुंसकवेद, अरति शोक, 'चार प्रायु. नरकगति, चार जाति, पंचसंस्थान, पंचसंहनन, नरकगति प्रायोग्यानुपूर्वी, प्राताप, अप्रशस्तविहायोगति, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, अस्थिर, अशुभ, दुभंग, दुस्वर, अनादेय, अयश:कीति ये प्रकृतियां पूर्व ही बंध-व्युच्छित्ति को प्राप्त होती है ।
दर्शन मोह के उपशामक के ये प्रकृतियां उदय से व्युच्छिन्न होती हैं :--पंच दर्शनावरण, एकेन्द्रियादि चार जाति नामकमं, मार्गदर्शकर ग्रामी, प्राविशारजासूदाअपर्याप्त, साधारण शरीर नाम कर्म की उदय व्युच्छित्ति होती है।
'अंतरं वा कहिं किच्चा के के उवसामगो कहि' इस गाथा के अंश की विभाषा करते हैं।
इस समय अधःप्रवृत्तकरण के अन्त रकरण अथवा दर्शन मोह का उपशामक नहीं होता है । प्रागे अनिवृत्तिकरण काल में अन्तरकरण तथा दर्शन मोह का उपशमन होता है । "उवसामगो वा पुरदो होहदि त्ति ण ताव इदानीमंतरकरणमुपशमकत्वं वा दर्शनमोहस्य विद्यते किन्तुं तदुभयं पुरस्तादनिवृत्तिकरणं प्रविष्टम्य भविष्यतीति” (१७०६) किं हिदियाणि कम्माणि अणुभागेसु केस वा । अोवदूण सेसाणि कं ठाणे पडिवजदि ॥६४॥
दर्शन मोहनीय का उपशामक किस स्थिति तथा अनुभाग सहित कौन-कौन कर्मों का अपवर्तन करके किस स्थान को प्राप्त करता है तथा शेष कर्म किस स्थिति तथा अनुभाग को प्राप्त करते हैं ?
विशेष—इस गाथा को विभाषा करते हैं। स्थितिघात संख्यात बहुभागों का घात करके संख्यातवें भाग को प्राप्त होता
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मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुर्विधिसागर जी महाराज है । अनुभाग घात अन्तबहुभागों का घात करके अनंतवें भाग को प्राप्त होता है । इस कारण इस अधःप्रवृत्तकरण के चरम समय में वर्तमान जीव के स्थितिघात और अनुभागवात नहीं होते हैं । "से काले दो वि यादा पत्तीहिति" तदनंतर काल में प्रर्थात् अपूर्वकरण के काल में ये दोनों ही घात प्रारंभ होंगे ।
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पूर्वोक्त चार सूत्रगाथा अधःप्रवृत्तकरण के प्रथम समय में प्ररूपित की गई हैं । 'दंसणमोह उवसामगस्स तिविहं करणं' (१७०७) - दर्शन मोह के उपशामक के अधःप्रवृत्तकरण, प्रपूर्वकरण और श्रनिवृत्तिकरण ये तोन करण होते हैं। करण का स्वरूप इस प्रकार हैं " येन परिणामविशेषेण दर्शन मोहोपशमादिविवक्षितो भावः क्रियते निष्पाद्यते स परिणाम विशेषः करणमित्युच्यते " -- जिस परिणाम विशेष के द्वारा दर्शन मोहनीय का उपशमादि रूप विवक्षित भाव संपादित होता है, उस परिणाम विशेष को करण कहते हैं । दर्शन मोह के तीन करण होते हैं । उस जीव के चौथी उपशामनाद्वा भी होती है "चउत्थी उवसामणद्धा ।" जिस काल विशेष में दर्शन मोहनीय उपशान्तता को प्राप्त हो स्थित होता है, उस काल को उपशामनाद्धा कहते हैं- "जम्हि श्रद्धाविसेसे दंसणमोहणीय मुवसंतावण्णं होण चिट्ठइ सा उवसामणद्धा त्ति भण्णदे" (१७०८)
अधः प्रवृत्तकरण — जिस भाव में विद्यमान जीवों के उपरितन समयवर्ती परिणाम अधस्तनसमयवर्ती जीवों के साथ सदृश होते हैं, उन भावों के समुदाय को अधःप्रवृत्तकरण कहते हैं । गोम्मटसार जीवकाण्ड में कहा है :
जम्हा उदरिमभावा हेद्रिमभावेहिं सरिसगा होंति । तम्हा पढमं करणं प्रधापवत्तोति गिट्टि ॥ ४८ ॥
यतः उपरितन समयवर्ती जीवों के भाव अधस्तन समयवर्ती जीवों के समान होते हैं, ततः प्रथम करण को प्रधःप्रवृत्तकरण कहते हैं ।
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(. १३१ ) अंतोमुत्तमेत्तो तत्कालो होदि तत्थ परिणामा ! लोगाणमसंखमिदा उवरुवरि सरिसबडि ढगया ।। ४९ ॥
इसका समय अंतर्मुहूर्त प्रमाण है। उसमें असंख्यात लोक प्रमाण परिणाम होते हैं। वे आगे मागे ममान वृद्धि को प्राप्त होते हैं।
मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी म्हारा
इस अधःप्रवृत्तकरण के काल के संख्यातवें भाग प्रमाण अपूर्व करण का काल है। अपूर्वकरण के काल के मुख्यातवें भाग प्रमाण अनिवृत्तिकरण का काल है। तीनों का काल मिलने पर अतर्मुहूर्त ही होता है।
अधःप्रवृत्तकरण के प्रथम समय में जघन्य विशुद्धि सबसे अल्प है। द्वितीय समय में वह विशुद्धि पूर्व से अनंतगुणी है। यह क्रम अन्तमुहूर्त पर्यन्त चलता है । इसके अनंतर प्रथम समय में उत्कृष्ट विशुद्धि अनंतगुणी है । जिस समय में जघन्य विशुद्धि समास होतो है, उसके उपरिम समय में अर्थात् प्रथम निवर्गणाकाण्इक के अंतिम समय के आगे के समय में जघन्य विशुद्धि अनंतगुणी होती है। प्रथम कांडक की उत्कृष्ट विशुद्धि से द्वितीय समय को उत्कृष्ट विशुद्धि अनंतगुणी है । इस प्रकार यह क्रम निर्माणाकांडक मात्र अंतमुहूतं काल प्रमाण अधःकरण के अंतिम समय पर्यन्त चलता है । इसके पश्चात् अंतमुहर्तकाल अपसरण करके जिस समय में उत्कृष्ट विशुद्धि समाप्त होती है, उससे अर्थात् द्विच रम निर्वर्गणा कांडक के अंतिम समय से उपरिम समय में उत्कृष्ट विशुद्धि अनंतगुणी होती है । इस प्रकार से यह उत्कृष्ट विशुद्धि का क्रम अधः करण के अंतिम समय पर्यन्त ले जाना चाहिए । यह अधःप्रवृत्त. करण का स्वरूप है। __ आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती अपूर्वकरण के विषय में कहते हैं।
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( १३२ ) एदग्हि गुणट्टाणे विभरिस-समयट्टियेहिं जीवेहि । पृश्वमपत्ता जम्हा होति अपुल्वा हु परिणामा ॥५१॥ गो० जी०
इस गुणस्थान में विसदृश समय में स्थित जीवों के पूर्व में दक:- अहोरामा सुधारसार अरिक्षामज होते हैं । इस कारण अपूर्वकरपा
नाम सार्थक है।
यहां भिन्न समय स्थित जीवों के भावों में समानता नहीं होती किन्तु एक समय स्थिति जीवों में समानता अथवा असमानता होती है। अंतमूहूर्तकाल में असंख्यातलोकप्रमाण परिणम होते हैं । यहाँ अनुकृष्टि नहीं होतो (१)
अपूर्वकरण . के प्रथम समय में जघन्य विशुद्ध सर्व स्तोक है । उससे उत्कृष्ट विशुद्धि अनंतगुणो है। द्वितीय समय में जवन्य विशुद्धि पूर्व से अनंत गुणी है। उससे उत्कृष्ट विशुद्धि अनंतगुणित है । अपूर्वकरण के प्रतिसमय असंख्यातलोक प्रमाण परिणाम होते हैं । इस प्रकार का क्रम निवर्गणा कांडक पर्यन्त जानना चाहिये ।
जितने काल आगे जाकर विवक्षित समय में होने वाले परिणामों की अनुकृष्टि विच्छिन्न हो जाती है, उसे निर्वर्गणा काण्डक कहा है।
अभिवृत्तिकरण के विषय में यह बात ज्ञातव्य है, “अणियहिकरणे समए समए एक्केक्कपरिणामट्ठाणाणि अर्णतगुणाणि च" अनिवृत्तिकरण के काल में प्रत्येक समय में एक एक ही परिणाम स्थान होते हैं । वे परिणाम उत्तरोत्तर अनंतगुणित हैं । (१७१४}
नेमिचन्द्र आचार्य ने लिखा है कि जिस प्रकार संस्थान आदि में भिन्नता पाई जाती है, उस प्रकार एक समय के भावों में
(१) अनुत्कर्षणमनुत्कृष्टिरन्योन्येन समानत्वानुचिंतनमित्यनर्थान्तरम् (१७०८)
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भिन्नता नहीं पाई जाती है । अधःकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्ति करण गुणस्थानों में जिस प्रकार भावों का परिणमन होता है, वैसे ही लक्षण दर्शन मोह के उपशामक के करणत्रिक में पाये जाते हैं। इसी कारण उनके नामकरण में भिन्नता पाई नहीं जाती है।
उपशम सम्यक्त्व को प्राप्त होने वाले अनादि मिश्यादष्टि जीव के विषय में इस प्रकार प्ररुपणा की गई है कि उस जीव के अधःप्रवृत्त करपा में स्थिति-क्रांडक घात, अनुभाग-कांडक घात, मागणशेषी गौशाय साजहीये जाते हैं। वह अनंतगुणी विशुद्धि से विशुद्ध होता जाता है । "अघापव्रत्तकरणे द्विदिखंडयं वा अणुभागखंडयं वा गुणसेडो वा गुणसंकमो वा णस्थि केवलमणंतगुणाए विसोहीए बिसुज्झदि ।” (१७१४) वह जिन अप्रशस्त कर्माशों का बंध करता है, उन्हें विस्थानिक तथा अनंतगुणहीन बांधता है । जिन प्रशस्त कर्माशों को वह बांधता है, उन्हें चतुःस्थानिक तथा अनतगुणित बांधता है। "अप्पसत्यकम्मसे जे बंधइ ते दृट्ठाणिये अणंतगुणहीणे च, पसत्थकम्मसे जे बंधइ ते च चउद्याणिए अर्णतगुणे च" (१७१४)। एक एक स्थितिबंध-काल के पूर्ण होने पर वह पल्योपम के संख्यातवें भाग से हीन अन्य स्थितिबंध को बांधता है। इस प्रकार संख्यात सहन स्थितिबंधापसरणों के होने पर अधः प्रवृत्त करण का काल समाप्त हो जाता है ।
अपूर्वकरपा के प्रथम समय में जघन्य स्थितिखंड पल्योपम का संख्यातवां भाग तथा उत्कृष्ट स्थिति खण्ड सागरोपमपृथक्त्व है। अधःप्रवृत्तकरण के अंतिम समय में होने वाले स्थितिबंध से पल्योपम के संख्यातवें भाग से होन अपूर्व स्थितिबंध अपूर्वकरण के प्रथम समय में होता है । "अणुभागखंडयमप्पसत्थकम्मंसाणम. पंताभागा"-अप्रशस्त कर्माशों का अनुभाग खंडन अनंत बहुभाग होता है। प्रशस्त कर्मों में अनुभाग की वृद्धि होती है।
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{ १३४ ) अनिवृत्तिकरण के प्रथम समय में अन्य स्थिति खंड, अन्य स्थिति बंत्र तथा अन्य अनुभाग कांडकघात प्रारंभ होता है । इस प्रकार हजारों स्थितिकांडकघातों के द्वारा अनिवृत्तकरणकाल के संख्यात बहुभागों के व्यतीत होने पर वह जीव मिथ्यात्व कर्म का अंतर करता है। "अणियट्टस्स पढमसमए अण्णं टिदिग्दंडयं अण्णो ट्ठिदिबंधो अण्णमणुभागवइयं । एवं ट्ठिदिखंडयसहस्सेहि अणियट्टिप्रद्धाए संखेज्जेसु भागेसु गदेसु अंतरं करेंदि" (१७१६)
निषेकों का प्रभाब करना अंतरकरण कहा जाता है। "णिसेगाणामभावीकरणमंतरकरणमिदि भण्णदे" ।
उस समय जितना स्थितिबंध का काल है, उतने काल के द्वारा अन्तर को करता हुआ गुणश्रेणीनिक्षेप के अग्रान से लेकर नीचे संख्यातवें भाग प्रमाणा - कोचडिशा कुमारीगर इस हाराज प्रकार अन्तरकरण पूर्ण होने पर वह जीव उपशामक कहा जाता है "तदोप्पटुडि उवसामगो ति भण्ण इ" (१७२०)
वह अधःप्रवृत्तकरण के प्रथम समय से लेकर उपशामक था तथा मिथ्यात्व के तीन खण्ड करने पर्यन्त उपशामक रहता है। दसणमोहस्सुवसामगो दु चदुसु वि गदीसु बोद्धव्वो। पंचिंदिय-सएणी [पुण] णियमा सो होइ पउजत्तो ॥१५॥ ___ दर्शन मोह का उपशम करने वाला जीव चारों गतियों में जानना चाहिए । वह नियम से पंचेन्द्रिय, संज्ञी तथा पर्याप्तक होता है।
विशेष -पंचेन्द्रिय निर्देश द्वारा एकेन्द्रिय तथा विकलेन्द्रियों का प्रतिषेध हो जाता है । संज्ञी पंचेन्द्रिय कहने से सम्यक्त्व उत्पत्ति को प्रायोग्यता प्रसंज्ञो पंचेन्द्रियों में नहीं है, यह सूचित किया गया है । लब्ध्यपर्याप्तक तथा निवृत्यपर्याप्तकों में भी सम्यक्त्व को को उत्पत्ति की प्रायोग्यता का प्रभाव है । (१) ।
चदुगति-भवो सण्णी पज्जत्तो सुज्झगोय सागारो। जागारो सल्लेस्सो सलद्धिगो सम्ममुवगमई ॥६५२॥ गो० जी०
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मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज श्री !
( १३५ ) f... ... . ... हाला सव्वणिरय-भवणेसुदीवसमद्देगह-जोदिसि विमाण। मणी अभिजोगामणभिजोग्गो उवसामो होइ बोद्धव्यो ॥६६॥ ___ सर्व नरकों में, भवनवासियों में, सर्व-द्वीप-समुद्रों में, गुह्यों अर्थात् व्यंतरों में, ज्योतिषियों में, वैमानिकों में, प्राभियोग्यों में उनसे भिन्न अनभियोग्य देवों में दर्शन मोह का उपशम होता है ।
विशेष-वेदनाभिभव आदि कारणों से नारकियों के सम्यक्त्व की उत्पत्ति होती है. यह सूचित करने के लिए 'सव्व णिरय' पद दिया गया है। सर्व भवन वासियों में जिन-बिंब दर्शन, देवों की ऋद्धि दर्शन आदि कारणों से सम्यवत्व उत्पन्न होता है।
शंका-अढ़ाई द्वीप के आगे के समुद्रों में त्रस जीवों का प्रभाव है, वहां सम्यक्त्व की उत्पत्ति कैसे होगी ? "तसजीवविरहियेसु असंखेज्जेसु समुद्देसु कधं ?"
समाधान-सम्यक्त्व प्राप्ति के प्रयत्न में संलग्न तियंचों को कोई शत्र देव उन समुद्रों में ले जा सकता है। इस प्रकार वहां तिर्यंचों का सद्भाव सिद्ध हो जाता है-"पुन्धवेरिय-देव-पनोगेण णोदाणं तिरिक्खाणं सम्मत्त प्पत्तीए पयट्टताणं उवलंभादो ( १७२९ )
बाहनादि कुत्सित कर्मों में नियुक्त प्राभियोग्य देवों को वाहन देव कहते हैं "अभियुज्यंत इत्यभियोग्याः वाहनादौ कुत्सिते कर्मणि नियुज्यमाना वाहनदेवा इत्यर्थः" इन देवों से भिन्न किल्विषिकादि अनुतमदेव तथा पारिषदादि उत्तम देव अनभियोग्य जानना चाहिये। उवसामगो च सव्वो णिवाघादो तहा बिरासारणो। उवसंते भजियव्वा णीरासाणो य खीणम्मि ॥७॥ ___ दर्शन मोह के उपशामक सर्व जीव नियाघात तथा निरासान होते हैं । दर्शन मोह के उपशान्त होने पर सासादन भाव भजनीय है किन्तु क्षीण होने पर निरासान हो रहता है।
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मार्गदर्शक :- आचाव द र्श मोह के उपशमन कार्य को प्रारंभ करने वाला
उपशामक पर यदि पशु देवादि कृत चार प्रकार के उपमर्ग एक साथ हो जावें, तो भी निश्चय से दर्शन मोह के उपशामना में प्रति बंध होने पर उस कार्य को वे क्षति नहीं प्राप्त करा सकते । इस कथन से यह बात भी प्रतिपादित की गई है कि दर्शनमोहोपशामक के उस अवस्था में मरण का प्रभाव भी सूचित किया गया हैं- "दसणमोहोवसामणं पारंभिय उवसाममाणस्स जइ वि च उबिहोवसग्गवम्गो जुगमुचट्ठाइ तो वि णिच्छरण दसणमोहोवसामणमेतो पडिबंधे ण विणासमाणेदि ति वुत्तं होइ । एदेण दसणमोहोवसामगस्स तदवत्थाए मरणाभावो वि पदुष्पाइदा दव्यो।"
"णिरासाण' के कहने से सूचित होता है कि दर्शनमोहोपशामक उस अवस्था में सासादन गुणस्थान को नहीं प्राप्त होता है । दर्शन मोह की उपशामना होने के अनंतर यदि उपशम सम्यक्त्व का जघन्य से एक समय तथा उत्कृष्ट से छह प्रावलीकाल शेष बचा है तो वह सासादन गुणस्थान को प्राप्त होता है, अन्यथा नहीं प्राप्त होता । इससे सासादन गुणस्थान को प्राप्त होना भजनीय है।
दर्शन मोह के क्षय होने पर सासादन गुणस्थान में प्रतिपात नहीं होता; कारण क्षायिक सम्यक्त्व के प्रतिपात का अभाव है । सागारे पट्टवगो णिवगो मज्झिमो य भजिययो । जांगे अण्णदरम्हि य जहएणगो तेउलेस्ताए ।
साकार उपयोग में विद्यमान जीव ही दर्शन मोह के उपशमन का प्रस्थापक होता है, किन्तु उसका निछापक तथा मध्यम अवस्था वाला जीव भजनीय है। ___ मन, वचन तथा काय रूप योगों में से एक योग में विद्यमान तथा तेजोलेश्या के जघन्य अंश को प्राप्त जीव दर्शन मोह का उपशमन करता है।
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मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविहिासागर जी महाराज
विशेष-~दर्शनमोहोपशमना का प्रस्थापक साकार उपयोगी रहता है। इससे यह सूचित किया गया है कि जागृत अवस्था युक्त सम्यक्त्व की उत्पत्ति के प्रायोग्य है । १ निद्रा परिणाम परिणत जीव के सम्यक्त्व की उत्पत्ति के योग्य विशुद्ध परिणामों के पाए जाने का विरोध है।
२ दर्शन मोह को उपशामना में उद्यत जीव अधः प्रवृत्तकरण के प्रथम समय से लेकर अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त प्रस्थापक कहा गया है ।
प्रश्न-यहां गाथा में प्रागत 'मझिम' शब्द के विषय में शंकाकार पूछता है "को मज्झिमो णाम ?"
उत्तर--"पट्ठवग-णिटुवग-पज्जायाणमंतरालकाले पयट्टमाणो मझिमो ति भण्णदे-" दर्शनमोह के प्रस्थापक और निष्ठापक पर्यायों के मध्यवर्ती काल में प्रवर्तमान जीव को मज्झिम अथवा मध्यम कहा गया है।
यह मध्यवर्ती जीव ज्ञानोपयोगी तथा दर्शनोपयोगी भी हो सकता है। . लेश्या के विषय में यह बात विशेष ध्यान देने योग्य है कि तिर्यंचों तथा मनुष्यों में कृष्ण, नील तथा कापोत लेश्या में सम्यक्त्व को उत्पत्ति का प्रतिषेध किया गया है, क्योंकि विशुद्धि के काल में अशुभत्रिक लेश्या के परिणामों का सद्भाव असंभव है। नारकियों में प्रशुभत्रिक लेश्याओं का ही अस्तित्व कहा है, इस कारण "ण तत्थेदं सुत्तं पयट्ठदे" उनमें इस सूत्र की प्रवृत्ति नहीं होती है। "तदो तिरिक्ख-मणुस बिसयमेवेदं सुत्तमिदि गहेयन्वं"-यह सूत्र तिर्यंच तथा मनुष्य विषयक है, यह बात ग्रहण करनी चाहिये।
१ णिहापरिणामस्स सम्मत्त प्पत्ति-पाप्रोग्गविसोहि परिणामेहिं विरुद्ध-सहावत्तादो ।
२.दसणमोहोपवसामणमाढवतो अधापवत्तकरणपढमसमयप्पटुडि अंतोमुहुत्तमेत्तकालं पट्टबगो णाम भवदि ।। १७३० ॥
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( १३८ ) मिच्छत्तवेदणीयं कम उवसामगस्स बोन्द्वव्वं । उवसंते आसाणे तेण पर होइ भजियव्वो ॥६॥
उपशामक के मिथ्यात्व वेदनीय कर्म का उदय जानना चाहिये । दर्शन मोह के उपशमन की अवस्था के अवसान होने पर मिथ्यात्व का उदय भजनीय है।
विशेष-मिथ्यात्ववेदनीय का अर्थ उदयावस्था को प्राप्त मिथ्यात्व कर्म है। "वेद्यते इति वेदनीयं मिथ्यात्वमेव वेदनीयं मिथ्यात्ववेदनीयं उदयावस्थापरिणतं मिथ्यात्वत्रर्मेति यावत्" (१७३१)
दर्शन मोह के उपशामक के जब तक अंतर प्रवेश नहीं होता, तब तक मिथ्यात्व का उदय पार्शजीता हाचापशमै सम्यिवसागर जी म्हा काल में मिथ्याल्व का उदय नहीं होता । उपशम सम्यक्त्व का काल नष्ट होने पर यदि सासादन या मिश्रगुणस्थान को अथवा वेदक सम्यक्त्व को प्राप्त होता है, तो उसके मिथ्यात्य का उदय नहीं होगा । यदि वह जीव मिथ्यात्व गुणस्थान में आ जाता है, तो उसके मिथ्यात्व का उदय होगा। इससे मिथ्यात्व का उदय भजनीय कहा है। सव्वेहि द्विदिविसेसेहिं उवसंता होंति तिरिण कम्मंसा। एक्कम्हि व अणुभागे णियमा सव्वे टिदिविसेसा ॥१०॥ ___दर्शनमोह के मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व रूप त्रिविध कौश दर्शन मोह के उपशान्त काल में सर्वस्थिति विशेषों के साथ उपशान्त अर्थात् उदय रहित होते हैं । एक ही अनुभाग में उन तीनों कर्माशों के सभी स्थिति विशेष नियम से अवस्थित रहते हैं।
विशेष--यहां तिण्णि कम्मंसा' कहने का भाव मिथ्यात्व, सम्यक्त्व तथा सम्यग्मिथ्यात्व को ग्रहण करना चाहिए।" एत्थ तिषिण
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( १३६ ) कम्मंसा ति भणिदे मिच्छत्त-सम्मत्त-सम्मामिच्छताणं गहणं कायव्वं ।" उन तीनों की कोई भी स्थिति अनुपशान्त नहीं है। ... तीनों प्रकृतियों के सर्वस्थिति विशेष एक ही अनुभाग में रहते हैं। मिच्छत्तपच्चो खलु बंधो उवसामगस्स बोद्धव्यो। 'उवसंते आसाणे तेण परं होइ भजियव्यो ॥१०१॥ : दर्शन मोह का उपशमन करने वाले उपशामक के मिथ्यात्व निमित्तक कर्मबंध जानना चाहिए । दर्शन मोह का उपशम हो जाने पर उपशमलवर्षयी केशिवालया स्पधक्काचाह होना है। १ उपशान्त दशा के अवसान हो जाने पर मिथ्यात्व निमित्तक बंध भजनीय है । ।
विशेष---दर्शन मोह का उपशमन कार्य पूर्ण न होने पर मिथ्यात्व गुणस्थान रहता है । अतः उसके मिथ्यात्व निमित्तक बंध होता है । उपशम सम्यक्त्वी का. काल. पूर्ण हो जाने पर यदि वह मिथ्यात्व अवस्था को प्राप्त होता है, तो मिथ्यात्व निमित्तक बंध होगा । कदाचित् वह सासादन गुणस्थान को प्राप्त करता है, तो उसके मिथ्यात्व निमित्तक बंध का अभाव होगा । इस कारण उपशान्त दशा के अवसान होने पर मिथ्यात्व निमित्तक बंध भजनीय कहा गया है। . सम्मामिच्छाइटी दंसणमोहस्सप्रबंधगो होइ। . वेदयसम्माइट्टी खीणो वि अबंधगो होइ॥१०२॥
सम्यग्मिथ्याष्टि जीव दर्शन मोह का प्रबंधक होता है। वेदक
(१) मिन्छतां पन्नो कारणं जस्स सो मिच्छत्तपच्चयो खलु परिप्फुडं बंधो दसणमोहोवसामगस्स जाव पढमट्ठिदिचरमसमो त्ति ताव बोद्धब्बो (१७३२) . ...
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( १४० ) सम्यग्दृष्टि, क्षायिक सम्यक्त्वी, उपशम सम्यक्त्वी तथा सासादन मार्गदर्शक्सम्यस्यीशम महाशिलाबी हाराज
विशेप-सम्यक्त्वमिथ्यात्व प्रकृति तथा सम्यक्त्वप्रकृति की बंध प्रकृतियों में गणना नहीं की जाती है । इससे मिश्रगुणस्थानवर्ती मिश्र प्रकृति का बंध नहीं करता है तथा बेदक सम्यक्त्वी सम्यक्त्व प्रकृति का बंध नहीं करता है। सम्यक्त्व प्रकृति तथा मिश्र प्रकृति की उदय प्रकृति में गणना की गई है । प्रथमोरशम सम्यक्त्व प्राप्त होने पर वह जीव मिथ्यात्व को तीन रूप में विभक्त करता है। मिथ्यात्व, सामथ्यात्व और सम्यक्त्व ये स्वरूप उस मिथ्यात्व कर्म के हो जाते हैं । जिस प्रकार यंत्र के द्वारा दला गया कोदों तीन रूप होता है । कोदों को दले जाने पर कुछ भाग तो मादकता पूर्ण कोदों के रूप में रहता है । कुछ भाग में कम मादकता रहती हैं । भुसी सदृश अंश अल्प मादकता सहित होता है। १ अंतोमुत्तमद्धं सव्वोवसमेण होइ उत्रसंतो । तत्तो परमुदयो खलु तिण्णेक्कदरस्स कम्मस्स ॥१०३।।
उपशम सम्यकत्वी के दर्शन मोहनीय कर्म अन्तर्मुहूर्त काल पर्यन्त सर्वोपशम से उपशान्त रहता है। अन्तर्मुहुर्त काल बीतने पर मिथ्यात्व, मिश्र अथवा सम्यक्त्व रूप अन्यतर प्रकृति का उदय हो जाता है।
विशेष—'सर्वोपशम' का भाव यह है, कि मिथ्यात्वादि तीनों प्रकृतियों का प्रकृति, स्थिति, अनुभाग तथा प्रदेश संबंधी उपशांतपना पाया जाता हैं। "सब्वोत्रसमेणे ति बुत्ते सव्वेसि दसणमोहणीयकम्मापामुवसमेणेत्ति घेत्तत्वं, मिच्छत्त-सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं तिण्हंपि कम्माणं पयडि-द्विदि-अणुभाग-पदेसविहत्ताणमेत्युवसंतभावे. णावट्ठाणदंसणादो (१७३३)
(१) जंतेण कोद्दवं वा पढमुवसम-सम्मभाव-जंतेण । मिच्छ दव्वं तु तिधा असंखगुणहीणदव्धकमा ॥गो० ० २६॥
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( १४१ )
सम्मत्तपढमलभो सव्वोवसमेण तह वियट्ठरेण । भजिव् य अभिक्रखं सव्वोवसमेण देसेण ॥ १०४ ॥
नादि मिथ्यादृष्टि जीव को सम्यक्त्व की प्रथम बार प्राप्ति सर्वोपशम से होती हैं । विप्रकृष्ट सादि मिथ्यादृष्टि भी सर्वोपशम से प्रथमोपशम सम्यक्त्व को प्राप्त करता है । विप्रकृष्ट सादि मिथ्यादृष्टि, जो अभीक्ष्णश्रर्थात् बार बार सम्यक्त्व को प्राप्त करता है, सर्वोपशम तथा देशोपशम से भजनीय है ।
विशेष - जिस जीव ने एक बार भी सम्यक्त्व को प्राप्त कर पश्चात् मिथ्यात्व अवस्था प्राप्त की है, उसको सादि मिथ्यादृष्टि कहते हैं । उसके विप्रकृष्ट तथा अविप्रकृष्ट ये दो भेद कहे गए हैं । शैल से गिरकर मिध्यात्व भूमि को प्राप्त हो गया है तथा जिसने सम्यग्मिथ्यात्व तथा सम्यक्त्व प्रकृति की उद्वेलना को है और जो पल्योपम के प्रसंख्यातवें भाग काल पर्यन्त प्रथवा इससे भी अधिक देशोन अर्धपुदगल परिवर्तन काल पर्यन्त संसार में परिभ्रमण करता है, उसे विप्रकृष्ट सादि मिध्यादृष्टि कहते हैं ।
मार्गदर्शक :- आचार्य
जो जीव सम्यक्त्व से गिरकर मिथ्यात्वी हो पल्योपम के श्रसंख्यातवें भाग के भीतर ही सम्यक्त्व ग्रहण के अभिमुख होते हैं, उन्हें अविप्रकृष्ट सादि मिथ्यात्वी कहते हैं ।
विप्रकृष्ट सादि मिथ्यादृष्टि नियम से सर्वोपशम पूर्वक हो प्रथमोपशम सम्यक्त्व का लाभ करता है । श्रविप्रकृष्ट सादि मिथ्यादृष्टि सर्वोपशम से तथा देशोपशम से भी प्रथमोपशम सम्यक्त्व को प्राप्त होता है ।
जो सम्यक्त्व से च्युत होकर अल्पकाल के अनंतर वेदक प्रायोग्यकाल के भीतर हो सम्यक्त्व ग्रहण के श्रभिमुख है, वह देशोपशम के द्वारा सम्यक्त्व को प्राप्त करता है, अन्यथा सर्वोपशम से सम्यक्त्व को प्राप्त करता है ।
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( १४२ )
सम्मत्तपढमलंभस्सारतरं पच्छदो य मिच्छतं । लभस्स पढमस्स तु भजियव्वो पच्छदो होदि ॥ १०५ ॥
सम्यक्त्व की प्रथम बार प्राप्ति के अनंतर तथा पश्चात् मिथ्यात्व का उदय होता है, किन्तु प्रथमबार सम्यक्त्व की प्राप्ति के पश्चात् वह भजनीय है ।
विशेष – अनादि मिथ्यादृष्टि जीव प्रथम बार सम्यक्त्व को प्राप्त करता है, उसके पूर्वक्षण में तथा उपशम सभ्यऋव का काल समाप्त होने पर मिथ्यात्व का उदय कहा गया है, किन्तु अप्रथम बार अर्थात् दूसरी बार, तीसरी बार आदि बार जो सम्यक्त्व का लाभ होता है, उसके पश्चात् मिथ्यात्व का उदय भजनीय है । वह कदाचित् मिथ्यादृष्टि हॉफरक सभ्य की प्रतिष् उपशम सम्यक्त्व को प्राप्त होता है, कदाचित् सम्यग्मिथ्यादृष्टि होकर वेदक सम्यक्त्व को प्राप्त करता है ।
जी महाराज
कम्माणि जस्त तिणि दु गियमा सो संकमेण भजियत्रो । एयं जस्स दु कम्मं संकमणे सो भजियच्वो ॥१०६ ॥
जिस जीव को सत्ता में मिथ्यात्व सम्यग्मिथ्यात्व तथा सम्यक्त्व प्रकृति विद्यमान है अथवा मिथ्यात्व के बिना या सम्यक्त्व प्रकृति के बिना शेष दो दर्शनमोह की प्रकृतियां मत्ता में हैं, वह जीव नियम से संक्रमण की अपेक्षा भजनीय है । जिसके एक ही दर्शन मोह को प्रकृति सत्ता में है, वह संक्रमण को अपेक्षा भजनीय नहीं है ।
विशेष - गाथा के प्रारंभ में 'दु' शब्द प्राया है, वह मिथ्यात्व अथवा सम्यक्त्व प्रकृति के बिना शेष दो प्रकृतियों को सूचित करता है ।
जिस मिथ्यादृष्टि या सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव में दर्शनमोह की मिथ्यात्वादि तीन प्रकृति की सत्ता रहती है, उसके सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यक्त्व प्रकृति तथा मिध्यात्व का यथा क्रम से संक्रमण होता है ।
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{ १४३ ) मासादन सम्यग्दृष्टि अथवा सम्यग्मिथ्यारष्टि जीव में उक्त तीनों प्रकृतियों की मत्ता रहते हुए भी उन तीनों प्रकृतियों का संक्रमण नहीं होता क्योंकि सासादन तथा मिश्र गुणस्थान में संक्रमणा की शक्ति नहीं होती है। पत्रिीय नेमियन्मसिद्धासचिनयता नाकहान:
सम्म मिच्छं मिस्सं सगुणट्ठाणम्मि णेत्र संक्रमदि । सासण-मिस्से णियमा दसतियसंकमोत्थि ॥ गो. क. ४११ ॥
सम्यक्त्व, मिथ्यात्व तथा मिश्र प्रकृति का असंयतसम्यक्त्व मिथ्यात्व तथा मिश्रगुण स्थान में संक्रमण नहीं करता है। सासादन तथा मिश्र गुणस्थान में दर्शन मोह की तीन प्रकृतियों का संक्रमण नहीं होता है। "असंयतादि-चतुर्वस्तोत्यर्थ:"-असंयतादि चार गुणस्थानों में संक्रमण होता है ( गो, क. संस्कृत टीका पृष्ठ ५८४)
सम्यक्त्व प्रकृति की उद्वेलना करने वाले मिथ्यादृष्टि के जिस समय वह प्रावली प्रविष्ट रहता है,उस के दर्शन-मोहत्रिक की सत्ता रहते हुए भी एक का संक्रमण होता है अथवा मिथ्यात्व का का क्षपण करने वाले सम्यक्त्वी के जिस समय उदयावली वाहा स्थित सर्व द्रव्य का क्षपण किया जाता है, उस समय उसके दर्शन मोत्रिक को सत्ता रहते हुए भी एक का ही संक्रमण होता है।
दर्शन मोहत्रिक की सत्ता युक्त जीव स्यात् दो का, स्यात् एक का संक्रामक होता है तथा स्यात् एक का भी संक्रामक नहीं होता है । इस प्रकार उसके भजनीयता जानना चाहिये ।
जिसने मिथ्यात्व का क्षय किया है, ऐसे वेदक सम्यक्त्वी में या सम्यक्त्व प्रकृति के उद्वेलन करने वाले मिथ्यादृष्टि में दो की सत्ता रहते हुए भी तब तक एक ही प्रकृति का संक्रमण होता है, जब तक कि क्षय को प्राप्त या उद्वेलित सम्यग्मिथ्यात्व अनावली प्रविष्ट है। जब वह सम्यग्मिथ्यात्व आवली प्रविष्ट होता है, तब उस सम्यक्त्वी या मिथ्यादृष्टि के संक्रमण न होने से भजनीयता
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( १४४ )
सिद्ध होती है । जिस सम्यक्त्वी के क्षपणा वश या मिथ्यात्वी के उद्वेलनावश एक ही सम्यक्त्व प्रकृति या मिथ्यात्व प्रकृति शेष रही है, वह संक्रमण की अपेक्षा भजितव्य नहीं है, क्योंकि उसके संक्रमण शक्ति का प्रभाव है, इस कारण वह संक्रामक है । " एयं जस्स दु कम्मं एवं भणिदे जस्स सम्माइ ट्ठिस्स वा खवणुब्वेणावसेण सम्मत्त वा मिच्छत्त वा एकमेव संतकम्ममवसिद्ध ण सो संक्रमेण भणिज्जो । संक्रमभंगस्स नृत्य 'ताभावेण संकामगो चेव सो होइ त्ति भणिदं होइ " ( पृ० १७३४)
सम्माइट्ठी जीवो सद्दहदि पवयरणं शियमसा दु उवइयं । सद्दाम सुरुशिष्योग ॥१०७॥
सम्यग्दृष्टि जीव सर्वज्ञोपदिष्ट प्रवचन का तो नियम से श्रद्धान करता है, किन्तु अज्ञानवश सद्भूत अर्थ को स्वयं न जानता हुआ गुरु के निमित्त से अद्भुत प्रर्थ का भी श्रद्धान करता है । (१)
पर
(प्रकर्षता को प्राप्त वचन प्रवचन है ऐ सर्वज्ञ का उपदेश, मागम तथा सिद्धान्त एकायं वाचक शब्द हैं । "परिसंजुत्तं त्रवणं पवणं सध्वण्होबएसो परमागमोति सिद्धत्तो ति एयट्टी"
सम्यग्दृष्टि श्रसद्भन अथं को गुरु वाणी से प्रमाण मानता हुआ स्वयं अज्ञानतावश श्रद्धान करता है । इससे उस सम्यक्वी में आज्ञा सम्यक्त्व का लक्षण पाया जाता है । असद्भूत श्रयं का श्रद्धान करने पर भी वह सम्यक्त्व युक्त रहता है । "परमागमोपदेश एवायमित्यध्यवसायेन तथा प्रतिपद्यमानस्यानवबुद्धपरमार्थस्थापितस्य सम्यग्दृष्टित्वाप्रच्युतेः " - यह परमागम का ही कथन है, ऐसा अध्यवसाय रहने से तथा प्रतिपद्यमान वस्तु के संबंध में
१ सम्माइट्ठी जीवो उवटु पवयणं तु सद्दहृदि ।
सहदि प्रसन्भावं प्रजाणमाणो गुरुणियोगा ॥ २७ ॥ गो०जी०
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श्री चंद्रप्रभु ( १४५ )
दिगबर जन ागाला
बामगांय जि. बुलडाणा परमार्थ तस्वदर्स अपशिचत श्रीविष्टसमा बी सम्यक वोपने से च्युत नहीं होता है। १ मिच्छाइट्ठी णियमा उवइटुं पवयणं ण सद्दहदि ।
सद्दहदि असम्भावं उवइटुं वा अणुवइ8 ॥१०८॥ मिथ्यादृष्टि नियम से सर्वज्ञ के द्वारा उपदिष्ट प्रवचन का श्रद्धान नहीं करता है किन्तु अल्पज्ञों द्वारा प्रतिपादित अथवा अप्रतिपादित असद्भाव अर्थात् वस्तु के अयथार्थ स्वरूप का श्रद्धान करता है।
विशेष-सत्य प्रवचन में अश्रद्धा तथा असत्य प्रतिपादन में श्रद्धा होने का कारण दर्शन मोहनीय कर्म का उदय है, जिससे विपरीत अभिनिवेश हो जाया करता है । "दसणमोहणीयोदय जणिद विवरीयाहिणिवेसत्तादो" (१७३५) । दर्शन मोहनीय के उदयवश यह उपदिष्ट अथवा अनुपदिष्ट कुमार्ग का श्रद्धान करता है। "उपदिष्टमनु मदिष्ट वा दुर्मागमेप दर्शनमोहोदयच्छ धाति ।"
सम्मामिच्छाइट्टी सागारो वा तहा अणागारो । अध बंजणोम्गहम्मि दु सागारो होइ बोद्धव्यो ॥ १०६॥
सम्यग्मिथ्या दृष्टि साकारोपयोगी तथा अनाका रोपयोगी होता है । व्यंजनावग्रह (. विचारपूर्वक अर्थग्रहण ) की अवस्था में साकारोपयोगी ही होता है।
विशेष- सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव साकार अर्थात् ज्ञानोपयोग तथा अनाकार उपयोग (दर्शनोपयोग) युक्त होता है। "एदेण दंमणमोहोवसामणाए पयट्टमागस्स पढमदाए जहा सागारोवजोग
-
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१ मिच्छाइट्ठी जोवो उवइट्ठ पबयणं ण सद्दहदि ।
सहदि असन्मावं उवइट्ट वा अणुवइट्ठ॥१८॥ गो०जी०
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णियमो एवमेत्य पत्थि णियमो" (१७३५) इससे दर्शनमोहको उपशामना में प्रवर्तमान प्रथमावस्था में नियम से साकारोपयोग
होता है, यह नियम यहां नहीं है । मार्गदर्शक व्यसनादस्यायविचारवाचिनो ग्रहणात् तदवस्थायां ज्ञानोपयोग
परिणत एव भवति, न दर्शनोपयोगपरिणत इति यावत्"-व्यंजन शब्द का भाव अर्थ का विचार है । उस अवस्था में ज्ञानोपयोग परिणत ही होता है। उस समय दर्शनोपयोग परिणत नहीं होता है।
मित्रगुणस्थानवी जीव के साकार तथा निराकार रूप उपयोगों में परस्पर परिवर्तन भी संभव है।
शंका- व्यंजनावग्रह काल में दर्शनोपयोग का क्यों निषेध किया गया है ?
