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________________ एनके सिवाय शेष श्रेपन विचरण गाथाओं के विषय में यह बात ज्ञातव्य है, कि १२ संबंध गाथाएँ, बद्धा परिणाम संबंधी ६ तथा प्रकृति संक्रम वृत्ति विषयक ३५ गाथाएं मिलकर त्रेपन गाथा होती हैं। उनमें १८० का योग होने पर दो सौ तेत्तीस गाथाओं की संख्या निष्पन्न होती है । मार्गदर्शक :- आधा तसागरमाकडालवार्य यद्यपि सविधभर्यों से विमुक्त थे, किन्तु जिनेन्द्र शासन के लोप के भय से प्रेरित हो उन्होंने कषायपाहुड सूत्र की रचना का कार्य संपन्न किया। उनकी आत्मा वीतरागवा के अमृत रस से परिपूर्ण थी, तथा उनका इदय प्रवचन वत्सलता की भावना से समलंकृत था। तत्वार्थराजवार्तिक में प्राचार्य श्री अकलंकदेव ने कहा है: “यथा धेनुर्वत्सेऽकृत्रिमस्नेहमुत्पादति तथा सघर्माणमवलोक्य तद्गत-स्नेहाद्रीकृत-चित्तता प्रवचन वत्सतस्त्रमुच्यते । यः सधरिस स्नेहः स एव प्रवचन-स्नेहः" (पृ० २६५, १०६, सूत्र २५)जिस प्रकार माय अपने बछड़े पर अकृत्रिम स्नेह को घारण करती है, उसी प्रकार साधमियों को देखकर उनके विषय में स्नेह से द्रवीभूत चित्त का होना प्रवचनवत्सलत्व है। जो साधर्मी बंधुओं में स्नेह भाव है, वह प्रवचन घस्सलपना अथवा प्रवचन के प्रति स्नेह है। महापुराण में लिखा है, कि भगवान ऋषभनाथ के जीव वचनाभि ने अपने पिता वनसेन तीर्थकर के पादमूल में सोलह कारण भावना भायी थीं। उनमें प्रवचन वत्सलसा भी थी। उसका स्वरूप इस प्रकार कहा गया है : वात्सल्यमधिकं चक्रे स मुनि धर्मवत्सलः । विनेयान स्थापयन् धर्मे जिन--प्रवचनाश्रितान् ॥ ११,७७ ।। धर्म यत्सल उन वनाभि मुनिराज ने जिनेन्द्र के प्रवचन का आश्रय लेने वाले शिष्यों को धर्म में स्थापित करते हुए महान वात्सल्यमाव धारण किया । इस प्रवचन वात्सल्य भावना से प्रवचनभक्ति नाम की भावना भिन्न है। उसका स्वरूप इस प्रकार कहा है : परी प्रवचने भक्ति प्राप्तोपन ततान सः । न पारयति रागादीन् विजेतुं संततानसः ।। ११-७४ ।। यह सर्वज्ञ प्ररूपित जिनागम में अपनी उत्कृष्ट भक्ति धारण करता था, क्योंकि जो व्यक्ति शास्त्र की भक्ति से शून्य रहता है, वह
SR No.090249
Book TitleKashaypahud Sutra
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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