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________________ ( २०६ ) विशेष---मान कषाय का उत्तरपद अर्थात् चरम कृष्टि का प्रदेशाग्न मानकी प्रादि वर्गपणा में से घटाना चाहिये । जो शेष अनंतवां भाग रहता है, वह नियम से मानकी जघन्य वर्गणा के प्रदेशाग्न से अधिक है। इसी प्रकार माया संज्वलन और लोभ संज्वलन का उत्तरपद उनको श्रादि वर्गणा में से घटाना चाहिये । जो शेष अनंतवां भाग बचे, वह नियम से उनको जघन्य वर्गणा के प्रदेशाग्र से अधिक है। पढमा च अतगुणा विदियादोरिणयमसा हि अणुभागो। तदियादोपुरण बिदियाकमेणसेसा गुरणेणऽहिया ॥१७५।। 1 अनुभाग की अपेक्षा क्रोध संज्वलन की द्वितीय कृष्टि से प्रथम कृष्टिबाणित होनातीय मुनियोगद्वतीयम्हाकाष्ट अनंत गुणी है। इसी प्रकार मान, माया और लोभ की तीनों तीनों कृष्टियां तृतीय से द्वितीय और द्वितीय से प्रथम अनंतगुणी जानना चाहिये। विशेष--संग्रह कृष्टि की अपेक्षा क्रोध की तीसरी कृष्टि में अनुभाग अल्प है। द्वितीय में अनुभाग अनंतगुणा है । प्रथम में अनुभाग अनंतगुणा है। इसी प्रकार “एवं माण-माया-लोभाणं पि". मान, माया लोभ में जानना चाहिए । ( २०९२) पढमसमयकिहीणं कालो वस्सं व दो व चत्तारि । अट्ट च वस्ताणि द्विदी बिदियविदीए समा होदि ॥१७६॥ प्रथम समय में कष्टियों का स्थिति काल एक वर्ष, दो वर्ष, चार वर्ष, और पाठ वर्ष है : द्वितीय स्थिति और अन्तर स्थितियों के साथ प्रथम स्थिति का यह काल कहा है। 4 विशेष--यदि क्रोध संज्वलन के उदय के साथ उपस्थित हुआ कृष्टियों का वेदन करता है, तो उसके प्रथम समय में कष्टि वेदक के मोहनीय का स्थिति सत्व पाठ वर्ष है । मान के उदय के साथ
SR No.090249
Book TitleKashaypahud Sutra
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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