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________________ ( १४० ) सम्यग्दृष्टि, क्षायिक सम्यक्त्वी, उपशम सम्यक्त्वी तथा सासादन मार्गदर्शक्सम्यस्यीशम महाशिलाबी हाराज विशेप-सम्यक्त्वमिथ्यात्व प्रकृति तथा सम्यक्त्वप्रकृति की बंध प्रकृतियों में गणना नहीं की जाती है । इससे मिश्रगुणस्थानवर्ती मिश्र प्रकृति का बंध नहीं करता है तथा बेदक सम्यक्त्वी सम्यक्त्व प्रकृति का बंध नहीं करता है। सम्यक्त्व प्रकृति तथा मिश्र प्रकृति की उदय प्रकृति में गणना की गई है । प्रथमोरशम सम्यक्त्व प्राप्त होने पर वह जीव मिथ्यात्व को तीन रूप में विभक्त करता है। मिथ्यात्व, सामथ्यात्व और सम्यक्त्व ये स्वरूप उस मिथ्यात्व कर्म के हो जाते हैं । जिस प्रकार यंत्र के द्वारा दला गया कोदों तीन रूप होता है । कोदों को दले जाने पर कुछ भाग तो मादकता पूर्ण कोदों के रूप में रहता है । कुछ भाग में कम मादकता रहती हैं । भुसी सदृश अंश अल्प मादकता सहित होता है। १ अंतोमुत्तमद्धं सव्वोवसमेण होइ उत्रसंतो । तत्तो परमुदयो खलु तिण्णेक्कदरस्स कम्मस्स ॥१०३।। उपशम सम्यकत्वी के दर्शन मोहनीय कर्म अन्तर्मुहूर्त काल पर्यन्त सर्वोपशम से उपशान्त रहता है। अन्तर्मुहुर्त काल बीतने पर मिथ्यात्व, मिश्र अथवा सम्यक्त्व रूप अन्यतर प्रकृति का उदय हो जाता है। विशेष—'सर्वोपशम' का भाव यह है, कि मिथ्यात्वादि तीनों प्रकृतियों का प्रकृति, स्थिति, अनुभाग तथा प्रदेश संबंधी उपशांतपना पाया जाता हैं। "सब्वोत्रसमेणे ति बुत्ते सव्वेसि दसणमोहणीयकम्मापामुवसमेणेत्ति घेत्तत्वं, मिच्छत्त-सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं तिण्हंपि कम्माणं पयडि-द्विदि-अणुभाग-पदेसविहत्ताणमेत्युवसंतभावे. णावट्ठाणदंसणादो (१७३३) (१) जंतेण कोद्दवं वा पढमुवसम-सम्मभाव-जंतेण । मिच्छ दव्वं तु तिधा असंखगुणहीणदव्धकमा ॥गो० ० २६॥
SR No.090249
Book TitleKashaypahud Sutra
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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