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श्यक कार्य होते हैं। जो क्षीण दर्शन-मोह व्यक्ति कषायों का उपशामक होता है, उसके कषाय- उपशामना के अपूर्वकरण काल में प्रथम स्थितिकांडक का प्रमाण नियम से पल्योपमका संख्यातवां भाग होता है। स्थितिबंध के द्वारा जो अपसरण करता है, वह भी पल्योपम का संख्यातबांभाग होता है।
-..... मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सविधिसागर जी महाराज
प्रनता
बहभाग प्रमाण
कमी व
प्रना
है। उस समय स्थितिसत्व अंतःकोडाकोडी सागरोपम है । गुण श्रेणी को अंतर्मुहुर्त मात्र निक्षिप्त करता है । इसके पश्चात् अनुभाग कांडक पृथक्त्व के व्यतीत होने पर दूसरा अनुभाग कोडक, प्रथम स्थिति कांडक और अपूर्वकरणका प्रथम स्थितिबंध ये एक साथ निष्पन्न होते हैं । स्थिति कांडक पृथक्त्व के व्यतीत होने पर निद्रा तथा प्रचला की बंधव्युच्छिति होती है। अंतर्मुहुर्त काल व्यतीत होने पर पर-भव संबंधी मामकर्म की प्रकृतियों को बंध व्युच्छिति होती है।
अपूर्वकरण काल के अंतिम समय में स्थिति कांडक, अनुभाग कांडक एवं स्थितिबंध एक साथ निष्पन्न होते हैं । इसी समय में हास्य, रति, भय और जुगुप्सा इन चार प्रकृतियों की बंध व्यच्छित्ति होती है। वहां ही हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा इन की उदय व्युच्छित्ति होती है।
इसके अनन्तर समय में वह प्रथम समयवर्ती अनिवृत्तिकरण संयत होता है । उस समय अप्रशस्तोपशामनाकरण, निधत्तीकरण और निकाचनाकरेण एक साथ व्युच्छिन्न होते हैं । "तिस्से चेव अणियट्टिप्रद्धाए पढमसमए अप्पसत्थउवसामणाकरणं णिवत्तीकरणं णिकाचनाकरणं च वोच्छिण्णाणि " ( १८२३ ) ।
जो कम उत्कर्षण, अपकर्षण, तथा पर-प्रकृति संक्रमण के योग्य होते हुए भी उदय स्थिति में अपकषित करने के लिए