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________________ ( २०८ ) ऐसा करने पर जो असंख्यातवां भाग शेष रहता है, वह उस प्रथम निषेक के प्रदेशाग्र से अधिक है। शुक: अचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज उद्यादि यो हिदायो पिरतरं तौसु होइ गुणसेढी। उदयादि-पदेसग्गं गुरणेण गणणादियंतेण ॥१७६॥ - उदय काल से आदि लेकर प्रथम स्थिति सम्बन्धी जितनी स्थितियां हैं, उनमें निरंतर गुणश्रेणी होती है। उदय काल से लेकर उत्तरोत्तर समयवती स्थितियों में प्रदेशाग्र गणना के अन्त अर्थात, असंख्यात गुणे हैं। विशेष-उदय स्थिति में प्रदेशाग्न अल्प हैं। द्वितीय स्थिति में प्रदेशाग्र असंख्यातगुणित हैं । इस प्रकार संपूर्ण प्रथम स्थिति में उत्तरोत्तर असंख्यातगुणित प्रदेशाग्न जानना चाहिये । "उदयद्विदिपदेसग्गं थोवं । बिदियाए द्विदीए पदेसग्गमसंखेज्जगुणं । एवं सब्बिस्से पढमहिदीए" (पृ. २०९८ ) उदयादिसु ट्ठिदीसु य ज कम्मणियमसादु तं हरस्स। पविसदि विदिक्खएदु गुरणेण गणणादियंतेण ॥१८०॥ __उदय को आदि लेकर यथाक्रम से अवस्थित प्रथम स्थिति की अवयवस्थितियों में जो कमरुप द्रव्य है, वह नियम से प्रागे आगे ह्रस्व ( न्यूच ) है। उपस्थिति से ऊपर अनंतर स्थिति में जा प्रदेशाग्न स्थिति के क्षय से प्रवेश करते हैं, वे असंख्यात गुणो रुप से प्रवेश करते हैं। । विशेष-जो प्रदेशाग्र वर्तमान समय में उदय को प्राप्त होता है, वह अल्प है। जो प्रदेशाग्र स्थिति के क्षय से अनतर समय में उदय को प्राप्त होगा, वह असंख्यातगुणा है । इस प्रकार सर्वत्र जानना चाहिए । ( २१०० ) वेदगकालो किट्ठीय पच्छिमाए दुणियमसा हरस्सो। संखेज्जदिभागेण दु सेसग्गाणं कमेणऽधिगो ॥१८॥
SR No.090249
Book TitleKashaypahud Sutra
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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