समाधान- पूर्वापर विचार से शून्य सामान्यमाग्राही दर्शनोपयोग में तत्व का विचार नहीं हो सकता है । व्यंजनावग्रह में अर्थका विचार पाया जाता है, इस कारण उस अवस्था में दर्शनोपयोग का सद्भाव नहीं हो सकता ।
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( १४७ ) दर्शनमोह-क्षपणा-अनुयोगद्वार १ दसरणमोहक्खवगा पट्टवगो कम्मभूमिजादो ।
मार्गदर्शक:- अवार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज... णियमा मणुसगदीए गिट्ठवगा चावि सव्वत्थ ॥११०॥
कमभूमि में उत्पन्न हुग्रा तथा मनुष्यगति में वर्तमान जीब ही दर्शनमोह की क्षपणा का प्रस्थापक होता है । दर्शनमोह की क्षपणा का निष्ठापक ( पूर्ण करने वाला ) चारों गतियों में पाया जाता है ।
विशेष --- दर्शनमोह के क्षपणकार्य का प्रारंभ कर्मभूमिज मनुष्य ही करता है कारण "प्रकम्मभूमिजस्त य मणुसस्स च दंसणमोहखवणासत्तीए अच्चंताभावेन पडिसिद्धत्तादो"- अकर्मभूमिज मनुःयके दर्शनमोह के क्षपण को सामर्थ्य का सर्वथा प्रभाव होने उसका प्रतिषेध किया गया है।
कर्मभूमिज मनुन्य भी तीर्थंकर केवली, सामान्य केवली या श्रुतकेवली के पादमूलमें दर्शनमोह की क्षरणा को प्रारम्भ करता हैं, अन्यत्र नहीं।" कम्मभूमिजादो वि तित्थयर-केवलि-भुदकेवलोणं पादमूले दंशणमोहणीयं खवेदु माहवे इ पाण्णत्थ ।"
शंका --- मम्यग्दर्शन प्रात्मा की विशुद्धि है, उसके लिए बाह्य अवलंबन रुप केवला, शुत केबली के पादमूल को समोपता क्यों अावश्यक कही गई है ?
ममाधान- "अदिट्ठ-तित्थयरादिमाहण्यस्स दंगणमोहखवणणिबंधणकरण-परिणामाणमणुप्पत्तीदो” (१७३७)-तीर्थंकर आदि के माहात्म्य को न देखनेवाले मनुष्य के दर्शनमोहके क्षपण में कारण परिणाम उत्पन्न नहीं हो पाते ।
१ दंसण-मोहक्खवणा-पट्ठवगो कम्मभूमिजादो हु मणुसो केवलिमूले णिटुवगो होदि सव्वत्थ ॥६४८||गो.जी.
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( १४८ ) महापुराणकार जिनसेन स्वामी ने सम्यग्दर्शन की उपपत्ति में बाह्य तथा अन्तरंग ग़ामग्री को आवश्यक कहा है:
देशना-कालनन्ध्पादि-वायकरणसम्पदि ।
अन्त:-करणसामग्रयां भव्यात्मा स्याइ विशुद्धपक ॥११६.६।। जब देशनास्मसिधाकानीमायादि मारिमारजी महाराजरणति रुप अन्तरंग सामग्री को प्राप्ति होती है, तब भव्यात्मा विशुद्ध सम्यक्त्व को धारण करता है ।
इश प्रसंग में यह बात विशेष ध्यान देने योय है, कि क्षायिक सम्यक व की उपलब्धि हुए बिना क्षपक श्रेणी पर आरोहण नहीं हो सकता है । मोन प्राप्ति के लिए क्षायिक सम्यक्त्व की प्रामि में केवली के पादमूल का अाश्रय रुप निमित्त कारण आवश्यक माना गया है । इस निमित्त कारण का सुयोग न मिलने पर क्षायिक सम्यक्त्व की प्राप्ति असंभव है।
यदि दर्शनमोह की क्षपणा का प्रस्थापक जीव बद्धायक है, तो वह दर्शनमोहकी क्षपणा का कार्य प्रारंभ करने के उपरांत कृतकृत्य वेदक-काल के भीतर ही मरण को प्राप्त करता है तथा चारों ही गतियों में दर्शनमोह क्षपण की निष्ठापना करता है। वह प्रथम नरक में, भोगभूमियों पुरुषवेदी तिर्यंचों में, भोगभूमियां पुरुषों अथवा कल्पवासी देवों में उत्पन्न होकर दर्शनमोह क्षपणा को निष्ठापना करता है।
मिच्छत्तवेदपीए कम्मे ओवहिदम्मि सम्मत्ते ।
खवणाए पटुवगो जहणणगो तेउलेस्साए ॥१११॥ मिथ्यात्व वंदनीय कर्म के सम्यक्त्व प्रकृति में अपवर्तित (संक्रमित) किए जाने पर जीव दर्शनमोह को क्षपणा का प्रस्थापक होता है। उसे जघन्य तेजो लेश्या में वर्तमान होना चाहिए ।
विशेष- दर्शनमोह की क्षपणा में तत्पर कर्मभूमिया मनुष्य मिथ्यात्व प्रकृति के सर्व द्रव्य को मिश्र प्रकृति रूप में संक्रमित
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मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज
करता है । मिश्र प्रकृति रुप परिणत द्रव्य को जब पूर्ण रूप से सम्यक्त्व प्रकृति रुप में संक्रमित कर देता है, तब उसे दर्शन-मोहक्षपणा का प्रस्थापक कहते हैं।
अधःप्रवृत्तकरपा के प्रथम समय से ही प्रस्थापक संज्ञा प्रारंभ होती है तथा वह यहां तक प्रस्थापक कहलाता है ।
जवन्य तेजोलेश्या का निर्देश करने से अशुभ त्रिक लेश्याओं में दर्शनमोहकी क्षपणा का कार्य प्रारंभ नहीं होता, यह ज्ञात होता है। कृष्ण, नील तथा कापोत लेश्याका विशुद्धि के विरुद्ध स्वभाव है किण्ण-नील-काउलेस्साणं विमोहिविरुद्धसहावाणं ।" इस कारण प्रात्मबिशुद्धि पर निर्भर इस दर्शन मोहकी क्षपणा के अवसर उक्त अशुभत्रिक लेश्यानों का प्रभाव परम आवश्यक है।
अंतोमुत्तमद्धं दसणमोहस्स णियमसा खवगो। खीणे देवमणुस्से सियाविणामाउगो बंधो॥ ११२ ॥ ___ वह दर्शनमोह का क्षयक अंतर्मुहूर्त पर्यन्त नियम से दर्शन मोह के क्षपणका कार्य करता है । दर्शन मोह के क्षीण हो जाने पर देवगति तथा मनुष्यगति संबंधी नाम कर्म की प्रकृतियों का तथा पायुकर्मका स्यात् बंधक है । __विशेष- दर्शन मोहका क्षपण करने वाला यदि मनुष्य है या तिर्यंच है, तो वह देवगति संबंध नाम कर्म तथा देवायुका बंध करता है।
यदि वह जीव देव है अथवा नारकी है, तो वह मनुष्यगति संबंधी नाम कर्म तथा मनुष्यायुका बंध करता है । यदि वह चरम शरीरी मनुष्य है तो आयु का वंध नहीं करेगा तथा नामकर्म की प्रकृतियोंका, स्वयोग्य गुणस्थानों में बंधव्युच्छित्ति होने के पश्चात् पुनः बंध नहीं करेगा । यह भाव गाथा में प्रागत 'सिया' शब्द से सूचित होता है।
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खवणाए पर्दुवी जम्हिचारिणयमसातदो अणणे । गणाधिगच्छदि तिषिणभवे दंसणमोहम्मि खीणम्मि ॥११३॥ ___ दर्शन मोह की क्षपणा में प्रवर्तमान ( प्रस्थापक ) जीव जिस भव में प्रस्थापक होता है, उससे अन्य तीन भवो का उल्लंघन नहीं करता है ।
विशेष-- दर्शनमोह की क्षपणा करने वाला जीव अधिक से अधिक तीन भव और वारणकरके मोक्ष को प्राप्त करता है । “जो पुण पुब्बा उप्रबंधवसेणं भोगभूमिज-तिरिकाल-मणमोसुप्पज्न इ तस्म खवणाबवणभवं मोनण अण्णे तिfण मन्त्रा होति । तत्तो गनुण देवेसुज्जिय तदो चविय मणुस्सेसुप्पास्स णिधाणगमण-णियम दंमाझे"-जिम जीव ने पूर्व प्रायु का बंध करने के कारण भोगभूमिज तियं वपना या मनुष्यपना ग्राम किया है, उसके क्षपणा प्रस्थापन भव को छोड़कर अन्य तीन भव होंगे। वह भोगभूमि से देत्रों में उत्पन्न होगा, तथा वहां से चयकर मनुष्यों में पैदा होकर नियम से निर्माण गमन करता है । (१७३९) संखेज्जा च मगुस्सेसु खीणमोहा सहस्ससो णियमा । सेसासु खीरणमोहा गदीसु रिन्यमा असंखेज्जा ॥११४||
मनुष्यों में क्षीण-दर्शनमोही नियम से संख्यात सहस्र होते हैं । शेष गतियों में क्षीणदर्शनमोही नियम से असंख्यात होते हैं ।
विशेष-- यहां 'क्षी णमोह' शब्द द्वारा दर्शनमोह का क्षण करने वाला ही जानना चाहिए ! क्षीणमोह गुणस्थानप्राप्त अर्थ करना असंगत है। ____जो वेदक सम्यक्त्वी दर्शन-मोह की क्षपणा का प्रस्थापक होता है, वह पूर्व में अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया तथा लोभ को विसंयोजना का कार्य पूर्ण करता है । "अविसंजोइदाणताणुबंधिचउक्कस्स दसणमोहवखवणपट्ठवणाणुववत्तीदो"- अनंतानुबंधी
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चतुष्ककी विसंयोजना हुए बिना दर्शन मोहको क्षपणा की प्रस्थापना नहीं होती है । इमसे अनंतानुबंधी चतुष्क को दिसंयोजना करने वाला वेदक सम्यक्त्वी , असंयत, देशसंयत, प्रमत्त संयत वा अप्रमत्त संयत सर्वविशुद्ध परिणाम से दर्शनमोहकी क्षपणा में प्रवृत्त होता है यह जानना चाहिए । तम्हा विसंजोइदाणताणुबंधिच उक्को वेदगसम्माइली असंजदो संजदासंजदो पमत्तापमत्ताणमणदरो संजदो वा सवबिसुद्धण परिणामेण दसणमोहकववणाए पयट्टदि त्ति घेत्तव्वं (१७४०)
दर्शनमोहको क्षपणा के विषय में विशेष परिनानार्थ सत्यरुपणा, द्रव्य, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भागाभाग तथा अल्पबहुत्व ये आठ अनुयोग द्वार इस गाथा द्वारा सूचित किए गए हैं-"एदोए खीणदंसणमोहाणं जीवाणं पमाण-पदुप्पायणदुवारेण संतादिअट्ठाणियोगदारेहिं परुवणा सूचिदा" । (१७३९)...
मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज
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( १५२ ) देशविरत अनुयोगद्वार
लद्वी या संजमा संजमस्स लद्धी तहा चरितस्स । वढावढी उवसामा य तह पुव्वन्द्वाणं ॥ ११५ ॥
संयमासंयम की लब्धि, सकल चरित्र की लब्धि, भावों की उत्तरोत्तर वृद्धि तथा पूर्वबद्ध कर्मों को उपशामना इस अनुयोगद्वार में वर्णनीय है ।
विशेष- इस एक ही गाथा द्वारा संयमासंयम लब्धि तथा संयमलब्धि का उल्लेख किया गया है |
हिंसादि पापों का एक देशत्याग संयमासंयम है। इसमें मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज त्रसवध का त्यागरुप संयम पाया जाता तथा स्थावरवध का त्याग न होने से प्रसंयम भी पाया जाता है । इस कारण इसे संयमासंयम या विरताविरत कहते हैं ।
गोम्मटसार जोवकाण्ड में कहा है:
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जो तसबहादु विरदो प्रविश्य तह यथावचहादो । एकसमयहि जीवो विरदाविरदो जिणेक्कमई ॥ ३१ ॥ जो सहिमासे विरत है तथा स्थावर हिंसा से अविरत है तथा आप्त, आगमादि में प्रगाढ़ श्रद्धावान् हैं, वह एक काल में विरताविरत कहा जाता है । गाथा में श्रागत 'च' शब्द का भाव है " चेत्यनेन प्रयोजनं विना स्थावरवधमपि न करोतीत्ययमर्थः सुज्यते" (पृष्ठ ६० संस्कृत टीका गो. जी.)- बिना प्रयोजन के वह स्थावर जीवों का वध भी नहीं करता ।
J
देशविरत के देशचारित्र का घात करने वाली अप्रत्याख्यानावरण कषाय के उदयाभाव से जो विशुद्ध परिणाम होते हैं, उसे संयमासंयम लब्धि कहते हैं। यहां संयमासंयमी के प्रत्याख्यानावरण, संज्वलन तथा नव नोकषायों का उदय भी पाया जाता है; किन्तु यह विशेषता है " ते सिमुदयस्स सव्वधादित्ताभावेण देसोबस मस्स
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( १५३ ) तत्थ संभवे विरोहाभावादो” उनका उदय सर्वघातीपने से रहित होने से देशोपशम बहां भी संभव है, कारण इसमें कोई विरोध नहीं है। प्रत्याख्यानावरण का उदय तो सबंधाती ही है, ऐसा कहना ठीक नहीं है । देशसंयम के विषय में उसका व्यापार नहीं पाया जाता है" पच्चक्खाणावरणीयोदयो सब्वघादी चेवेत्ति चे ण, देससंजमविसए तस्स वावाराभावादो ( १७७५)
नेमिचंद्राचार्य ने कहा है:पच्चक्खाणुदयादो संजमभावो ण होदि गरि तु ।। थोववदो होदि तदो देसवदो होदि पंचमग्रो ॥ ३० ।। गो. जो.
प्रत्याख्यानावरण कषाय प्रत्याख्यान अर्थात् सकलसंयम को रोकताहक उस ऋषार्य श्री विहानपी सामाभाव नहीं होता है । १ प्रत्याख्यानावरण के सर्वघाती स्पर्धकों का उदयाभाव लक्षण क्षय तथा उनका सदवस्था रूप उपशम होने पर तथा देशघाती स्पर्धकों का उदय होने से अल्प व्रत रूप देशव्रत होते हैं । इसको धारण करने वाला पंचमगुणस्थानयुक्त कहा गया है।
यतिवृषभ प्राचार्य कहते हैं "पचक्खाणावरणीया वि संजमासंजमस्स ण किंचि आवरति—" प्रत्याख्यानावरणीय कषाय संयमासंयम को कुछ भी क्षति नहीं पहुँचाती है । "सेसा चदुकसाया गवणोकसायवेदणीयाणि च उदिण्णापि देशघादि करेदि संजमासंजम"--शेष चार संज्वलन कषाय, नव नोकपाय वेदनीय के उदयवश संयमासंयम को देशघाती करती हैं । ' देशधादि करेंति, खग्रोवसामियं करेंति त्ति बुत्तं होदि-" देशघाती करती हैं इसका भाव यह है कि उसे क्षायोपशमिक करती हैं।
१ प्रत्याख्यानावरण कषायाणां सर्वघातिस्पर्धकोदयाभावलक्षणे क्षये तेषामेव सदवस्थालक्षणे उपशमे च देशधातिस्पर्धकोदयादुत्पम्न. त्वाशसंयमः क्षायोपशमिक इति प्रतिपादितः ।।
( संस्कृत टीका पृष्ठ ५९)
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यदि प्रत्याख्यानावरणीय का उदय होते हुए भी शेष संज्वलनादि चारित्र मोह की प्रकृति को बदनही.सनिझियमा जी म्हारा संयम लब्धि को क्षायिकपना प्राप्त हो जायगा-"जइ पंचक्खाणावरणीय वेदेतो सेसाणि चरित्तमोहणीयाणि ण वेदेज्ज तदा संजमासंजम लद्धी खइया होज्ज ।" संज्वलनादि का देशधाति रूपसे उदय परिणाम पाया जाता है, इससे उसे क्षायोपशमिक कहा है। (१९६४)
इस संयमासंजम के विशेष परिज्ञानार्थ सत् प्ररुपणा, द्रव्यप्रमाण, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अंतर, भागाभाग और अल्पबहुत्व ये
आठ अनुयोग द्वार हैं, “संजदासंजदाणमट्ठ अणियोगद्दाराणि" ___हिंसादि का त्याग करके पंच महाव्रत, पंच समिति तथा तीन गुप्ति को धारण करने रूप जो विशुद्ध परिणाम होते हैं, वह संयम लब्धि है । गोम्मटसार जीवकांड में कहा है:
संजलण-गोकसायाणुदयादो संजमो हवे जम्हा ।
मलजणणपमादो वि य तम्हा हु पमत्तविरदो सो ॥३२॥ संज्वलन तथा नव नोकधायों के सर्वघाति स्पर्धकों का उदयाभाव रूप क्षय, तथा उनका सदवस्था रूप उपशम और देशघाति स्पर्धकों के उदय होने से संयम के साथ मलिनता का कारण प्रमाद भी होता हैं, इससे प्रमत्तविरत कहते हैं।
१ अलब्धपूर्व संयमासंघम लब्धि अथवा संयम लब्धि के प्राप्त होने पर उसके प्रथम समय से लेकर अंतर्मुहत पर्यन्त प्रति समय अनंतगुणित क्रम से परिणामों में विशुद्धता को वृद्धि को 'वड्ढावड्ढी' कहते हैं।
१ 'वड्ढाबड्डो' एव भणिदे तासु चेव संजमासंजम-संजमलद्धीसु अलद्धपुब्बासु पडिलद्धासु तल्लाभपढमसमयप्पहुडि अंतोमुहत्तकालभंतरे पडिसमयमणंतगुणाए सेढीए परिणामवडढ़ी गहेयरो। उवरुवरिपरिणामवढीए वड्वावडिववएसो बलंवपादो । (१७४५)
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( १५५ ) २ देशसंयम तथा संयम के प्रतिबंधक पूर्वबद्धकर्मों के अनुदय को उपशामना कहा है । इसके चार भेद हैं 1 ( १ ) प्रकृति उपशामना (२) स्थिति उपशामना ( ३) अनुभाग उपशामना ( ४ ) प्रदेश उपशामना ।
देशसंयम तथा सकल संयम को घातकरते वाली प्रकृतियों को उपशामना को प्रकृति उपशामना कहते हैं। इन्हीं प्रकृतियों को अथवा सभी कर्मों को प्रतःकोडाकोडी सागर से ऊपर की
स्थितियों का उदयाभाव स्थिति उपशामना है। चारित्र के घातक मार्गदर्शक :-कमायों की रिकामीयर तुम्हवानीय अनुभाग के उदयाभाव को
वया उदय में आनेवाली कषायों के सर्वघाती स्पर्धकों के उदयाभाव को अनुभागोपशामना कहा है । उनके देशवाति द्विस्थानीय अनुभाग के उदय का सद्भाव पाया जाता है । अनुदय प्राप्त कषायों के प्रदेशों के उदयाभाव को प्रदेशोपशामना कहा हैं।
२ संजमासंजम-संजमलद्धामो पबिज्जमाणस्स पुन्वबद्धार्ण कम्माणं चारित्तपडिबंधीणमणुदयलक्खणा उवसामणा घेतव्वा ।
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चारित्रलन्धि अनुयोगद्वार चारित्र तथा संयम में कोई भेद नहीं है। चूणिसूत्रकार ने इस मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज
अनुयोग द्वार कौँ चारित्र का अनुयोग द्वार कहा है । उन्होंने लिखा है "लद्धी तहा चरित्तस्से त्ति अणियोगद्दारे पुव्वं गमणिज्जं मुत्तं" ( १७९५ ) चारित्र लब्धि अनुयोग द्वार में पहले गाथा रूप सूत्र ज्ञातव्य है । ''तं जहा जा चेव संजमासंजमे भणिदा गाहा सा चेव एत्थ वि कायवा" वह इस प्रकार है । जो गाथा संयमासंयम लब्धि नामक अनुयोग द्वार में कही है, वही यहां भी प्ररूपण करना चाहिये । गुणधर प्राचार्य ने गाथा में "लद्धी तहा चरित्तस्स" ( ११५ गाथा) शब्दों का प्रयोग किया है । जयधवला टीका के मंगलाचरण में संयमलब्धि अनुयोग शब्द का उपयोग किया गया है ।
संजमिद-सयलकरणे णमसिउं सव्वसंजदे बोच्छ ।
संजमसुद्धिणिमित्त' संजमलद्धि त्ति अणिपोगं । - जिन्होंने संपूर्ण इंद्रियों को वश में कर लिया है, ऐसे संपूर्ण संयमियों को नमस्कार करके संयम की शुद्धि के निमित्त संयम लब्धि अनुयोग को कहता हूँ। • चूणिसूत्रकार कहते हैं “जो संजमं पढमदाए पडिवज्जदि तस्स दुविहा अद्धा प्रद्धापवलकरणद्धा अपुवकरणद्धा च” ( १७९७ ) जो संयम को प्रथमता से प्राप्त होता है, उसके अधःप्रवृत्तकरण काल तथा अपूर्वकरण काल इस प्रकार दो प्रकार काल कहा है।
शंका-यहां अनिवृत्तिकाल के साथ तीन प्रद्धा ( काल ) क्यों नहीं कहे --"एत्थ अणियट्टिअद्धाए सह तिष्पिा श्रद्धा कधं ण परूविदामो?" · समाधान-वेदक प्रायोग्य मिथ्यादृष्टि अथवा वेदक सम्यग्दृष्टि के प्रथमता से संयम को स्वीकार करने वाले के अनिवृत्तिकरण नहीं पाया जाता है-"वेदगपाप्रोग्ग-मिच्छाइद्विस्स वेदगसम्मा
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मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज
इद्विस्म वा पढमदाए संजम पडिवज्जमाणस्साणियट्टिकरण-संभवा. भावादो' (१६९८) । संयमासंयम लब्धि में दो करण कहे हैं । - अनादि मिथ्यादृष्टि के उपशम सम्यक्त्व के साथ संयम के प्राप्त होते समय तीनों करण होते हैं, किन्तु यहां उसकी विवक्षा नहीं है, क्योंकि वह दर्शनमोह को उपशामना में अंतर्भूत हो जाता है। • चारित्रलब्धि को प्राप्त होने वाले जीवों के सत्प्ररुपणा, द्रव्य, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अंतर, भागाभाग और अल्पबहुत्व ये पाठ अनुयोग द्वार हैं । संयमलब्धि के दो भेद हैं । (१) जघन्य (२) उत्कृष्ट संयमलब्धि रुप भेद हैं । कषायों के तीव्र अनुभागोदय जनित मंद विशुद्धता युक्त जघन्य संयम लब्धि है। कषायों के मन्दत र अनुभागोदय जनित विपुल विशुद्धता सहित उत्कृष्ट संयम लब्धि है।
शंकाक्षीण कषाय तथा उपशांतकषाय गुणस्थानों की सर्वोत्कृष्ट चारित्र लब्धि को यहां क्यों नहीं ग्रहण किया ?
___ समाधान-यहां प्रकरणवश सामायिक, छेदोपस्थापना संयम वालों की उत्कृष्ट चारित्र लब्धि को ग्रहण किया है।
जघन्य संयम लधि सर्व संक्लिष्ट तथा अनंतर समय में मिथ्यात्व को प्राप्त होने वाले अंतिम समयवर्ती संयमी के होती है। • उत्कृष्ट संयम लब्धि सर्वविशुद्ध स्वस्थान संयत के होती है। सर्वोत्कृष्ट संयम लब्धि उपशांतमोह तथा क्षीण मोह के होती है, जिनके यथाख्यात संयमलब्धि पाई जाती है ।
• संयम लब्धि स्थान के (१) प्रतिपात स्थान (२) उत्पादक स्थान (३) लब्धि स्थान ये तीन भेद हैं
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*}:
( १५८ /
१ प्रतिपातस्थान की व्युत्पत्ति इस प्रकार हैं "प्रतिपतत्यस्मादधस्तनगुणेष्विति ” नीचे के गुणस्थान में यहां से प्रतिपतन होने से मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज से प्रतिपात कहते है । जिस स्थान पर स्थित जीव मिथ्यात्व को, असंयम सम्यक्त्व ( ग्रसंजमसम्मत्तं ) वा संयमासंयम को प्राप्त होता है, वह प्रतिपात स्थान कहा गया है ।
जिस स्थान पर स्थित जोव संयम को प्राप्त होता है, उसे उत्पादकस्थान कहते हैं । इसकी व्युत्पत्ति इस प्रकार है "संयम मुत्पादयतीत्युत्पादकः प्रतिपद्यमान इत्यर्थः तस्य स्थान मुत्पादक स्थानं पडिवज्जमापट्टाभिदि वृत्त होई" संयम को उत्पन्न कराता है, इससे उत्पादक कहते हैं । यह विशुद्विवश संयम को प्राप्त करता है ।
संपूर्ण चारित्र स्थानों को लब्धि स्थान कहते हैं । " सव्वाणि चेव चरितट्ठाणणि लद्धिद्वाणाणि" (१८०२ ) चूर्णिकार ने 'सर्व' शब्द ग्रहण किया है, उसमें प्रतिपाल स्थान, अप्रतिपात स्थान, प्रतिपद्यमान स्थान, अप्रतिपद्यमान स्थान इन सबका समावेश हुआ है। इसका दूसरा अर्थ यह किया गया है कि उत्पादक स्थान तथा प्रतिपात स्थान को छोड़कर शेष संयम स्थानों का यहां ग्रहण किया गया है । श्रतः श्रप्रतिपात तथा अप्रतिपद्यमान संयम लब्धि स्थान 'सर्व' शब्द द्वारा ग्रहण किए गए हैं ।
भरत, ऐरावत तथा विदेह सम्बन्धी पंचदश कर्मभूमियां हैं । उनमें उत्पन्न जीवों के प्रतिपद्यमान जघन्य संयन स्थानों की अपेक्षा कर्मभूमि में उत्पन्न जीवों के प्रतिपद्यमान जयन्य सबम स्थान अनंतगुणे कहे हैं ।
१ परिवादाणं णांम जम्हि हाणे मिच्छत्त वा असंजमसम्मतं वा संजमासंजम वा गच्छ तं पडिवादद्वाणं । उप्पादयद्वाणं पाम जहा जम्हि द्वाणे संजमं पडिवज्जइ तमुप्पादयद्वाणं णाम । (१८०२)
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( १५६ )
शंका - कर्मभूमिज कौन कहे गए हैं ?
माक्ककि जब कार्य का शुभ संयम का ग्रहण किस प्रकार होगा ?
