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________________ मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविद्यिासागर जी महाराज ( २०७ ) उपस्थित प्रथम समय में कृष्टिषेदक के मोह का स्थिति सत्व चार वर्ष है। माया के उदय के साथ उपस्थित प्रथम समय कृष्टिवेदक के मोह का स्थिति सत्व दो वर्ष है। लोभ के उदयके साथ उपस्थित प्रथम समय कृष्टिवेदक के मोहका स्थिति सत्व एक वर्ष है। ( २०९४) जं किटिं वेदयदे जत्रमझ सांतरं दुसु दिदीसु । पहमा जं गुणलेढी उत्तरसेढी य बिदिया दु॥१७७|| जिस कृष्टि को वेदन करता है, उसमें प्रदेशाग्र का अवस्थान यवमध्य रुप से होता है तथा वह यवमध्य प्रथम और द्वितीय इन दोनों स्थितियों में वर्तमान होकर भी अन्तर स्थितियों से अंतरित होने के कारण सांतर है। जो प्रथम स्थिति है, वह गुणश्रेणी रुप है तथा द्वितीय स्थिति उत्तर श्रेणी रुप है। विशेष—जिस कृष्टि को वेदन करता है, उसकी उदय स्थिति में अल्ला प्रदेशान हैं। द्वितीय स्थिति में प्रदेशाम असंख्यातगुणे हैं । इस प्रकार असंख्यातगुणित क्रम से प्रदेशाग्र प्रयम स्थिति के चरम समय तक बढ़ते हुए पाए जाते हैं। तदनंतर द्वितीय स्थिति की जो आदि स्थिति है. उसमें प्रदेशाग्न असंख्यातगुणित हैं। तदनंतर सर्वत्र विशेष होन क्रम से प्रदेशाग्र विद्यमान हैं । यह प्रदेशों की रचना रुम यवमध्य प्रथम स्थिति के चरम स्थिति में द्वितीय स्थिति के आदि स्थिति में पाया जाता है । वह यह यवमध्य दोनों स्थितियों के अंतिम और प्रारंभिक समयों में वर्तमान होने से सांतर है । ( २०९६) विदियटिदि-आदिपदा सुद्ध पुण होदि उत्तरपदं तु । सेसो असंखेज्जदिमो भागो तिस्से पदेसग्गे ॥१७॥ द्वितीय स्थिति के आदिपद (प्रथम निषेक के प्रदेशाग्र ) में से उसके उत्तरपद ( चरम निषेक के प्रदेशाग्र ) को घटाना चाहिए ।
SR No.090249
Book TitleKashaypahud Sutra
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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