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मकर होता है। पूर्ववद्ध पापराशि प्रलय को प्राप्त होती है। इस प्रकार दान पूजादि द्वारा पुण्य के बंध के साथ संवर तथा निर्जरा का भी लाभ होता है।
समाधिशतक में पूज्यपाद स्वामी का यह मार्गदर्शन महत्वपूर्स
अनतानि परित्यज्य तेषु परिनिष्ठितः । ..
गार्गदर्शक:- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज त्यजेत्तानपि संप्राप्य परमं पदमास्मनः ॥४॥
सर्व प्रथम प्राणातिपात,अदत्तादान,असत्य-संभाषण,कुशील-सेवन परिग्रह की आसक्ति रूष पाप के कारण अत्रता को त्यागकर अहिंसा अचौर्य, सत्य, ब्रह्मचर्य सथा अपरिग्रह रूप व्रतों में पूर्णता प्राप्त करनी चाहिए । अवों के परिपालन में उच्च स्थिति होने के अनंतर श्रात्मा के निर्विकल्प स्वरूप में लीन हो परम समाधि को प्राप्त करता हुआ महा मुनि उन विकल्प रूप व्रतों को छोड़कर आत्मा के परम पद को प्राप्त करें। यह भी स्पष्ट है कि व्रतों के द्वारा पुण्य अंध होता है तथा अवतों से पाप का बध होता है। यदि गृहस्थ ने पुण्य के साधन प्रतों का श्राश्रय नहीं लिया, तो वह पाप के द्वारा पशु तथा नरक पर्याय में जाकर कष्ट पायगा। मनुष्य की सार्थकता प्रतों का यथाशक्ति परिपालन करने में है । धर्म ध्यान का शरम ग्रहण करना इस काल में श्रावकों तथा श्रमों का परम कनेव्य है । दुःपमा काल में शुक्लध्याम का अभाव है।
शंझा-बंध का कारण अज्ञान है । अतः मुमुक्षु को ज्ञान के पथ में प्रवृत्त होना चाहिए। व्रत पालन का कष्ट उठाना अनावश्यक है। अमृतचंद्रसूरि ने अज्ञान को बंध का कारण कहा है :--
अज्ञानात् मृगतृष्णिको जलधिया धावन्ति पातुं मृगाः। अज्ञानात्तमसि द्रवन्ति भुजगाध्यासेन रज्जो जनाः । अज्ञानाच्च विकल्पचक्र-करणाद्वातोत्तरंगाधिवत् । शुद्धज्ञानमया अपि स्वयममी की भवन्त्याकुलाः ।।५८।।
अजान के कारण मृगतृष्णा में जल की भ्रान्ति यश मृगगम पानी पौने को दौड़ा करते हैं। अज्ञान के कारस मनुष्य रस्मी में सर्प वश भागते हैं। जैसे पवन के वेग से समुद्र में लहरें उत्पन्न होती हैं, उसी प्रकार अज्ञानवश विविध विकल्पों को करते हुए स्वयं शुद्धज्ञानमय होते हुए भी अपने को कत्तो मानकर ये प्राणी दुःखी होत है।