श्री चंद्रप्रभु
समाधान -- भरत, ऐरावत तथा विदेहों में विनोत्त अर्थात् आर्य नामक मध्यम खण्ड को छोड़कर शेष पंचखण्डों के निवासी मनुष्य यहां 'अकर्मभूमिज' कहे गए हैं । १ उनमें धर्म-कर्म की प्रवृत्ति संभव होने से प्रकर्मभूमिजपना उपयुक्त है ।
है, तब वहां
•
विकर व पाठशाला
खामगांव
बुलडाणा
समाधान-२ दिग्विजय ( दिसा-विजय ) में प्रवृत्त चक्रवर्ती के स्कन्धावार ( कटक ) के साथ जो म्लेच्छ नरेश प्रखण्ड में भा आते हैं, उनके साथ चक्रवर्ती का विवाह का सम्बन्ध हो जाने से संयम को प्रतिपत्ति में बाधा नहीं है ।
अथवा चक्रवर्ती आदि के द्वारा विवाहित उन म्लेच्छ क्षेत्रोत्पन्न नरेशों की कन्याओं के गर्भ से जो संतान उत्पन्न हुई, वह मातृपक्ष की अपेक्षा यहां प्रकर्मभूमिज पद से विवक्षिकी गई है, अतः कोई बाधा नहीं है । ऐसी संतान को दीक्षा सम्बन्धी योग्यता में कोई बाधा नहीं है
१ भररावयविदेहेसु विणोदसणिदमज्झिमखंड मोत्तण सेसपंचखंडनिवासी मणुश्रो एत्थाकम्मभूमिप्रो ति विवक्खिदो, तेसु धम्मकम्मपत्तीए असंभवेण तब्भावोववत्तोदो ( १८०५ )
२ दिसाविजयपट्टी-खंधावारेण सह मज्झिमखंडमागयाणं मिलेच्छरायाणं तत्थ चक्कवट्टी आदिहिं सहजाद वेवाहियसंबंधाणं संजम पडिवत्तीए विरोहाभावादो प्रथवा तत्कन्यकानां चक्रवर्त्यादिपरिणीतानां गर्भेत्पन्न-मातृपक्षापेक्षया स्वयमकर्मभूमिजा इति इह विवक्षितः ततो न किंचित् विप्रतिषिद्ध, तथाजातीयकानां दीक्षाहंत्वे प्रतिषेधाभावात् इति ( १८०५ )
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( १६० )
कर्मभूमिज के जघन्य संयम स्थान से संयम प्रकर्मभूमिज मनुष्य का उत्कृष्ट संयम स्थान इन वाले कर्मभूमि का उत्कृष्ट संयम स्थान अनंतगुणित है। इससे परिहारविशुद्धि सयतका जघन्य संयम स्थान अनंत-गुणित है। उसका उत्कृष्ट संयम स्थान अनतगुणित है। इससे सामायिक और छेदोपस्थापना संयमियों का उत्कृष्ट संयम स्थान अनंतगुणित है। इससे सूक्ष्मसापराय शुद्धि संयतों का जघन्य संगमस्थान अनंतगुणित है । इससे उसका ही उत्कृष्ट संयमस्थान अनंतगुणित हैं । वीतराग का अजघन्य और अनुत्कृष्ट चारित्रलब्धिस्थान अनंतगुणित है । "श्रीय रायस्स जहण्णमणुक्कस्तयं चरित्तलद्भिद्वाणमणंत-गुणं” ( पृष्ठ १८०६ ) । यहां वीतराग शब्द द्वारा उपशान्त कषाय, क्षीणकषाय तथा केवली का ग्रहण विवक्षित है । कषाय का अभाव हो जाने से उपशान्तकषाय, क्षीणकषाय तथा केवली अवस्था में पाए जाने वाले यथाख्यातविहारशुद्धि संयतों में जघन्य तथा उत्कृष्ट भेद की अनुपलब्धि है |
संयम को प्राप्त
को प्राप्त होने वाले मतगुणित है।
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( १६१ ) चारित्रमोहोपशामना-अनुयोगद्वार उवसामणा कदिविर्धावसामा कस्स कैस्स कम्मस्स। कं कम्म उवसंतं अणउवसंतं च कं कम्मं ॥ ११६ ॥
उपशामना के कितने भेद हैं ? किस किस कमं का उपशम होता है ? किस अवस्था में कौन कर्म उपशान्त रहता है तथा कौन कर्म अनुपसांत रहता है ? कदिभागुवसामिज्जदि संकमणमुदीरणा च कदिभागो। कदिभागं वा बंधदि टिदिअणुभागे पदेसग्गे ॥ ११७ ॥ ___ चारित्र मोहकी स्थिति, अनुभाग और प्रदेशाग्रों का कितना भाग उपमित होता है ? कितना भाग संक्रमण और उदीरणा को प्राप्त होता हैं ? कितना भाग बंध को प्राप्त होता है ? केवचिरमवसामिज्जदि संकमणमुदीरणा च केवचिरं । केवचिरं उवसंतं अणउवसंतं च केवचिरं ॥ ११८ ॥
चारित्र मोहको प्रकृतियों का कितने काल पर्यन्त उपशमन होता है ? कितने काल पर्यन्त संक्रमण, उदीरणा होती हैं। कौन कर्म कितने काल पर्यन्त उपशांत तथा अनुपशांत रहता है ? के करणं वोच्छिज्जदि अश्वोच्छिण्णच होइ कंकरणं । कं करणं उवसंतं अणउवसंतं च के करणं ॥११६।। कौन करण ब्युच्छिन्न होता है ? कौन करण अन्युच्छिन्न होता है ? कौन करण उपशान्त रहता है ? कौन करण अनुपशांत रहता है ?
विशेष-“एदारो चत्तारि सुत्तगाहामो उक्सामग-परवणाए पडिबद्धाओ, उरिम चत्तारि गाहारो तस्सेव पडिवादपदुप्पायणे पडिबद्धाम्रो"--पूर्वोक्त चार सूत्र गाथाएं उपशामक प्ररुपणा से
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( १६२ )
प्रतिबद्ध हैं । इसके आगे की चार गाथाएँ प्रतिपात प्रतिपादना से प्रतिबद्ध है ( १८०९ )
पहिलाको चकद्विविधो बुद्धि कति होड़ पडिवदिदो । केसिं कम्मंसाणं पडिवदिदो बंधगो होइ ॥ १२० ॥
प्रतिपात कितने प्रकार का है तथा वह प्रतिपात किस कषाय में होता है ? वह प्रतिपात होते हुए भी किन किन कर्माशों का बंधक होता है ?
दुविहो खलु पडिवादो भवक्खया- दुवसमक्खयादो दु । सुहुमे च संपराए बादररागे च बोद्धव्या ॥१२१॥
प्रतिपात दो प्रकार का है । एक प्रतिपात भवक्षय से होता है तथा दूसरा उपशमकाल के क्षय से होता है । वह प्रतिपास सूक्ष्मसांपराय तथा बादर राग ( लोभ ) नामक गुणस्थान में जानना चाहिये ।
।
उवसामणाखयेण दु पडिवदिदो होइ सुहुमरागम्हि । बादररागे खियमा भवक्खया होई परिवदिदो ||१२२||
उपशामना काल के क्षय होने पर सूक्ष्म साम्पराय गुणस्थान में प्रतिपात होता है । भवक्षय से होने वाला प्रतिपात नियम से बादरराग में होता है ।
उत्रसामणा-खएख दु से बंधदि जहागुपुत्रीए । एमेव य वेदयदे जहागुपुव्वीय कम्मंसे ॥ १२३ ॥
उपशामना काल के समाप्त होने पर गिरने वाला जीव यथानुपूर्वी से कर्मों को बांधता है । इसी प्रकार वह आनुपूर्वी क्रमसे कर्मप्रकृतियों का वेदन करता है ।
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श्री चंद्रभु
दिन पाळणाला
( १६३ )
खामगांडणा
महाराज
विशेष – चारित्र मोहकी उपशामना में उपक्रम परिभाषा पहले प्ररूपणीय है । " उपक्रमणमुपक्रमः समीपीकरणं प्रारंभ इत्यनर्थान्तरं, तस्य परिभाषा उपक्रम - परिभाषा " - उपक्रम का अर्थ समीप करना अथवा प्रारंभ ले उसकी परिभाषा आचार्य श्री सुवासक्रम जी परि भाषा है | वह ( १ ) अनंतानुबंधी विसंयोजना ( २ ) दर्शनमोहोपशमना के भेद से दो प्रकार है । इनमें अनुतानुबंधी की विसंयोजना पूर्व में प्ररूपण करने योग्य है, क्योंकि अट्ठाईस प्रकृतियों के सत्व युक्त वेदक सम्यक्त्वी संयत जब तक प्रनतानुबंधी क्रोध मान, माया तथा लोभ को विसंयोजना नहीं कर लेता है, तब तक वह कषायों के उपराम को प्रारम्भ नहीं करता है ।
प्रश्न ---इसका क्या कारण है ?
समाधान -- "ते सिम विसंजोयणाए तस्य उवसमसेढिचढणाप्रोग्गभावासंभवादो" - अनंतानुबंधी की विसंयोजना किए बिना वह संयमी उपशम श्रेणी पर नहीं चढ़ सकता है। चूर्णिसूत्र में कहा है "सो ताव पुव्वमेव प्रणंतानुबंधी विसंजोएंतरस जाणि करणाणि ताणि सव्वाणि परुवेयव्वाणि" ( १८१० ) - वह संयत पूर्व ही अनंतानुबंध की विसंयोजना करता है । अतः अनंतानुबंधी के विसंयोजक के जो करण हैं, वे सभी प्ररूपणीय हैं ।
प्रश्न - - करण - परिणामों का कथन क्यों आवश्यक है ?
समाधान - "करणपरिणामेहि विणा तव्त्रिसंजोयणाणुवत्तीदो"करण परिणामों के प्रभाव में विसंयोजना को उपपत्ति नहीं है । वे करण (१) अधःप्रवृत्तकरण (२) अपूर्वकरण ( ३ ) ग्रनिवृत्तिकरण के भेद से तीन प्रकार हैं । इनके द्वारा श्रतानुबंधी कषाय की विसंयोजना होती है ।
अधःप्रवृत्तकरण में प्रति समय अनंतगुणी विशुद्धि होती है किन्तु वहां स्थितिघात [ अनुभागघात ] गुणश्रेणी अथवा [ गुण
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( १६४ ) संक्रमण ] नहीं होते। अपूर्वकरण में स्थितिघात, अनुभागघात, गुणश्रेणी तथा गुणसंक्रमण पाए जाते हैं। ये अनिवृत्तिकरण में भी पाये जाते हैं। वहां अन्तरकरण नहीं पाया जाता है। दर्शनमोह की उपशामना में अनिवृत्तिकरण में अन्तरकरण नहीं पाया जाता है, उसप्रकार यहां चरित्रमोह की उपशामना में अनिवृत्तिकरण में अन्तरकरण नहीं पाया जाता है । "जहा बुण दंसणमोहोवसामणाए प्रणिथट्टिकरणम्मि अन्तरकरणमस्थि किमेवमेत्थ वि संभवो आहो णत्थि त्ति प्रासंकाए णिराकरणमंतरकरणं णत्यि ति पदुप्पाइदं ।" (१८११) मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज
__अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया तथा लोभ का विसंयोजन होने पर अन्तर्महुर्त पर्यन्त अधःप्रवृत्तसंयत रहता है। उस समय वह स्वस्थानसंयत ( सत्थाण संजदो ) रहता है । संक्लेश तथा विशुद्धि के वशसे प्रमत्त तथा अप्रमत्त गुणस्थानों में परिवर्तन करता हुआ करण की विशुद्धि के फलस्वरूप असाता वेदनीय, अरति, शोक, अयशस्कीति आदि प्रकृतियों का प्रबंधक होता है तथा संक्लेश परिणामों के कारण वह असातावेदनीय, अरति, शोक, अयशस्कोति तथा आदि पद से सूचित अस्थिर और अशुभ इन छह प्रकृतियों का बंधक हो जाता है। "तदो अंतोमुहुत्तेण दसणमोहणीयमुवसामदि।" इसके बाद एक अंतर्मुहुर्त के द्वारा दर्शन मोह का उपशमन करता है । दर्शनमोह के उपशामक के करण कहे गए हैं । वे यहां भी होते हैं। यहां पर दर्शनमोह की उपशामना के समान स्थितिघात, अनुभागघात एवं गुणश्रेणी हैं । गुणसंक्रमण नहीं होता है ।
अपूर्वकरण के प्रथम समय में जो स्थिति सत्व होता है, वह उसके चरिम समय में संख्यातगुणहीन होता है । इसी प्रकार अनिवृत्तिकरण के प्रथम समय में जो स्थिति-सत्व होता है, वह उससे अंतिम समय में संख्यातगुणित हीन हो जाता है ।
दर्शनमोह के उपशामक के अनिवृत्तिकरण काल के संख्यात
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( १६५ ) भागों के बीतने पर सम्यक्त्व प्रकृति के असंख्यात समयप्रवद्धों को उदीरणा होती है । "अंतोमुहत्तण दसणमोहणीयस्स अंतरं करेदि"तदनंतर एक अंतर्मुहूर्तकाल में दर्शनमोहनीय का अंतर करता है ।
सम्यक्त्व प्रकृति की प्रथम स्थिति के क्षीण होने पर जो मिथ्यात्व का प्रदेशाग्र शेष रहता है, उसका सम्यक्त्व प्रकृति तथा सम्यग्मिथ्यात्व में गुणसंक्रमण द्वारा संक्रमण नहीं करता है। उसके विध्यात संक्रमण होता है । प्रथमवार सम्यक्त्व को उत्पन्न करने वाले जीव का जो गुणसंक्रमण से पूर्णकाल है, उससे संख्यातगुणित काल पर्यन्त यह उपशान्त-दर्शन-मोहनीय जीव विशुद्धि से बढ़ता है। इसके पश्चात् स्वस्थान में पतित उस जीव के संक्लेरा तथा विशुद्धिवश कभी हानि, कभी विशुद्धि तथा कभी अवस्थितपना पाया जाता है । वही जोव असाता, अरति, शोक, अयशःकीति, अस्विसिक्तिथा प्रभित्री कृषिधिसहस्रोंजी काहाज बंध परावर्तन करता है। वह हजारों बार प्रमत, अप्रमत्त होता है। वह कषायों के उपशमन हेतु उद्यत होता है । उसके लिए प्रादि करण रुप परिणाम को अधःप्रवृत्त कहते हैं- "कषायानुपशमयितु मुद्यतस्तस्य कृत्ये, तस्य कृते आद्यं करणपरिणाममधः प्रवृत्त-संज्ञमय कृताशेषपरिकरकरणीयः परिणमत इत्यर्थः" ( १८१६ ) ___जो कर्म अनंतानुबंधी के विसंयोजन करने वाले के द्वारा नष्ट किया गया, वह 'हत' कहलाता है तथा जो दर्शन मोहनीय के उपशमन करने वाले के द्वारा नष्ट किया जाता है, वह कर्म उपरि-हत कहा जाता है।
कषायों का उपशमन करने वाले जीव के जो अधःप्रवृत्तकरण होता है, उसमें स्थितिघात, अनुभागघात तथा गुणश्रेणी नहीं होती हैं । वह अनंतगुणित विशुद्धि से प्रति समय बढ़ता है ।
अपूर्वकरण के प्रथम समय में ये स्थिति कांडक श्रादि प्राव
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श्यक कार्य होते हैं। जो क्षीण दर्शन-मोह व्यक्ति कषायों का उपशामक होता है, उसके कषाय- उपशामना के अपूर्वकरण काल में प्रथम स्थितिकांडक का प्रमाण नियम से पल्योपमका संख्यातवां भाग होता है। स्थितिबंध के द्वारा जो अपसरण करता है, वह भी पल्योपम का संख्यातबांभाग होता है।
-..... मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सविधिसागर जी महाराज
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है। उस समय स्थितिसत्व अंतःकोडाकोडी सागरोपम है । गुण श्रेणी को अंतर्मुहुर्त मात्र निक्षिप्त करता है । इसके पश्चात् अनुभाग कांडक पृथक्त्व के व्यतीत होने पर दूसरा अनुभाग कोडक, प्रथम स्थिति कांडक और अपूर्वकरणका प्रथम स्थितिबंध ये एक साथ निष्पन्न होते हैं । स्थिति कांडक पृथक्त्व के व्यतीत होने पर निद्रा तथा प्रचला की बंधव्युच्छिति होती है। अंतर्मुहुर्त काल व्यतीत होने पर पर-भव संबंधी मामकर्म की प्रकृतियों को बंध व्युच्छिति होती है।
अपूर्वकरण काल के अंतिम समय में स्थिति कांडक, अनुभाग कांडक एवं स्थितिबंध एक साथ निष्पन्न होते हैं । इसी समय में हास्य, रति, भय और जुगुप्सा इन चार प्रकृतियों की बंध व्यच्छित्ति होती है। वहां ही हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा इन की उदय व्युच्छित्ति होती है।
इसके अनन्तर समय में वह प्रथम समयवर्ती अनिवृत्तिकरण संयत होता है । उस समय अप्रशस्तोपशामनाकरण, निधत्तीकरण और निकाचनाकरेण एक साथ व्युच्छिन्न होते हैं । "तिस्से चेव अणियट्टिप्रद्धाए पढमसमए अप्पसत्थउवसामणाकरणं णिवत्तीकरणं णिकाचनाकरणं च वोच्छिण्णाणि " ( १८२३ ) ।
जो कम उत्कर्षण, अपकर्षण, तथा पर-प्रकृति संक्रमण के योग्य होते हुए भी उदय स्थिति में अपकषित करने के लिए
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१६७ ) शक्य न हो अर्थात् जिसकी उदीरणा न की जा सके, उसे अप्रशस्तोपशामना कहते हैं। जिस कर्म में उत्कर्षण, अपकर्षण हों, किन्तु उदीरणा और पर-प्रकृति रुप संक्रमण न हो, उसे निधत्तीकरण कहते हैं । जिस कर्म में उत्क्रपण, अपकर्षण, उदीरणा तथा संक्रमण न हों तथा जो सत्ता में तदवस्थ रहे, उसे निकाचना
करण कहते हैं। मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज
प्रश्न-सूत्र गाथा में प्रश्न उठाया है, "उवसामणा कदिविधा?" ( गाथा ११६ ) उपशामना के कितने भेद है ?
उसर-चूणिसूत्रकार कहते हैं, "उवसामणा दुविहा करणोवसामणा च प्रकरणोबसामणा च' (पृ. १८७१) उपशामना (१) करणोपशामना ( २ ) प्रकरणोपशामना के भेद से दो प्रकार है । प्रकरणोपशामना को अनुदीर्णोपशामना भी कहते हैं । “एसा कम्मपवादे"-यह कर्मप्रवाद नामके पाठवें पूर्व में विस्तारपूर्वक कही गई है। ___ करणोपशामना के दो भेद है, ( १ ) देशकरणोपशामना (२) सर्वकरणोपशामना । "देसकरणोवसामणाए दुवे णामाणि देसकरणोवसामणा ति वि अप्पसत्थ-उवसामणात्ति वि-"देशक रणोपशामना के दो नाम हैं। एक नाम देशकरणोपशामना है तथा दूसरा नाम अप्रशस्त उपशामना है। इसका विस्तारपूर्वक कथन कम्मपयडो प्राभूत में किया गया है । यह द्वितीय पूर्व को पंचम बस्तु से प्रतिबद्ध चतुर्थ प्राभृत नामका अधिकार है । “तत्थेसा देसकरणोवसामणा दट्ठव्वा"- वहाँ देशकरणोपशामना का वर्णन देखना चाहिए।
सर्वकरणोपचामना के सर्वकरणोपशामना तथा प्रशस्त. करणोपशामना ये दो नाम है, “जा सा सव्वकरणोवसामणा तिस्से घि दुवे णामाणि सन्धकरणोवसामणा ति वि पसत्थकरणोवसामणा
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( १६८ ) ति बि" यहां प्रकरणोपशामना तथा देशकरणोपशामना से प्रयोजन नहीं है-"प्रकरणोवसामणाए देसकरणोवसामणाए च एत्थ पोजणाभावादो त्ति” (१८७४) यहां कसायोपशामना की प्ररुपणा के अवसर पर सर्वकरणोपशामना प्रकृत है ।
प्रश्न- "उपनिवेकिस्त महामिरविधिकस किसकमका उपशमन होता है ?
समाधान-“मोहणीयवजाणं कम्माणं पत्थि उवसामो" -मोहनीय को छोड़कर शेष कर्मों में उपशामना नहीं होती है।
प्रश्न- इसका क्या कारण है ? ___समाधान—“सहावदो चैव"-ऐसा स्वभाव है। ज्ञानावरणादि कर्मों में उपशामना परिणाम संभव नहीं है । उन कमों में अकरणोपशामना तथा देशकरणोपशामना पाई जाती हैं, ऐसी
आशंका नहीं करना चाहिए, क्योंकि यहां प्रशस्तकरणोपशामना का प्रसंग है ॥ इससे शेष कर्मों का परिहार करके मोहनीय की प्रशस्तोपशामना में उपशामक होता है, यह जानना चाहिए। मोहनीय में भी दर्शनमोह को छोड़कर चारित्रमोहका ही उपशामक होता है, यह बात यहां प्रकृत है । (१२८)
चूणिसूत्रकार कहते हैं "दंसणमोहणीयस्स वि त्थि उवसामो" दर्शनमोह का उपशम नहीं होता है। इस विषय में यह स्पष्टीकरण ज्ञातव्य है, कि इस प्रकार दर्शनमोह के उपशम की विवक्षा नहीं की गई हैं 1 "तदो संते वि दंसणमोहणीयस्स उपसमसंभवे सो एल्थ ण विवविखनो ति एसो एदस्स भावत्यो" ( १८७५ )
___ "अगंताणुबंधीणं पि गथि उवसामो"-अनंतानुबंधी में भी उपशम नहीं है। इसका कारण यह है, कि पहिले अनंतानुरंधी का
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( १६९ ) विसंयोजन करके तत्पश्चात् उपशमश्रेणी में समारोहण देखा जाता है। इससे विसंयोजन रुप अमलापुत्रंथों में शामिनी सनिवामही ही महाराज
अप्रत्याख्यानावरण आदि द्वादश कषाय तथा नव नोकषायवेदनीय इन इक्कीस प्रकृतियों का उपशम होता है। उपशम श्रेणी में इन इक्कीस प्रकृतियों का उपशम होता है। 'बारसकसायणवणोकसायवेदणोयामुवसामो"।
प्रश्न-"के कम्म उबसंतं अणुवसंतं च के कम्म" ? कोन कर्म उपशान्त रहता है ? कौन कर्म अनुपशान्त रहता है ?
उत्तर- इस गाथा ११६ के प्रश्न के समाधान में चूणिसूत्रकार कहते हैं,-"पुरिसवेदेण उवट्ठिदस्स पढम ताच णqसयवेदो उवसमेदि सेसाणि कम्माणि अणुवसमाणि--पुरुषवेद के उदय के साथ उपशम श्रेणी पर आरोहण · करने वाले जीव के सर्वप्रथम नपुंसकवेद का उपशम होता है । शेष कर्म अनुपशान्त रहते हैं ।
नपुंसकवेद के उपशम होने के अन्तर्मुहूर्त पश्चात् स्त्रीवेद का उपशम होता है !-"सदो सत्तणोकसाया उबसामेदि"-इसके अनंतर सात नोकषायों का उपशम होता है । इसके पश्चात् तीन प्रकार का क्रोध उपशम को प्राप्त होता है । तत्पश्चात् त्रिविधि मान उपशम को प्राप्त होता है । इसके पश्चात् त्रिविधि माया उपशम को प्राप्त होतो है । "तदो तिविहो लोहो उबसदि किट्टीवज्जो' इसके पश्चात् कृष्टियों को छोड़कर तीन प्रकार का लोभ उपशम को प्राप्त होता है । "तदो सव्वं मोहणीयं उवसंतं भवदि"- इसके पश्चात संपूर्ण मोहनीय उपशान्त होता है।
शंका-गाथा सूत्र में प्रश्न किया है; "कदिभागुवसामिजदि संकमणमुदोरणा च कदिभागो"-चारित्र मोह का कितना भाग उपशम होता है ? कितना भाग सक्रमण और उदीरणा करता है ?
समाधान-जो कर्म उपशम को प्राप्त कराया जाता है, वह अन्तर्मुहूर्त के द्वारा उपशान्त किया जाता है । उस कर्म का जो
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( १७० )
प्रदेशाय प्रथम समय में उपशम को प्राप्त कराया जाता है, वह सबसे कम है । द्वितीय समय में जो उपशान्त किया जाता है, असंख्यातगुणा है । इस क्रम से जाकर अंतिम समय में कर्मप्रदेशाग्र ' वह के असंख्यात बहुभाग उपशांत किये जाते हैं।
"एवं सव्वकम्माणं" ( १८७७ ) इस प्रकार सर्व कर्मों का अर्थात् नपुंसकवेदादि का क्रम जानना चाहिए ।
उदयावली तथा बंधावली को छोड़कर शेष सर्व स्थितियां समय समय अर्थात् प्रति समय उपशांत की जाती हैं । उदयावली में प्रविष्ट स्थितियों की उपशामना नहीं होती । बंधावली को प्रतिक्रांत स्थितियों की उपशामनादिकरणों की प्रायोग्यता है ।
"श्रणुभागाणं सवाणि फडयाणि सव्वाश्रो वग्गणाम्रो उवसानिज्जति" अनुभागों से सवं आतंक सुटणारी उपशास्त की जाती हैं । नपुंसकवेद का उपशमन करने वाले प्रथम समयवर्ती जीव के जो स्थितियां बंधती हैं, वे सबसे कम हैं। जो स्थितियां संक्रान्त की जाती हैं, वे प्रसंख्यातगुणी हैं, जो स्थितियां उदीरणा को प्राप्त कराई जाती है, वे उतनी ही हैं। उदीर्ण स्थितिया विशेवाधिक है। 'जट्टिदिउदयोदीरणा संतकम्मं च विसेसाहियो' ( पृ० १८८० ) यत्स्थितिक उदय उदीरणा और सत्कर्म विशेषाधिक हैं । "अणुभागेण बंधों थोवो " -- अनुभाग की अपेक्षा बन्ध सर्व स्तोक है | उससे उदय और उदोरणा अनंतगुणी हैं। उससे संक्रमण और सत्कर्म अनंतगुणित हैं।
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"किट्टीओ वेदतस्स बंघो पत्थि " कृष्टियों को वेदन करने वाले जीव के बंध नहीं होता है । कृष्टियों का वेदक सूक्ष्मसांपराय संयत होता है । मोहनीय का बंध अनिवृत्तिकरण गुणस्थान से श्रागे नहीं होता है ।
उदय और उदीरणा स्तोक हैं, क्योंकि कृष्टियों की अनंतगुणहानि होकर उदय और उदीरणा स्वरूप से परिणमन
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देखा जाता है। इससे संक्रम अनंतगुणा है। उससे सत्कर्म अनंतगुणा है।
नपुंसकयेद की अनुत्कृष्ट-अजघन्य प्रदेश उदीरणा स्तोक मागहीक्ससेअपय ददविनसम्परतयुणिताहज| उससे उत्कृष्ट उदय विशेषाधिक है। उससे जघन्य संक्रमण प्रसंख्यातगणित है। उससे उपमांत किया जाने वाला जघन्य द्रव्य असंख्यातगुणित है। उससे जवन्य सत्कर्म असंख्यातगुणित है । उससे संक्रान्त किया जाने वाला उत्कृष्ट द्रव्य असंख्या नगुणित है। उससे उत्कृष्ट सत्कम असंख्यातगुणित है। यह सब अन्तरकरण के दो समय पश्चात् होने वाले नपुन्सकवेद के प्रदेशाग्न का अल्पबहुत्व है ।
स्त्रीवेद का अल्पबहुत्य भी इसीप्रकार जानना चाहिए। पाठकषाय, छहनोकषायों का उदय और उदोरणा को छोड़कर अल्पबहुत्व जानना चाहिये । पुरुषवेद तथा चार संज्वलनों के अल्पबहुत्व को जानकर लगाना चाहिये । उनके अल्पबहुत्व में बपद सबसे स्तोक हैं। अब "केवचिरंमुवसामिज्जदि" इस तीसरी गाथा को विभाषा को छोड़कर "कं करणं वोच्छिज्जदि" इस चतुर्थ गाथा को विभाषा करते हैं, कारण इससे तृतीय गाथा का प्रायः निरुपण हो जाता है।
प्रश्न-कौन करण कहां पर व्युच्छिन्न होता है ? कोन करण कहां पर अव्युच्छिन्न होता है ?
समाधान-- इस सम्बन्ध में पहले करणों के भेद गिनाते है "अटुविहं तात्र करण" करण के पाठ भेद हैं। (१) प्रशस्तउपशामना करण (२) निधत्तीकरण (३) निकाचनाकरण (४) बंधकरण (५) उदीरणाकरण (६) अपकर्षणकरण (७) उत्कर्षणकरण (८) संक्रमणकरण ।
इन पाठ करणों में से अनिवृत्तिकरण के प्रथम समय से सभी कर्मों के अप्रशस्तोपशामना, निधत्ति और निकाचनाक रणों को व्युच्छिति होती है । उस समय आयुकर्म तथा वेदनीय को छोड़कर शेष कर्मों के पांच करण होते हैं । आयु के केवल उद्वर्तनाकरण
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( उत्कर्षणाकरण ) होता है। शेष सात करण नहीं होते हैं। "पाउगस्स प्रोवट्टणाकरणमत्थि सेसाणि सत्तकरणाणि पत्थि"
विकासोगेर बंगहासमवर्तना, उद्वर्तना और संक्रमण ये चार करण होते हैं। "सेमाणि चत्तारि करणाणि त्थि"—शेष चार करण नहीं होते हैं।
मूलप्रकृतियों की अपेक्षा यह क्रम बादरसापराय गुणस्थान के अंतिम समय पर्यन्त जानना चाहिये । सूक्ष्मसापराय में मोहनीय के अपवर्तना और उदीरणाकरण ही होते हैं। उपशांतकषाय वीतराग के दर्शनमोह अपवर्तना तथा संक्रमणकरण होते हैं। वहां शेष कर्मों के उद्वर्तना और उदीरणाकरण होते हैं। आयु और वेदनीय का अपवर्तना करण ही होता है । "के करणं उवसंत" आदि गाथा की विभाषा करते हैं ।
प्रश्न-कौन कर्म कितने काल पर्यन्त उपशांत रहता है ?
समाधान—निर्व्याघात काल ( मरणादि व्याघात रहित अवस्था ) की अपेक्षा नपुन्सकवेदादि मोह को प्रकृतियां अंतर्महर्त पर्यन्त उपशान्त रहती हैं।
प्रश्न-कौन कर्म कितने काल पर्यन्त अनुपशान्त रहता है ?
ममाधान-अप्रशस्तोपशामना के द्वारा निर्व्याघात को अपेक्षा कर्म अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त अनुपशान्त रहते हैं, किन्तु व्याघात अर्थात् मरण की अपेक्षा एक समय तक ही अनुपशांत रहते हैं ।
शंका--उपशान्त मोह जोब किस कारण से नीचे गिरता है ?
समाधान-उपशांत कषाय से गिरने का कारण उपशमनकाल का क्षय है। उससे वह सूक्ष्मलोभ में गिरता है। "प्रद्धाक्खएण सो लोभे पडिवदिदो होइ" (१८९२)
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( १७३ ) चारित्र-मोहलपणा अनुयोगद्वार
कषायोपशामना प्ररुपणा के पश्चात् चारित्र मोह की क्षपणा पर प्रकाश डाला गया है। यह चारित्र मोह की क्षपणा दर्शनमोह की क्षपणा से अविनाभाव संबंध रखती है। दर्शनमोह की क्षपणा अनंतानुबंधी की विसंयोजना पूर्वक होती है, कारण अनंतानुबंधी की विसंयोजना के अभाव में दर्शन मोह की क्षपणा की प्रवृत्ति को उपलब्धि नहीं पाई जाती है ।
चारित्र मोहनीय की क्षपणा में प्रधः प्रवृत्तकरण काल, अपूर्वकरण काल तथा अनिचिकरणाचाच ओ सीतों सागस्त महाराज सम्बद्ध तथा एकावलि रुप से विरचित करना चाहिये। इसके पश्चात् जो कर्म सत्ता में विद्यमान हैं, उनकी स्थितियों की पृथक रचना करना चाहिए। उन्हीं कर्मों के जघन्य अनुभाग संबंधी स्पर्धकों को जघन्य स्पर्धक से लेकर उत्कृष्ट स्पर्धक तक एक स्पर्धकावली रचना करना चाहिये।
प्रश्न--संक्रमण प्रस्थापक अर्थात् कषायों के क्षपण आरंभक के परिणाम किस प्रकार के होते हैं ?
समाधान- उसके परिणाम विशुद्ध होते हैं। कषायों का क्षपण प्रारंभ करने के अन्तर्मुहूर्त पूर्व से अनंतगुणी विशुद्धि के द्वारा विशुद्ध होते हुए पा रहे हैं। कषायों का क्षपक अन्यतर मनोयोग, अन्यतर वचन योग तथा काययोग में औदारिक काययोग युक्त होता है।
उस क्षपक के चारों कषायों में से किसी एक कषाय का उदय पाया जाता है।
प्रश्न-उसके क्या वर्धमान कषाय होती है या होयमान होती है?
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समाधान-नियम से हीयमान कषाय होती है । "णियमा हायमाणो' उपयोग के विषय में यह वर्णन किया गया है। "प्रात्मनोऽर्थग्रहणपरिणामः उपयोग:"-आत्मा के अर्थरहण का परिणाम उपयोग है। उसका भेद साकार उपयोग मतिज्ञानादि पाठ प्रकार का है तथा अनाकार उपयोग चक्षदर्शनादि के भेद से चार प्रकार का है।
एक उपदेश है, कि श्रुतज्ञानोपयोगी क्षपक श्रेणी पर चढ़ता है। दूसागदर्शकदेश झैचाकिमीशुशिनिसागप्रधाहमतिज्ञानी चक्षुदर्शन अथवा प्रचक्षुदर्शन से उपयुक्त होकर क्षपक श्रेणी पर चढ़ता है। "एक्को उबएसो णियमा सुदोवजुत्तो होदूण खबगसेटिं घडदि ति। एको उवदेसो सुदेण वा मदीए वा, चक्खुदंसणेण वा, अचक्खुदंसणेण वा"
क्षपक के नियम से शुक्ललेश्या होती है । "णियमा वडढमाण लेस्सा"-नियम से वर्धमानलेश्या होती है ।
प्रश्न- उसके कौन सा वेद होता है ?
समाधान--"अण्णदरो वेदो"-अन्यतर अर्थात् तीन वेदों में कोई एक वेद होता है। यह भाववेद की अपेक्षा कहा गया है।
शंका--उसके द्रव्यवेद कौन सा है ?
समाधान- "दव्वदो पुरिसवेदो चेव खवगढिमारोहदि ति वत्तव्यं । तत्थ पयांतरासंभवादो” (पृ० १९४४ ) द्रव्य से पुरुषवेद युक्त क्षपक श्रेणी पर ग्रारोहण करता है। इस विषय में प्रकारान्तर नहीं है।
प्रश्न- "काणि वा पुध्वबद्धाणि ?"-कौन कौन कर्म पूर्वबद्ध हैं ?
समाधान-क्षपणा प्रारंभ करने वाले के प्रकृति सत्कर्म मागंणा में दर्शन मोह, अनंतानुबंधी चतुष्क तथा तीन आयु को छोड़कर शेष कर्मों का सत्कर्म कहना चाहिये। पाहारकशरीर
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( १७५ ) पाहारकप्रांगोपांग तथा तीर्थकर प्रकृति भजनीय हैं, क्योंकि सब जीवों में उनका सद्भाव असंभव है। स्थिति सत्कर्म को मार्गणा में जिन प्रकृतियों का प्रकृति सत्कर्म होता है, उनमें आयु को छोड़कर शेष का अंतः कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण सस्कर्म कहना चाहिए ।
अनुभाग सत्कर्म अप्रशस्त प्रकृतियों का विस्थानिक तथा प्रशस्त मार्गपतियों मनाई स्थामिका होता ही हरदेश सत्कर्म सर्व कर्मों का प्रजघन्य-अनुत्कृष्ट होता है, क्योंकि प्रकारान्तर संभव नहीं है।
प्रश्न- "के था अंसे णिबंधदि १"-कौन कौन कर्माशों को बांधता है ?
