________________
( १२३ )
से हर्ष भाव वर्धमान हो जाता है, इस कारण अनंतगुणी विशुद्धि कही गई है। "वं पि अंतोमुहुत्तप्पहूडि अनंतगुणाए विसोहोए विसुज्झमाणो प्रागदो"
योग की विभाषा में कहा है “अण्णदर-मणजोगो वा प्रण्णदरयचिजोगो वा श्रोरालियमकार्यवधिसागर जी महाराज अन्यतर मनयोगी वा वचनयोगी वा श्रदारिक काययोगी वा वैक्तिक काययोगी जीव दर्शन-मोह का उपशमन प्रारंभ करता है । चार मनयोग, चार वचन योग में कोई भी मनयोग या वचनयोग हो सकता है किन्तु सप्तप्रकार के काययोगों में प्रौदारिक तथा वैक्रियिक काययोगों के सिवाय अन्य योगों का यहां प्रसद्भाव है " कायजोगी पुण श्रोरालिय- कायजोगो वे उब्वियकायजोगो वा होइ ग्रसिमिहासंभवादो" । उपरोक्त दशविधि योगों से परिणन जीव प्रथम सम्यक्त्व के उत्पादन के योग्य होता है । "एदेसि दसण्ह पज्जत्त - जोगाणामण्णदरेण जोगेण परिणदो पढमसम्मत्तव्यायणस्स जोगो होइ, पण सेसजोग-परिणदो त्ति एसो एत्थ सुत्तत्यपिण्ण" ।
कषाय के विषय में विभाषा करते हुए कहते हैं "प्रष्णदरों कसाओ " - दर्शन मोह के उपशामक के कषायचतुष्टय में कोई भी कषाय का सद्भाव पाया जाता है किन्तु यह विशेष बात है कि वह कषाय 'णियमा हायमाण- कषायो' - हीयमान अर्थात् मन्द कषाय रहती है ।
"
आत्मा का अर्थग्रहण का परिणाम उपयोग है " उपर्युक्ते श्रने नेत्युपयोगः श्रात्मनोऽर्यग्रहण - परिणाम इत्यर्थः " ( १९९६) । वह दो प्रकार है । साकार ग्रहण ज्ञानोपयोग है । निराकार ग्रहण दर्शनोपयोग है । सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के अभिमुख जीब के "शियमा सागारुवजोगो - नियमसे साकार उपयोग अर्थात् ज्ञानोपयोग होता हैं । दर्शनोपयोग उस समय नहीं होता है । कुमति, कुश्रुत तथा विभंगज्ञान अर्थात् कुप्रवधिज्ञान से परिणत जीव प्रथम सम्यक्त्व