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ऐसी अद्भुत शक्ति युक्त कर्मराशि का क्षय अकर्मण्य बनकर "मैं स्वयं परमात्मा हूं” ऐसी बाद मात्र द्वारा नहीं होगा। इसके लिए धनादि तथा हट जनों का संपर्क त्यागकर बीतराग महामुनि की दीक्षा लेकर आगमको आज्ञानुसार रत्नत्रय धर्म को स्वीकार करना होगा। रत्नत्रय की सलवार के प्रचण्स प्रहार द्वारा कर्म सैन्य का सम्राट मोहनीय कर्म क्षय को प्राप्त होता है । वीरसेन आचार्य ने बेदना खण्ड के मंगलाचरण में लिखा है :
तिरयण-खग्ग विहारगुचारिय- मोह से रण- सिर- विहो । आइरिय-राउ पसिय परिवालिय-भविय-जिय-लोओ ||
जिन्होंने रत्नत्रयरूपी खड्ग के प्रहार से मोहरूपी सेना के शिरसमूह का नाश कर दिया है तथा भव्य जीव लोक का परिचालन किया है, वे आचार्य महाराजाकहोवें आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज
कर्मों के विविध प्रकार इस कर्म के ज्ञानावरण, दर्शनावरण वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्वराय ये आठ भेद हैं। ज्ञानावरण के पांच, दर्शनावरण के है, वेदनीय के दो, मोहनीय के अट्ठाईस आयु के चार नाम के तेरानये, गोत्र के दो तथा अंतराय के पांच ये सब मिलकर (१ भेद होते हैं। इनको फर्म प्रकृति नाम से कहा जाता है । शब्द की दृष्टि से कर्म के असंख्यात भेद हैं। अनंतानंवात्मक स्कन्धों के परिमन की अपेक्षा कर्म के अनंत भेद हैं। ज्ञानावरणादि के अविभागी प्रतिच्छेदों की अपेक्षा भी अनंत भेद कहे गए हैं।
कर्म के अंध, उत्कर्षण, संक्रमण, अपकर्षण, उदीरणा, सत्व, उश्य, पशु, निवृत्ति तथा निकोचना रूप देश भेड़ कहे गये हैं ।
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"कम्मास संबंधो धो" मिध्यात्वादि परिणामों से पुद्गल द्रव्य ज्ञानावरण आदिरूप से परिणत होता है, तथा ज्ञानादि गुणों का आवरण करता है इत्यादि रूप कर्म का संबंध होना बंध है । "स्थित्यनुभागयोः बृद्धिः नत्कर्षां" स्थिति और अनुभाग की वृद्धि उत्कर्ष है । "परकृतिरूप परिणमन संक्रमणं”-अन्य प्रकृतिरूप परिणमन को संक्रमण कहते हैं । 'स्थिस्यनुमागयो हनिरपकर्ष नाम " - स्थिति और अनुभाग की हानि की अपकर्षर कहते हैं । "उदयावनि बाह्यस्थित द्रव्यस्यापकर्षण-वशादुदयावल्यां निच्चे परममुदीरणा खलु” – उदयावली बाझ स्थित द्रव्य को अपकषस के वश में उदयावली में निक्षेपण करना उदीरणा है । ' अस्तित्वं वस्त्र' - कर्मों के अस्तित्व को सत्य कहा है। "स्वस्थितिं प्राप्तमुदयो भवति" - कर्म का
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