ममाधान-इस विषय में उपशामक का जिस प्रकार वर्णन हुया है, वैसा ही यहां भी ज्ञातव्य है। यहां प्रकृतिबंध, स्थितिबंध, अनुभाग बंध तथा प्रदेश बंध का अनुमार्गण करना चाहिए ।
प्रश्न-"कदि प्रावलियं पक्सिंति-"कितनी प्रकृतियां उदयावली में प्रवेश करती है ?
समाधान- क्षपणा प्रारंभक के सभी मूल प्रकृतियां उदयावली में प्रविष्ट होती हैं। सत्ता में विद्यमान उत्तर प्रकृतियां उदयावली में प्रवेश करती हैं। "मूल पयडीयो सव्वाश्रो पविसंति । उत्तरपयडीयो वि जानो अस्थि तानो पविसति" ( १९४५)
प्रश्न--"कदिण्हं वा पवेसगो"-कितनी प्रकृतियों को उदयावली में प्रवेश करता है ?
समाधान-पायु और वेदनीय को छोड़कर बेद्यमान अर्थात् वेदन किए जाने वाले सर्वकर्मों को प्रवेश करता है।
पंचज्ञानावरण, चार दर्शनावरण का नियम से वेदक है। निद्रा प्रचला का स्यात् वेदक है। साता-असाता में से कोई एक, चार संज्वलन, तीन वेद, दो युगलों में से अन्यतर का नियम से वेदक है। भय जुगुप्सा का स्यात् वेदक है । मनुष्यायु, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, प्रौदारिक, तैजस, कार्माणशरीर, छहों संस्थानों में
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( १७६ )
अन्यतर, दारिक मांगोपांग, वज्रवृषभसंहनन, वर्ण, रस, गंध, स्पर्श, प्रगुरुलघु आदि चार, दो में से अन्यतर विहायोगति, त्रस चतुष्क, स्थिर- अयिर, शुभ- मशुभ, सुभग दुभंग, सुस्वर- दुस्वर इनमें से एकतर, आदेय, यशःकीर्ति, निर्माण, उच्चगोत्र तथा पंच अंतरायों का यह वेदक है। यहां अन्य प्रकृतियों का उदय असंभव है । इन प्रकृतियों में से साता वेदनीय और मनुष्यायु को छोड़कर शेष प्रकृतियों की वह उदीरणा करता है ।
प्रश्न - यहां आयु तथा वेदनीय की उदीरणा क्यों संभव नहीं है ?
समाधान - वेदनीय तथा प्राय की उदीरणा प्रमत्तगुणस्थान से आगे असंभव है ।
मार्गदर्शक- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज प्रश्न -- " के अंसे भीयदे पुवं बंधेण उदएण बा" कौन कौन कर्माश बंध अथवा उदय की अपेक्षा पहले निर्जीर्ण होते हैं ?
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समाधान – स्त्यानगृद्धि त्रिक, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, द्वादश कषाय, रति, शोक, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, सभी श्रायु, परिवर्तमान नाम कर्म की सभी शुभ प्रकृतियां, मनुष्यगति, श्रदारिक शरीर, औदारिक श्रगोपांग, वज्रवृषभ संहनन, मनुष्यगति प्रायोग्यानुपूर्वी, प्रातप, उद्योत ये शुभ प्रकृतियां तथा नीचगोत्र ये कर्म कषायों की क्षपणा के प्रारंभ करने वाले के बंध से व्युच्छिन्न होते हैं ।
उदय से व्युच्छिन्न होने वाली प्रकृतियां ये है - स्त्यानगृद्धित्रिक, मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व द्वादश कषाय, मनुष्यायु को छोड़कर शेष श्रायु, नरकगति, तियंचगति, देवगति के प्रायोग्य नाम कसं की प्रकृतियां, आहारकद्विक, वज्रवृषभनाराच संहनन को छोड़ शेष संहनन, मनुष्यगति प्रायोग्यानुपूर्वी, अपर्याप्तनाम, प्रशुभत्रिक, कदाचित् तीर्थंकरनाम, नीचगोत्र ये प्रकृतियां कषायों के क्षपक के उदय व्यच्छित होती हैं ।
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शंका--"अंतरं वा कहिं किच्चा के के संक्रामगो कहि नि" कहां पर अन्तर करके किन किन कर्मों का कहां पर संक्रमण करता है ?
समाधान—यह अधः प्रवृत्तकरण-संयत यहां पर अन्तर नहीं करता है । यह अनिवृत्तिकरणकाल के संख्यात बहुभाग व्यतीत
होने पर अन्तर करेगा । मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज
प्रश्न-"किं ट्ठिदियाणि अणुभागेसु केसु वा प्रोवट्ट यूण सेसाणि कं ठाणं पडिवजदि"-वह किस किस स्थिति और अनुभाग युक्त किन किन कर्मों का अपवर्तन करके किस किस स्थान को प्राप्त करता है और शेष कर्म किस स्थिति तथा अनुभाग को प्राप्त होते हैं ?
समाधान-यहाँ स्थिति घात तथा अनुभागघात सूचित किए गए हैं। इससे अधःप्रवृत्तकरण के चरम समय में वर्तमान कर्मक्षपणार्थ तत्पर जीव के स्थितिघात तथा अनुभागघात नहीं होते हैं किन्तु उसके पश्चात् वर्ती समय में दोनों ही घात प्रारंभ होंगे।
अपूर्वकरण के प्रथम समय में प्रविष्ट क्षपक के द्वारा स्थिति कांडक तथा अनुभाग कांडक घात करने के लिए ग्रहण किए गये हैं । यह अनुभाग कांडक अप्रशस्त कर्मों के बहुभाग प्रमाण है।
अपूर्वकरण में जघन्य प्रथम स्थितिकांडक स्तोक ( अल्प ) हैं । उत्कृष्ट स्थितिकांडक संख्यात गुणे हैं । यह उत्कृष्ट पल्योपम के संख्यातवें भाग प्रमाण है । अपूर्वकरण में प्रथम स्थिति कांडक जघन्य तथा उत्कृष्ट दोनों ही पल्योपम के संख्यातवें भाग हैं "जण्हणयं पि उक्कस्सयं पि पलिदोवमस्स संखेजदिभागो" (पृ. १९४९)
अनिवृत्तिकरण के प्रथम समय में पल्योपम के संख्यातवें भाग प्रमाण अन्य स्थितिकांडक होता है । अन्य अनुभाग कांडक भी होता है । वह घात से शेष रहे अनुभाग के अनन्त बहुभाग प्रमाण है ।
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मार्गदर्शक :- आचार्य श्री रविक्षिसागर जी महाराज
पस्योपम के संख्यातवें भाग से हीन अन्य स्थिति बंध होता है। प्रथम स्थिति कांडक विषम होता है । जधन्य से उत्कृष्ट स्थिति कांडक का प्रमाण पल्योपम के संख्यातवें भाग में अधिक होता है ।
प्रथम स्थितिकांडक के नष्ट होने पर यतिवृषिकरण में समान काल में वर्तमान व जीवों का स्थिति सत्व तथा स्थिति कांडक समान होते हैं । श्रनिवृत्तिकरण में प्रविष्ट हुए मंत्र जीवों का द्वितीय स्थितिकiss से द्वितीय स्थितिकांडक समान होता है । यही क्रम तृत्तीय आदि स्थिति कांडकों में जानना चाहिये । श्रनिवृत्तिकरण में स्थितिबंध सागरोपम सहस्र पृथक्त्व है । स्थिति सन्वं सागरोपमशत सहस्र पृथक्त्व है ।
अपूर्वकरण में जो गुप श्रेणी निक्षेप था, उसके शेष शेष में ही यहां वह निक्षेर होता है। यहां सर्वकर्मों के प्रशस्तोपशामनाकरण निधत्तीकरण तथा निकाचनाकरण तीनों ही व्युच्छित्ति को प्राप्त होते हैं। प्रथम समयवर्ती प्रनिवृत्तिकरण के उपरोक्त आवश्यक कहे गए हैं। अनंतकाल में भी वे ही आवश्यक होते हैं। इतना विशेष है कि यहां गुणश्रेणी प्रसंख्यात गुणी है। शेष शेष में निक्षेप होला है । विशुद्ध भी अनंतगुणी होती है ।
जिस समय नाम और गोत्र का पत्योपम स्थिति प्रमाण बंध होता है, उस समय का उन दोनों का स्थितिबंध] स्तोक है । ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय और अन्तराय का स्थितिबंध विशेषाधिक हैं। मोहनीय का स्थितिबंध विशेषाधिक है। अतिक्रांत स्थितिबंध इसी अल्पबहुत्व से व्यतीत हुए हैं ।
नाम गोत्र का पल्योपम की स्थिति वाला बंध पूर्ण होने पर जो अन्य स्थितिबंध है, वह संख्यातगुणा हीन होता है। शेष कम का स्थितिबंध विशेष-हीन होता है ।
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( १७६ )
संख्यात सहस्र स्थितिकांडकों के बीतने पर प्राठ मध्यम कषायों का संक्रामक अर्थात क्षपणा का प्रारम्भ होता है । तत्पश्चात् स्थिति कांडक पृथक्त्व से प्राठ कवाय संक्रान्त की जाती हैं। उसके अंतिम स्थितिकांडक के उत्कीर्ण होने पर उनका स्थिति सत्व श्रावली प्रविष्ट शेप अर्थात् उदयावली प्रमाण है। स्थिति कांडक पृथक्व के अनंतर निद्रा-निद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्यानगृद्धि, नरकद्वितियंग्गतिद्विक, एकेन्द्रियादि चार जाति, प्रातप, उद्योत, स्थावर, सूक्ष्म, साचारण के स्थितिसत्व का संक्रामक होता है। पुनः स्थितिकांडक पृथक्त्व से पश्चिम स्थितिकांडक के उत्कीर्ण होने पर पूर्वोक्त सोलह प्रकृतियों का रहता है। मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुवासहित लोहार विष्ट शेत
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इसके बाद स्थितिकांडक पृथक्त्व के द्वारा मन:पर्ययज्ञानावरण और दानान्तराय का अनुभाग बंध की अपेक्षा देशघाती हो जाता है । पुनः स्थितिकांडक पृथक्त्व के द्वारा अवधिज्ञानावरणीय, श्रवधिदर्शनावरणीय और लाभान्तराय का अनुभागबंध को अपेक्षा देशघाती हो जाता है । पुनः स्थिति काण्डक पृथक्त्व के द्वारा श्रुतज्ञानावरणीय, प्रचक्षुदर्शनावरणीय और भोगान्नराय कर्म का अनुभाग बंध की अपेक्षा देशघाती हो जाता है । पुनः स्थितिकांडक पृथक्त्व के द्वारा चक्षुदर्शनावरण का अनुभाग बंध की अपेक्षा देशघाती हो जाता है । पुनः स्थितिकांडक पृथक्त्व से द्वारा ग्राभि निबधिक ज्ञानावरणीय तथा परिभोगान्तराय का अनुभाग बंध की अपेक्षा देशघाती हो जाता है। पुनः स्थितिकांडक पृथक्त्व के द्वारा वीर्यान्तराय का अनुभाग बंब की अपेक्षा देशघाती हो जाता है ।
इसके बाद सहस्रों स्थितिकांकों के बांतने पर अन्य स्थिति कांडक, ग्रन्य अनुभाग काण्डक, अन्य स्थितिबंध और उत्कीरण करने के लिए अन्तर स्थितियां इन चारों कारणों को एक साथ प्रारम्भ करता है। चार संज्वलन तथा नवनरेकषायों का अन्तर करता है । शेष कर्मों का अंतर नहीं होता है । पुरुषवेद और सज्वलन की अन्तर्मुहूर्त प्रमाण प्रथम स्थिति को छोड़कर अन्तर करता है ।
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( १५० )
जिस समय अन्तर संबंधी चरमफाली नष्ट होती है, उस समय उसे प्रथम समय कृत अन्तर कहते हैं तथा तदनंतर समय में उसे द्विसमय कृत अन्तर कहते हैं । अन्तर संबंधी चरमफाली के पतन होने पर नपुंसक वेद की कृपा में होता संख्यात सहन स्थितिrishi के बीतने पर नपुंसकवेद का पुरुषवेद में संक्रमण होता है ।
तदनंतर समय मे वह स्त्रीवेद का प्रथम समयवर्ती संक्रामक होता है। स्थिति कांडक के पूर्ण होने पर संक्रम्यमाण स्त्रीवेद संक्रान्त हो जाता है । तदनंतरकाल में वह सात नोकपायों का प्रथम समयवर्ती संक्रामक होता है । सात नोकषायों के संक्रामक के पुरुषवेद का अंतिम स्थितिबंध आठ वर्ष का स्थितिबंध सोलह वर्ष प्रमाण है । शेष मों का स्थितिबंध संख्यात हजार वर्ष है। नाम गोत्र और वेदनीय का असंख्यातवर्ष है । द्विसमयकृत अन्तर के स्थल से आगे छह नोकषायों को क्रोध में संक्रान्त करता है ।
| संज्वलन कषायों
वह क्रोध संज्वलन को मान संज्वलन में, मान संज्वलन को माया संज्वलन में, माया संज्वलन को लोभ संज्वलन में संक्रान्त करता है ।
अतिवृत्तिकरण गुणस्थान में अश्वकर्णक्रिया और कृष्टिकरण विधि द्वारा लोभ को सूक्ष्म रुपता प्रदानकर सूक्ष्मस पराय क्षपक होता है। सूक्ष्म लोभ का क्षपण होने पर क्षीणमोह गुणस्थान प्राप्त होता है । वह उपान्त समय में निद्रा, प्रचला का क्षय करके अन्त समय में पंच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, पंच अन्तराय का क्षय करके केवली भगवान होता है । प्रयोग केवली उपान्त समय में बहत्तर प्रकृतियों का तथा अंत समय में त्रयोदश प्रकृतियों का क्षय करके सिद्ध परमात्मा होते हैं ।
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( १८१ ) संक्षेप में यह कथन ज्ञातव्य है कि श्रधः करण, अपूर्वं करण तथा अनिवृत्तिकरण रुप करणत्रिक के द्वारा मोह की इक्कीस प्रकृतियों के क्षय का उद्योग होता है । प्रत्रः प्रवृत्तकरण में प्रथम क्षण में पाए जाने वाले परिणाम दूसरे क्षण में भी होते हैं तथा इसी दूसरे क्षण में पूर्व परिणामों में भिन्न और भी परिणाम होते हैं । इसी प्रकार के परिणाम अंतिम समय तक होने से इसका अधःप्रवृत्तकरण नाम सार्थक है ।
पूर्वकरण में प्रत्येक क्षण में अपूर्व ही अपूर्व परिणाम होते हैं । इससे इसका श्रपूर्वकरण नाम सायंक है ।
अनिवृत्तिकरण में भिन्नता नहीं होती। इसके प्रत्येक क्षण में रहने वाले सभी जीव परिणामों की अपेक्षा समान ही होते हैं, इससे इसका अनिवृतिकण बाबा जी महाराज
अधःकरण में रहनेवाला संयमी स्थितिबंध - अनुभागबंध को घटाता है। वहां स्थितिघातादि का उपक्रम नहीं होता है । अपूर्वकरण में यह विशेषता है कि इस करणवाला जीव गुणश्रेणी के द्वारा स्थितिबंध तथा श्रनुभागबंध का संक्रमण मोर निर्जरा करता हुआ उन दोनों के अग्रभाग को नष्ट कर देता है ।
अनिवृत्तिकरण वाला स्त्यानगृद्धि, निद्रा निद्रा, प्रचलाप्रचला, नरकगति द्विक, तियंचगति द्विक, एकेन्द्रियादि चार जाति, प्रताप, उद्योत, स्थावर, सूक्ष्म तथा साधारण इन सोलह प्रकृतियों का एक प्रहार से क्षय करता है । तदनंतर वह आठ मध्यम कषायों का विनाश करता है | पश्चात् कुछ अंतर लेकर वेद त्रय, हास्य रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, संज्वलन क्रोध, मान तथा माया का क्षय करता है । फिर वह सूक्ष्मसांपराय गुणस्थान को प्राप्त करके सूक्ष्म लोभ का क्षय करता है । क्षीणकषाय नामके
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( १८२ ) बारहवें गुणस्थान में एकत्व विलकं अवीचार शुक्लध्यान के द्वारा सोलह प्रकृतियों का नाश करके सयोगीजिन होता है। प्रयोगीजिन होकर वह पच्यासी प्रकृतियों का क्षयकर सिद्ध भगवान होता है। संकामयपट्टवगस्स किंडिदियाणि पुत्वबद्धाणि । केसु व अणुभांगसु य सकर्त की समसकत ज ॥
संक्रमण प्रस्थापक के पूर्ववद्ध कर्म किस स्थिति वाले रहते हैं ? वे किस अनुभाग में वर्तमान हैं ? उस समय कौन संक्रान्त है तथा कौन कर्म असंक्रान्त हैं ?
विशेष- प्रश्नः-संक्रमण प्रस्थापक किसे कहते हैं ?
उत्तर-"अंतरकरणं समाणिय जहाकम णोकम्मक्खवणमाढवेतो संकामणपट्ठवगोणाम" ( १९७३ ) । अन्तरकरण समाप्त करके क्रमानुसार नो कषायों के क्षपणको प्रारम्भ करने वाला संयमी जीव संक्रमण प्रस्थापक कहलाता है। संकमणपट्टवगस्स मोहणीयस्स दो पुरण द्विदीओ। किंचरिणयं महत्तं णियमा से अन्तरं होई ॥ १२५ ॥ ___ संक्रमण-प्रस्थापक के मोहनीय की दो स्थितियां होती हैं १) एक प्रथम स्थिति (२१ द्वितीय स्थिति । इनका प्रमाण कुछ न्यून मुहूर्त है । इसके पश्चात् नियम से अन्तर होता है।
विशेष-"मोहणीयस्स" पद के द्वारा इस संभावना का निराकरणा हो जाता है, कि ये दो स्थितियां संपूर्ण ज्ञानावरणादि में नहीं हैं, केवल मोहनीय कर्म में हैं । "ण सेसाणं कम्माणमिदि वक्वाणं कायब्व"- शेष कर्मों में ये दो स्थितियां नहीं है, यह व्याख्यान करना चाहिये।
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मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज
"किंचूण महत्तांति अंतोमुहृत्तांति णादव"--किंचित् ऊन मुहूर्त में अंतमुहूर्त जानना चाहिये झीणदिदि-कम्मसे जे वेदयदे दु दोसु वि हिदीसु । जे चाविण वेदयदे विदियाए ते दु वोद्धव्वा ।। १२६ ॥
जो उदय या अनुदयरुप कर्मप्रकृतियां परिक्षीण स्थितिवाली हैं, उन्हें उपयुक्त जीव दोनों ही स्थितियों में वेदन करता है। किन्तु जिन कर्माशों को वेदन नहीं करता है, उन्हें तो द्वितीय स्थिति में ही जानना चाहिये।
विशेष- "झीणटिदिकम्मसे" को सप्तमी विभक्ति मानकर यह अर्थ किया जाता है, कि वेद्यमान अन्यतर बेद तथा किसी एक संज्वलन के अतिरिक्त अवेद्यमान शेष एकादश प्रकृतियों के समयोन पावलोप्रमाण प्रथम स्थिति के क्षीण हो जाने पर जिन कर्मों का वेदन करता है, वे दोनों ही स्थितियों में पाये जाते हैं, किन्तु जिन्हे वेदन नहीं करता है, वे उसकी द्वितीय स्थिति में ही पाए जाते हैं। __ स्थिति मत्व तथा अनुभाग मत्य को कहते हैं:संकामणपट्टवगस्स पुधबद्धाणि मज्झिमट्टिदी । साद-सुहणाम-गोदा तहाणुभागे सुटुक्कस्सा ॥ १२७ ॥
संक्रमण-प्रस्थापकके पूर्वबद्ध कर्म मध्यम स्थितियों में पाये जाते हैं तथा अनुभागों में साता वेदनीय, शुभनाम तथा उच्चगोत्र उत्कृष्ट रुपसे पाये जाते हैं।
विशेष-- "मज्झिमदिदीसु अणुक्कस्स-अजहादीसु ति भणिदं होदि"- मध्यम स्थितियों से अनुत्कृष्ट-प्रजघन्य स्थितियों में यह अर्थ जानना चाहिए। ___ "साद-सुह-णामगोदा" आदि के साथ जो "उक्कस्स" पद पाया है, उसका भाव है "ण चेदे प्रोघुक्कस्सा तस्समयपानो गउक्कस्सगा एदे अणुभागेण" ( (१९७६) ये प्रकृतियां प्रोघरुप से
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तत्सम मार्गदर्शक:- आचा
ताग
( १८४ ) उत्कृष्ट नहीं ग्रहण करना चाहिये, किन्तु आदेश की अपेक्षा मार्गदतत्समयावायोग्या सुवाष्टसागहला कोरा चाहिये।
अथ थीणगिद्धि-कम्मं पिदाणिद्दा व पथलपयला य । तह गिरय-तिरियणामा झीणा संछोहणादीसु॥ १२८ ॥
आठ मध्यम कषायों की क्षपणा के पश्चात् स्त्यानगृद्धि, निद्रानिद्रा तथा प्रचलाप्रचला तथा नरकगति, तिर्यग्गति संबंधी त्रयोदश नाम कर्म की प्रकृतियां संक्रमण प्रस्थापक के द्वारा अंतमुहूर्त पूर्व ही सर्वसंक्रमणादि में क्षीण की जा चुकी हैं ।
विशेष--'अथ' शब्द द्वारा यह सूचित किया गया है, "ण केवलमेदापो चेव सोलसपयडीमो झोणालो किंतु अट्ठकसाया वि" केवल सोलह प्रकृति ही क्षीण नहीं होती हैं, किन्तु पाठकषाय भी क्षय को प्राप्त होती हैं। चूणिसूत्र से ज्ञात होता है कि सोलह प्रकृतियों के क्षय के पूर्व अष्टकषायों का क्षय किया जाता है "एदाणि कम्माणि पुबमेव झोणाणि । एदेणेव सूचिदा अट्ठवि कसाया पुब्वमेव विदा त्ति" ( १९७८ ) संकंतम्हि य णियमा णामागोदाणि वेयणीयं च । वस्सेसु असंखेजेसु सेलगा होति संखेज्जे ॥ १२६ ।। ___ हास्यादि छह नोकषाय के पुरुषवेदके चिरंतन सत्व के साथ संक्रामक होने पर नाम, गोत्र तथा वेदनीय प्रसंख्यातवर्ष प्रमाण स्थिति सत्व में रहते हैं। शेष ज्ञानावरणादि चार घातिया कर्म संख्यात वर्ष प्रमाण स्थिति सत्व में रहते हैं।
विशेष—"सेसगा होंति संखेज्जे" कथन का भाव है कि ज्ञानावरणादि चार धातिया कर्म नियम से संख्यात वर्ष प्रमाण स्थिति सत्व में विद्यमान रहते हैं। नाम, गोत्र एवं वेदनीय रुप तीन प्रघातिया असंख्यात वर्ष प्रमाण स्थिति सत्व में रहते हैं।
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मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज
संकामगपट्ठवगो के बंधदि के व वेदयदि अंले । सकामेदि व के के केस असंकामगो होइ ॥१३०॥
संक्रमण-प्रस्थापक किन किन कर्माशों को बांधता है, किनकिन कर्माशों का वेदन करता है तथा किन किन कमीशों का संक्रमण करता है तथा किन किन कर्माकों का असक्रामक होता है? वस्ससदसहस्साई विदिसंखाए दु मोहणीयं तु। बंधदि च सदसहस्सेसु असंखेज्जेसु सेसाणि ॥१३१॥
द्विसमयकृत अन्तरावस्था में वर्तमान संक्रमण-प्रस्थापक के मोहनीय कर्म तो बर्ष शतसहस्र स्थिति संख्यारुप बंधता है और शेष कर्म असंख्यात शतसहस्र वर्ष प्रमाण बंधते हैं ।
विशेष-गाथा में प्रागत 'तु' शब्द पाद पूरण हेतु है अथवा अनुक्त समुच्चयार्थं है। यह गाथा द्विसमय कृत अन्तरकरण के दो समय पश्चात् स्थिति बंध को कहती है "एसा गाहा अंतर. दुसमय कदे टिदिबंधपमाणं भणइ" । भयसोगमरदि-रदिगं हस्त-दुगुका-णवुसगित्थीयो। असादं णीचगोदं अजसं सारीरगं णाम ॥१३२॥ ___ भय, शोक, अरति, रति, हाम्य, जुगुप्सा, नपुंसकवेद, स्त्रीवेद. असाता वेदनीय, नीच गोत्र, अयशःकोति और शरीर नामकर्म को नियम से नहीं बांधता है।
विशेष—एदाणि णियमा ण बंधई" इनको नियम से नहीं बांधता है। यहां अयशःकी तिसे सभी अशुभनाम कर्मकी प्रकृतियों को ग्रहण करना चाहिये। शरीरनाम कर्मसे बैंक्रियिक शरीरादि सभी शरीर नामकर्म और उनसे संबंधित प्रांगोपांगादि तथा
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यशःको ति के सिवाय सभी शुभनाम कर्म की प्रकृतियों को ग्रहण करना चाहिए । १ सव्वावरणीयाणं जेसि ओवट्टणा दु णिहाए । पयलायुगस्स य तहा अबंधगो बंधगो सेसे ॥ १३३ ॥
जिन सर्वावरणीय अर्थात सर्वधातिया कर्मों की अपवर्तना होती है, उनका तथा निद्रा, प्रचला और आयु कम का भी प्रबंधक होता है । शेष कर्मों का बंधक होता है ।
विशेष-जिन कर्मों के देशघाती स्पर्धक होते हैं, उन कर्मों की अपवर्तना संज्ञा है । "जेपि कम्माणं देवघादिफ,याणि अस्थि, तेसि कम्माणमोवट्टणा अस्थित्ति मण्णा" ( १९८२ ।
जिन कर्मों के देशघाती स्पर्धक होते हैं, उन सर्वघातिया कर्मों को नहीं बांधता है; किन्तु देशघाती कर्मों को वांधता है। मतिज्ञानावरणादि चार ज्ञानावरण, चक्षुदर्शनावरणादि चार दर्शनावरण तथा पंच अंतराय कर्मों को बांधता है । "एदाणि कम्माणि देसघादीणि बंधदि" - ये कर्म देशघाती हैं। इनका बंध करता है। २ गिद्दा य णीचगोदं पचला णियमा अगित्ति णामं च । छच्चेय णोकसाया अंसेसु अवेदगो हादि ॥ १३४ ॥
निद्रानिद्रा, नीचगोत्र, प्रचलाप्रचला, स्थानगृद्धि, अयशःकोति,
१ अजसगित्तिणि सेण सब्वेसिमसुहणामाणं पडिसेहसिद्धोदो । मारी रगणामणि सणच वैश्वियसरीरादीणं सब्वेसिमेव सुहणामाणं जसगित्तिवज्जाणं बंधपडिसेहावलंबणादो (१९८१)
२ जाणावरणच उक्क तिदमण सम्मगं च संजलणं 1 गवणोकसाय-विग्धं छब्बीसा देसघादीयो ॥ ४० ॥ गो० ०
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( १८७ )
छह नोकषाय इनका संक्रमण प्रस्थापक नियमसे प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशरुप सर्व अंशों में प्रवेदक रहता है ।
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विशेष --- (१) निद्रा शब्द निद्रानिद्रा का सूचक है । प्रचला से प्रचलाप्रचला जानना चाहिये । 'च' शब्द स्त्यानगृद्धि का बोधक हैं । 'अगि' शब्द यशः कीर्ति का बोधक है । इस पद को उपलक्षण मानकर वेद्यमान सभी प्रशस्त, अप्रशस्त प्रकृतियों का ग्रहण करना चाहिए, कारण मनुव्यगति, पंचेन्द्रिय जाति प्रादितीम प्रकृतियों को छोड़कर शेष का यहां उदय नहीं पाया जाता है ।
वेदे च वेदणीए सव्वावरणे तहा कसाए च । भयदितो मग समोर होदि
१३५ ॥
वह संक्रमण प्रस्थापक वेदों को, वेदनीय कर्म को, सर्वघाती प्रकृतियों को तथा कषायों को वेदन करता हुआ भजनीय है । उनके अतिरिक्त शेष का वेदन करता हुआ भजनीय है ।
विशेष - तीनों वेदों में से एक वेद का वेदन करता है । "पुरिस वेदादी मण्णद रोवयेण सेहिसमारोहणे विरोहाभावादी”. पुरुषवेदादि में से किसी वेद से श्रेणी समारोहण का विरोध नहीं है । यहां वेद का संबंध भाववेद से है । द्रव्यतः पुरुषवेदो ही श्रेणी पर आरोहण करता है ।
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साला, साता वेदनीय में से अन्यतर का वेदन करता है । ग्राभिनिबोधिक ज्ञानावरणीय आदि सर्व आवरणीय कर्मों के सर्वघाती अथवा देशघाती अनुभाग का वेदन करता है । चारों कषायों में से किसी एक कषाय का वेदन करता 1
१ 'णिद्दा च' एवं भणिदे णिहाणिदाए गहणं कायां । 'च' सद्दण श्री गिद्धीए वि गहणं कायव्वं । 'पयला' शिद्द सेण वि पयलापयलाए संगहो ददुव्वो ।
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( १८८ )
उपरोक्त प्रकृतियों को छोड़कर शेष प्रकृतियों में भजनीयता नहीं है। वहां जिसका वेदक है, उसका वेदक ही है तथा जिसका अवेदक है, उसका वेदक है - "णवरि णामपयडीसु संठाणादीनं सिफ सुमेश सामाणिक जितेसि 'च' सद्हेण संगहो कायव्वों" ( १९८५ )
मार्गदर्शक :- आचार्य
यह कथन विशेष है कि नामकर्म की प्रकृतियों में संस्थानादि किन्हीं प्रकृतियों के उदय के विषय में भजनीयता है । उनका 'च' शब्द से संग्रह किया है।
सव्वस्स मोहणीयस्स आणुपुवीय संकमो होदि । लोभकसाये यिमा असंकमो होइ गायव्वो ॥ १३६ ॥
मोहनीय की सर्वप्रकृतियों का श्रानुपूर्वी क्रमसे संक्रमण होता हैं, किन्तु लोभ कषायका नियम से श्रसंक्रमण जानना चाहिये ।
विशेष- शंका आनुपूर्वी संक्रमण किसे कहते हैं ?
समाधान
क्रोध, मान, माया तथा लोभ इस परिपाटी क्रमसे संक्रमण होना श्रानुपर्थी संक्रमण है - " कोह- माण- मायालोभा एसा परिवाडी श्राणुपुब्वी संकमो णाम" ( १६८७ )
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कामगोच को माणं मायं तहेव लोभ च । सव्वं जहारपुपुच्ची वेदादी संछुहदि कम्मं ॥ १३७ ॥
नव नोकषाय और चार संज्वलन रुप त्रयोदश प्रकृतियों का संक्रमण करने वाला क्षपक नपुंसक वेद को प्रादि करके क्रोध, मान, माया और लोभ इन सबको श्रानुपूर्वी क्रमसे संक्रान्त करता है ।
विशेष -- त्रयोदश प्रकृतियों का संक्रामक जीव पहिले नपुंसकवेद तथा स्त्रीवेद का पुरुषवेद में संक्रमण करता है । इसके
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अनंतर पुरुषवेद तथा हास्यादि छह का क्रोध संज्वलन में संक्रमण मार्गदर्शक :- अाजयी बोगसंजाल सामान संज्वलन में, मान संज्वलन
का माया संज्वलन में तथा माया संज्वलन का लोभ संज्वलन में संक्रमण करता है। वह लोभ संज्वलन का अन्य प्रकृतिरुप में परिवर्तन नहीं करता है । लोभ संज्वलन का अपने ही रुप में क्षय करता है। संछुइदि पुरिसवेदे इत्थीवेदं रणवुसयं चेव । सत्तेव गोकसाये णियमा कोहम्मि संछुहदि ॥ १३८ ॥
स्त्रीवेद तथा नपुंसकवेद का नियमसे पुरुषवेद में संक्रमण करता है । पुरुषवेद तथा हास्यादि छह नोकषाय इन सम्म नोकषायों का नियमसे संज्वलन कोध में संक्रमण करता है।
विशेष-"इत्थीवेदं णवंसयवेदं च पुरिसवेदे संछुहदि ण अण्णत्थ सत्तणोकसाए कोधे संछुहदि ण अण्णा त्थ" । ( १९८८ ) स्त्रीवेद तथा नपुंसकवेद को पुरुषवेद में संक्रमण करता है, अन्यत्र संक्रमण नहीं करता है । सप्त नोकषायों का संज्वल क्रोच में मंक्रमण करता है । अन्यत्र संक्रमण नहीं करता है । कोहं च छुहइ माणे माणं मायाए णियमा संछुहइ। मायं च छुहइ लाहे पडिलोमो संकमो णस्थि ॥ १३६ ॥ ___ क्रोध संज्वलन को मान संज्वलन में संक्रान्त करता है। मान संज्वलन को माया संज्वलन में संक्रान्त करता है । माया संज्वलन को लोभ संज्वलन में संक्रान्त करता है। इनका प्रतिलोम अर्थात् विपरीत क्रम से संक्रमण नहीं होता है ।
विशेष—यहां "पुब्बाणुपुब्बीविसयो कमो परुविदो"-पूर्वानुपूर्वी रुप से विषय क्रम कहा है । "पडिलोमेण पच्छा णुपुबीए संकमो पत्थि"-प्रतिलोम रुप से अर्थात् पश्चात् प्रानुपूर्वी से संक्रमण नहीं होता है । ( १९८६)
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जो जम्हि संकुहंतो खियमा बंधसरिसम्हि संहइ | बंधे ही दरगे अहिए वा संकमो रात्थि ॥ १४० ॥
जो जीव बध्यमान जिस प्रकृति में संक्रमण करता है, वह नियमसे बंध सदृश प्रकृति में हो संक्रमण करता है अथवा बंत्रकी अपेक्षा होततर स्थितिवाली प्रकृति में संक्रमण करता है। वह अधिक स्थिति प्रकृतिमा राज
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विशेष – जो जीव जिस प्रकृति को संक्रमित करता है. यह नियमसे बध्यमान स्थिति में संक्रान्त करता है । जो जीव जिम स्थिति को बांधता है, उसमें अथवा उससे होन स्थिति में संक्रान्त करता है । वह अबध्यमान स्थितियों में उत्कीर्णकर संक्रान्त नहीं करता है । " अवज्झमाणासु द्विदीसु ण उक्कडिज्जदि" । समान स्थिति में संक्रान्त करता है - "समट्टिदिगं तु संकामेज्जदि" समान स्थिति में संक्रान्त करता है । ( १९९१ )
कामरणपटुवगो माणकसायरस वेदगो को । संदितो माणसाये कमो सेसे ॥ १४१ ॥
मान कषाय का वेदन करने वाला संक्रमण प्रस्थापक कौन संज्वलन को वेदन नहीं करते हुए भी उसे मनकषाय में सक्रान्त करता है । शेष कषायों में यही क्रम हैं ।
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विशेष - मान कषाय का संक्रमण प्रस्थापक मानको ही वेदन करता हुआ क्रोध संज्वलन के जो दो समय कम भावली प्रमाण नवबद्ध समयप्रबद्ध हैं, उन्हें मान संज्वलन में संक्रान्त करता है । " माणसायस्य संक्रामणपट्टवगो माणं चैव वेदेतो कोहस्स जं दो आवलियबंधा दुसमणा ते माणे संछुद्धि" । बंधो व संकमो वा उदयो वा तह पदेस - अणुभागे । अधिगो समो व हीयो गुण किंवा बिसेस रेण ॥ १४२ ॥
संक्रमण - प्रस्थापक के अनुभाग और प्रदेश संबंधी बंध, उदय तथा संक्रमण ये परस्पर में क्या अधिक हैं या समान हैं अथवा होन
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( १६१ )
हैं ? इसी प्रकार प्रदेशों की अपेक्षा वे संख्यात, असंख्यात या अनंतगुणित रूप विशेष से परस्पर होन हैं या अधिक हैं ?
मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज विशेष – इस गाथा की पुच्छाओं का समाधान आगे किया गया है ।
बंधे होई उदयो अहिओ उदास संकमो अहियो । गुणगुणा बोद्धव्वा होइ श्रणुभागे ॥ १४३ ॥
बंध से उदय अधिक होता है तथा उदयसे संक्रमण अधिक होता है । इस प्रकार अनुभाग के विषय में गुण श्रेणी अनंतगुणो जानना चाहिये |
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विशेष - अनुभाग विषय बंध स्तोक है । बंध से उदय अधिक | उदय से संक्रम अधिक है। बंध से उदय कितना अधिक है ? उदग्रो "अांतगुणो" उदय अनंतगुणा है । उदय से संक्रमण अनन्त गुणा है । ( १९९४ )
बंधे होइ उहि उदा संकमो अहिओ । गुलदास खेज्जा च पदेसग्गेण बोद्धव्या ॥ १४४ ॥
वंधसे उदय अधिक होता हैं । उदय से संक्रमण अधिक होता है | इस प्रकार प्रदेशाग्र की अपेक्षा गुणश्रेणी श्रसंख्यातगुणी जानना चाहिये ।
विशेष --- "पदेसग्गेण बंत्री योत्रो" - प्रदेशांन की अपेक्षा बंध स्तोक है । "उदयो संखेज्जगुणो" - उदय बंध से असंख्यात गुणा है । "संक्रमो श्रसंखेज्जगुणो " - संक्रम उदय से असंख्यातगुणा हैं । ( १६६५
उदय व अतगुणोस पहि-बंधे होइ अणुभागे । से काले उदयादो सौंपहिबंधो अतगुणो ॥ ९४५ ॥
अनुभाग की अपेक्षा सांप्रतिक बंध से सांप्रतिक उदय अनन्त
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गुणा है । इसके अनन्तर कालीन उदय से सांप्रतिक बंध अनन्त गुणा है।
विशेष-विवक्षित समय के अनन्तर काल में होने वाला अनुभाग बन्ध स्तोक है। उससे तदनन्तर काल में होनेवाला अनुभाग उदय अनन्तगुणा है। उस उदय से इस समय होनेवाला अनुभाग बन्ध अनन्तगुणा है । इस अनुभागबन्ध से इस समय होनेवाला अनुभाग उदय अनन्तगुणा है- "सेकाले अणुभागबन्धो थोवो, सेकाले व उदो अणंतगुणो । अस्सि समए बन्धो अणंतगुणो । अस्सि चेव सयए उदो अणंतगुणो" ( १९९६ ) गुणढि अणंतगुरणेणूणाए वेदगो दु अणुभागे । गणणादियंतसढी पसग्गेण बाई ग साविहासागर जी महाराज ___ यह अनुभाग का प्रतिसमय अनन्तगुणित होन गुणश्रेणीरुप से वेदक है। प्रदेशानकी अपेक्षा उसे असंख्यात गुणित श्रेणी रुपसे वेदक जानना चाहिए।
विशेष-"अस्सि समए अणभागुदयो बहुगो । से काले प्रणतगुणहीणो एव सम्वत्थ"-इस समय अर्थात् वर्तमान काल में अनुभाग का उदय बहुत होता है। इसके अनंतरकाल में अनुभाग का उदय अनन्तगुण हीन है। इस प्रकार सर्वत्र जानना चाहिए । "पदेसुदयो अस्सि समए थोबो । से काले असंखेज्जगुणा । एवं सव्वत्थ'- इस वर्तमानकाल में प्रदेशोदय अल्प होता है। इसके अनन्तरकाल में वह असंख्यातगुणा होता है। इस प्रकार उत्तरोत्तर समय में प्रदेशोदय सर्वत्र असंख्यातगुणा जानना चाहिए । १९९७) बंधो व संकमो वा उदओ वा किं सगे सगे ठाणे । से काले से काले अधिो हीरो समो वा पि ॥ १४७॥
बंध, संक्रम वा उदय स्वस्व स्थान पर तदनन्तर तदनन्तर काल की अपेक्षा क्या अधिक है, हीन है अथवा समान है ?
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। १६३ ) बंधोदएहि णियमा अणुभागो होदि णतगुणहीणो । से काले से काले भज्जो पुण संकमो होदि ॥ १४८ ॥
अनुभाग, बंध और उदय की अपेक्षा तदनंतर काल में नियम से अनंतगुणितहाकिहोता हनान्तु सविधिसमजना महाराज
विशेष-अस्सि समए अणुभागबंधो बहुप्रो । से काले प्रणंतगुणहीणो"-वर्तमान समय में अनुभागबंध बहुत होता है । अंतर काल में अनंतगुणीत हीन होता है। "एवं समए समए अणतगुणहीणो"-इस प्रकार समय समय में अनंतगुणित होन होता है । ___ "एवमुदयो वि कायव्वो"-इसके समान अनुभागोदय को जानना चाहिये। वर्तमान क्षण में अनुभागोदय बहुत होता है। तदनंतर कालमें अनंतगुणित होन होता है।
संक्रमण जब तक एक अनुभागकांडक का उत्को रण करता है, सब तक अनुभागसंक्रमण उत्तना उतना ही होता रहता है। अन्य अनुभाग कांडक के प्रारंभ करने पर उत्तरोत्तर क्षणों में वह अनुभाग. संक्रमण अनंतगुणा हीन होता जाता है। गुणसेढि असंखेजा च पदेसम्गेण संकमो उदओ। से काले से काले भज्जो बंधो पदेसग्गे ॥ १४६ ॥
प्रदशाग्र की अपेक्षा संक्रमण और उदय उत्तरोत्तरकाल में असंख्यातगुण श्रेणिरुप होते हैं | बंध प्रदेशाग्रमें भजनीय हैं ।
विशेष--"पदेसुदयो अस्सि समएथोवो। से काले असंखेजगुणो" धर्तमान समय में प्रदेशोदय स्तोक है। तदनंतर कालमें असंख्यातगुणित है। इस प्रकार सर्वत्र जानना चाहिये।
जैसी प्रदेशोदय को प्ररुपणा है, वैसी ही संक्रमण की भी है। "जहा उदयो तहा संकमो वि कायव्वो" । वर्तमान काल में प्रदेशों का संक्रमण अल्प है। तदनंत रकाल में वह असंख्यातगुणित है ।
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मार्गदर्शक आचार्य श्री सुविहिासागर जी म्हाराज प्रदेशबंध चतुविध वृद्धि, चतुर्विध हानि तथा प्रवस्थान में भजनीय है । “जोगवढि-हाणि-प्रबढाणवसेण पदेसबन्धस्य तहाभावसिद्धीए विरोहाभावादो" ( १९९९ ) - योगों में वृद्धि, हानि तथा अवस्थान के वशसे प्रदेशबन्ध में वृद्धि, हानि तथा अवस्थान के होने में कोई बाधा नहीं है । गुणदो अांतगुणाही वेददि रिणयमसा दु अणुभागे। अहिया च पदेसम्गे गुणेण गणणादियतेण ॥ १५०॥
अनुभाग में गुणश्रेणी की अपेक्षा निगमगे अनन्तगुणा हीन वेदन करता है। प्रदेशाग्न में गणनातिकान्त गुणितरुप श्रेणी के द्वारा अधिक है। किं अंतर करेंतो वड्ढदि हायदि द्विदी य अणुभागे। शिरुवक्कमा च वड्ढी हाणी वा केचिरं कालं ॥ १५१ ॥
अन्तर को करता हुआ क्या स्थिति और अनुभाग को बढ़ाता है या घटाता है ? स्थिति तथा अनुभाग की वृद्धि या हानि करते हुए निरुपक्रम अर्थात्, अन्तरहित वृद्धि अथवा हानि कितने काल तक होती है ?
ओवट्टणा जहरणा आवलिया ऊणिया तिभागेण । एसा हिदीसु जहगणा तहाणुभागे सणंतेसु ॥ १५२ ॥
जवन्य अपवर्तना विभाग से ऊन प्रावली है । यह जघन्य अपवर्तना स्थितियों के विषयमें ग्रहण करना चाहिए। अनन्ग सम्बन्धी जघन्य अपवर्तना अनन्त स्पर्धकों से प्रतिबद्ध है।
विशेष----अपवर्तन किया द्रव्य जिन भिषकों में मिलाते हैं, वे निपेक निक्षेपरुप कहे जाते हैं। अपवर्तन किया द्रष्य जिन निषेकों में नहीं मिलाया जाता है, वे निषेक अति स्थापनारूप कहलाते हैं।
निक्षेप और प्रतिस्थापना का कम यह है, कि उदयावनी प्रमाण निषेत्रों में से एक कमकर तोन का भाग दो। इनमें एक
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मार्गदर्शक :
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रुप रहित प्रथम विभाग तो निक्षेप रूप है और अन्तिम दो भाग अतिगर जी महाराज
जब तक अनन्त स्पर्धक प्रतिस्थापना रूप से निक्षिप्त नहीं हो जाते हैं, तब तक अनुभाग विषयक अपवर्तना की प्रवृत्ति नहीं
होती है ।
-
संकामेदुककडुदि जे असे ते अट्टिदा होंति । वलिय से काले तेरा घर होंति भजिदव्या ॥ १५३ ॥
जो कर्म रूप अंश संक्रमित, अपकर्षित या उत्कर्षित किये जाते हैं, वे श्रावली पर्यन्त अवस्थित रहते हैं अर्थात् उनमें वृद्धि हानि यादि नहीं होती । तदनंतर समय में वे भजनीय हैं, कारण संक्रमणावली के पश्चात् उनमें वृद्धि हानि श्रादि होती हैं, नहीं भी होती हैं।
विशेष - "जं प्रदेस गं परपथडीए संक्रामिज्जदि हिंदीहिं वा श्रणुभागेहि वा उक्कडिज्जदि तं पदेसग्यमावलियं ण सक्कं प्रोकडि वा संकामे वा ।" ( २००५ ) - - ज) प्रदेशाय परप्रकृति में संक्रांत किया जाता है, प्रथवा स्थिति और अनुभाग के द्वारा अपवर्तित किया जाता है वह प्रदेशाग्र एक आवली तक अपकर्षण या संक्रमण, उत्कणि या सक्रमण के लिए समर्थ नहीं है ।
कडुदि जे असे से काले ते च होति भजियव्वा । वड्डीए अबट्टा हाणीए संक मे उदए ॥ १५४ ॥
जो कम प्रकर्षित किए जाते हैं, वे नंतर काल में वृद्धि, अवस्थान, हानि, संक्रमण तथा उदय की अपेक्षा भजनीय हैं।
विशेष जो कर्मप्रदेशाय स्थिति अथवा अनुभाग की अपेक्षा अपकर्षित किया जाता है, बह तदनंतरकाल में ही पंण, उत्कण, संक्रमण वा उदीरणा को प्राप्त किया जा सकता है । "हिंदीहि वा अणुभागेहि वा पदसम्मोक हुज्जदि तं पदेस से काले चेव
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( १६६ ) प्रोकडिज्जेज्ज वा उक्कड्डिज्जेज्ज बा कामिज्जेज्ज वा उदोरिज्जेज्ज वा" ( २००६ )। एक्कं च हिदिविसेसं तु द्विदिविसेसेस कदिसु बढदि । हरसेदि कदिसु एगं तहागुभागेसु बोद्धव्वं ॥ १५५ ॥
एक स्थिति-विशेष को प्रसंख्यात स्थिति-विशेषों में बढ़ाता है, घटाता है । इसी प्रकार अनुभाग विशेष को अनंत अनुभाग स्पर्धकों में बढ़ाता है तथा घटाता है।
विशेष-यहां स्थिति उत्कर्षण सम्बन्धी जघन्य उत्कृष्ट निक्षेप के प्रमाण के विषय में पृच्छा की गई है। 'च' और 'तु' शब्दों के द्वारा उत्कर्षण विषयक जघन्य तथा उत्कृष्ट अति स्थापना के संग्रह का भी सूचित किया गया है । "हरसेदि कदिसु एगे" के द्वारा अपकर्षण सम्बन्धी जघन्य-उत्कृष्ट निक्षेप के प्रमाण निश्चयार्थ शंका की गई है । अनुभाग विषयक उत्कण प्राधिसमाजहाज और उत्कृष्ट निक्षेप के विषय में तथा जघन्य और उत्कृष्ट प्रति स्थापना के प्रमाण में पृच्छा हुई है। एक्कं च हिदिविसेसं तु असंखेज्जेसु द्विदिविसंसेसु । बढदि हरस्सेदि च तहाणुभागे सणतेसु ॥१५६ ॥
एक स्थिति बिरोष को असंख्यात स्थिति बिशेषों में बढ़ाता है तथा घटाता है । इसी प्रकार अनुभाग विशेष को अनंत अनुभाग स्पर्धकों में बढ़ाता तथा घटाता है। . द्विदि अणभागे अंसे के के वढदि के व हरस्सेदि । केसु अबढाणां वा गुणेण किं वा विसेसेण ।। १५७॥
स्थिलि तथा अनुभाग सम्बन्धो कौन कौन अंशों कम प्रदेशों को बढ़ाता, अथवा घटाता है अथवा किन किन अंशों में अवस्थान करता है ? यह वृद्धि, हानि तथा अवस्थान किस किस गुण से बिशिष्ट होता है।
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( १७ ) अोवोदि द्विदि पुरख अधिगं हीणं च बंधसमगं वा। उक्कडदि बंधसमं हीणं अधिगंण वड्डोदि ॥ १५ ॥
स्थिति का अपकर्षण करता हुआ कदाचित् अधिक, हीन तथा कदाचित् बंध समान स्थिति का अपकर्षण करता है । स्थिति का उत्कर्षण करता हुश्रा कदाचिद होन तथा वंध समान स्थिति का उत्कषण करता है, किन्तु अधिक स्थिति को नहीं बढ़ाता है।
विशेष-जो स्थिति अपकर्षण की जाती है, वह बध्यमान पाक्षिकि से अधिक होगा विशिलानरहोती मौटाक्रिन्तु उत्कषण की जाने वाली स्थिति बध्यमान स्थिति से तुल्य या हीन होती है, अधिक नहीं होती है। "जा द्विदी प्रोक्कड्डिज्जदि या ट्ठिदो बज्झमाणियादो अधिका वा हीणा बा तुल्ला वा । उक्कड्डिजमाणिया द्विदो बज्झमाणियादो दिदीदो तुल्ला होणा वा अहिया णत्यो"। ( २०१५) सव्वे वि य अणुभागे ओकडदि जे हा भावलियपवि। उक्कड्डदि बंधसमें णिस्वक्कम होदि श्रावलिया॥ १५६ ॥
उदयावली से बाहिर स्थित सभी अर्थात् बंध सदृश या उससे अधिक अनुभाग का अपकर्षण करता है, किन्तु श्रावली प्रविष्ट अनुभाग का अपकर्षण नहीं करता है | बंध समान अनुभाग का उत्कर्षण करता है; उससे अधिक का नहीं। पावलो अर्थात् बंधावली निरुपक्रम होती है।
विशेष-उदयावली में प्रविष्ट अपुभागों को छोड़कर शेष सत्र अनुभागों का अपकर्षण तथा उत्कर्षण होता है । "उदयावलियपविट्ठ अणुभागे मोत्तण सेसे सब्वे चेव अणुभागे प्रोकडुदि । एवं चेव उकड्डदि" ( २०१६)
इस विषय में सद्भाव संज्ञक सूक्ष्म अर्थ इस प्रकार है । प्रथम स्पर्धक से लेकर अनंत स्पर्धक अपकर्षित नहीं किए जाते हैं। वे स्पर्धक जघन्य अति स्थापना स्पर्धक तथा जवन्य निक्षेप स्पर्धक
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मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज
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प्रमाण हैं । इस कारण उतने प्रतिस्थापना रूप स्पर्थकों को छोड़कर तदुपरिम स्पर्धक अपकर्षित किया जाता है। इस प्रकार क्रम से बढ़ते हुए अंतिम स्पर्धक पर्यन्त अनंत स्पर्धकों का अपकर्षण किया जाता है । चरिम तथा उपचरिम स्पर्धक उत्कर्षित नहीं किये जाते ।
I
इस प्रकार अंतिम स्पर्धक से नोचे अनंत स्पर्धक उतरकर अर्थात् चरम स्पर्धक से जघन्य प्रतिस्थापना निक्षेप प्रमाण स्पर्धक छोड़कर जो स्पर्धक प्राप्त होता है, वह स्पर्धक उत्कर्षित किया जाता है और उसे श्रादि लेकर उससे नीचे के शेष सर्व स्पर्वक उत्कर्षित किए जाते हैं ।
वहीदु होइ हाणी अधिगा हाणी दु तह अवहाणं । गुणसेढिप्रसंखेज्जा च पदेसग्गेण बोद्धव्या ॥ १६० ॥
वृद्धि ( उत्कर्षण ) से हानि ( श्रपकर्षण) अधिक होती है। हानि से अवस्थान अधिक है। अधिक का प्रमाण प्रदेशारकी प्रपेक्षा असंख्यात गुणश्र ेणी रुप जानना चाहिये ।
विशेष – "जं पदसग्गमुक्कडिज्जदि सा यहि त्ति सणा जमोकडिज्जदि सा हाणि ति सण्णा । जं ण श्रोकडिज्जदि, ण उक्कडिज्जदि पदेसग्गं तमवद्वाणं ति सण्णा" जो प्रदेशाच उत्कर्षित किए जाते हैं, उनकी 'वृद्धि' संज्ञा है । जो किए जाते हैं, उन प्रदेशाग्रों को हानि कहते हैं तथा जो प्रदेशाय न अपकर्षित तथा न उत्कषित किए जाते हैं, उन्हें प्रवस्थित कहते हैं ।
पति
वृद्धि स्तोक है । हानि असंख्यात गुणी है । उससे अवस्थान श्रसंख्यात गुणित है । यह कथन क्षपक तथा उपशामक को अपेक्षा कहा है। अक्षपक तथा अनुपशामक के "वड्ढीदो हाणी तुल्ला बा, विसेसाहिया वा विसेसहीणा वा अवद्वाणमसंखेज्जगुण" - वृद्धि से हानि तुल्य भी है, विशेषाधिक भी है अथवा विशेषहीन भी है, किन्तु श्रवस्थान असंख्यात गुणित हैं । उपरोक्त कथन एक स्थिति की अपेक्षा तथा सर्व स्थितियों की अपेक्षा किया गया है ( २०२० )
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( १६६ ) ओवट्टणमुव्वट्टण किट्टीवज्जेसु होदि कम्मेसु । ओवट्टणा च णियमा किट्ठीकरणम्हि बोद्धव्वा ॥ १६१ ॥
अपवर्तन (अपकर्षण ) और उद्वर्तन ( उत्कर्षण ) कृष्टिवर्जित कर्मों में होता है । अपवतंना नियम से कृष्टिकरण में जानना
मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज चाहिए ।
विशेष-कृष्टिकरण के पूर्व में उत्कर्षण, अपकर्षण दोनों होते हैं। कृष्टिकरण के समय तथा उसके पश्चात् उत्कर्षण करण नहीं होता है, अपकर्षण होता है । यह क्षपक क्षेणी को अपेक्षा कथन किया गया है ।
उपशम श्रेणी में सूक्ष्मसांपरायिक के प्रथम समय से लेकर अनिवृत्तिकरण के प्रथम तक मोहनीय की अपवर्तना ही होती है । अनिवृत्तिकरण के प्रथम समयसे नीचे सर्वत्र अपवर्तना तथा उद्वर्तना दोनों होते हैं । ( २०२१ ) केदिया किट्टीओ कम्हि कसायम्हि कदि च किडीओ। किट्टीए कि करण लक्षणमथ किं च किट्टीए ॥ १६२ ॥
__ कृष्टियां कितनी होती हैं ? किस कषाय में कितनी कृष्टि होती है ? कृष्टि में कौन सा करण होला ? कृष्टि का क्या लक्षण है ?
विशेष –ष्टि का स्वरूप इस प्रकार कहा है कि जिससे । संज्वलन कषायों का अनुभाग-सत्व कृशता को प्राप्त होता है, वह कृष्ट कही गई है । इसका विशेष कथन अागामी गाथानों में ।। किया गया है। वारस व छ तिरिणय किट्टीओ होंति अधवऽणांताओ। एक्केक्कम्हि कसाए तिग तिगअधवाअणंताओ ॥१६३॥
संज्वलन क्रोधादि कषायों की बारह, नव, छह तथा तीन कृष्टियां होती हैं अथवा अनंतकृष्टियां होती हैं । एक एक कषाय में तीन तीन अथवा अनंतकृष्टियां होती हैं।
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( २०० ) विशेष-क्षपक श्रेणी का आरोहण क्रोध कषाय के उदय के साथ होने पर बारह, मान कषाय के साथ होने पर नव, माया कषाय के साथ होने पर छह और लोभ कषाय के साथ होने पर तीन कृष्टियां होती हैं।
एक एक संग्रह कृष्टि में अवयव कृष्टियां अनंत होती हैं। "एक्केक्कस्स कसायस्स एक्केविकस्से संगहकिट्टीए अवयवकिट्टीमो अणंतानो अस्थि" ( २०७३ ) मार्गदर्शक एकावर्षायामासानासान कृष्टिया होती हैं । किट्टी करेदि णियमा ओवष्ट तो द्विदी य अणुभागे। बढ्तो किट्टीए अकारगो होदि बोद्धव्यो । १६४ ॥
चारों कषायों की स्थिति और अनुभाग का नियम से अपवर्तन करता हुआ कृष्टियों को करता है। स्थिति तथा अनुभाग को बढ़ाने वाला कृष्टि का अकारक होता है यह जानना चाहिए ।
विशेष-"जो किट्टीकारगो सो पदेसगं ठिदीहि दा अणुभागेहिं वा प्रोकडुदि ण उपकडदि"-कृष्टि कारक प्रदेशाग्र को स्थिति तथा अनुभाग की अपेक्षा अपवर्तन ( अपकर्षण ) करता है, उद्वर्तन ( उत्कर्षण ) नहीं करता है।
__ कृष्टिकारक क्षपक कृष्टि करण के प्रथम समय से लेकर जब तक चरमसमयवर्ती संक्रामक है, तब तक मोहनीय के प्रदेशाग का अपकर्षक ही है, उत्कर्षक नहीं है ।
उपशामक प्रथम समय कृष्टि कार्य को आदि लेकर जब तक वह चरम समयवर्ती सकषाय रहता है, तब तक अपकर्षक रहता है, उत्कर्षक नहीं। उपशम श्रेणी से गिरने वाला जीव सूक्ष्मसांपरायिक होने के प्रथम समय से लेकर नोचे अपकर्षक भी है, उत्कर्षक भी है।
उपशमश्रेपी चढ़नेवाले के कृष्टिकरण के प्रथम समय से लेकर सूक्ष्मसांपरायिकके अन्तिम समय पर्यन्त अपकर्षण करण होता है।
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( २०१ )
. उपशम श्रेणी से नीचे गिरने वाले के सूक्ष्मसांपराय के प्रथम समय से दोनों ही करण प्रवृत्त होते हैं । 'पडिवदमाणगो पुण पढमसमयकसायप्पहुडि प्रोकड्डगो वि उक्कड्डगो वि ( २०७५ ) गुणसेढि अांतगुणा लोभादी कोध-पच्छिमपदादो। कम्गस्स य अणुभागे किट्टीए लक्खयां एदं ।। १६५ ॥
लोभ की जघन्य कृष्टि को आदि लेकर क्रोध कषायको सर्व पश्चिमपद ( अंतिम उत्कृष्ट कृष्टि ) पर्यन्त यथाक्रमसे अवस्थित चारों संज्वलन कषाय रुप कर्म के अनुभाग में गुणश्रेणी अनंतगुणित हैं। यह कृष्टि का लक्षण है।
विशेष—पश्चार प्रानुपूर्वी की अपेक्षा कृष्टि का स्वरुप यहां कहा गया है, कि लोभ कषाय की जघन्य कृष्टि से लेकर क्रोध की उत्कृष्ट कृष्टि पर्यन्त कषायों का अनुभाग अनंतगणित वद्धिाप है। हाराज ____ पूर्वानुपूर्वी की अपेक्षा संज्वलन क्रोध की उत्कृष्ट कृष्टि से लेकर लोभ की जघन्य कृष्टि पर्यन्त कषायों का अनुभाग उत्तरोत्तर अनंतगुणित हानि रुप से कृश होता है ।
लोभ की जघन्य कृष्टि अनुभाग की अपेक्षा स्तोक है । द्वितीय कृष्टि अनुभाग की अपेक्षा अनंतगुणी है। तृतीय कृष्टि अनुभाग को अपेक्षा अनंतगुणी है । इस प्रकार अनंतर अनंतर क्रम से सर्वत्र तब तक कृष्टियों का अनंतगुणित अनुभाग जानना चाहिये, जब तक क्रोध की अंतिम उत्कृष्ट कृष्टि उपलब्ध हो। संज्वलन क्रोध की उत्कृष्ट कृष्टि अपूर्व स्पर्धक की प्रादि वर्गणा के अनंतवें भाग है। इस प्रकार कृष्टियों में अनुभाग स्तोक है, "एवं किट्टीसु थोवो अणुभागो" । "किसं कम्मं कदं जम्हा तम्हा किट्टी"--- जिसके द्वारा कर्म कृश किया जाता है, उसे कृष्टि कहते हैं । कदिसु च अणुभागेसु च द्विदीसु वा केत्तियासु का किट्टी। सव्वासु वा द्विदीसु च आहो सव्वासु पत्तेयं ॥१६६ ॥
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मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज
( २०२ ) कितने अनुभागों तथा कितनी स्थितियों में कौन कृष्टि है ? यदि सभी स्थितियों में सभी कृष्टियां संभव हैं, तो क्या उनको सभी अवयव स्थितियों में भी मभी कृष्टियां संभव हैं अयवा प्रत्येक स्थिति पर एक एक कृष्टि संभव है ? किट्री च द्विदीविसेसेसु असंखेज्जेसु णियमासा होदि। पणियमा अणुभागेसु च होदिहु किट्टी असंतेसु ॥ १६७॥
सभी कृष्टियां सर्व असंख्यात-स्थितिविरोषों पर नियमसे होती हैं तथा प्रत्येक कृष्टि नियमसे अनंत अनुभागों में होती हैं ।
विशेष-क्रोध को प्रथम संग्रहकृष्ठि को वेदन करने वाले जीव के उस अवस्था में क्रोध संज्वलन की प्रथम स्थिति और द्वितीय स्थिति संज्ञावाली दो स्थितियां होती हैं। उनमें द्वितीय स्थिति संबंधी एक एक समय रुप जितनी अवयव स्थितियां हैं, उन सब में बेदन की जानेवाली क्रोध-प्रथम संग्रहकृष्टि की जितनी अवयवष्टियां हैं, वे सब पाई जाती हैं; किन्तु प्रथम स्थिति संबंधी जितनी अवान्तर स्थितियां हैं, उनमें केवल एक उदयस्थिति को छोड़कर शेष सर्व अवान्तरस्थितियों में क्रोध कषाय संबंधी प्रथम संग्रह कष्टि को सर्व अवयवकृष्टियां पाई जाती हैं। ___उदय स्थिति में वेद्यमान संग्रहकृष्टिकी जितनी अवयवष्टियां हैं, उनका असंख्यात बहुभाग पाया जाता है। शेष अवेद्यमान ग्यारह संग्रहकृष्टियों को एक एक अवयव कृष्टि सर्व द्वितीय स्थिति संबधी अवान्तरस्थितियों में पाई जाती हैं। प्रथम स्थिति संबंधी प्रवान्तर स्थितियों में नहीं पाई जाती-"सेसाणमवेदिज्जमाणिगाणं संगहकिट्टोणमेक्केक्का किट्टी सध्यासु विदियद्विदीसु, पडमविदीसु जस्थि" ( २०७९ )।
एक एक संग्रह कृष्टि यथवा अवयवकृष्टियां अनन्त अनुभागों में रहती हैं। जिन अनंत अनुभागों में एक विवक्षित कृष्टि वर्तमान
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(२०३ ) है, उनमें दूसरी अन्य कृष्टियां नहीं रहती हैं । "एकेक्का किट्टी अणुभागेसु अणंतेसु । जेसु पुण एवका ण तेसु विदिया" । सव्वाश्रो किट्टीओ बिदियद्विदीए दु होति सविस्से । जं किहि वेदयदे तिस्से अंसो च पढमाए ॥ १६८ ॥
सभी संग्रह कृष्टियां और उनकी अवयव करिटयां समस्त द्वितीय स्थिति में होती हैं, किंतु वह जिस कृष्टि का वेदन करता है, उसका अंश प्रथम स्थिति में होता है।
विशेष–वेद्यमान संग्रहकष्टिका अंश उदय को छोड़कर शोष सर्व स्थितियों में पाया जाता है, किन्तु उदय स्थितिमें वेद्यमान कष्टि के असंख्यात बहुभाग ही पाए जाते हैं । किट्टी च पदेसग्गेणणुभागग्गेण का च काले । अधिका समाच हीणा गुणेण किंवा विसेसेण ॥ १६६ ॥
कें:- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज ___ कौन कृष्टि प्रदेशाग्र, अनुभागाग्न तथा काल की अपेक्षा किम कष्टिसे अधिक है, समान है अथवा हीन है? एक कृष्टि से दूसरी में गुणों की अपेक्षा क्या विशेषता है ? बिदियादो पुण पढमा संखेज्जगुणा भवे पदेसम्गे। बिदियादो पुरण तदिया कमेण सेसा विसेसहिया॥१७॥
क्रोध की प्रथम संग्रष्टि उसको द्वितीय गंग्रह कृष्टि से प्रदेशाग्र की अपेक्षा संख्यातगुणी है। द्वितीय सग्रह कृष्टि से तीसरी विशेषाधिक है। - विशेष-क्रोध की द्वितीय संग्रह कृष्टि में प्रदेशाग्र स्तोक हैं । प्रथम संग्रह कृष्टि में प्रदेशाग्न संख्यातगुणे अर्थात् तेरह गुने हैं । “पटमाए संगहकिट्टीए पदेसम्गं संखेज्जगुणं तेरसगुणमेत्त" २०८३) ।
मान की प्रथम संग्रह कष्टि में प्रदेशाग्र स्तोक हैं। द्वितीय संग्रह कृष्टि में प्रदेशाग्र विशेषाधिक हैं। तृतीय संग्रह कृष्टि में
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( २०४ ) . प्रदेशाग्र विशेषाधिक हैं। "विसेसो पलिदोवमस्स असंखेज दिभागपडिभागो"--विशेष का प्रमाण पल्योपम के प्रसंख्यातवें भाग का प्रतिभाग है । ( २०५५ )। ___ मान की तृतीय संग्रह कृष्टिसे क्रोध को द्वितीय संग्रह कृष्टिमें प्रदेशाग्र विशेषाधिक हैं। तृतीय संग्रह कृष्टि में प्रदेशाग्र विशेषाधिक हैं । माया की प्रथम संग्रह कृष्टि में प्रदेशाग्र विशेषाधिक है। द्वितीय संग्रहकष्टि में प्रदेशाग्र विशेषाधिक हैं। तृतीय संग्रह कृष्टि में प्रदेशाग्न विशेषाधिक हैं।
लोभ को प्रथम संग्रह कृष्टिमें : देशाग्र विशेषाधिक हैं। द्वितीय संग्रह कृष्टिमें प्रदेशाग्र विशेषाधिक है। तृतीय संग्रह कष्टिमें प्रदेशाग्र विशेषाधिक हैं।
क्रोध की प्रथम संग्रह कृष्टि में प्रदेशाग्न संख्यातगुणे हैं ।
"कोहस्य पढमाए संगहकिट्टीए पदेसग्गं संखेज्जगुणं"। यहां संख्यात मार्गदर्शक :- अयामा लोग्रफुसारहे लेस्सगुणमैत्तमिदि वुत्तं होदि" (२०८६)।
विदियादो पुण पढमा संखेन्ज गुणा दु वग्गणग्गेण । विदियादो पुण तदिया कमेण सेसा विसेसहिया ॥२७॥
क्रोध की द्वितीय संग्रह कृष्टि से प्रथम संग्रह कृष्टि वर्गणाओं के समूह की अपेक्षा संख्यातगुणी है। द्वितीय संग्रह कृष्टि से तुतीय विशेषाधिक है । इस प्रकार शेष संग्रह कृष्टियां विशेषाधिक जामना चाहिए।
विशेष-अनंत परमाणनों के समुदायात्मक एक अन्तर कृष्टि को वर्गणा कहते हैं । बर्गणाओं का समुदाय वर्गणाग्र है । "एत्थ वग्गणा त्ति वुत्त एक्केका अंतरकिट्टी चेघ अणंतसरिसवाणियपरमाणु समूहारद्धा एगेगा वग्गणा त्ति घेतव्या तासिं समूहो 'वग्गणग्गमिदि भण्णदे" । ( २०८६) जा होणा अणुभागेण 5 हिया सा वग्गणा पदेसग्गे । भागेणाणंतिमेण दु अधिगा हीणा च बोधव्वा ॥१७२॥
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जामहाराज
( २०५ ) जो वर्गणा अनुभाग की अपेक्षा होन है, वह प्रदेशाग्र को मार्गदर्शक : अपेक्षा अधिकारी वर्गणाएं अनंतवे माग से अधिक तथा हीन
जानना चाहिए ।
“विशेष-जिन वर्गणाओं में अनुभाग अधिक होगा, उनमें प्रदेशाग्र कम होंगे । जिनमें प्रदेशाग्र अधिक रहेंगे, उनमें अनुभाग कम रहेगा । जघन्य वर्गणा प्रदेशाग्र बहुत हैं। दूसरी वर्गणा में प्रदेशाग्र बिशेषहीन अर्थात् अनंतवें भागसे होन होते हैं। इस प्रकार अनंतर अनंतर क्रमसे सर्वत्र विशेष हीन प्रदेशाग्न जानना चाहिए ! "जहष्णियाए बग्गण्णाए पदेसगं बहुमं । बिदियाए वग्गणाए पदेसग्गं विसेसहीण मणतभागेण । एवमणेतराणंतरेण विसेसहीणं सब्बत्य" । ( २०८८ ) कोधादिवग्गणादो सुद्धं कोधस्स उत्तरपदं तु । सेतो अणंतभागो णियमा तिस्से पदेसग्गे ॥१७॥
क्रोथ कषाय का उत्तर पद क्रोध को आदि घर्गणा में से घटाना चाहिये । इससे जो शेष रुष अनंतवां भाग रहता है, वह क्रोध की आदि वर्गणा अर्थात् जघन्य वर्गणा के प्रदेशाग्र में अधिक है। - विशेष-क्रोध की जघन्य वर्गणा से उसकी उत्कृष्ट वर्गणा में प्रदेशाग्र विशेष हीन अर्थात् अनंतवें भाग से होन हैं। १ एलो कमो य कोधे मारणे णियमा च होदि मावाए। लोभम्हि च किट्टीए पत्तेगं होदि बोद्धब्बो ॥ १७४ ॥ । क्रोध के विषय में कहा गया यह क्रम नियम से मान, माया, लोभ की कृष्टि में प्रत्येक का जानना चाहिये ।
१ कोधस्स जहणियादो वग्गणादो उक्कस्सियाए वग्गणाए पदैसरगं विसेसहीणमणंत-भागेण ( २०८९)
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( २०६ ) विशेष---मान कषाय का उत्तरपद अर्थात् चरम कृष्टि का प्रदेशाग्न मानकी प्रादि वर्गपणा में से घटाना चाहिये । जो शेष अनंतवां भाग रहता है, वह नियम से मानकी जघन्य वर्गणा के प्रदेशाग्न से अधिक है। इसी प्रकार माया संज्वलन और लोभ संज्वलन का उत्तरपद उनको श्रादि वर्गणा में से घटाना चाहिये । जो शेष अनंतवां भाग बचे, वह नियम से उनको जघन्य वर्गणा के प्रदेशाग्र से अधिक है। पढमा च अतगुणा विदियादोरिणयमसा हि अणुभागो। तदियादोपुरण बिदियाकमेणसेसा गुरणेणऽहिया ॥१७५।। 1 अनुभाग की अपेक्षा क्रोध संज्वलन की द्वितीय कृष्टि से प्रथम कृष्टिबाणित होनातीय मुनियोगद्वतीयम्हाकाष्ट अनंत गुणी है। इसी प्रकार मान, माया और लोभ की तीनों तीनों कृष्टियां तृतीय से द्वितीय और द्वितीय से प्रथम अनंतगुणी जानना चाहिये।
विशेष--संग्रह कृष्टि की अपेक्षा क्रोध की तीसरी कृष्टि में अनुभाग अल्प है। द्वितीय में अनुभाग अनंतगुणा है । प्रथम में अनुभाग अनंतगुणा है। इसी प्रकार “एवं माण-माया-लोभाणं पि". मान, माया लोभ में जानना चाहिए । ( २०९२) पढमसमयकिहीणं कालो वस्सं व दो व चत्तारि । अट्ट च वस्ताणि द्विदी बिदियविदीए समा होदि ॥१७६॥
प्रथम समय में कष्टियों का स्थिति काल एक वर्ष, दो वर्ष, चार वर्ष, और पाठ वर्ष है : द्वितीय स्थिति और अन्तर स्थितियों के साथ प्रथम स्थिति का यह काल कहा है। 4 विशेष--यदि क्रोध संज्वलन के उदय के साथ उपस्थित हुआ कृष्टियों का वेदन करता है, तो उसके प्रथम समय में कष्टि वेदक के मोहनीय का स्थिति सत्व पाठ वर्ष है । मान के उदय के साथ
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मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविद्यिासागर जी महाराज
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उपस्थित प्रथम समय में कृष्टिषेदक के मोह का स्थिति सत्व चार वर्ष है। माया के उदय के साथ उपस्थित प्रथम समय कृष्टिवेदक के मोह का स्थिति सत्व दो वर्ष है। लोभ के उदयके साथ उपस्थित प्रथम समय कृष्टिवेदक के मोहका स्थिति सत्व एक वर्ष है। ( २०९४) जं किटिं वेदयदे जत्रमझ सांतरं दुसु दिदीसु । पहमा जं गुणलेढी उत्तरसेढी य बिदिया दु॥१७७||
जिस कृष्टि को वेदन करता है, उसमें प्रदेशाग्र का अवस्थान यवमध्य रुप से होता है तथा वह यवमध्य प्रथम और द्वितीय इन दोनों स्थितियों में वर्तमान होकर भी अन्तर स्थितियों से अंतरित होने के कारण सांतर है। जो प्रथम स्थिति है, वह गुणश्रेणी रुप है तथा द्वितीय स्थिति उत्तर श्रेणी रुप है।
विशेष—जिस कृष्टि को वेदन करता है, उसकी उदय स्थिति में अल्ला प्रदेशान हैं। द्वितीय स्थिति में प्रदेशाम असंख्यातगुणे हैं । इस प्रकार असंख्यातगुणित क्रम से प्रदेशाग्र प्रयम स्थिति के चरम समय तक बढ़ते हुए पाए जाते हैं। तदनंतर द्वितीय स्थिति की जो आदि स्थिति है. उसमें प्रदेशाग्न असंख्यातगुणित हैं। तदनंतर सर्वत्र विशेष होन क्रम से प्रदेशाग्र विद्यमान हैं । यह प्रदेशों की रचना रुम यवमध्य प्रथम स्थिति के चरम स्थिति में द्वितीय स्थिति के आदि स्थिति में पाया जाता है । वह यह यवमध्य दोनों स्थितियों के अंतिम और प्रारंभिक समयों में वर्तमान होने से सांतर है । ( २०९६) विदियटिदि-आदिपदा सुद्ध पुण होदि उत्तरपदं तु । सेसो असंखेज्जदिमो भागो तिस्से पदेसग्गे ॥१७॥
द्वितीय स्थिति के आदिपद (प्रथम निषेक के प्रदेशाग्र ) में से उसके उत्तरपद ( चरम निषेक के प्रदेशाग्र ) को घटाना चाहिए ।
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( २०८ ) ऐसा करने पर जो असंख्यातवां भाग शेष रहता है, वह उस प्रथम निषेक के प्रदेशाग्र से अधिक है।
शुक: अचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज उद्यादि यो हिदायो पिरतरं तौसु होइ गुणसेढी।
उदयादि-पदेसग्गं गुरणेण गणणादियंतेण ॥१७६॥ - उदय काल से आदि लेकर प्रथम स्थिति सम्बन्धी जितनी स्थितियां हैं, उनमें निरंतर गुणश्रेणी होती है। उदय काल से लेकर उत्तरोत्तर समयवती स्थितियों में प्रदेशाग्र गणना के अन्त अर्थात, असंख्यात गुणे हैं।
विशेष-उदय स्थिति में प्रदेशाग्न अल्प हैं। द्वितीय स्थिति में प्रदेशाग्र असंख्यातगुणित हैं । इस प्रकार संपूर्ण प्रथम स्थिति में उत्तरोत्तर असंख्यातगुणित प्रदेशाग्न जानना चाहिये । "उदयद्विदिपदेसग्गं थोवं । बिदियाए द्विदीए पदेसग्गमसंखेज्जगुणं । एवं सब्बिस्से पढमहिदीए" (पृ. २०९८ ) उदयादिसु ट्ठिदीसु य ज कम्मणियमसादु तं हरस्स। पविसदि विदिक्खएदु गुरणेण गणणादियंतेण ॥१८०॥ __उदय को आदि लेकर यथाक्रम से अवस्थित प्रथम स्थिति की अवयवस्थितियों में जो कमरुप द्रव्य है, वह नियम से प्रागे आगे ह्रस्व ( न्यूच ) है। उपस्थिति से ऊपर अनंतर स्थिति में जा प्रदेशाग्न स्थिति के क्षय से प्रवेश करते हैं, वे असंख्यात गुणो रुप से प्रवेश करते हैं। । विशेष-जो प्रदेशाग्र वर्तमान समय में उदय को प्राप्त होता है, वह अल्प है। जो प्रदेशाग्र स्थिति के क्षय से अनतर समय में उदय को प्राप्त होगा, वह असंख्यातगुणा है । इस प्रकार सर्वत्र जानना चाहिए । ( २१०० ) वेदगकालो किट्ठीय पच्छिमाए दुणियमसा हरस्सो। संखेज्जदिभागेण दु सेसग्गाणं कमेणऽधिगो ॥१८॥
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(२०६ ) पश्चिम कृष्टि ( संज्वलन लोभ की सूक्ष्मसांपरायिक अन्तिम द्वादशम कृष्टि ) का वेदक काल नियम से अल्प है। पश्चात् अनुपूर्वी से शेष एकादश कृष्टियों का वेदक काल क्रमशः संख्यातवें भाग से अधिक है।
विशेष—पश्चिम अर्थात् द्वादशम कृष्टि को अंतर्मुहर्त पर्यन्त वेदन माहैि । उमाशाशक मुशिमालमसे स्लोकहहाजएकादशम कृष्टि का वेदक काल विशेषाधिक है। दशमी कृष्टि का वेदक काल विशेषाधिक है। नवमी आदि से प्रथम कृष्टि पर्यन्त कृष्टियों का वेदक काल सर्वत्र विशेषाधिक विशेषाधिक है।
शंका- "एत्थ सम्वत्य विसेसो किं पमाणो ?"-यहां सर्वत्र विशेष का क्या प्रमाण है ?
