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________________ श्री चंद्रभु दिन पाळणाला ( १६३ ) खामगांडणा महाराज विशेष – चारित्र मोहकी उपशामना में उपक्रम परिभाषा पहले प्ररूपणीय है । " उपक्रमणमुपक्रमः समीपीकरणं प्रारंभ इत्यनर्थान्तरं, तस्य परिभाषा उपक्रम - परिभाषा " - उपक्रम का अर्थ समीप करना अथवा प्रारंभ ले उसकी परिभाषा आचार्य श्री सुवासक्रम जी परि भाषा है | वह ( १ ) अनंतानुबंधी विसंयोजना ( २ ) दर्शनमोहोपशमना के भेद से दो प्रकार है । इनमें अनुतानुबंधी की विसंयोजना पूर्व में प्ररूपण करने योग्य है, क्योंकि अट्ठाईस प्रकृतियों के सत्व युक्त वेदक सम्यक्त्वी संयत जब तक प्रनतानुबंधी क्रोध मान, माया तथा लोभ को विसंयोजना नहीं कर लेता है, तब तक वह कषायों के उपराम को प्रारम्भ नहीं करता है । प्रश्न ---इसका क्या कारण है ? समाधान -- "ते सिम विसंजोयणाए तस्य उवसमसेढिचढणाप्रोग्गभावासंभवादो" - अनंतानुबंधी की विसंयोजना किए बिना वह संयमी उपशम श्रेणी पर नहीं चढ़ सकता है। चूर्णिसूत्र में कहा है "सो ताव पुव्वमेव प्रणंतानुबंधी विसंजोएंतरस जाणि करणाणि ताणि सव्वाणि परुवेयव्वाणि" ( १८१० ) - वह संयत पूर्व ही अनंतानुबंध की विसंयोजना करता है । अतः अनंतानुबंधी के विसंयोजक के जो करण हैं, वे सभी प्ररूपणीय हैं । प्रश्न - - करण - परिणामों का कथन क्यों आवश्यक है ? समाधान - "करणपरिणामेहि विणा तव्त्रिसंजोयणाणुवत्तीदो"करण परिणामों के प्रभाव में विसंयोजना को उपपत्ति नहीं है । वे करण (१) अधःप्रवृत्तकरण (२) अपूर्वकरण ( ३ ) ग्रनिवृत्तिकरण के भेद से तीन प्रकार हैं । इनके द्वारा श्रतानुबंधी कषाय की विसंयोजना होती है । अधःप्रवृत्तकरण में प्रति समय अनंतगुणी विशुद्धि होती है किन्तु वहां स्थितिघात [ अनुभागघात ] गुणश्रेणी अथवा [ गुण
SR No.090249
Book TitleKashaypahud Sutra
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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