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________________ ( १६४ ) संक्रमण ] नहीं होते। अपूर्वकरण में स्थितिघात, अनुभागघात, गुणश्रेणी तथा गुणसंक्रमण पाए जाते हैं। ये अनिवृत्तिकरण में भी पाये जाते हैं। वहां अन्तरकरण नहीं पाया जाता है। दर्शनमोह की उपशामना में अनिवृत्तिकरण में अन्तरकरण नहीं पाया जाता है, उसप्रकार यहां चरित्रमोह की उपशामना में अनिवृत्तिकरण में अन्तरकरण नहीं पाया जाता है । "जहा बुण दंसणमोहोवसामणाए प्रणिथट्टिकरणम्मि अन्तरकरणमस्थि किमेवमेत्थ वि संभवो आहो णत्थि त्ति प्रासंकाए णिराकरणमंतरकरणं णत्यि ति पदुप्पाइदं ।" (१८११) मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज __अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया तथा लोभ का विसंयोजन होने पर अन्तर्महुर्त पर्यन्त अधःप्रवृत्तसंयत रहता है। उस समय वह स्वस्थानसंयत ( सत्थाण संजदो ) रहता है । संक्लेश तथा विशुद्धि के वशसे प्रमत्त तथा अप्रमत्त गुणस्थानों में परिवर्तन करता हुआ करण की विशुद्धि के फलस्वरूप असाता वेदनीय, अरति, शोक, अयशस्कीति आदि प्रकृतियों का प्रबंधक होता है तथा संक्लेश परिणामों के कारण वह असातावेदनीय, अरति, शोक, अयशस्कोति तथा आदि पद से सूचित अस्थिर और अशुभ इन छह प्रकृतियों का बंधक हो जाता है। "तदो अंतोमुहुत्तेण दसणमोहणीयमुवसामदि।" इसके बाद एक अंतर्मुहुर्त के द्वारा दर्शन मोह का उपशमन करता है । दर्शनमोह के उपशामक के करण कहे गए हैं । वे यहां भी होते हैं। यहां पर दर्शनमोह की उपशामना के समान स्थितिघात, अनुभागघात एवं गुणश्रेणी हैं । गुणसंक्रमण नहीं होता है । अपूर्वकरण के प्रथम समय में जो स्थिति सत्व होता है, वह उसके चरिम समय में संख्यातगुणहीन होता है । इसी प्रकार अनिवृत्तिकरण के प्रथम समय में जो स्थिति-सत्व होता है, वह उससे अंतिम समय में संख्यातगुणित हीन हो जाता है । दर्शनमोह के उपशामक के अनिवृत्तिकरण काल के संख्यात
SR No.090249
Book TitleKashaypahud Sutra
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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