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________________ उत्कीर्स हुई | महायंध भी ताम्रपत्र में उत्कीर्ण हो गया है। ये ग्रंथ फलटए. बंबई में रखे गए हैं। परिपूर्ण महायंध मूलमंथ का संपादन, प्रकाशन का पुण्य कार्य आचार्य महाराज की प्रान्नानसार हमारे द्वारा संपन्न हुआ था। हमने महाबंध प्रथम 'पडिबध' का हिन्दी अनुवाद किया था। उसका दूसरा संस्करण मुद्रित हुआ है। धर्मध्यान का साधक शास्त्रकारों ने धर्मध्यान तथा शुक्लध्यान को निर्वाण का साधन कहा है। इस दुःषमा नाम के पंचमकाल में शुक्लध्यान की सामन्य नहीं पाई जाती है। धर्मध्यान की पात्रता पाई जाती है। उसके तृतीय भेद विपाक-विचय धर्मध्यान में कमों के विपाक का चितवन किया जाता है। प्राचार्य अकलंक ने कहा है--"कर्मफलानुभवनविवेक प्रति प्रणिधान विपाकविचयः। कर्मणां ज्ञानावरसादीनां द्रव्य-क्षेत्र-काल-भव-भाव-प्रत्यय फालानुभवनं प्रति प्रणिधान विपाकविचयः (तरा० पृ३५३ ) क्रमों के . फनानुभवन-विपाक के प्रति उपयोर्षिकहोनामिमा नियुधिसागराचा महाराज धर्मध्यान का साधक है। ज्ञानावरणादिक कर्मों का द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव, भाव के निमित्त से जो फलानुभवन होता है, उस ओर चित्तवृत्ति को लगाना विपाक विषय है। कर्मों के स्वरूप तथा विपाक का चितवन करने पर रागादि की मन्दता होती है तथा कषाय विजय का कार्य सरल हो जाता है। यह शास्त्र धर्मध्यान का साधक है । ताविक दृष्टि-समयप्रामृत की देशना के प्रकाश में जीव या सोनता है-- जीवस्स णस्थि वग्गो ण वग्गणा व फड्ढ्या केई । णो अज्झप्पट्ठाणा ऐत्र य अणुभाय-ठाणाणि ॥ ५२ ।। जीवस्म णस्थि केई जोयहाणा ण बंधठाणा था। खेव य उदयट्ठाणा ण मम्गद्वाणया केई ॥ ५३ ॥ को विदिबंधट्ठाशा जीवस्स ण संकिलेसठाणा वा । णेव विसोहिट्ठाणा गो संजम -- लझूिठाणा वा ॥ ५४ ॥ शेब य जीववाणा रण गुणट्ठाणा य अस्थि जीवस्म | जेण दु एदे मवे पुग्गलदव्वस्त परिणामा ।। ५५ ॥ इस जीव के न तो वर्ग है, नमार्गणा है, न स्पर्धक है, न अध्यवसाय स्थान है, न अनुभाग स्थान है। जीव के न योगस्थान है.
SR No.090249
Book TitleKashaypahud Sutra
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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