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________________ ये पणादि गुणस्थान पर्यन्त आव व्यवहारनय से जीव में पारे । जाते हैं। निश्चय नय की अपेक्षा वे जीव के भाव नहीं यायवान आशुविहिासागर जी महाराज हत्त्वज्ञान तरंगिणी में कहा है : व्यवहारेण विना केविकष्टाः केवलनिश्चयात् । निश्चयन विना केचित् केवलब्यवहारतः ॥ कोई लोग ध्यवहार का लोपकर निश्चय के एकान्त से विनाश को प्राप्त हुए और कोई निश्नय दृष्टि को भूलकर केवल उग्रवहार का प्राश्रय लेकर विनष्ट हुए। द्वाम्यां डग्म्या विना न स्यात् सभ्यग्द्रष्यावलोकनम् । यथा तथा नयाभ्यां चेत्युक्तं च स्याद्वादिभिः ॥ जैस दोनों नेत्रों के बिना सम्यक रूप से वस्तु का अवलोकन नहीं होता, उसी प्रकार दोनों नयों के चिमा भी यथार्थरूप में वस्तु का | पहण नहीं होता, ऐसा भगवान का कथन है। कषायपाहुड का प्रमेय- इस पंथ में मोहनीय कर्म के भेद कषाय पर विशेष प्रकाश डाला गया है। प्राचार्य नेमिचंद्र सिद्धान्त चक्रवर्ती ने फषाय के स्वरूप पर इस प्रकार प्रकाश डाला है-- सुहदुक्ख-सुबहुमस्स कम्मरखेनं कमेदि जीवस्म । संसाररमर तेमा फसानोत्ति णं ति ॥ २८२ ॥ गो. जी. जिस कारण सुख, दुःख रूप बहु प्रकार के तथा संसार कप सुदूर मर्यादा युक्त ज्ञानाघरमान रूप कर्म क्षेत्र (खत) का कषरण । हमा बादि के द्वारा जोसना आदि ) किया जाता है, इस कारण इसे कषाय कहते हैं। क्रोध, मान, माया तथा लोभ रूप संवक मिथ्यादर्शन आदि संग्लश भाव रूप बीज को प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश धंध नक्षा कर्मरूप खेत में बोता हा कालादि सामग्री को प्राप्त कर सम्त्र दुःख रूप बहुविध धान्यों को प्राप्त करता है। इस कर्म क्षेत्र की धनाटि अनंत पंच परावर्तन संसार रूप सीमा है। यहां कृषसीति कपाया। इस प्रकार निरुक्ति की गई है। इस ग्रंथ का प्रमेय कषाय के विषय में 'पेशदोस पाटुर' के अनुसार प्रतिपादन करना है।
SR No.090249
Book TitleKashaypahud Sutra
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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