समाधान-"विसेसो संखेज्जदिभागो" ( २१०२ ) विशेष संख्यातवें भाग है अर्थात् संख्यात प्रावली है। कदिसु गदीसु भवेसु य दिदि-अणुभागेसु वा कसाएसु । कम्माणि पुब्बद्धाणि कदीसु किट्टीसु च द्विदीसु॥ १२ ॥ - पूर्वबद्ध कर्म जितनी गतियों में, भवों में, स्थितियों में, अनुभागों में; कषायों में, कितनी कष्टियों में तथा उनकी कितनी स्थितियों में पाये जाते हैं ?
विशेष--"गति" शब्द गति मार्गणा का ज्ञापक है। "भव" पद से इंद्रिय और काय मार्गणा सूचित की गई हैं। "कपाय" के द्वारा कषाय मार्गणा का ग्रहण हुअा है।
पूर्वोक्त मूल गाथा की तीन भाष्य गाथा हैं। दोसु गदीसु अभज्जाणि दोसु भज्जाणि पुव्ववद्धाणि । एइंदियकाएसु च पंचसु भज्जा ण च तप्तेसु ॥१८३॥ __ पूर्वबद्ध कर्म दो गतियों में प्रभजनीय हैं तथा दो गतियों में भजनीय हैं । एकेन्द्रिय जाति और पंच स्थावरकायों में भजनीय है । शेप द्वीन्द्रियादि चार जातियों तथा प्रसों में भजनीय नहीं हैं।
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( २१० ) विशेष – “एदस्स दुगदिसमज्जिदं कम्म णियमसा प्रत्थि"-इस कृष्टिवेदक क्षपक के दो गति में उपार्जित कर्म नियम से पाया जाता है।
प्रश्न--वे दो गति कौन हैं, जहां उपाजित कर्म नियम से पाया जाता है? मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज
- समाधान-~-वे गतियां तिर्यंच गति तथा मनुष्य गति है। "देवगदि समज्जिदं च णिरयगदि समज्जिदं च भजियवं"-देवगदि समुपार्जित और नरक गति समुपार्जित कर्म भजनीय हैं । एकेन्द्रियादि पंच स्थावरकायों में समुपार्जित कर्म भजनीय है।
शंका-भजनीय का क्या अभिप्राय है ? , समाधान-"सिया अस्थि, सिया णत्यि"-होते भी हैं अथवा नहीं भी होते हैं।
__ "तसकाइयं समज्जिदं णियमा अत्थि" (२१०६) सकाय में समुपाजित कम नियम से पाया जाता है । एइंदियभवम्गहणेहिं अखेज्जेहि णियमता बद्धं । एगादेगुत्तरिय संखेज्जेहि य तसभवेहिं ॥१४॥
क्षपक के असंख्यात एकेन्द्रिय-भव-ग्रहणों के द्वारा बद्धकर्म नियम से पाया जाता है और एकादि संख्यात त्रस भवों के द्वारा संचित कर्म पाया जाता है। उक्कस्सय अणुभागे टिदिउक्कस्सगाणि पुवबद्धाणि । भजियवाणि अभज्जाणि होति णियमा कसाएसु ॥१८॥
उत्कृष्ट अनुभाग युक्त तथा उत्कृष्ट स्थितियुक्त पूर्वबद्ध कर्म भजनीय है । कषायों में पूर्वबद्धकर्म नियम से प्रभजनीय हैं।
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मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज
- विशेष—कृष्टिधेदक क्षपक के उत्कृष्ट स्थिति तथा उत्कृष्ट अनु. भाग बद्ध कर्म भजनीय है अर्थात् होते भी है, नहीं भी होते हैं । "कोह-माण-माया-लोभोवजुत्तहिं बद्धाणि अभजियवाणि" क्रोध, मान, माया तथा लोभ के उपयोग पूर्वक बद्धकर्म प्रभजनीय हैं अर्थात् "एदस्स खवगस्स णियमा अत्थि"-इस क्षपक में नियम से पाये जाते हैं। पज्जत्तापज्जत्तण तथा त्थीपुण्णवंसथमिस्सेण । सम्मत्ते मिच्छत्ते केण व जोगोवजोगेण ॥१८६ ॥ - पर्याप्त और अपर्याप्त अवस्था के साथ तथा स्त्री, पुरुष, नपुंसक वेद के साथ मिश्र प्रकृति, सम्यक्त्व प्रकति तथा मिथ्यात्व प्रकृति के साथ और किस योग और उपयोग के साथ पूर्वबद्ध कर्म क्षपक के पाए जाते हैं ?
विशेष--इस गाथा के अर्थ को विभाषा आगामी चार गाथात्रों द्वारा की गई है, "एत्थ चत्तारि भास गाहायो" (२११०) पजत्तापजत्ते मिच्छत्त-गणवंसये च सम्मत्ते। कम्मावि अभज्जाणि दुथी-पुरिसे मिस्सगे भज्जा ॥१७॥
- पर्याप्त, अपर्याप्त में, मिथ्यात्व, नपुंसक वेद तथा सम्यक्त्व अवस्था में वांधे गए कर्म अभजनीय हैं तथा स्त्रीवेद, पुरुषवेद और सम्यग्मिथ्यात्व अवस्था में बांधे कर्म भाज्य है।
ओरालिये सरीरे ओरालिय-मिस्सये च जोगे दु । चदुविधमण-बचिजोगे च अभज्जा सेसगे भन्जा ॥१८॥ - औदारिक काययोग, औदारिकमिश्र काययोग, चतुविध मनोयोग, चतुवित्र वचनयोग में वांधे कर्म अमजनीय हैं, शेष योगों में बांधे हुए कर्म भजनीय हैं ।
विशेष-क्षपक के वैक्रियिक काययोग तथा कार्माण काययोग प्राहारक, पाहा कमिश्र काययोग तथा कार्माण काययोग के साथ यांधे गए कर्म भजनीय है --"सेसजोगेसु बद्धाणि भज्जाणि" (२१११)।
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( २१२ )
अध सुद-मदिउवजोगे होंति अभज्जाणि पुव्धबद्धाणि । भज्जाणि च पञ्चक्खेसु दोसु छदुमत्थखाणेसु ॥१८८६ ॥
श्रुत, कुश्रुतरूप उपयोग में, मति, कुमति रूप उपयोग में पूर्वबद्ध कर्म अभाज्य है, किन्तु दोनों प्रत्यक्ष छद्मस्थज्ञानों में पूर्वबद्ध कर्म भजनीय हैं।
सुविधिसागर जी महाराज
विशेष मानक: "सुरणाचे देसु चसु उवजोगेसु पुत्रबद्धाणि पियमा अत्थि" श्रुतज्ञान कुश्रुतज्ञान, मतिज्ञान कुमतिज्ञान इन चार उपयोगों में पूर्वबद्ध कर्म नियम से पाए जाते हैं । "श्रहिणाणे प्रणाणे मणपज्जवणाणे एदेसु तिसु उवजोगेसु पुव्वाणि भजियव्वाणि, अवधिज्ञान, विभंगज्ञान, मन:पर्ययज्ञान इन तीन उपयोगों में पूर्वबद्ध कर्म भजनीय हैं। वे किसी के पाये जाते हैं, और किसी के नहीं पाये जाते ।
कम्माणि भज्जाणिदु अणगार - अचक्खुदंसणुवजोगे । हिसणे पुण उवजोगे होंति भज्जाखि ॥ १६०॥
अनाकार अर्थात् चक्षुदर्शनोपयोग तथा श्रचक्षुदर्शनोपयोग में पूर्वबद्ध कर्म अभाज्य हैं । अवधि दर्शन उपयोग में पूर्वबद्धकर्म कृष्टि वेदक क्षपक के भाज्य हैं ।
< विशेष— यहां अनाकार उपयोग सामान्य निर्देश होते हुए भी पारिशेष्य न्याय से चक्षुदर्शनोपयोग का हो ग्रहण करना चाहिए" एत्थ अणगारोवजोगे त्ति सामण्णद्दि से वि परिसेसिय-णाएण चक्खुदंसणोवजोगस्सेव गहणं कायन्व' ( २११३ )
प्रश्न – अवधिदर्शन : योग को भाज्य क्यों कहा है ?
/ समाधान - " ओहिदंसणा व रणक्खस्रोवसमस्स सव्वजी वेसु संभवावलंभादो" अवधिदर्शनावरण का क्षयोपशम सर्व जीवों में संभव नहीं है । इससे इस उपयोग को भाज्य कहा है, क्योंकि यह किसी क्षपक के पाया जाता है तथा किसी के नहीं भी पाया जाता है।
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( २१३ ) कि लेस्साए बद्धाणि केसु कम्मेसु वहमाणेण । सादेण असादेण च लिंगेण च कम्हि खेत्तम्हि ॥११॥
किस लेश्या में, किन कर्मों में, किस क्षेत्र में,( किस काल में ) वर्तमान जीव के द्वारा बांधे हुए साता और प्रसाता, किस लिंग के द्वारा बांधे हुए कर्म क्षपक के पाये जाते हैं ? इस गाथा की विभाषा दो गाथाओं में हुई।
' मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज लेस्सा साद' असादे च अभज्जा कम्म-सिप्प-लिंगे च । खेताहि च भज्जाणि दु समाविभागे अभज्जाणि ॥१२॥
सर्व लेश्याओं में, साता तथा असाता में वर्तमान जीव के पूर्वबद्ध कर्म अभाज्य हैं। असि मषि प्रादि कर्मों में, शिल्प कार्यों में, सभी पाखण्ड लिंगों में तथा सभी क्षेत्रों में बद्ध कर्म भजनीय हैं । समा अर्थात् उत्सर्पिणी अवसर्पिणी रूप काल के विभागों में पूर्व बद्ध कर्म अभाज्य हैं।
विशेष-छहों लेश्याओं में, साता असाता वेदनीय के उदय में वर्तमान जीव के द्वारा पूर्वबद्ध कर्म अभाज्य हैं । वे कृष्टिवेदक के नियम से पाये जाते हैं। सर्व कर्मों और सर्व शिल्पों में पूर्वबद्ध कर्म भाज्य हैं।
प्रश्न-वे कर्म कौन हैं ?
समाधान-"कम्मापिा जहा अंगारकम्मं राम पव्वदकम्म -मेदेमु कम्मेसु भज्जाणि"-कर्म इस प्रकार हैं; अंगारकम, वर्णकर्म, पर्वत कर्म । इनमें बांधे हुए कर्म भाज्य है । - अंगारकर्म पापप्रचुर आजीविका को कहते हैं । चित्र निर्माण, कारीगरी प्रादि वर्ण कर्म हैं | पाषाण को काटना, भूति स्तंभादि का निर्माण करना पर्वत कर्म है । हस्त नैपुण्य द्वारा संपादित कर्म शिल्प कर्म है।
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दिर्शक:-'आचावासावाधार
( २१४ ) * इन माना प्रकार के कर्मों के द्वारा जिन कर्मों का बंध होता है, उनका अस्तित्व कृष्टिवेदक के स्यात् नहीं होता है। इससे उन्हें भाज्य कहा गया है।
“सर्व निर्ग्रन्थ लिंग को छोड़कर अन्य लिंग में पूर्वबद्ध कर्म क्षपक के भजनीय है।
"क्षेत्र में अधोलोक तथा उर्वलोक में बांधे हुए कर्म स्यात् पाए जाते हैं । तिर्यग्लोक में बद्धकर्म नियम से पाये जाते हैं । अधोलोक और उर्वलोक में संचित कर्म शुद्ध नहीं रहता है। तिर्यग्लोक में सम्मिश्रित कर्म पाया जाता है। तिर्यग्लोक का संचय शुद्ध भी पाथा जाता है। अवसर्पिणी तथा उत्सर्पिणी में संचित शुद्ध कर्म नहीं होता है-"प्रोसपिणोए जसपिशोपासामाजि । ( २११७) एदाणि पुव्वबद्धाणि होति सव्वेसु द्विदिविसेसेसु । सव्वेसु चाणुभागेसु णियमा सवकिट्टीसु ॥१६३॥ - ये पूर्वबद्ध (अभाज्य स्वरूप ) कर्म सर्व स्थिति विशेषों में, सर्व अनुभागों में तथा सर्व कृष्टियों में नियम से होते हैं ।
विशेप - "जाणि अभाज्जाणि पुत्वबद्धाणि ताणि णियमा सब्वेसु ट्ठिदिविसेसेसु णियमा सब्बासु किट्टीसु' (पृ. २११८ ) जो अभाज्य रुप पूर्वबद्ध कर्म हैं, वे नियम से सर्व स्थिति विशेषों में तथा नियम से सर्व कृष्टियों में पाये जाते हैं । एगसमयपबद्धा पुरण अच्छुत्ता केत्तिगा कहि द्विदीसु । भववद्धा अच्छुत्ता द्विदीसु कहि केत्तिया होंति ॥१६४॥
एक समय में प्रबद्ध कितने कर्म प्रदेश किन-किन स्थितियों में अछूते ( उदय स्थिति को अप्राप्त ) रहते हैं ? इस प्रकार कितने भवबद्ध कर्म प्रदेश किन-किन स्थितियों में असंक्ष ब्ध रहते हैं ?
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( २१५ ) विशेष-एक समय में बद्ध कर्मपुंज को एक समय प्रबद्ध कहते हैं । अनेक भवों में बांधे गए कर्मपुंज को भवबद्ध कहते हैं, "एक्कम्हि भवग्गणे जेत्तिो कम्मपोग्गलो संचिदो तस्स भवबद्धसण्णा" ( २११९)
गाथा में "अच्छुत्ता" पद पाया है, उसका अर्थ "प्रसंक्ष ब्ध" तथा उदय स्थिति को अप्राप्त "अस्पृष्ट" भी किया गया है।
इस मूल गाथा के अर्थ का व्याख्यान करने वाली चार भाष्य गाथाएं हैं। छण्हं आलियाणं अच्छुत्ता णियमला समयपबद्धा। सब्जेस द्विदिविषयममोगमाहामि ॥१६५॥
अन्तरकरण करने से उपरिम अवस्था में वर्तमान क्षपक के छह आवलियों के भीतर बंधे हुए समय प्रबद्ध नियम से अस्पष्ट हैं । ( कारण अन्तरकरण के पश्चात् छह प्रावली के भीतर उदीरणा नहीं होती है )। वे अछूते समय-प्रबद्ध चारों संज्वलन संबंधी स्थिति-विशेषों और सभी अनुभागों में अवस्थित रहते हैं।
विशेष—जिस पाए अर्थात् स्थल पर अन्तर किया जाता है, उस पाए पर बंधा समय-प्रबद्ध छह प्रावलियों के बीतने पर उदीरणा को प्राप्त होता है। अतः अन्त र करण समाप्त होने के अनंतर समय से लेकर छह आवलियों के बीतने पर उमसे परे सर्वत्र छह प्रावलियों के समय प्रबद्ध उदय में अछूते हैं ।
भवबद्ध सभी समयप्रबद्ध नियम से उदय में संक्षुब्ध होते हैं, "भबबद्धा पुण णियमा सब्वे उदये संछुद्धा भवंति" (२१२१)। जा चावि बज्झमाण्णी श्रावलिया होदि पढम किट्टीए। पुव्वावलिया णियमा अणतचदुसु किट्टीसु ॥ १६६ ॥
जो बध्यमान प्रावली है, उसके कर्मप्रदेश क्रोध ,संज्वलन की प्रथम कृष्टि में पाये जाते हैं । इस पूर्व पावली के अनंतर जो
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उपरिम अर्थात् द्वितीय आवली है, उसके कर्मप्रदेश क्रोध संज्वलन की तीन और मान संज्वलन की एक इन चार संग्रह कृष्टियों में पाये जाते हैं। तदिया सत्सु किट्टीसु चउत्थी दससु होइ किट्टीसु । तेण पर सेसाओ भवंति सव्वासु किट्टीसु ॥१६REEN
• तीसरी प्रावली सात कृष्टियों में, चौथी प्रावली दस कृष्टियों में और उससे आगे की शेष सर्व प्रावलियां सवं कृष्टियों में पाई जाती है।
_ मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिासागर जी महाराज एदे समयपबद्धा अच्छुत्ता णियमसा इह भवम्मि । सेसा भवबद्धा खलु संछुद्धा होंति बोद्धव्वा ॥१६॥
- पूर्वोक्त छहों श्रावलियों के वर्तमान भव में ग्रहण किए गए समय प्रबध्द नियम से असंक्षुध्ध रहते हैं। उदय या उदीरणा को नहीं प्राप्त होते हैं, किन्तु शेष भवबध्द उदय में संक्षुब्ध रहते हैं । एकसमयपबद्धाणं सेसाणि च कदिसु द्विदिविसेसेसु । भवसेसगाणि कदिसुचकदि कदि वा एगसमएण ॥१९६॥ , एक तथा अनेक समयों में बंधे समय प्रबद्धों के शेष कितने कर्मप्रदेश, कितने स्थिति और अनुभाग विशेषों में पाये जाते हैं ? एक तथा अनेक भवों में बंधे हुए कितने कर्मप्रदेश कितने स्थिति और अनुभाग विशेषों में पाये जाते हैं ? एक समय रूप एक स्थिति विशेष में वर्तमान कितने कर्मप्रदेश एक अनेक समय प्रबध्द के शेष पाये जाते हैं ? एक्कम्हि द्विदिविसेसे भव-सेसगसमयपबद्ध साणि । णियमा अणुभागेसु य भवंति सेसा अर्णतेसु ॥२०॥
एक स्थिति विशेष में नियम से एक अनेक भवबध्दों के समय प्रबध्द शेष, एक अनेक समयों में बांधे हुए कर्मों के समयप्रबध्द शेष असंख्यात होते हैं, जो नियम से अनंत अनुभागों में वर्तमान होते हैं ।
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श्री
( २१७ ) र .. ..
मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सागर जी महाराज चिशेष-शंका-"समयपबद्धसेसयं णाम कि ? समयंप्रबैंशेष किसे कहते हैं।
समाधान-१ समय प्रबद्ध का वेदन करने से शेष बचे जो प्रदेशान दिखने हैं, उसके अपरिशेषित अर्थात् समस्त रूप से एक समय में उदय आने पर उस समयप्रबद्ध का फिर कोई अन्य प्रदेश बाकी नहीं रहता है, उसको समयप्रवद्धशेष कहते हैं ।
प्रश्न-भवबध्द शेष का क्या स्वरूप है ?
समाधान-भवबद्धशेष में कम से कम अंत मुहूर्त मात्र एक भवबद्ध समयप्रबद्धों के कर्म परमाणु ग्रहण किए जाते हैं।
शंका- एक स्थिति विशेष में कितने समय प्रबद्धों के शेष बचे हुए कर्म परमाणु होते हैं ?
समाधान—“एक्कस्स वा समयपबद्धस्स दोण्हं वा तिण्हं बा, एवं गंतूण उक्कस्सेण असंखेजदिभागमेत्ताणं समयपवद्धाणं"--एक स्थिति विशेष में एक समयप्रबद्ध के, दो के अथवा तीन समयप्रबद्धों के भी शेष रहते हैं। इस प्रकार एक एक समयप्रबध्द के बढ़ते हुए क्रम से उत्कृष्ट से पल्योपम के असंख्यातवें भाग मात्र समयप्रबध्दों के कर्म परमाणु शेष रहते हैं। । इसी प्रकार भवबध्दशेष भी जानना चाहिए । एक स्थिति विशेष में एक भवबध्द के, दो या तीन भवबध्द शेष के इस प्रकार उत्कृष्ट से पल्योपम के असंख्यातवें भाग मात्र भबबध्दों के कम परमाणु पाये जाते हैं। यह भवदशेष वा समयबध्द शेष अनंत अविभाग प्रतिच्छेद रूप अनुभागों में नियम से वर्तमान रहता है।
१ जंसमयपबध्दस्स वेदिदसेसरगं पदेसग्गं दिस्सइ, तम्मि अपरिसेसिदम्मि एकसमएण उदयमागदम्मि तस्स समयपबध्दस्स अण्णो कम्मपदेसो वा पत्थि तं समयपबध्दसेसगं णाम ( २१२७ )
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मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज
( २१८ ) दिदि-उत्तरसेढीय भवसेस-समयपवद्धसेसाणि । एगुत्तरमेगादि उत्तरसेढी असंखेज्जा ॥२०१॥ - एक को ग्रादि को लेकर एक एक बढ़ाते हुए जो स्थिति बृद्धि होती है, उसे 'स्थिति उत्तरश्रेणो' कहते हैं । इस प्रकार को स्थिति उत्तरश्रेणी में असंख्यात भवबध्द शेष तथा समयप्रबध्द शेष पाए जाते हैं। एक्कम्मि टिदिक्सेिसे सेसाणि ण जस्थ होंति सामण्णा ।
आवलिगा संखेज्जदिभागो तहिं तारिसो समयो ॥२०२॥ - जिस एक स्थिति विशेष में समयप्रबद्ध शेप तथा भववशेष संभव हैं, वह सामान्य स्थिति है । जिसमें वे संभव नहीं, वह असामान्य स्थिति है । उस क्षपक के वर्ष पृथकत्वमात्र विशेष स्थिति में तादृश अर्थात् भवबध्द और समयप्रबध्द और समयप्रबध्द शेष से विरहित असामान्य स्थितियां अधिक से अधिक प्रावली के असंख्यातवें भाग प्रमाण में पाई जाती है।
विशेष—जिस एक स्थिति विशेष में समयप्रबध्दशेष ( तथा भवबद्ध शेष ) पाये जाते हैं वह सामान्य स्थिति है। जिसमें वे नहीं है, वह असामान्य स्थिति है । इस प्रकार असामान्य स्थितियां एक वा दो आदि अधिक से अधिक अनुबध्द रूप से ग्रावली के असंख्यातवें भाग मात्र पाई जाती हैं।
सामान्य स्थितियों के अन्तर रूप से असामान्य स्थितियां पाई जाती हैं । वे एक से लेकर प्रावली के असंख्यातवें भाग प्रमाण पर्यन्त निरन्तर रूप से पाई जाती हैं । इस प्रकार पाई जाने वाली असामान्य स्थितियों की चरम स्थिति से ऊपर जो अनंतर समयवर्ती स्थिति पाई जाती है, उसमें भी समयप्रबद्ध शेष और भवबध्द शेष पाये जाते हैं।
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( २१६ ) एदेण अंतरेण दु अपच्छिमाए दु पच्छिमे समए । भवसमयसेसगाणि दुणियमातम्हि उत्तरपदाणि ॥२०३।।
इस अनंतर प्ररूपित आवलोके पावलो के असंख्यातवें भाग प्रमाण उत्कृष्ट अन्तर से उपलब्ध होने वाली अपश्चिम (अंतिम) असामान्य स्थिति के समय में भयबध्द शेष तत्रा समयबध्द शेष नियम से पाये जाते हैं और उसमें अर्थात् क्षपक की अष्ट वर्ष प्रमाण स्थिति के भीतर उत्तरपद होते हैं। किट्टीकदम्मि कम्मे ट्ठिदि-अणुभागेसु केसु सेप्साणि । कम्माणि पुवबद्धाणि बज्मभाणादिण्णाणि ॥२०४॥
" मोह के निरवशेष अनुभाग सत्कर्म के कृष्टिकरण करने पर मार्गशीष वेदनअनाथमा शुगमनामधा हीसले पूर्वबध्द किन स्थितियों
और अनुभागों में शेष रूप से पाए जाते हैं ? बध्यमान और उदीर्ण कर्म किन किन स्थितियों और अनुभागों में पाए जाते हैं ? किट्टीकदम्मि कम्मे णामागोदारिप वेदरणीयं च । वस्सेसु असंखेज्जेसु सेसगा होति संखेज्जा ॥२०॥
मोह के कृष्टिकरण होने पर नाम, गोत्र और वेदनीय असंख्यात वर्ष प्रमाण स्थिति सत्वों में पाए जाते हैं। शेष चार धातिया संख्यात वर्ष प्रमाण सत्व युक्त होते हैं ।
- विशेष--कृष्टिकरण के निष्पन्न होने पर प्रथम समय में कृष्टियों के वेदक के नाम, गोत्र और वेदनीय के स्थिति सत्कर्म असंख्यात वर्ष हैं । मोहनीय का स्थिति सत्व आठ वर्ष है। शेष तीन धातिया कर्मों का स्थिति सत्व संख्यात हजार वर्ष है । "मोहणीयस्स हिदिसंत-कम्ममट्ठबस्साणि । तिण्हं धादि-कम्माण द्विदिसंतकम्मं संखेनाणि वस्ससहस्साणि ।" ( २१६३ )
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( २२० ) किट्टोकदम्मि कम्मे साददमुहणाममुश्चमोदावधिसागर जी महाराज बंधदि च सदसहस्से विदिमणुभागेसु दुक्कस्स ॥२०६॥ 7 मोह के कृष्टिकरण करने पर वह क्षपक साता वेदनीय, यशःकीर्ति रूप शुभनाम और उच्चगोत्र कर्म संख्यात शतसहस्र वर्ष स्थिति प्रमाण बांधता है । इनके योग्य उत्कृष्ट अनुभाग को बांधता है।
विशेष-कृष्टियों के प्रथम-वेदक के संज्वलनों का स्थितिबंध चार माह है। नाम, गोत्र, वेदनीय, ज्ञानावरण, दर्शनावरण, और अन्तराय का स्थिति बंध संख्यात हजार बर्ष है। नाम, गोत्र और वेदनीय का अनुभाग बंध तत्समय उत्कृष्ट है अर्थात उस काल योग्य उत्कृष्ट अनुभाग बंध होता है। १ किट्टीकदम्मिा कम्मे के बंधदि के व वेदयदि असे । संकामेदि च के के केसु असंकामगो होदि ॥२०७॥ ' मोह के कृष्टि रूप होने पर कौन कौन कर्म को बांधता है तथा कौन कौन कर्मार्थों का वेदन करता है ? किन किन का संक्रमण करता है ? किन किन कर्मों में असंक्रामक रहता है ! दससु च वस्नस्संतो बंधदि णियमा दु सेसगे अंसे । देसावरणीयाई जेसि ओबट्टणा अस्थि ॥२०॥ / क्रोध की प्रथम कृष्टिवेदक के चरम सगय में मोहनीय को छोड़कर शेष घातिया त्रय को अंतमुहूर्त कम दश वर्ष प्रमाण स्थिति
१ किट्टीण पढमसमय वेदगस्स संजलणाणं ठिदिबंधो चत्तारि मासा । णामागोदवेदणीयाणं तिण्हं चेव धादिकम्मार्ण ठिदिबन्धो संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि । गामागोदवेदणीयाणमणुभागबंधो तत्समय उपकस्सगो। ( २१६४ )
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=
( २२१ )
मार्गदर्शक : का विस्वनो बिर है। हातमा में जिनकी अपवर्तना संभव हैं, उनका देशघाती रूप से ही बंध करता है ।
- विशेष - जिन तीन घातिया कर्मों की प्रकृति में अपवर्तना संभव है, उनका देशघाती रूप से अनुभाग बंध करता है तथा जिनकी अपवर्तना संभव नहीं है, उनको सर्वघाति रूप से बांधता है। यहां घातियात्रय का स्थिति बंध संख्यात हजार वर्षो की जगह पर अंतर्मूहूर्तकम दश वर्ष प्रमाण उत्कृष्ट स्थितिबंध होता है ।
१ शंका - तीनों घातिया कर्मो का अनुभाग बंध क्या सर्वघाती होता है या देशघाती होता है ?
