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( १६५ ) भागों के बीतने पर सम्यक्त्व प्रकृति के असंख्यात समयप्रवद्धों को उदीरणा होती है । "अंतोमुहत्तण दसणमोहणीयस्स अंतरं करेदि"तदनंतर एक अंतर्मुहूर्तकाल में दर्शनमोहनीय का अंतर करता है ।
सम्यक्त्व प्रकृति की प्रथम स्थिति के क्षीण होने पर जो मिथ्यात्व का प्रदेशाग्र शेष रहता है, उसका सम्यक्त्व प्रकृति तथा सम्यग्मिथ्यात्व में गुणसंक्रमण द्वारा संक्रमण नहीं करता है। उसके विध्यात संक्रमण होता है । प्रथमवार सम्यक्त्व को उत्पन्न करने वाले जीव का जो गुणसंक्रमण से पूर्णकाल है, उससे संख्यातगुणित काल पर्यन्त यह उपशान्त-दर्शन-मोहनीय जीव विशुद्धि से बढ़ता है। इसके पश्चात् स्वस्थान में पतित उस जीव के संक्लेरा तथा विशुद्धिवश कभी हानि, कभी विशुद्धि तथा कभी अवस्थितपना पाया जाता है । वही जोव असाता, अरति, शोक, अयशःकीति, अस्विसिक्तिथा प्रभित्री कृषिधिसहस्रोंजी काहाज बंध परावर्तन करता है। वह हजारों बार प्रमत, अप्रमत्त होता है। वह कषायों के उपशमन हेतु उद्यत होता है । उसके लिए प्रादि करण रुप परिणाम को अधःप्रवृत्त कहते हैं- "कषायानुपशमयितु मुद्यतस्तस्य कृत्ये, तस्य कृते आद्यं करणपरिणाममधः प्रवृत्त-संज्ञमय कृताशेषपरिकरकरणीयः परिणमत इत्यर्थः" ( १८१६ ) ___जो कर्म अनंतानुबंधी के विसंयोजन करने वाले के द्वारा नष्ट किया गया, वह 'हत' कहलाता है तथा जो दर्शन मोहनीय के उपशमन करने वाले के द्वारा नष्ट किया जाता है, वह कर्म उपरि-हत कहा जाता है।
कषायों का उपशमन करने वाले जीव के जो अधःप्रवृत्तकरण होता है, उसमें स्थितिघात, अनुभागघात तथा गुणश्रेणी नहीं होती हैं । वह अनंतगुणित विशुद्धि से प्रति समय बढ़ता है ।
अपूर्वकरण के प्रथम समय में ये स्थिति कांडक श्रादि प्राव