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विशेष - 'काणि वा पुम्दबद्धाणि' इस पद की विभाषा में कहते हैं । "एत्थ पर्याडिसतकम्मं द्विदिसतक्रम्मं प्रणभागसंतकम्म पदेससंतकम्मं च माग्गियन्वं" यहां प्रकृति सत्कर्म, स्थिति सत्कर्म, अनुभाग सत्कर्म तथा प्रकाशगंगा सुविधिस पहाराज
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प्रकृति सत्कर्म को अपेक्षा आठों कर्मों का सद्भाव पाया जाता है। उत्तर प्रकृति की अपेक्षा इन प्रकृतियों की नत्ता है। पंच ज्ञानावरण, नव दर्शनावरण, दो वेदनीय, मिथ्यास्त्र सोलह काय नवनोकषाय इस प्रकार छब्बीस प्रकृतियों की मत्ता अनादि मिथ्यादृष्टि के होती है। सादि मिध्यादृष्ठि के छब्बीस, सत्ताईय श्रथवा अट्ठाईस की सत्ता होती है । प्रायु कर्म की श्रद्धायुष्क के एक भुज्यमान आयु की तथा बद्धायुष्क के भुज्यमान तथा एक बध्यमान श्रायु की अपेक्षा दो प्रकृति कही हैं । नामकर्म को इन प्रकृतियों की सत्ता कही है। चारगति पांच जाति, प्रौदारिक, वैक्रियिक, तैजस, कार्माणि ये चार शरीर, उनके बंवन तथा वात छहसंस्थान, औदारिक तथा वैक्रियिक मांगोपांग, छह संहनन, वर्ण गंध, रस, स्पर्श, चार आनुपूर्वी अगुरुलघु उपगात, परघात, श्रमस्थावरादि उच्छवास, श्राताप, दो उद्योत, दो विहायोगति, दशयुगल तथा निर्माण इनका मद्भाव पाया जाना है। दो गोत्र, तथा पांच अन्तराय का सद्भाव पाया जाता है |
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स्थिति सत्कर्म तोकोड़ाकोड़ी कहा है । आयु के विषय में उसके प्रायोग्य ही है । "आउत्राणं च तप्पा श्रोग्गय गंतव्त्रं"
( १६९८ ) ।
अनुभाग सत्कम- 'अप्पमत्था कम्माण विवाणियाण भागसंतकम्भिग्रो' – प्रप्रशस्तकर्मों में द्विस्थानिक अनुभागसत्कर्म है । 'पसत्याण' पि पयडीपण चउट्ठाषाण भागसंतकम्मियो" - प्रशस्त प्रकृतियों में चतुःस्थानिक अनुभाग सत्कर्म है।
प्रदेश सत्कर्म – जिन प्रकृतियों का प्रकृतिसत्कर्म है, उनका प्रजधन्य अनुत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म जानना चाहिए ।