~ समाधान - जिनकी अपवर्तना अनुभागबंध करता है तथा जिनकी सर्वघाती रूप से बांधता है ।
संभव है, उनका देशघाती अपवर्तना नहीं होती, उनको
चरिमो बादररागो खामा- गोदाणि वेदरणीयं च । वसंत बंधदि दिवस संतो य जं सेसं ॥ २०६ ॥
चरम समयवर्ती चादर सांपरायिक क्षपक नाम, गोत्र तथा वेदनीय को वर्ष के अंतर्गत बांधता है । ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अन्तराय रूप घातिया को दिवस के अंतर्गत बांधता है ।
विशेष – मोहनीय का चरिम स्थितिबंत्र प्रन्तमुहूर्त है "मोहपीयस्स चरिमो ठिदिबंधो तो मुहुत्तमेत्तो" । तीन घातिया का स्थिति बंध मुहूर्तं पृथक्त्व है "तिरहं धादिकम्माणं मुहुरापुतो द्विदिबंधो" (२२२२)
१ अथाणुभागबंधी तिन्हं घादिकम्माणं किं सव्वधादी- देसघादि त्ति ? एदेसि घादिकम्माणं जेसिमोवट्टणा प्रत्थि ताणि देसघाणि बंदि । जेसि मोवट्टणा णत्थि ताणि सव्वषादीणि बंधदि (२२२१)
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( २२२ ) चरिमो य सहमरागो रणामा-गोदाणि वेदरणीयं च । ..
मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज दिवसस्संतो बंधदि भिण्णमुहुत्ते तु जं सेसं ॥३१०॥
चरम समयवर्ती सूक्ष्मसापराय गुणस्थानवाला क्षपक नाम, गोत्र, वेदनीय को दिवस के अन्तर्गत बांधता है तथा शेष घातिया त्रय को भिन्न मुहूर्त प्रमाण बांधता है ।। - विशेष-चरम समयवर्ती क्षपक के नाम, गोत्र का स्थितिबंध पाठ मुहुर्त है । वेदनीय का द्वादश मुहूर्त है तथा घातिया त्रय का अंतर्मुहूर्त प्रमाण होता है--"चरिम समय सुहुमसांपराइयस्स णामागोदाणं दिदिबंधो अंतोमुहतं, ( अट्टमुहुत्ता ) वेदणीयस्स दिदिबंधो बारस मुहुत्ता, तिण्हं घातिकम्माणं टिदिबंधो अंतोमुहुन्न” । ( २२२३ ) अध सुदमादि-आवरणे च अतराइए च देसमावरणं ।
लद्धी यं वेदयदे सव्वावरणं अलद्धी य ॥ २११ ॥ - मतिज्ञानाबरण और श्रुतज्ञानावरण कर्मों में जिनकी लब्धि (क्षयोपशम ) का बेदन करता है, उनके देशघ्रांति प्रावरण रूप अनुभाग का देदन करता है । जिनको अलब्धि है, उनके सर्वावरणरूप अनुभाग का बेदन करता है। अन्तररायका देशघाति रूप अनुभाग वेदन करता है।
- विशेष -.-१ यदि सर्व अक्षरों का क्षयोपशम प्राप्त हुना है, तो वह श्रुतावरण और मतिज्ञानावरण को देशघाति रूप से वेदन करता है । यदि एक भी अक्षर का क्षयोपशम नहीं हुआ, तो मति
। १ जदि सव्वेसिमक्ख राणं खोवसमो गदो तदो सुदावरण मदियावरणं च देशबादि वेददि । अध एक्कस्सवि अक्खरस्स ण गदो खग्रोवसमो तदो सुदमदि-प्रावरणाणि सव्वघादीणि वेदयदि । एवमेदसि तिण्हं घादिकम्माणं जाति पयडीणं खोयसमो गदो तासि पयडीणं देसघादि उदयो । जासि पयडीणं खग्रोबसमो ण गदो तासि पयडीणं सवंघादि उदयो ( २२२५ )
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( २२३ ) श्रुतज्ञानावरण कर्मो को सर्वघाति रूप से वेदन करता है । इस प्रकार ज्ञानावरण, दर्शनावरण, तथा अन्तराय इन तीन घातिया कर्मो की जिन प्रकृतियों का क्षयोपशम प्राप्त हुप्रा है, उनका देशघाति अनुभागोदय है तथा जिनका क्षयोपशम नहीं हुमा है, उन प्रकृतियों का सर्वधाति उदय है।
गाथा में आगत 'च' शब्द से अवधिज्ञानावरणीय, मनःपर्ययज्ञानावरणीय, चक्षु, प्रचक्षु तथा अवधिदर्शनावरणीय का ग्रहण
करना चाहिए, कारण क्षयोपशम लब्धि की उत्पत्ति के वश से देश मागधाति रूप में इन नहीं करता है कारण क्षयोपशम लब्धि को उत्पत्ति
के वश से देशघाति रूप अनुभागोदय की संभूति के विषय में भिन्नता का अभाव है।
वह इन कर्मो के हो एक देश रूप अनुभाग का देशघाति रूप में वेदन नहीं करता है, किन्तु अंतराय की पंत्र प्रकृतियों का देशावरण स्वरूप अनुभाग को बेदन करता है, कारण लब्धि कर्म के सत्व के विषय में विशेषता का अभाव है। "एत्थ 'च' सदणि सेण मोहि-मणपज्जवणाणावरणीयाणं चवखु-अचवखुप्रोहिदसणाबरणीयाणं च गहणं कायव्वं, तेसि पि खग्रोवसमद्धिसंभववसेप देसघादिमणुभागोदयसंभवं पडि विसेसाभावादो। ण केवलमेदसि घेत्र कम्माणमणुभागमेसो दसधादिसरूवं बदेदि, किंतु अन्तराइए च-पं–तराइम पयहीणं मि देसावरण सन्त्रमणभागमेसो वेदयदे, लध्दिकम्मं सतां मडि विसेसाभावादो त्ति वुत्तं होई" ( २२२३ ) जसणाममुच्चगोदं वेदयदि णियससा अरणंतगुणं । गुणहीणमंतरायं से काले सेसगा भज्जा ॥२१२॥
क्षपक यशःकी ति नाम तथा उच्चगोत्र के अनंतगुणित वृध्दिरूप अनुभाग का नियम से वेदन करता है । अंतराय के अनंतगुणित
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श्री. सविधिसागर जी महाराज
( २२४ ) हानिरूप अनुभाग का वेदन करता है। अनंतर समय में शेष कर्मों के अनुभाग भजनीय है।
विशेष--"जसणाममुच्चागोदं च अणंतगुणाए सेढीए वेददि त्ति सादावेदणीयं पि अणंतगुणाए सेढीए वेदेदि ति"-यशःकी ति नाम कर्म तथा उच्च गोत्र को यह क्षपक अणंतगुण श्रेणी रूप से वेदन करता है। यह सातावेदनीय को भी अनंतगुण श्रेणी रूप से वेदन करता है।
शंका-नाम कम की शेष प्रकृतियों का किस प्रकार वेदन करता है, "सेसानो णामाप्रो कधं वेदयदि" ? (२२२७ )
ममाधानार्थी ओशवायचों का यशोति नाम कर्म परिणाम प्रत्ययिक ( परिणाम-पच्चइयं ) है । जो अशुभ परिणाम प्रत्ययिक अस्थिर अशुभ आदि प्रकृतियां हैं, उन्हें अनंतगुणहीन श्रेणी रूप से वेदन करता है।
" जो शुभ परिणाम प्रत्ययिक सुभग, प्रादेय आदि शुभ नाम कम की प्रकृतियां हैं, उनको अनंतगुणश्रेणी रूप से यह क्षपक वेदन करता है। अन्तराय कर्म की सर्वप्रकृतियों को अनंतगुणित होन श्रेणी के रूप में वेदन करता है । भवोपग्रहिक अर्थात् भवविधा को नाम कर्म को प्रकृतियों का छह प्रकार की वृद्धि और हानि के द्वारा अनुभागोदय भजनीय है "भवोपग्गहिया प्रो णामाग्रो छब्धिहाए वड्ढोए छबिहाए हाणीए भजिदव्यागो” (२२२७
- केवलज्ञानावरणीय, केवल दर्शनावरणीय कर्म को अनंतगुणित हीन श्रेणी के रूप में वेदन करता है। शेष चार ज्ञानावरणीय को यदि सर्व धातिया रूप में वेदन करता है, तो नियम से अनंतगुणित होन श्रणी रूप से वेदन करता है। यदि देशघाति रूप से वेदन करता है, तो यहां पर उनका अनुभाग उदय छह प्रकार की वृद्धि तथा हानिरूप से भजनीय हैं। इस प्रकार दर्शनावरणीय में जानना चाहिये।
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{ २२५ ) चाहिए । सर्वधाती को अनंतगुणहीन रूप से वेदन करता है । देशघाति को छह प्रशासक वृद्धिाचायनाबिहानसे वेदत करता है तथा नहीं भी करता है । इस कारण उसे भजनीय कहा है । किट्टीकदम्मि कम्मे के वीचारा दु मोहणीयस्स। सेसांण कम्माणं तहेव के के दु वीचारा ॥२१३|| -- संज्वलन कषाय के कृष्टि रूप से परिणत होने पर मोहनीय के कौन कौन दोचार (स्थिति घातादि लक्षण क्रिया विशेष) होते हैं ? इसी प्रकार ज्ञानाबरणादि शेष कर्मों के भी कोन कोन बीचार होते हैं ?
विशेष--"एत्थ वीचारा त्ति वुत्ते ठिदिघादादिकिरिया वियाग्या घेत्तवा", यहां वीचार के कथन से स्थिति घात आदि क्रिया विशेष जानना चाहिये (२२२९)। वे बीचार (१) स्थिति घात, (२) स्थिति सत्व (३) उदय (४) उदीरणा (५) स्थिति कांडक (६) अनुभागघात (७) स्थिति सत्कर्म या स्थिति संक्रमण (८) अनुभाग सत्कर्म (९) बंध (१०. बंधपरिहाणि के भेद से दशविध होते हैं।
सातवें वीचार को चूणिकार ने ठिदिसतकम् मे,' शब्द द्वारा स्थिति सत्कर्म नाम दिया है । जयधवलाकार ने उसका नाम स्थिति-संक्रमण भी कहा है 'अधवा ठिदिसंकमेंणेत्ति ऐमो सत्तमो वीचारो वत्तव्वो"। ऐसा कथन विरोध रहित है "विरोहाभावादो" । इन वीचारों के नाम अपने अभिधेय को स्वयं सुस्पष्ट रूपसे सूचित करते हैं। किं वेदेतो किटिं खवेदि किं चावि सं-छुहंतो वा संछोहणमुदएण च अणुपुत्वं अण्णुपुव्वं वा ॥२१४॥ -/ क्या क्षपक कृष्टियों को वेदन करता हुआ क्षय करता है मथवा संक्रमण करता हुअा क्षय करता है अथवा वेदन और
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( २२६ । संक्रमण करता हुआ क्षय करता है ? क्या प्रानुपूर्वी से या अनानुपूर्ती से कृष्टियों को क्षय करता है ? पढ़मं विदियं तदियं वेदेंतो वा वि संछुहंतो वा चरिम वेदयमाणो खवेदि उभएण सेसाओ ॥ २१५ ॥
क्रोध की प्रथम, द्वितीय तथा तीसरी कृष्टि को बेदन करता हुना तथा संक्रमण करता हु प्रा क्षय करता है । चरम : मुश्मसांपरायिक कृष्टि ) को वेदन करता हुआ ही क्षय करता है । शेष को उभय प्रकार से क्षय करता आचार्य श्री सुविहिासागर जी महाराज
विशेष- क्रोध की प्रथम कृष्टि को प्रादि लेकर एकादशम कृष्टि पर्यन्त वेदन करता हुआ क्षय करता है, अवेदन करता हुआ भी क्षय करता है । कुछ काल पर्यन्त वेदन करते हुए, अवेदन करते हुए भी संक्रमण करते हुए क्षय करता है । इस प्रकार प्रथमादि एकादश कृष्टियों के क्षय की विधि है।
बारहवीं कृष्टि में भिन्नता पाई जाती है । उम चरम कृष्टि को वेदन करता हुआ क्षय करता है। वह संक्रमण करता हुआ क्षय नहीं करता है । शेष कृष्टियों के दो समय कम दो प्रावली मात्र नवक बद्ध कृष्टियों को चरम कृष्टि में संक्रमण करता हुअा हो क्षय करता है । वेदन करता हुया नहीं । इस प्रकार अंतिम सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टि को छाड़ कर तथा दो ममय न्यून मावलीबद्ध कृष्टियों को छोड़कर शेष कृष्टियों को उभय प्रकार से क्षय करता है अर्थात् वेदन करता हुआ एव संक्रमण करता हुअा क्षय करता है । "वेतो च मंछुहनो च एदमुभयं" । वेदक भाव से तथा संक्रमणभाव से क्षय करता है, यह उभय शब्द का अर्थ जानना चाहिए, "वेदगभावेण संशोह्यभावेण च खवेदि ति एसो उभयसहस्सत्थो जाणियव्यो ति भणियं होई" { २२३४)
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( २२७ )
जं वेदेंतो किहिं खवेदि किं
ara
तिस्से
:- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज
जं चात्रि संनुहंतो तिस्से कि बंधगो होदि ॥ २१६ ॥
कृष्टिवेदक क्षपक जिस कृष्टि का वेदन करता हुमा क्षय करता है क्या वह उसका बंधक भी होता है ? जिस कृष्टि का संक्रमण करता हुआ क्षय करता है, क्या वह उसका बंध भी करता है ?
जं चावि संकुहंतो खवेदि किहिं प्रबंधगो तिस्से । सुहुमम्हि संपराए अबंधगो बंधगिदशसि ॥ २९७ ॥
कृष्टिवेदक क्षपक जिस कृष्टि का वेदन करता हुआ क्षय करता है, उसका वह प्रबंधक होता है। सूक्ष्मसांपरायिक कृष्टि के बंदन काल में वह उसका अयक रहता है, किन्तु इतर कृष्टियों के वेदन या पण काल में वह उनका बंधक रहा है ।
I
विशेष- जिस जिस कृष्टि का क्षय करता है नियम से उसका बंध करता है । दो समय कम दो श्रावलिबद्ध कृष्टियों में तथा सूक्ष्मसांपराय कुष्टि के क्षपण काल में उनका बंध नहीं करता है । "ज जंख किट्टि पियमा तिरसे बंधगो, मोत्तण दो दो प्राव लियबंधे दुममयूणे सुमसांपराय किट्टीग्रो च" (२२३५)
जं जं खवेदि किहिं द्विदि - अणुभागेसु के सुदीरेदि । संहदि किट्टि से काले तासु गणासु ॥२१८॥
'
जिस जिस कृष्टि को क्षय करता है, उस उस कृष्टि की स्थिति और अनुभागों में किस किस प्रकार से उदीरणा करता है | त्रिव क्षित कृष्टि का अन्य कृष्टि में संक्रमण करता हुआ किम किस प्रकार से स्थिति और अनुभागों से युक्त ऋष्टि में संक्रमण करता है ?
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( २२८ ) - विवक्षित समय में जिन स्थिति अनुभाग युक्त कृष्टियों में उदीरणा, संक्रमणादि किए हैं, क्या अनंतर समय में उन्हीं कृष्टियों में उदीरा संक्रमणादि करता है या अन्य कृष्टियों में करता है ?
विशेष - इस गाथा का स्पष्टीकरण दस भाष्य गाथाओं द्वारा किया गया है।
मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज बंधो व संकमो वा णियमा पव्वेसु दिदिविसेसेसु । सब्बेसु चाणुभागेसु संकमो माझिमो उदओ ॥२६॥
___विवक्षित कृष्टि का बंध वा संक्रम क्या सर्व स्थिति विशेष में होता है ? विवक्षित कृष्टि का जिस कृष्टि में संक्रमण किया जाता है, उसके सर्व अनुभागों में संक्रमण होता है किन्तु उदय मध्यम कृष्टि में जानना चाहिये।
संकामेदि उदीरेदि चावि सम्वेहि द्विदिविसेसेहिं । किट्टीए अणुभागे वेदेतो मझिमो णियमा ॥२२०॥
क्या क्षपक सर्व स्थिति विशेषों के द्वारा संक्रमण तथा उदी. रणा करता है ? कृष्टि के अनुभागों को वेदन करता हुआ वह नियम से मध्यवर्ती अनुभागों का वेदन करता है ।
' विशेष -उदयावली में प्रविष्ट स्थिति को छोड़कर शेप सर्व स्थितियां संक्रमण को तथा उदो रणा को प्राप्त होती हैं । जिस कृष्टि का बेदन करता है, उसकी मध्यम कृष्टियों की उदो रणा करता है, “प्रावलियपनिट्ठ मोत ण सेसाप्रो सब्बामो ट्ठिदोनो संक्रामेदि उदीरेदि च । जं किट्टि वेददि तिस्से मज्झिम किट्ठीप्रो उदोरेदि" ( २२४०)
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( २२६ ) औझुदि जे अस से कालकिणतिपदि । ओकड्डिदे च पुत्वं सरिसमसरिसे पवेसेदि ॥ २२१ ॥
जिन कर्माशों का अपकर्षण करता है क्या अनंतर काल में उनको उदीरणा में प्रवेश करता है ? पूर्व में अपकर्षण किए गए कर्माशों को अनंतर समय में उदीरणा करता हुआ क्या सदृश को अथवा असदृश को प्रविष्ट करता है ?
विशेष—जितने अनुभागों को एक वर्गणा के पसे उदोणं करता है, उन सबको 'सदृश' कहा है । जिन अनुभागों को अनेक वर्गणाओं के रुपमें उदोर्ण करता है, उन्हें असदृश कहते हैं । "जदि जे अणुभागे उदीरेदि एकिस्से वग्गणाए सवे ते सरिसा णाम अध जे उदीरेदि अणेगासु वग्गणासु ते प्रसरिसा णाम" ( २२४१ )
अनंतर समय में जिन अनुभागों को उदय में प्रविष्ट करता है, उन्हें असदृश ही प्रविष्ट करता है, “एदोए सण्णाए से काले जे पवसेदि ते असरिसे पवेसेदि ।" । उक्कड्डुदि जे असे से काले किण्णु ते पवेसेदि । उक्कड्डिदे च पुवां सरिसमसरिसे पवेसेदि ॥ २२२॥ । जिन कर्माशों का उत्कर्षण करता है, क्या अनंतरकाल में उनको उदीरणा में प्रवेश करता ? पूर्व में उत्कर्षण किए गए कर्माश को अनंतर समय में उदोरणा करता हुप्रा क्या सदृश रूपसे या असदृश रुप से प्रविष्ट करता है ? बंधो व संकमो वा तह उदयो वा पदेस-अणुभागे । बहुगत्ते थोबत्ते जहेव पुब्दां तहेवेगिह ॥ ९५३ ॥ | कृष्टिकारक के प्रदेश तथा अनुभाग संबंधी बंध, संक्रमण अथवा उदय के बहुत्व तथा स्तोक की अपेक्षा जिस प्रकार
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( २३० ) पूर्व निर्णय किया गया है, उसी प्रकार यहां भो निर्णय करना चाहिये। जो कम्मंसो पविसदि पोगसा तेण णियमासा अहिओ। पविसदि ठिदिक्खएण दु गुणेण गणणादियंतेण ॥२४॥ । जो कर्माश प्रयोग के द्वारा उदयावलीमें प्रविष्ट किया जाता जाता है, उसकी अपेक्षा स्थिति क्षय से जो कर्माश उदयावली में प्रविष्ट होता है, वह नियमसे असंख्यातगुणित रूपसे अधिक होता है। मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज आवलियं च पविट्ठ पोगसा णियमसाच उदयादी। उदयादिपदेसम्ग गुणेण गणणादियंतेण ॥२२५।।
/ कृष्टिवेदक क्षपक के प्रयोग द्वारा उदयाक्ली में प्रविष्ट प्रदेशाग्र नियमसे उदयसे लगाकर आगे प्रावली पर्यन्त असंख्यात गुणित श्रेणी रूप में पाया जाता है।
/ विशेष—क्षपक उदयावली में प्रविष्ट जो प्रदेशास पाया जाता है, वह उदयकाल के प्रथम समय में स्तोक है। द्वितीय स्थिति में असंख्यात गुणा है। इस प्रकार संपूर्ण ग्रावली के अंतिम समय पर्यन्त असंख्यात गुण श्रेणी रुप से वृदिगत प्रदेशाग्र पाए जाते हैं । “जमावलियपविष्ट पदेसग्गं तमुदा थोयं । विदिदिदी असंखेज्जगुणं । एवमसंखेज्ज-गुणाए सेढोए जाव सविस्से पावलियाए"। (२२४७) . जा वग्गणा उदीरेदि अयंता तासु संकदि एक्का। पुव्वविट्ठा णियमा एक्किस्से होति च अशंता ॥२२६॥
। जिन अनंत वर्गणाओं को उदोर्ण करता है, उनमें एक अनुदोर्यमाण कृष्टि संक्रमण करती है। जो उदयावली में प्रत्रिय अनंत प्रवेद्यमान वर्गणाएं ( कृष्टियां ) हैं, वे एक एक वेद्यमान मध्यम कष्टि के स्वरुप से नियमतः परिणत होती हैं ।
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मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज
( २३१ )
विशेष – जो संग्रह कृष्टि उदीर्ण हुई है, उसके ऊपर भी कृष्टियों का असंख्यातवां भाग और नीचे भी कृष्टियों का प्रसंख्यातवां भाग ग्रनुदीर्ण रहता है । विवक्षित कृष्टियों के मध्यभाग में कृष्टियों का असंख्यात बहुभाग उदीर्ण होता है । उनमें जो अनुदीणं कृष्टियां हैं, उनमें से एक एक कृष्टि सर्व उदीर्णं कृष्टियों पर संक्रमण करती है ।
प्रश्न – एक एक उदीर्ण कृष्टि पर कितनी कृष्टियां संक्रमण करती है ?
/ समाधान - जितनी कष्टियां उदयावली में प्रविष्ट होकर उदयसे अधःस्थिति-गलनरूप विपाक को प्राप्त होती हैं, वे सब एक एक उदीर्ण कृष्टि पर संक्रमण करती हैं ।
जे चावि य अणुभागा उदीरिदा यिमसा पञ्चोगेण । तेयप्पा अणुभागा पुव्वपविट्टा परिणमति ॥ २२७॥
/ जितनी अनुभाग कृष्टियां प्रयोग द्वारा नियमसे उदीर्ण को जाती हैं, उतनी ही उदयावली प्रविष्ट अनुभाग कृष्टियां परिणत होती हैं ।
पच्छिम-छावलियाए समयूगाए दु जे य अभागा । उक्करस हेट्टिमा मज्झिमासु खियमा परिणमति ॥ २२८ ॥
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एक समय न्यून पश्चिम आावलीमें जो उत्कृष्ट और जघन्य अनुभाग स्वरूप कृष्टियां हैं, वे मध्यमवर्ती बहुभाग कृष्टियों में नियमसे परिणमित होती हैं ।
शंका- "पच्छिम - प्रावलिया त्ति का सण्णा ?" - पश्चिम आवली इस संज्ञा का क्या भाव है ?
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समाधान - " जा उदयावलिया सा पच्छिमावलिया” – जो उदयावली है, उसे ही पश्चिमावली कहते हैं ।
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( २३२ ) किट्टीदो किट्टि पुण संकमादि खयेण किं पयोगेण । कि सेसगम्हि किट्ठीय संकमो होदि अण्णिस्से ॥२२६॥
। एक कृष्टिसे दूसरी को वेदन करता हुआ क्षपक पूर्व वेदित कृष्टि के शेषांश को क्षय से संक्रमण करता है अथवा प्रयोग द्वारा संक्रमण करता है ? पूर्ववेदित कृष्टि के कितने अंश रहने पर अन्य कृष्टि में संक्रमण होता है ?
विशेष- 'एदिस्से बे भासगाहारो'- इसकी दो भाष्य गाथाएँ हैं । किट्ठीदो किहिं पण संकुम रिणयुमसा पओगेगा। किट्ठीए सेसगं पुण दो आवलियासु जं बद्ध ॥२३०॥
एक कृष्टि के वेदित शेष प्रदेशाग्र को अन्य कृष्टि में संक्रमण करता हुआ नियम से प्रयोग द्वारा संक्रमण करता है । दो समय कम दो प्रावलियों में बंधा द्रव्य कृष्टि के वेदित-शेष प्रदेशाग्र प्रमाण है।
। विशेष—१ जिस संग्रह कृष्टि को वेदन कर उससे प्रनंतर समय में अन्य संग्रह कृष्टि को प्रवेदन करता है, तब उस पूर्व समय में वेदित संग्रहकृष्टि के जो दो समय कम पावलीबद्ध नवक समयप्रबद्ध हैं, वे तथा उदयावलि में प्रविष्ट प्रदेशाग्र प्रयोग से वर्तमान समय में वेदन की जानेवाली संग्रहकृष्टि में संक्रमित होते हैं।
१ जं संगहकिट्टि वेदेदूण तदो सेकाले अण्णं संगहकिट्टि पवेदयदि। तदो तिस्से पुब्बसमयवेदिदाए संगहकिट्टीए जे दो प्रावलियबंधा दुसमयूणा प्रावलिय-पविट्टा च अस्सि समए वेदिज्जमाणिगाए संग्रहकिट्टीए पप्रोगसा संकमंति ( २२५३)
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चंद्रमा दिगबर न पाठशाला
( २३३ )
सामगांव जि. बुलडामा
समयूणा च पविटा आवलिया होदि पढमकिट्टीए । पुण्णा जं वेदयदे एवं दो संकमे होंति ॥ २३१॥ । एक समाआवलीचादयावीशीराविरद्धोती है और जिस संग्रह कृष्टि का अपकर्षण कर इस समय वेदन करता है उस समय कृष्टि की संपूर्ण पावली प्रविष्ट होती है। इस प्रकार संक्रमणमें दो प्रावली होती हैं।
) विशेष-अन्य कृष्टि के संक्रामण क्षपक के पूर्व वेदित कृष्टि की एक समय कम उदयावली और वेद्यमान कृष्टि की परिपूर्ण उदयावलों इस प्रकार कृष्टिवेदक के उत्कर्ष से दो श्रावलियां पाई जाती हैं। वे दोनों प्रावलियां भी एक कृष्टि से दूसरी कृष्टि को संक्रमण करने वाले क्षपक के तदनंतर समय में एक उदयावली रुप रह जाती हैं।
खोणेसु कसाएसु य सेसाणं के व होति वीचारा। खवणा व अखवगा वा बंधोदयणिज्जरा वापि ॥ २३२ ॥ । कषायों के क्षीण होने पर शेष ज्ञानावरणादि कर्मों के कौन कौन क्रिया-विशेषरूप वीचार होते हैं ? क्षपणा, अक्षपणा, बन्ध, उदय तथा निर्जरा किन किन कर्मों को कैसी होती है ? संकामणमोवण-ट्टिीखवणाए खीणमोहंते।। खबगा य आणुपुवी बोद्धच्या मोहणीयस्स ॥ २३३ ॥ / मोहनीय के क्षीण होने पर्यन्त मोहनीय की संक्रमणा, अपवर्तना तथा कृष्टि क्षपणा रूप क्षपणाएं प्रानुपूर्वी से जानना चाहिये ।
विशेष - इस गाथा के द्वारा चरित्रमोहको क्षपणा का विधान आनुपूर्वी से किया है। इससे इसे संग्रहणी गाथा कहा है ! "संखेवेण परुवणा संगहोणाम"- संक्षेप से प्ररूपणा को संग्रह कहते " हैं। ( २२६८)
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( २३४ )
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मोहनीय के क्षय के अनंतर अनंत केवलज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतवीर्ययुक्त होकर जिन, केवली, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी होते हैं। उन्हें सयोगी जिन कहते हैं । वे प्रसंख्यातगुणश्रेणी से कर्म प्रदेशार की निर्जरा करते हुए विहार करते हैं। "तदो प्रणंत केवलणाण-दंसणवीरित्तो जिणो केवली सव्वण्हू सव्वदरिसी भवदि सजोगिजिणो मार्गदशक्ति भवाचार्य असंसएस पदसणं णिज्जरेमाणो विहरदि
त्ति” । ( २२६८, २२७१ )
/ शंका - मोह का क्षय हो जाने पर के बिहार का क्या प्रयोजन है ?
