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________________ ( १२४ ) की प्राप्ति कार्य में प्रवृत्त होता है "मदसुद-अण्णाणेहि विहंगणाणेण वा परिणदो होदूण एसो। पढमसम्मत्त प्यायणं पडि पयट्टइत्तिमिद्ध।" लेश्या के विषय में यह विभाषा है । "तेउ-पम्म-सुक्कलेस्लाणं णियमा वड्ढमाणलेस्सा" तेज, पद्म और शुक्ल लेश्या वाला वर्धमान लेश्या की स्थिति में ही प्रथम सम्यक्त्व को प्राप्त करता है। "एदेण किण्हणील-काउ-लेस्साणं हायमाणतेउ-पम्म सुक्कलेरमाणं च पडिसेहो को दट्टब्बो"-इससे कृष्ण, नील, कपोत लेश्या नों का तथा हीयमान तेज, पम तथा शुक्ल लेश्‍वाओं का प्रतिषेध किया गया है यह जानना चाहिये । नारकी जीवों में सम्यक्त्व को उत्पत्तिकाल में अशुभत्रिक लेश्याओं का सद्भाव पाया जाता है । अमादक NTS प्रसाशतिनों ही अपेक्षा किया गया है। उनके सम्यक्त्व उत्पत्ति काल में शुभत्रिक लेश्यानों के सिवाय अन्य लेश्यारों का अभाव है | "तिरिक्ख-मणुरसे प्रस्मियूणेदस्स सुत्तस्स पयट्टत्तादो। पा च तिरिक्ख-मणुस्सेसु सम्मत पडिवज्जमाणेसु सुहृतिलेस्सायो मोत्तणण्णलेस्साणं संभवो अस्थि" (१६९७)। स्त्रीवेदी तथा पुरुषवेदी कोई भी वेद वाला दर्शनमोह का उपशामक होता है। यहां 'दब्व-भावेहि तिव्हं वेदाणमण्णदरपज्जारण विसेसियस्स' द्रव्य तथा भाव रूप तीनों वेदों में से अन्यतर वेद बाले का ग्रहण किया गया है । कारिण वा पुव्वबद्धाणि के वा असे गिबंधदि । कदिपावलियं पविसति कदि रहवा पवेसगो ॥२॥ - दर्शनमोह का उपशम करने वाले के कौन कौन कर्म पूर्वबद्ध हैं तथा वर्तमान में कौन कौन कर्मों को बांधता है ? कौन कौन प्रकृतियां उदयावली में प्रवेश करती हैं तथा कौन कौन प्रतियों का यह प्रवेशक है अर्थात्, किन किन प्रवृतियों को यह उदीरणा कराता है ?
SR No.090249
Book TitleKashaypahud Sutra
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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