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________________ ( १६ ) इस जीव के कर्मबन्ध होने में कषाय मुख्य कारण है । तस्वार्थसूत्र में ऋक्षा है - "सकषायत्वात् जीवः कर्मखो योग्यान पुद्गलान आदसे सबधः " - जीव कपाय सहित होने से कर्मरूप परिणत होने योग्य पुद्गलों को - कार्मास वर्गणाओं को ग्रहण करता है, उसे बंध कहते हैं। पाय की मुख्यता से होने वाले कर्मबंध के द्वारा यह जीव कष्ट भोगा करता है । जह भारवsो पूरिसो वह मरं गेहिऊस कावडियं । एमेव च जीवो कम्मभरं कायकावडियं ॥ गो. जी. २०१ जैसे कोई बोझा ढोने वाला पुरुष काँव को महरण कर श्रोम्मा ढोता है, इसी प्रकार यह जीव शरीर रूप कावड़ में कर्मभार को रखकर दया करता है । कर्म संबंधी मान्यताएं:- - इस कर्म सिद्धान्त का समादर सर्वत्र पाया जाता है; किन्तु जैन आगम में जिस प्रकार इसका प्रतिपादन किया गया है, वैसा अन्यत्र नहीं है । सामान्यतया 'क्रिया' को 'कर्म' संज्ञा प्रदान की जाती है। गीता में “योगः कर्मसु कौशलम्' - कर्म में कुशलता को योग कहा है। गीता श्रमिक में प्रासार) को राज माना गया है । इसी कारण वहां "कर्म ज्यायो अकर्मणः" अकर्मी बनने की अपेक्षा कर्मशीलता को अच्छा कहा है। ऐसी भी मान्यता है कि अयक्ति सत् अथवा असत् कार्य विशिष्ट संस्कारों को छोड़ जाता है; उम संस्कार से आगामी जीवन की क्रियाएं प्रभावित होती हैं। उसी संस्कार विशेष को कर्म कहा जाता है। इस संस्कार को कर्माशय, धर्म, अधर्म | अदृष्ट या दैव नाम से कह देते हैं । तुलसीदास ने कहा है : 7 तुलसी काया खेत हैं मनसा मयो किमान 1 पाप पुण्य दीड बीज हैं, चुवै सो लुनै निदान ॥ शुद्ध धर्म की दृष्टि कर्म के विषय में किस रूप में है. यह क्रुद्ध के इस आख्यान द्वारा अवगत होती है। कहते हैं, एक बार गौतम बुद्ध भिक्षार्थ किसी संपन्न किसान के यहां गये। उस कृषक ने उनसे कहा, "आप मेरे समान किमान बन जाइये । मेरे समान आपको धन-धान्य की प्राप्ति होगी। उससे आपको भिक्षा प्राप्ति हेट प्रयत्न नहीं करना पड़ेगा ।" बुद्धदेव ने कहा, "भाई। मैं भी तो किसान हूं। मेरा खेत मेरा हृदय है । उसमें मैं सत्कर्म रूपी बीज बोता हूं। विवेक रूपी हल चलाना हूं। मैं विकार तथा वासना रूपी घास की निंदाई करता हूँ तथा प्रेम और आनंद की अपार फसल काटता हूं ।
SR No.090249
Book TitleKashaypahud Sutra
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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