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( १७ ) में बंधस्थान है, न उदयस्थान है, न मार्गणा स्थान है, न स्थितिबंध स्थान है, न संक्लेश स्थान है, न विशुद्धिस्थान है, न संयमलब्धि स्थान है। जीव के न जीवस्थान है, न गुणस्थान है, कारण ये सब पुद्गल के परिणाम हैं।
विवेक पथ-यह है परिशुद्ध पारमार्थिक दृष्टि । मुमुक्षु आत्मा पकान्त पक्ष का परित्याग कर व्यवहार दृष्टि को भी दृष्टिगोचर रखता है। यदि व्यवहार का सर्वथा परित्याग कर एकान्तरूप से निश्चय इष्ट्रि को अपनाया जाय, तो वह जीय मोक्ष मार्ग के विषय में अकर्मण्य बनकर म्वच्छन्द आचार द्वारा पाप का प्राश्रय लेगा तथा उसके विपाकवश दुःखपूर्ण पर्यायों में जाकर यह वर्णनातीत व्यथा का अनुभव करेगा।
पंचास्तिकाय की दीका में (गाथा १७२ ) अमृतचन्द्र सुरि लिखते हैं-"जो एकान्त से निश्चयनय का लालबन लेते हुए रागादि विकल्पों से रहित परमसमाधिरूप शुद्धात्मा का लाभ न पाते हुए भी तपस्वी के आचरणयोग्य सामायिकादि छह श्रावश्यक क्रिया के पालन का तथा श्रावक के आचरण के योग्य दान, पूजा आदि का बण्डन करते हैं, ये निश्चय नीदिशाबहार बोकानों से विहीं सांगेले अपहरिराजय तथा व्यवहार याचरण के योग्य अवस्था से भिन्न कोई अवस्था को न जानते हुए पाप को ही बांधते हैं। * प्रमाद का प्राश्रय लेने वाला निश्वयाभार वात्मा का विकास न करता हुश्रा पतन अवस्था को प्राप्त करता है तथा ! व्यवहाराभासी पुण्याचरम द्वारा स्वर्ग जाता है । विवेकी साधक समन्वय । के पथ को स्वीकार करता हुया कहता है :
यवहारेण दु एदे जीवस्म हवंति वरणमादीया । गुण्ठाणता भाषा ण दु कई गिच्छयण यस्स ॥ ५६।।म.प्रा.॥
* "येपि केवलनिश्चयनयावर्लविनः संतोपि रागादि-विकल्परहित परमसमाधिरू शुद्धात्मानमलभमाना अपि तपोधनाघरणयोग्यं घडावश्यकारानुष्ठान श्रावकाचरणयोग्यं दानपूजाघनुष्ठानं च दृषयन्त, तेप्युभयभ्रष्टाः संतो निश्चय-व्यवहारानुष्ठानयोग्यावस्थान्तर-सपजानन्तःपापमेव बन्नति।" (पंचास्तिकाय टीका पृष्ठ ३६ ) यह भी कहा गया है- “ये केचन..." व्यवहारनयमेव मोक्षमागे मन्यन्ते तेन तु सुरलोकक्लेश-परंपरया मसार परिभ्रमंतीवि"-जो एकान्तवादी व्यवहारनय को ही मोक्षमार्ग स्वीकार करते हैं, वे देवलोक के कृत्रिम सुख रूप क्लेश परंपरा का अनुभव करते हुए संसार में भ्रमण करते हैं।