१ समाधान - वे धर्मतीर्थ की प्रवृत्ति के लिए यथोचित धर्मक्षेत्र में महान विभूति पूर्वक देवों तथा असुरों से समन्वित हो विहार करते हैं । उनके विहार कार्य में प्रशस्त विहायोगति नाम कर्म भी अपेक्षा रहती है । ऐसा वस्तु स्वभाव है ।
| पंच भरत, पंच ऐरावत तथा प्रत्येक भरत, ऐरावत क्षेत्र संबंधी बत्तीस बत्तीस विदेह संबंधी एक सौ साठ धर्मक्षेत्र कुल मिलाकर एक सौ सत्तर धर्मक्षेत्र होते हैं । उनमें सर्वत्र यदि तार्थंकर भगवान उत्पन्न हों, तो एक सौ सरार तीर्थंकर अधिक से अधिक होते हैं । हरिवंशपुराणकार ने कहा है
-:
द्वीपे वतृतीयेषु ससप्तति - शतात्मके ।
धर्मक्षेत्रे त्रिकालेभ्यो जिनादिभ्यो नमो नमः ॥२२-२७।।
अढाई द्वीप में एकसौ सत्तर धर्मक्षेत्र हैं । उनमें त्रिकालवर्ती जिन भगवान श्रादि को बार बार नमस्कार है ।
१ धर्मतीर्थप्रवर्तनाय यथोचिते धर्मक्षेत्रे देवासुरानुयातो महत्या विभूत्या विहरति, प्रशस्त विहायोगतिसव्यपेक्षात्तत्स्वाभाव्यात् (२२७१)
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। १ केवली भगवान अभिसंधि के बिना भी लोक सुखकारी विहार (तित्थयरस्स विहारो लोयसुहो) करते हैं। जैसे कल्पवृक्ष स्वभाव से दूसरे को इष्ट पदार्थ प्रदान करने की शक्तियुक्त रहता है अथवा जैसे दीपक कपावश नहीं किन्नु स्वभाववश दूसरे पदार्थों का तथा स्वयं का अंधकार दूर करता है. ऐसा ही कार्य भगवान के इच्छा के क्षय होने पर भी स्वभाव से होता है । २ योग की अवित्यशक्ति 'के प्रभाव से प्रभु भूमि का स्पर्श न कर गगनतल में बिना प्रयत्न विशेष के विहार करते हैं । उस समय भक्ति प्रेरित सुरगण चरणों के नीचे सुवर्ण कमलों की रचना करते जाते हैं।
। केवली भगवान का विार किंचित उन पूर्वकोटि वर्ष कालमा पर्यन्त होता है।
१ अभिसंधिविरहेपि कल्पतरुवदस्य परार्थसंपादन-सामोपपत्तेः। प्रदीपयद्वा । न वै प्रदीपः कपालुस्तथात्मानं परं बा तमसो निबर्तयति, किन्तु तत्स्वाभाव्यादेवेति न किंचित् व्याहन्यते ।
२ स पुनरस्य विहारातिशयो भूमिमम्पृशत एवं गगनतले भक्तिप्रेरितामरगणविनिर्मितेषु कनकाम्बुजेषु प्रयत्न विशेषमन्तरेणापि स्वमाहात्म्यातिशयात्प्रवर्तत इति प्रत्येतव्यं । योगिशक्तीनामचिन्त्यत्वादिति । (२२७२)
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चपणाधिकार चूलिका अण मिच्छ मिस्स सम्मं अट्ठ णसिस्थि-वेद छक्कं च । पुवेदं च खवेदि हु कोहादीए च संजलणे ॥ १॥ । अमांशानुमंत्री: चावधि प्रारम्बाहाशति इन सात प्रकृतियों को क्षपक श्रेणी चढ़ने के पूर्व ही क्षपण करता है। पश्चात् क्षपक श्रेणी चढ़ने के समय में अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में अंतरकरण से पूर्व ही पाठ मध्यम कषायों का क्षपण करता है । इसके अनंतर नपुंसकवेद, स्त्रीवेद, हास्यादि छह नोकषाय तथा पुरुषवेद का क्षय करता है । इसके पश्चात् संज्वलन क्रोधादि का क्षय करता है।
। विशेष-धवला टीका के प्रथम खंड में लिखा है, "कसायपाहुड-उवएसो पुण अट्ठकसाएसु खीणेसु पच्छा अंतोमुहत्तं गंतूण सोलस-कम्माणि खविज्जति ति"-कषायपाहुड का उपदेश इस प्रकार है, कि पाठ कषायों के क्षय होने के पश्चात् अन्तर्मुहूर्त व्यतीत होने पर सोलह प्रकृतियों का क्षय होता है ( ध. टी. भा. १, पृ. २१७)
सत्कर्मप्राभूत का अभिप्राय इससे भिन्न है । "सोलसपयडीयो खवेदि तदो अंतोमुहत्तं गंतूण पक्चक्खाणापच्चक्खाणावरण-कोध
माण-माया-लोभे अकमेण खबेदि एसो "संतकम्मपाहुड-उबएसो"| सोलह प्रकृतियों का पहले क्षय करता है । इनके अनंतर अंतमुहर्तकाल व्यतीत होने पर प्रत्याख्यानावरण, अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया और लोभ को अक्रमरूप से क्षय करता है । (१)
१ षोडशानां कर्म प्रकृतीनामनिवृत्तिबादरसांपरायस्थाने युगपत् क्षयः क्रियते । ततः परं तत्रैव कषायाष्टकं नष्टं क्रियते ॥ सर्वार्थसिद्धिः पृ. २३७ अ. १०, सूत्र २
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( २३७ ). | शंका- इस प्रकार महान आचार्यों के कथन में विरोध होने से प्राचार्य कथित सत्कर्म और कषायप्राभतों को सूत्रपना कैसे प्राप्त होगा ? .. समाधान-जिनकी गणधरदेव ने ग्रन्थ रूप में रचना की, ऐसे बारह अंग प्राचार्य परंपरा से निरंतर चले पा रहे हैं, किन्तु काल के प्रभाव से उत्तरोत्तर बुद्धि के क्षीण होने पर और उन अंगों को धारण करने वाले योग्य पात्र के प्रभाव में वे उत्तरोत्तर क्षीण होते जा रहे हैं । इसलिए जिन आचार्यों ने आगे श्रेष्ठ बुद्धि वाले पुरुषोंमादबाव वानप्रवासासीका हासज जिन्होंने गुरुपरंपरा से श्रुतार्थ ग्रहण किया था, उन प्राचार्यों ने तीर्थविच्छेद के भय से उस समय शेष बचे अंग संबंधी अथं को पोथियों में लिपिबद्ध किया, अतः उनमें असूत्रपना नहीं आ सकता । (१) । शंका-उन दोनों प्रकार के वचनों में किस वचन को सत्य माना जाय? . उत्तर--(२) इस बात को केवली या श्रुतकेवली ही जान सकते हैं, दूसरा कोई नहीं जान सकता । इसका निर्णय इस समय संभव नहीं है, अतः पापभीरु वर्तमान के प्राचार्यों को दोनों का संग्रह करना चाहिए । ऐमा न करने पर पाप-भीरुता का विनाश हो जायगा।
१ तित्थयर कहियत्थाणं गणहरदेवकयगंथ-रयणाणं बारहगाणं प्राइरिय-परंपराए णिरंत रमागयाणं जुगसहावेण बुद्धोसु प्रोहट्टतोसु भायणा-भावेण पुणो अोहट्टिय प्रागवाणं पुणो सुबुद्धीणं खयं दळूण तित्थवोच्छेदभयेण वज्जभीरुहि गहिदत्थेहि आइरिएहि पोत्थ एसु चडावियाणं असुत्तत्तं ण विरोहादो (ध.टी. भा. १,पृ २२१)
२ दोहं वयणाणं मउझे कं वयणं सच्चमिदि चे सुदकेवली केवली वा जाणादि । ण अण्णो तहा णिण्णयाभावादो । बट्टमाणकालाइरिएहि वज्जभीरुहि दोण्हं पि संगहो कायक्वो, अण्णहा वज्जभीरत्त-विणासादो त्ति ( पृ. २२२ )
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( २३८ ) अध थीणगिद्धकम्म णिदाणिद्दा य पयलपयला य । अध गिरय-तिरियणामा मीणा संयोहणादीसु ॥ २ ॥
अष्ठ मध्यम कषायों के क्षय के पश्चात् स्त्यानगृद्धिकर्म, निद्रा निद्रा, प्रचलाप्रचला, नरक गति तथा तिर्यंचगति संबंधो नामकर्म की त्रयोदश प्रकृति का संक्रमणादि करते हुए क्षय करता है ।
। विशेष-नरकगति, नरकगत्यानुपूर्वी, तिर्यवगति, तिर्यग्गत्यानुपूर्वी मीद्धिाविसमागमन्दिहारपति, उद्यात, आताप, एकेन्द्रिय जाति, साधारण, सूक्ष्म तथा स्थावर ये त्रयोदश नाम कर्म सम्बन्धी प्रकृतियां हैं। सव्वस्त मोहणीयस्स आणुपुब्बीय संकमो होई। लोभकसाए णियमा असंकमो होई ॥३॥
मोहनीय की सर्व प्रकृतियों का प्रानुपूर्वी से संक्रमण होता है । लोभ कषाय का संक्रमण नहीं होता है, ऐसा नियम है । संछुहदि पुरिसवेदे इत्थीवेदं णवुसयं चेव । सत्तेव गोकसाए णियमा कोधम्हि संछुह दि ॥४॥
वह क्षपक स्त्रोवेद तथा नपुंसक वेदका पुरुषवेद में संक्रमण करता है । पुरुषवेद तथा हास्यादि छह नोकपायोंका नियमसे क्रोध में संक्रमण करता है। कोहं च छुद्दइ माणे माणं मायाए णियमसा छुइह । मायं च छुहइ लोहे पडिलोमो संकमो स्थि ॥५॥
संज्वलन क्रोधका मानमें, मानका मायाम तथा मायाका लोभमें नियमसे संक्रमण करता है। इनका प्रतिलोम (विपरीत कमसे ) सक्रमण नहीं होता।
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श्री चंद्रप्रभु
खामगांच जि. बुलडाणा
( २३६ ) सिंगान पाठशाला जो जम्हि संछुहतो णियमा बंधम्हि होइ संलुहणां । बंधेण हीणदरगे अहिए वा संकमो णस्थि ॥६॥
__ मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविद्यिासागर जी महाराज जो जिस बंधनेवाली प्रकृति में संक्रमण करता है, वह नियमसे बंध सदृश ही प्रकृतिमें संक्रमण करता है अथवा बंधकी अपेक्षा हीनतर स्थितियुक्त प्रकृतिमें संक्रमण करता है, किन्तु बंधकी अपेक्षा अधिक स्थितिवाली प्रकृतिमें संक्रमण नहीं होता है । बंधेरण होइ उदयो अहियो उदएण संकमो अहियो । गुणसेढि अणंतगुणा बोद्धव्वा होइ अणुभागे ॥७॥ ___ बंध से उदय अधिक होता है। उदय से संक्रमण अधिक होता है। अनुभाग के विषय में गुणश्रेणि अनंतगुणी जानना चाहिये। बंधेण होई उदयो अहियो उदएण संकमो अहिओ। गुणसेढि असंखेजा च पदेसगेण बोद्धव्वा ॥८॥
बंध से उदय अधिक होता है। उदय से संक्रमण अधिक होता है। इस प्रकार प्रदेशाग्रकी अपेक्षा गुणश्रेणी असंख्यातगुणी जानना चाहिये।
विशेष—किसी प्रकृति के प्रदेशबंध से उसके प्रदेशों का उदय असंख्यात गुणा अधिक होता है। प्रदेशों के उदय को अपेक्षा प्रदेशों का संक्रमण और भी असंख्यात गुणा अधिक होता है । उदयो च अणतगुणो संपहि-बंधेण होइ अणुभागे। से काले उदयादो संपहि-बंधो अवंतगुणो ॥॥
अनुभाग की अपेक्षा सांप्रतिक बंध से सांप्रतिक उदय अनंत. गुणा है। इसके अनंतरकालमें होने वाले उदय से सांप्रतिक बंध अनंतगुपणा है।
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( २४० ) चरिमे बादररागे णामागोदाणि वेदणीयं च । वस्सस्संतो बंधदि दिवसस्संतो य जं सेसं ॥ १० ॥
चरम समयवर्ती बादरसांपरायिक क्षपक नाम, गोत्र, एवं मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी म्हारा
वेदनीय को वर्ष के अंतर्गत बांधता है। ज्ञानावरण, दर्शनावरण तथा अन्त राय, रुन घातिया कर्मों को एक दिवस के अन्तर्गत बांधता है। "
जं चावि संछुहंतो खवेइ किटिं अबंधगो तिस्से। सुहमम्हि संपराए प्रबंधगो बंधगियराणं ।। ११ ।।
जिस कृष्टि को भी संक्रमण करता हुअा क्षय करता है, उसका वह बंध नहीं करता है। सूक्ष्मसांप रायिक कृष्टि के वेदनकालमें वह उसका प्रबंधक रहता है। किन्तु इतर कृष्ट्रियों के वेदन या क्षपण काल में वह उनका बंध करता है । जाव ण छदुमत्थादो तिरह घादीण वेदगो होई। अधऽणतेरणं खइया सव्वण्ह, सव्वद रिसी य ॥ १२ ॥
जब तक वह छद्मस्थ रहता है, तब तक ज्ञानाबरणादि घातिया त्रयका वेदक रहता है। इसके अनंतर क्षण में उनका क्षय करके सर्वज्ञ तथा सर्वदर्शी बनता है। ___ विशेष-मोहनीय के क्षय होने पर क्षीणमोह गुणस्थान प्राम होता है। वह जीव घातिया श्रय का क्षय करके केवलज्ञान को प्राप्त करता है। तत्वार्थसूत्र में कहा है "मोहक्षयाज्ज्ञान-दर्शनावरणान्तरायक्षयाच केवलम्" (१०-१)। केवलज्ञान सूर्य का उदय होने के लिए सर्व प्रथम मोक्ष क्षय को अनिवार्य माना है, उसके होने के अनंतर ही शेष घातिया क्षय को प्राप्त होते हैं ।
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गदर्शक:- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज
एकत्ब वितर्क प्रवीचार नामके शुक्लध्यान रूप अग्नि के प्रज्वलित होने पर क्षीणकषाय गुणस्थानवाला यथाख्यात संयमी छद्मस्थ धातिया अय रूप वन को भस्म करता है तथा छद्मस्थपर्याय से निकलकर क्षायिक लब्धि को प्राप्त कर लोक अलोक के समस्त पदार्थो का साक्षात् कारी ज्ञान वाला सर्वज्ञ तथा सर्वदर्शी बनता है। वे केवली भगवान धर्म तत्व को देशना द्वारा भव्य जीवों को श्रेयोमागं का दियध्वनि केरा देशोन एक कोटिपूर्व काल पर्यन्त उपदेश देते हैं ! ?
१ यावत्खलु छद्मस्थपर्यायान्न निष्कामति तावत् त्रयाणां घातिकर्मणां ज्ञानहगावरणान्तरायसंज्ञितानां नियमावदको भवति, अन्यथा छद्मस्थभावानुपपत्तेः । अथानंतरसमये द्वितीयशुक्लध्याग्निना निर्दग्धाशेष--घातिकमंद्रु मगहनः छास्थपर्यायान्निष्क्रान्तस्वरूपः क्षायिकी लब्धिमवा त्य सर्वज्ञः सर्वदर्शी च भूत्वा विहरतीत्ययमत्र गाथार्थसंग्रह ( २२७५ )
एवमेकत्ववितर्क-शुक्लध्यान-वैश्वानर-निर्दग्घधाति-कर्मेन्धनः प्रज्वलित केवलज्ञान-गस्तिमण्डलो मेघपंजर-निरोध-निर्गत इव धर्मरश्मि, भासमानो भगवांस्तीर्थकर इतरो वा केवली लोकेश्वराणामभिगमनीयोऽर्चनीयश्चोत्कर्षणायुषः पूर्व-कोटी देशोनां विहरति । सर्वार्थसिद्धि पृ. २३१ अ. ९ सूत्र ४४
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पश्चिम स्कन्धाधिकार
द्वादशांग रूप जिनागम के अंतर्गत महाकम्मपयडि-पाहड है। उस परमागम के चतुर्विंशति अनुयोग द्वारों में पश्चिम स्कंध नामका अंतिम अनुयोग द्वार है।
प्रश्न- “महाकम्मपयडि-पाहुडस्स चउवीसाणियोगद्दारेसु पडिबद्धो एसो पच्छिमक्खंधाहियारो कथमेत्थ कसायपाहुडे परुविज्जदि त्ति णा संका कायव्वा"-महाकर्म प्रकति प्राभत के चौबीस अनुयोग द्वारों से प्रतिबद्ध यह पश्चिम स्कन्ध नामका अधिकार यहां कषाय पाहड में किस कारण कहा गया है. ऐसी आशंका नहीं करना चाहिही सुविधिसागर जी म्हारोज 1
समाधान-इस पश्चिम स्कन्ध अधिकार को महाकर्म प्रकृति प्राभत तथा कषायपाहुड से प्रतिबद्ध मानने में कोई दोष नहीं प्राता है "उहयत्थ वि तस्स पडिबध्दत्तब्भुवगमे वाहाणुवलंभादो" यह अधिकार "समस्त-श्रुतकन्धस्य चूलिकाभावेन व्यवस्थितः" २. संपूर्ण श्रुतस्कन्ध की चूलिका रूप से व्यवस्थित है।
पश्चिम स्कन्ध की व्युत्पत्ति इस प्रकार है "पश्चिमाद्भवः पश्चिमः" पश्चात्-उत्पन्न होने वाला पश्चिम है। 'पश्चिमवासी स्कन्धश्व पश्चिमस्कन्धः" पश्चिम जो स्कन्ध है, इसे पश्चिम स्कन्ध कहते हैं । घातिया कर्मों के क्षय होने के उपरान्त जो अघाति चतुष्क रूप कर्मस्कन्ध पाया जाता है, वह पश्चिम स्कन्ध है । "खीणेसु घादिकम्मेसु जो पच्छा समवलब्भइ कम वर्खयो अघाइचउक्कसरुवो सो पच्छिमक्खंधो त्ति भण्णदे" अथवा अंतिम औदारिक, तैजस तथा कार्माण , शरीर रूप नोस्कन्धयुक्त जो कर्मस्कन्ध है, उसे पश्चिम स्कन्ध । जानना चाहिये । )
इस अधिकार में केवली समुदधात, योगनिरोध प्रादि का । निरुपण किया गया है।
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श्रद्रप्रभु
दिन पाटगाला खा.... ज बलडाणा
{ २४३ ) / अधातिया कर्मों की क्षपणा के बिना क्षपणाधिकार पूर्णता को नहीं प्राप्त होता है। इस कारण क्षपणाधिकार से संबंधित होने से चूलिका रूप से यह पश्चिम स्कन्धाधिकार कहा है।
। प्रायु के अंतर्मुहूतं शेष रहने पर सयोगकेवली आजित करण करने के उपरान्त केवलि-समुद्घात करते हैं "अंतोमुत्तगे पाउगे
ऐसे तदो प्रावज्जिदकरणे कदे तदो केवलिसमुग्घादं करेदि" । ( २२७७ ) केबली समुद्घात के लिए की गई आवश्यक क्रिया
आवर्जित करणा है। "केवलिसमुग्घादस्स अहिमुखी भावो प्रावज्जिदकरणनिदिक्षिणदेआचार्महापर्यन्त आब जितकरण के बिना केवलि समुद्धात क्रिया के प्रति अभिमुखपना नहीं होता है। इस करण के पश्चात् केवली अघातिया कर्मों की स्थिति के समोकरणार्थ समुद्रघात क्रिया करते हैं ।
शंका-"को केवलिसमुग्धादोगाम" ? केवलिसमुद्धात किसे कहते हैं ?
समाधान-"उद्गगमनमुद्धघातः जीचप्रदेशानां विसर्पणम्" जीब । के प्रदेशों का विस्तार उद्गगमन को उद्घात कहते हैं । "समीचीन
उद्धातः समुद्धातः ) केवलिनां समुद्रघात: केवलिसमुद्रधातः । समीचीन उद्घात्त को समुद्घात कहते हैं । केवलियों का समुद्धात केवलि समुद्रघात है। "अघातिकर्म-स्थिति-समीकरणाथ केवलि जीवप्रदेश...।। समयाविरोधेन उमस्तियंक विमर्पणं केवलिसमुद्घात:"1 अघातिया कर्मों की स्थितियों में समानता की प्रतिछापना हेतु कैबली की आत्मा के प्रदेशों का आगम के अविरोध रूप से
उवं, अधः तथा तिर्यक रूप से विस्तार केवली समुद्रघात है। यह । केवली समुद्वघात दंड, कचाट, प्रतर तथा लोकपूरण के भेद से चार अवस्था रूप है।
"पढम समए दंडं करेदि" - "वे प्रथम समय में दंड समुद्धात को करते हैं । सयोगी जिन पदमासन से अथवा खड्गासन से पूर्व अथवा
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1 २४४ ) उत्तर दिशाकाऔिर आभमुख होकर यह समुद्वघात करते हैं । इसे खड्गासन से करने पर इसमें प्रात्म प्रदेश मूल शरीर प्रमाण विस्तार युक्त रहते हैं तथा वातवलय से न्यून चौदह राजू प्रमाण प्रायत दंडाकृति होते हैं । पदमासन से इस समुद्धात को करने पर दंडाकार प्रदेशों का बाहुल्य मूलशरीर बाहुल्य से तिगुना रहता है। "पलियंकासपेण समुहदस्स मूलशरीर-परियादो दंडसमुन्धादपरिदृमो तत्थ तिगुणो होदि" । इस समुदधात में औदारिक काययोग होता है । यहां अधातिया कर्मों की पल्योपम के असंख्यातवें भाग स्थिति के बहुभागों का घात होता है। यह कार्य प्रायु को छोड़ प्रघातियात्रय के विषय में होता है। क्षीणकषाय गुणस्थान के अन्त में जो अनुभाग शेष बचा था, उसमें से प्रप्रशस्त अनुभाग के भी बहुभाग का घात करता है।
"तदो बिदियसमए कवार्ड करेदि"—तदनंतर दूसरे समय में कपाट समुदधात करते हैं। इसमें अघातिया की शेष स्थिति के असंख्यात बहुभागों का घात करते हैं । शेष बचे अप्रशस्त अनुभाग के अनंत बहुभागों का घात करते हैं।
जिस प्रकार कृपाट का बाहुल्य अल्प रहता है, किन्तु विष्कंभ और आयाम अधिक रहते हैं, इसी प्रकार कपाट समुद्रघात में केवली के प्रात्म प्रदेश वातवलयसे कम चौदह राजू लम्बे और सात राजू चौड़े हो जाते हैं। यह बाहुल्य खड्गासन युक्त केवली का है। पद्मासन में केवली के शरीर के बाहुल्य से तिगुना प्रमाण होता है। जो पूर्वमुख हो समुद्घात करते हैं, उनका विस्तार दक्षिण और उत्तर में सातराजू रहता है, किन्तु जिनका मुख उत्तर की प्रोर रहता है, उनका विस्तार पूर्व और पश्चिम में लोक के विस्तार के समान हीनाधिक रहता है। इस अवस्था में प्रौदारिक मिश्र काययोग कहा गया है ।
प्रश्न-यहां प्रौदरिक मिश्रकाययोग क्यों कहा है ?
bij of a fotky
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मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज
( २४५ )
समाधान- "कार्मणौदारिकशरीरद्वयावष्टम्भेन तत्र जीवप्रदेशानां परिस्पंदपर्यायोपलं भात् " - यहां कार्माण तथा प्रौदारिकशरीर द्वय के अवलंबन से जीवके प्रदेशों में परिस्पंद पर्याय उत्पन्न होती है।
" तदो तदियसमये मंयं करोति" - तीसरे समय में केवली भगवान मंथन नामका समुद्रघात करते हैं। स्थिति और अनुभाग की पूर्ववत् निर्जरा होती है । इसको प्रसर तथा रुजक समुद्रघात भी कहते हैं "एस्स चैव पदरसण्णा रुजगसण्णा च प्रागमरुढिवलेण दवा " यह दो नाम श्रागम तथा रुढिवश कहे गए हैं। इस अवस्था में "कम्मइकायजोगी प्रणाहारी च काययोगी तथा अनाहारक होते हैं ।
जायदे " -- कार्माण
-
इस समुद्रघात में श्रात्मप्रदेश प्रतर रुप से चारों ओर फैल जाते हैं अर्थात् वातवलय द्वारा रुद्ध क्षेत्र को छोड़कर समस्त लोक में व्याप्त होते हैं। यहां उत्तर या पूर्व मुख होने रुपभेद नहीं पड़ता है।
यहां मूल औदारिक शरीर के निमित्त से श्रात्मप्रदेशों का परिस्पंदन नहीं होता है। उस शरीर के योग्य नोक वर्गणाओं का श्रागमन भी नहीं होता है ।
" तदो चउत्थसमये लोगं पूरेदि " -- वे चौथे समय में समस्त लोक में व्याप्त हो जाते हैं । वे वातवलयरुद्ध क्षेत्र में भो व्याप्त हो जाते हैं । इस अवस्था में जीव के नाभि के नीचे के प्राठ मध्यम प्रदेश सुमेरु के मूलगत आठ मध्यम प्रदेशों के साथ एकत्र होकर उपस्थित रहते हैं। यहां कार्माण काययोग तथा अन्दाहारक श्रवस्था होती है ।
महावाचक श्रार्यमक्षु श्रमण के उपदेशानुसार यहां श्रायु धादि चारों कर्मों की स्थिति बराबर हो जाती है । महावाचक नाग हस्ति श्रमण के अनुसार शेष तीन कर्मों की तथा प्रायु की स्थिति
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( २४६ । अंसमुहुतं होते हुए भी प्रायु की अपेक्षा तीन कर्मों की स्थिति संख्यातगृणित होती है । चमिक :- असियमी सुप्राचार्यगर जी महाराज कहते हैं "संखेज्जगुणमाउादो"--नाम, गोत्र और वेदनीय की स्थिति प्रायु की अपेक्षा संख्यात गुणी होती है। । ___पंचम समय में आत्म-प्रदेश संकुचित होकर प्रतूर रुप होते हैं। इस प्रतर का नाम मंथन अर्थ-विशेष युक्त है, "मथ्यतेऽनेनकर्मेति मंथः," ( २२८० ) इसके द्वारा कर्मों को मंथित किया जाता है, इससे इसे मंथ कहा गया है। छठवें समय में कपाट सातवें में दण्ड तथा पाठवें समय में प्रात्मप्रदेश पूर्व शरीर रूप हो जाते हैं। जयधवला में उपरोक्त कथन को खुलासा करने वाले ये पद्य दिए हैं। * दण्ड प्रथमे समये कवाटमथ चोत्तरे तथा समये ।
मंथानमथ तृतीये लोकव्यापी चतुर्थे तु ॥ संहरति पंचमे त्वन्त राणि मंथानमथ पुनः एष्ठे । सप्तमके च कपाट संहरति ततोष्टमे दण्डं ||
कोई कोई प्राचार्य समुदघात संकोच के तीन समय मानते हैं । वे अंतिम समय की परिगणना नहीं करते। कितने ही प्राचार्य अंतिम समय को मिलाकर संकोच के चार समय कहते हैं ।
१ घवलाटीका में लिखा है कि यतिवृषम प्राचार्य के कथनानुमार क्षीणकषाय गुणस्थान के चरम समय में सम्पूर्ण अघातिया
१ यतिवृषभोपदेशात् सर्वाषातिकमणां क्षीणकवायचरमसमये स्थितेः साम्याभावात् सर्वपि कृतसमुद्घाताः सन्तो निवृत्तिमुपढौकन्ते। येषामाचार्याणां लोकव्यापी केवलिषु विशतिसंख्या नियमरतेषां मतेन केचित् समुद्भवातयंति । केचिन्नसमुद्रघातयंति ।
के न समुद्यातयंति ? येषां संसृतिव्यक्तिः कर्मस्थित्या समाना ते न समुदघातयन्ति । शेषाः समुदधातयंति । ध०टी०भा० १पृ० ३०२
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( २४७ ) कर्मों की स्थिति समान नहीं पाई जाती है। इस कारण सभी केबली समुद्धामाबे हैं अचिव प्रचाशनमा लोकपूरण समुद्रघात करने वाले केवलियों की संख्या नियमसे बीस कही है, उनके मतानुसार कोई समुद्घात करते हैं, कोई नहीं करते हैं।
शंका--कौन केवली समुद्रघात नहीं करते हैं ? ।
समाधान--जिनकी संसार-व्यक्ति (संसार में रहने का काल) वेदनीय, नाम तथा गोत्र इन तीन कर्मों की स्थिति के समान है, वे समुद्घात नहीं करते हैं । शेष केवली करते हैं ।
समुद्धात क्रिया के पश्चात् अंतर्मुहूर्त पर्यन्त स्थिति कांडक, अनुभागकांडक का उत्कीरणकाल प्रबर्तमान रहता है। केवली के स्वस्थान समवस्थित हो जाने पर वे अन्तर्मुहुर्तपर्यन्त योगनिरोध की तैयारी करते हैं। इस समय अनेक स्थिति कांडक तथा अनुभागकांडक घात व्यतीत होते हैं। अंतर्मुहूतं काल के पश्चात् वे सयोगी जिन बादर काययोग के द्वारा बादर मनोयोग का निरोध करते हैं। तदनतर अंतर्मुहूर्त के बाद बादर काययोग से बादर वचन योग का निरोध करते हैं। पुन: अंतर्मुहूर्त के बाद बादर काययोगसे बादर उच्छ्वास-निःश्वास का निरोध करते हैं । फिर अंतर्मुहूर्त के बाद बादर काययोगसे उस बादरकाययोग का निरोध करते हैं, "तदो अंतोमुहत्तण बादरकायजोगेण तमेव बादरकायजोगं णिरु भइ" ( २२८३ )
फिर अंतर्मुहूर्त के बाद सूक्ष्मकाय योग से सूक्ष्म मनोयोग का निरोध करते हैं। फिर अंतमुहूर्त के पश्चात् सूक्ष्म काययोग से सूक्ष्म वचन योग का निरोध करते हैं । फिर अंतर्मुहूर्त के बाद सूक्ष्म काययोग से सूक्ष्म उच्छ्वास-निःश्वास का निरोध करते हैं । "तदो अंतोमुह गंतूण सुहमकायजोगेण सुहमकायजोगं निरुभमाणो इमाणि करणाणि करेदि"--तदनंतर अंतमुहूर्त काल के बाद बादर
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सूक्ष्म काययोगसे सूक्ष्मकाययोग का निरोध करते हैं तथा इन करणों को करते हैं। इनमें पूर्व स्पर्धकादि की रचना होती हैं । इसके बाद वे कृष्टियों को करते हैं ! कुद्धिकरण से तो जी महाराज पूर्व प्रपूर्व स्पर्धकों का क्षय करते हैं। उस समय अंतर्मुहुर्त पर्यन्त कृष्टिगत योगयुक्त होते हैं ।
उस समय वे सयोगी जिन तृतीय शुक्लध्यान - सूक्ष्म क्रियाप्रतिपाति को ध्याते हैं । तेरहवें गुणस्थान के अंतिम समय में कृष्टियों के असंख्यात बहुभाग का क्षय करते हैं ।
इस प्रकार योगनिरोध होने पर सब कर्म ग्रायु की स्थिति के समान हो जाते हैं। वे प्रयोग केवली हो जाते हैं। उनके चौरासी लाख उत्तरगुण पूर्ण होते हैं तथा वे अठारह हजार भेदयुक्त शोल केईपने को प्राप्त होते हैं
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शंका- योगी जिनको 'शीलेश' कहने का क्या कारण है ? सयोगी जिनमें संपूर्ण गुण तथा शील प्रकट हो जाते हैं, "सकलगुणशीलभारस्याविकल-स्वरुपेणाविर्भावः " ( २२९२ )
समाधान-प्रयोगी जिनके सपूर्ण श्रास्रव का निरोध हो गया है; इससे उन्हें शीलेश कहा है । सयोगी जिन के योगात्रव होता है | अतः सर्व कर्मों की निर्जरा है फल जिसका ऐसा पूर्ण संबर नहीं होता है- "योगास्त्रवमात्र सत्यापेक्षया सकलसंवरो निःशेषकर्मनिर्जरैकफलो न समुत्पन्नः " । इस कारण प्रयोगी जिन 'शोले' कह गए है |
प्रश्न --- अंतर्मुहूर्त पर्यन्त वे प्रयोगोजिन लेश्या रहित हो शील के ईश्वरपने का अनुपालन करते हैं । उस समय "भगवन्ययोगिकेवलिनि कीदृशी ध्यानपरिणामः ? प्रयोग केवली भगवान के ध्यान का परिणाम किस प्रकार होता है ?
समाधान - उस समय वे समुच्छिन्न क्रियानिवृत्ति शुक्ल ध्यान को ध्याते हैं। "समुच्छिकरियम नियट्टि सुक्कज्झाणं झार्यादि"
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मार्गदर्शक २४ालार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज तत्वार्थसूत्र में इस ध्यान का नाम व्युपरतक्रिया निवृत्ति दिया गया है । ध्यान का लक्षण एकाग्र-चिन्ता -निरोध यहां घटित नहीं होता, कारण वे संपूर्ण पदार्थों का केवलज्ञान के द्वारा साक्षात् शान करते हैं। इससे यहां सयोगी जिन के समान ही उपचार से ध्यान को कहा गया है । "परमार्थवृत्या एकाग्रचिन्ता-निरोध-लक्षण ध्यान-परिणामस्य. ध्रु बोपयोगपरिणते केवलिन्य नुपपत्तेः"-परामार्थ वृत्ति से ध्रुवोपयोग परिणत केवलो के एकाग्रचिन्तानिरोध रूप ध्यान परिणाम की अनुपपत्ति है।
"ततो निरुद्धाशेषानबद्वारस्य केलिनः स्वात्मन्यवस्थानमेवा शेषकर्मनिरणकफलमिह ध्यानमिति प्रत्येतव्यम्" ( २२९३ ) इस कारण संपूर्ण प्रास्रव के द्वार रहित प्रयोगीजिन के अपनी प्रात्मा में अवस्थिति ही संपूर्ण कर्म की निर्जरा हो एक फल रूप ध्यान जानना चाहिये।
चतुर्थं स्यादयोगस्य शेषकर्मच्छिदुत्तमम् ।
फलमस्थाद्भुतं धाम परतीर्थ्यदुरासदम् ॥ चतुर्थ शुक्ल-ध्यान अयोगोजिन के होता है । यह शेष कर्मों के क्षयरूप श्रेष्ठ फल युक्त है। वह भद्भततेज युक्त है तथा मिथ्यामागियों के लिए संभव नहीं है।
मूलाचार में लिखा है :तत्तोरालियदेहो णामा गोदं च केवली जुगवं । पाउं च वेदपीयं खिवइत्ता पीरा होई ॥२३शा प्र. ११
वे प्रयोग केवली प्रौदारिक शरीर, नाम कर्म, गोत्र, आयु तथा वेदनीय का क्षय करके कर्म रज रहित होते हैं ।
वे चौदहवें गुणस्थान के उपान्त्य समय में उदयरहित वेदनीय, देवगति, पांच शरीर, पांच संघात, पांच बंधन, छह संस्थान, तीन
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मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज
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श्रांगोपांग, छह संहनन, पंचवर्ण, दोगंध, पंचरस, धाठ स्पर्श, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, दो विहायोगति, अपर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, दुभंग, सुस्वर, दुस्वर, धनादेय, प्रयशः कीर्ति, निर्माण, नीच गोत्र ये बहत्तर प्रकृतियां नाश को प्राप्त होती हैं ।
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अंतिम समय में उदय सहित वेदनीय, मनुष्यायु, मनुष्यगति, पंचेन्द्रिय जाति, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी त्रस, बादर, पर्याप्त, उच्चगोत्र, प्रत्येक, तोयंकर नाम कर्म, श्रदेय तथा यशः कीर्ति इन त्रयोदश प्रकृतियों का क्षय होता है ।
अयोगकेवलीका काल "पंचह्नस्वाक्ष रोचा रणकालावच्छिन्न परिमाण: " ( २२९३ )-अ, इ, उ, ऋ, लृ इन पंच ह्रस्व अक्षरों के उच्चारण के काल प्रमाण कहा है। कर्म क्षय होने पर भगवान "स्वात्मोपलब्धिलक्षणां सिद्धि" -- स्वात्मोपलब्धि स्वरूप सिद्धि को तथा " सकल पुरुषार्थसिद्धः परमकाष्ठा-निष्ठमेकसमयेनैवोपगच्छति " - पुरुषार्थ सिद्धि की परमकाष्ठा की प्राप्ति को एक समय में प्राप्त होते हैं । कर्मक्षय होने के कुछ काल पश्चात् मोक्ष प्राप्त होता हो, ऐसी बात नहीं है । जयघवला टीका में कहा है " कृत्स्नकर्मविप्रमोक्षान्तरमेव मोक्षपर्यायाविर्भावोपपत्तेः " संपूर्ण कर्मों के पूर्ण क्षय के अनंतर ही मोक्षपर्याय के श्राविर्भाव की उपपत्ति है ।
कर्मों के क्षय होने से सिद्ध परमात्मा को मुक्तात्मा कहते हैं । प्राचार्य कलंकदेव कहते हैं, भगवान कर्मों से मुक्त हुए हैं, किन्तु उन्होंने अपने आत्मगुणों की उपलब्धि होने से कथंचित् अमुक्तपना भी प्राप्त किया है । वे कर्मों के बंधन से मुक्त होने से मुक्त हैं तथा ज्ञानादि की प्राप्ति होने से प्रमुक्त भी हैं। अतः वे मुक्तामुक्त रूप हैं । शरीर रहित हो जाने से वे भगवान ज्ञानमूर्ति हो गए । चर्मचक्षुत्रों के अगोचर हो गए। उन्होंने अक्षय पदवी प्राप्त की है। उन ज्ञानमूर्ति परमात्मा को नमस्कार है ।
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________________ ( 251 ) मुक्तामुस्कैक-रूपो यः कर्मभिः संविदादिना / प्रक्षयं परमात्मानं ज्ञानमूर्ति नमामि तम् / / शुद्धद्रव्याथिक दृष्टि से जिस आत्मा को कर्मबंधन काल में भी शुद्ध कहतोले दाब-वहायसम्मा पनिटासीर स्वामोहसिल बुद्ध हो गई। चूणिसूत्रकार यतिवृषभ स्वामी कहते हैं :--- "सेलेमि प्रद्धाए झीणाए सब्बकम्मविष्पमुक्को एकसमएण सिद्धि गच्छइ"--शैलेशता का काल व्यतीत होने सर्व कर्म से विप्रमुक्त हो वे प्रभु एक समय में स्वात्मोपलब्धि रुप सिद्धि को प्राप्त होते हैं। तिहुवण-णाहे णमंसामित्रिभुवन के नाथ सिद्ध परमात्मा को हमारा नमस्कार है।